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कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (चौथी किस्त)
अन्तरिम सरकार और संविधान सभा
आलोक रंजन
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कैबिनेट मिशन के प्रस्ताव तत्कालीन परिस्थितियों में मुस्लिम लीग को अनुकूल लगे। 6 जून 1946 को उसने ब्रिटिश योजना का अनुमोदन करने के साथ ही अन्तरिम सरकार में भाग लेने की बात भी मान ली, जिसके गठन की घोषणा वायसराय वेवेल ने 16 मई 1946 को की थी। कांग्रेस ने प्रान्तों के अनिवार्य समूहीकरण (तीन मण्डलों में प्रान्तों के साम्प्रदायिक आधार पर वर्गीकरण) का विरोध करते हुए कैबिनेट मिशन और वायसराय के साथ वार्ता का एक और दौर चलाया। लेकिन ब्रिटिश सत्ताधारी अपने प्रस्तावों पर अडिग रहे। अन्तत: सत्ता के लिए आतुर कांग्रेसी नेतृत्व ने घुटने टेक दिये और 24 जून को कैबिनेट मिशन प्रस्तावों को संविधान तैयार करने के आधार के रूप में स्वीकृति दे दी।
कांग्रेस को मिशन की इस योजना पर भी आपत्ति थी कि समूहीकरण शुरू में तो अनिवार्य होगा, किन्तु बाद में संविधान बन जाने और उसके अनुसार नये चुनाव हो जाने के बाद प्रान्तों को उससे अलग हो जाने का अधिकार होगा। संविधान सभा के लिए रियासतों से प्रतिनिधियों के जनता के द्वारा चुनाव के बजाय राजाओं-नवाबों द्वारा मनोनयन पर भी कांग्रेस को एतराज था। अत: 10 जुलाई को कांग्रेस अध्यक्ष नेहरू ने घोषणा की कि कांग्रेस संविधान सभा में भाग लेने के लिए प्रतिबध्द है, लेकिन अन्तरिम सरकार में वह शामिल नहीं होगी। उन्होंने इस बात की भी सम्भावना प्रकट की कि पश्चिमोत्तर सीमाप्रान्त और असम द्वारा मण्डल ‘ब’ और ‘स’ में शामिल किये जाने पर आपत्ति के कारण समूहीकरण की योजना खटाई में भी पड़ सकती है। यह सम्भावना मुस्लिम लीग के लिए घोर आपत्तिजनक थी। कांग्रेस द्वारा अन्तरिम सरकार में शामिल नहीं होने की घोषणा के बाद वायसराय ने सिर्फ लीग द्वारा ऐसी सरकार बनाने की योजना को भी अस्वीकार कर दिया। अंग्रेजों को भय था कि अन्तरिम सरकार से बाहर रहने पर कांग्रेस फिर जनान्दोलन की राह पकड़ सकती है, जो बेकाबू होकर सत्ता-हस्तान्तरण की ब्रिटिश योजना को खटाई में डाल सकती है। जून, 1946 में ऐसे किसी सम्भावित आन्दोलन से निपटने के लिए वे सेना की पाँच डिवीजनें भारत लाने की तैयारी कर रहे थे। लेकिन कांग्रेस का घुटा-घुटाया बुर्जुआ नेतृत्व सत्ता-प्राप्ति की दहलीज पर आकर स्वयं ही ऐसा कोई जोखिम मोल नहीं लेना चाहता था। उतावली उसे थी, लेकिन समझौता-सौदेबाजी के जरिये ही उसे लक्ष्य-सिध्दि करनी थी। अंग्रेजों के आकलन से कहीं अधिक कांग्रेसी नेतृत्व जनान्दोलनों से डरता था।
अकेले अन्तरिम सरकार बनाने का प्रस्ताव अस्वीकार कर दिये जाने के बाद मुस्लिम लीग ने 29-30 जुलाई की कैबिनेट मिशन प्रस्तावों की मंजूरी वापस लेते हुए संविधान सभा में भी भाग लेने से इनकार कर दिया और 16 अगस्त को पाकिस्तान के निर्माण के लिए ‘सीधी कार्रवाई’ के लिए ‘मुस्लिम राष्ट्र’ का आह्नान किया। मुस्लिम लीग द्वारा निर्णायक दबाव बनाने का मुख्य कारण यह था कि उसे अंग्रेजों और कांग्रेस के बीच अन्तरिम सरकार के गठन को लेकर पक रही खिचड़ी की गन्ध लग गयी थी। अंग्रेज ऐसा इसलिए चाहते थे कि उन्हें जनसंघर्षों के प्रचण्ड उभार का भूत सता रहा था। जुलाई में रेलवे की अखिल भारतीय हड़ताल की धमकी मिल चुकी थी और डाक कर्मचारियों की अखिल भारतीय हड़ताल हो भी चुकी थी। पूरे 1946 में 2000 से अधिक संगठित हड़तालें हुईं, जिनमें 20 लाख मजदूरों ने भाग लिया। गाँवों में भी किसान संघर्ष तेजी से आगे बढ़ रहे थे। 31 जुलाई 1946 को भारत सचिव को लिखे गये एक पत्र में वेवेल ने लिखा था कि यदि कांग्रेसी सरकार बना लें तो वे अराजक तत्त्वों और कम्युनिस्टों को दबाने के साथ ही अपने भीतर के वामपन्थी तत्त्वों पर भी नकेल कसेंगे। उसका मानना था कि एक ”उत्तरदायी भारतीय सरकार” मजदूरों से अधिक निर्णायक ढंग से निपटेगी। 5अगस्त तक पूँजीपतियों और कांग्रेस के भीतर के सामन्ती कुलीनों के दबाव में पटेल और उनका दक्षिणपन्थी गुट निश्चय कर चुका था कि हालात बेकाबू होने से बचाने के लिए कांग्रेस को सरकार में शामिल होना ही होगा। फिर गाँधी और नेहरू भी इसी नतीजे पर पहुँचे। 2 सितम्बर को नेहरू के नेतृत्व वाली कांग्रेसी अन्तरिम सरकार को शपथ दिलायी गयी। घुटने टेकते समय लाज बचाते हुए नेहरू ने बयान दिया कि कांग्रेस अभी भी अनिवार्य समूहीकरण के विरुध्द है, लेकिन इस मामले को वह भावी संघीय न्यायालय के हवाले करने को तैयार है।
जिन्ना द्वारा 16 अगस्त को घोषित ‘सीधी कार्रवाई’ का स्वरूप जनान्दोलनात्मक नहीं बल्कि ख़ूनी दंगाई था। दंगों की शुरुआत 16-19 अगस्त के दौरान कलकत्ता से हुई, फिर बम्बई (1 सितम्बर) से होते हुए यह आग पूर्वी बंगाल के नोआखाली (10 अक्टूबर), बिहार (25 अक्टूबर) और संयुक्त प्रान्त के गढ़ मुक्तेश्वर (नवम्बर) तक फैल गयी। मार्च, 1947तक पूरा पंजाब इसकी आग में धू-धू करके जलने लगा। अगस्त तक केवल पंजाब में 5,000 लोग मारे जा चुके थे। लेकिन यह नरसंहार 15 अगस्त 1947 के बाद सीमा के दोनों ओर हुए हिंसा के महाताण्डव के आगे कुछ भी नहीं था जिसमें तकरीबन 1,80,000 लोग मारे गये तथा मार्च 1948 तक 60 लाख मुसलमान और 45 लाख हिन्दू एवं सिख शरणार्थी बन चुके थे।
अगस्त 1946 में दंगों का सिलसिला जब शुरू हुआ, तो नेहरू की अन्तरिम सरकार मानो पंगु होकर इसे देख रही थी। जून’46 तक सम्भावित जनान्दोलन से निपटने के लिए पाँच डिवीजन सेना भारत लाने की योजना बनाने वाली औपनिवेशिक सत्ता हाथ पर हाथ धरे बैठी रही। घटनाक्रम स्पष्ट इंगित करता है कि अंग्रेज इस आग को ज्यादा से ज्यादा भड़कते देखना चाहते थे। अक्टूबर में मुस्लिम लीग भी अन्तरिम सरकार में शामिल हो गयी, लेकिन उसने ‘सीधी कार्रवाई’ की योजना त्यागी नहीं। वह सरकार में भी शामिल रही और दंगे भी जारी रहे। उधर दक्षिणपन्थी हिन्दू प्रतिक्रिया को प्रोत्साहन व संरक्षण देने में कांग्रेस का दक्षिणपन्थी धड़ा भी पीछे नहीं था।
अन्तरिम सरकार में शामिल होने के बावजूद लीग ने संविधान सभा में बैठने से इनकार कर दिया, जिसकी बैठक 9सितम्बर से शुरू होने वाली थी। संविधान सभा के चुनाव जून में हो चुके थे, पर लीग व सिखों के बहिष्कार के कारण उसकी बैठक शुरू होने में देर हुई। लीग द्वारा संविधान सभा के बहिष्कार का भरपूर लाभ उठाते हुए ब्रिटिश सरकार ने भावी संविधान में अनुच्छेदों पर मतदान के क्रम में एक परिवर्तन का सुझाव दिया। वह यह था कि जिन प्रान्तों के अधिकांश प्रतिनिधि संविधान सभा में भाग न ले रहे हों, संविधान उन पर लागू नहीं होगा। यह मुस्लिम लीग के दावों को बल प्रदान करने वाली उपनिवेशवादी साजिश थी, जिसे स्वीकार कर कांग्रेस ने भी विभाजन की पूर्वपीठिका तैयार करने में योगदान किया। लीग की अनुपस्थिति में संविधान सभा की बैठक ने बस एक सामान्य लक्ष्य सम्बन्धी प्रस्ताव पारित किया, जिसमें स्वायत्त इकाइयों और अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा और सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक लोकतन्त्र से युक्त ‘एक स्वतन्त्र सम्प्रभुता सम्पन्न गणतन्त्र’ का आदर्श प्रस्तुत किया गया था। इस आदर्श का अमली रूप आज हमारे सामने है। इस सामान्य लक्ष्य एवं आदर्श के अनुरूप जो संविधान तैयार किया गया, उसकी विवेचना आगे प्रस्तुत की जायेगी। लेकिन इस लोकतान्त्रिक गणराज्य के घोषित आदर्श की असलियत उजागर करने के लिए मात्र एक तथ्य का उल्लेख काफी है कि भारतीय संघ में शामिल होने वाली देशी रियासतों में राजतन्त्र कायम रखने की छूट थी। संविधान सभा में सामान्य लक्ष्य-सम्बन्धी जो उपरोक्त प्रस्ताव पारित हुआ था, वह कांग्रेस के मेरठ अधिवेशन (नवम्बर 1946) में पारित राजनीतिक दिशा के अनुरूप था।
संविधान-विषयक कांग्रेसी विश्वासघात को उजागर करने के लिए एक तथ्य को याद दिलाना जरूरी है। मेरठ अधिवेशन में’सब्जेक्ट्स कमेटी’ की बैठक में बोलते हुए जवाहरलाल नेहरू ने वायदा किया था कि आजादी मिल जाने के बाद सार्विक वयस्क मताधिकार पर आधारित एक नयी संविधान सभा बुलायी जायेगी (एस. गोपाल सम्पादित ‘सेलेक्टेड वर्क्स ऑफ जवाहरलाल नेहरू’, खण्ड1, पृ. 19)। लेकिन तमाम वायदों की तरह यह वायदा भी भुला दिया गया। इसके बाद कांग्रेस ने कभी भी सार्विक वयस्क मताधिकार आधारित संविधान सभा बुलाने की बात नहीं की। जनवरी, 1947 में ही कांग्रेस ने संविधान सभा में देशी रियासतों के प्रतिनिधित्व के बारे में राजाओं से वार्ता के लिए एक विशेष समिति बनायी। वार्ता के बाद यह समझौता हुआ कि रियासतों के आधे प्रतिनिधि राजाओं द्वारा मनोनीत होंगे और आधे निर्वाचित होंगे। इसकी पृष्ठभूमि में तेभागा, पुनप्रा-वायलार, तेलंगाना के अतिरिक्त कश्मीर, राजपूताना और मध्य भारत की कई रियासतों में जारी सामन्तवाद-विरोधी जनसंघर्ष थे, जिनके चलते सामन्ती शासक इस समझौते के लिए बाध्य हुए थे।
लीग और कांग्रेस की मिली-जुली अन्तरिम सरकार के अनुभवों से साफ होता जा रहा था कि सत्ता-लिप्सा और सौदेबाजी की राजनीति का रास्ता देश के विभाजन की ओर तेजी से बढ़ रहा था। वायसराय से मिलने से पहले की जाने वाली नेहरू की अनौपचारिक कैबिनेट बैठकों का लीग बहिष्कार करती थी। लीगी वित्तमन्त्री लियाकत अली ख़ान ने फरवरी 1947 में प्रस्तुत बजट में बड़े उद्योगपतियों पर भारी टैक्स लगाकर कांग्रेस पर भारी चोट की थी। ये बड़े उद्योगपति कांग्रेस के मुख्य समर्थक थे और उनके हितों पर चोट वह कतई बर्दाश्त नहीं कर सकती थी। इसके बजाय वह देश के विभाजन को चुनना बेहतर समझती, इसे लीग भी समझती थी और अंग्रेज भी। नोआखाली, कलकत्ता, बिहार और पंजाब के दंगों के बाद बहुतेरे कांग्रेसियों के धर्मनिरपेक्ष आदर्श काफूर होने लगे थे और दक्षिणपन्थी कांग्रेसी धड़े का सांगठनिक आधार बहुत मजबूत हो गया था। नेहरू को किसी भी हालत में सत्तासीन होने की जल्दी थी। मजदूरों-किसानों के जुझारू वर्ग-संघर्षों और कम्युनिज्म की लहर से वे भी किसी अन्य बुर्जुआ नेता से कम आतंकित नहीं थे। अपने धर्मनिरपेक्ष आदर्शों को लेकर वे इस हद तक जाने को तैयार नहीं थे कि साम्राज्यवाद-विरोधी जुझारू जनसंघर्ष का रास्ता चुन लेते। गाँधी इस दौर में एक ईमानदार बुर्जुआ मानवतावादी की तरह दंगों की लहर और विभाजन का विरोध कर रहे थे। पर उनकी स्थिति अब बुर्जुआ वर्ग के राजनीतिक प्रतिनिधि, सिध्दान्तकार और रणनीति-निर्माता की नहीं रह गयी थी। उनके ‘हिन्द स्वराज’ व ‘ग्राम स्वराज’ के यूटोपिया की जरूरत भारतीय बुर्जुआ वर्ग को तभी तक थी, जब तक अंग्रेजों पर दबाव बनाने के लिए व्यापक किसान जनता व शहरी मध्यवर्ग के आन्दोलनों की जरूरत थी। अब बुर्जुआ वर्ग को गाँधी की नहीं, बल्कि नेहरू और पटेल की जरूरत थी। नतीजतन, गाँधी, एक जीवित मूर्ति बनाकर किनारे लगा दिये गये थे। साम्प्रदायिक दंगों और मिली-जुली सरकार की अव्यावहारिकता के चलते न केवल बहुसंख्यक कांग्रेसी अब विभाजन को एकमात्र विकल्प मानने लगे थे, बल्कि पंजाब और बंगाल के हिन्दू और सिख सम्प्रदायवादी भी अब पुरजोर तरीके से विभाजन का समर्थन करने लगे थे।”सौदेबाजी, समझौतों और अन्तरिम सरकारें चलाने की बुर्जुआ राजनीति की यह तार्किक परिणति थी कि देश-विभाजन की उपनिवेशवादी साजिशें लगातार कामयाबी की ओर अग्रसर थीं। पहले भी यह चर्चा की जा चुकी है कि केवल साम्राज्यवाद-विरोधी सामन्तवाद-विरोधी जुझारू जनसंघर्ष ही साम्प्रदायिकता की राजनीति को निर्मूल कर सकते थे, पर कांग्रेस का बुर्जुआ नेतृत्व इस रास्ते को चुनने के लिए कतई तैयार नहीं था। इस दौर के बारे में इतिहासकार सुमित सरकार ने लिखा है :”…इतना तो कहा जा सकता है कि एकमात्र विकल्प साम्राज्यवाद एवं इसके भारतीय मित्रों के विरुध्द संयुक्त और जुझारू जनसंघर्ष का ही मार्ग था, यह ऐसी बात थी जिससे, जैसाकि हमने बार-बार देखा, अंग्रेज सचमुच डरते थे। दंगों द्वारा स्पष्ट रूप से बाधित होने के बावजूद यह सम्भावना 1946-47 की शीत ऋतु तक भी पूर्णत: समाप्त नहीं हुई थी। अगस्त के दंगों के पाँच महीनों बाद, 21 जनवरी 1947 को कलकत्ता के विद्यार्थी फिर से सड़कों पर निकल आये थे और ‘वियतनाम से दूर रहो’ वाले प्रदर्शन में फ्रांसीसी विमानों द्वारा दमदम हवाई अड्डे का उपयोग किये जाने का विरोध कर रहे थे। इसी दिन कम्युनिस्ट नेतृत्व में हुई अत्यन्त संगठित, और अन्त में विजयी, 85 दिन की ट्राम हड़ताल में लगता था कि समस्त साम्प्रदायिक भेदभाव भुला दिये गये हैं। इसके शीघ्र बाद ही बन्दरगाह के कर्मचारियों और हावड़ा के इंजीनियरिंग कामगारों ने भी हड़तालें कीं। वस्तुत: जनवरी और फरवरी में तो हड़तालों की नयी लहर-सी आ गयी थी। कानपुर की कपड़ा मिलों में1,00,000 लोग हड़ताल पर थे, कोयला रोक देने की धमकी दी गयी थी, और कोयम्बटूर, कराची और अन्य स्थानों पर भी”मुख्यत: कम्युनिस्ट आन्दोलन” के कारण हड़तालें हुईं (वेवेल द्वारा श्रम मन्त्री जगजीवन राम का हवाला, 14 जनवरी 1947,वायसरायेज जर्नल, पृ. 410)। 18 जनवरी को बिड़ला ने गाँधीजी के सचिव प्यारेलाल से शिकायत की – ”हर जगह हड़तालें हो रही हैं… हर कोई अधिक पारिश्रमिक और कम काम करना चाहता है” (जी.डी. बिड़ला, बापू, खण्ड1, पृ. 434)। तथापि ये हड़तालें शुध्द रूप से आर्थिक माँगों पर आधारित थीं, कमी थी तो पर्याप्त प्रभावी एवं दृढ़ संकल्प वाले राजनीतिक नेतृत्व की।” (आधुनिक भारत, पृ. 460)।
जाहिर है कि जनसंघर्षों की कड़ियाँ पिरोकर एक देशव्यापी साम्राज्यवाद-विरोधी जनउभार की स्थितियाँ निर्मित करने की जिम्मेदारी कांग्रेस का बुर्जुआ नेतृत्व नहीं निभा सकता था। उसका समझौतापरस्त चरित्र अब तक साफ होकर सामने आ चुका था। त्रासद विडम्बना यह थी कि शुरू से ही विचारधारात्मक कमजोरियों से ग्रस्त और ग़ैर-बोल्शेविक ढाँचे एवं कार्यप्रणाली वाली कम्युनिस्ट पार्टी भी इस दिशा में आगे बढ़कर पहल ले पाने की स्थिति में नहीं थी। पी.सी. जोशी की दक्षिणपन्थी भटकाव की लाइन ने लगभग एक दशक के दौरान पार्टी की रही-सही निर्णायकता और जुझारूपन को काफी हद तक क्षरित-विघटित कर दिया था।
बात तब और स्पष्ट हो जाती है, जब हम 1946-48 के किसान संघर्षों के देशव्यापी परिदृश्य पर नजर डालते हैं। तब ऐसा प्रतीत होता है कि ऐतिहासिक संक्रमण के उस दौर में किसान जनसमुदाय भूमि-क्रान्ति को आगे गति देते हुए उपनिवेशवाद की रीढ़ तोड़ देने के लिए तैयार था और देश के कई इलाकों में लोकयुध्द की शुरुआत हो सकती थी। ग्रासरूट स्तर पर कम्युनिस्ट संगठनकर्ता ही किसान संघर्षों को नेतृत्व दे रहे थे, पर शीर्ष नेतृत्व के पास उन्हें जोड़कर देश-स्तर पर किसान छापामार संघर्षों और साम्राज्यवाद-विरोधी देशव्यापी जन-विद्रोह की कोई योजना ही नहीं थी। यूँ कहें कि संकल्पशक्ति ही नहीं थी। इस ऐतिहासिक अवसर को चूकने के बाद पार्टी के विपथगमन की प्रक्रिया और तेज हो गयी। रही-सही कोर-कसर 1948-50 के दौरान नये महासचिव बी.टी. रणदिवे की ”वामपन्थी” भटकावग्रस्त लाइन ने पूरी कर दी। और फिर 1951 से तो पूरी पार्टी ही एक संसदीय वामपन्थी पार्टी बन गयी।
तेभागा, पुनप्रा-वायलार और तेलंगाना
जिस समय कांग्रेस के नेता सत्ता पाने की बेकली में लगातार सौदेबाजियों में मशग़ूल थे और विभाजन का साम्राज्यवादी कुचक्र तेजी से सफलता की दिशा में बढ़ रहा था, साम्प्रदायिक विनाशलीला उफान पर थी और भारतीय बुर्जुआ वर्ग के राजनीतिक प्रतिनिधि लाशों पर से गुजरकर सत्तासीन होने को बेताब थे, उस समय तेलंगाना, आन्ध्र, केरल, बंगाल, पंजाब,उत्तर प्रदेश और कई अन्य क्षेत्रों में कम्युनिस्ट नेतृत्व में भूमि-संघर्ष उफान पर थे। इनमें तेलंगाना, तेभागा और पुनप्रा-वायलार के किसान-संघर्ष इतिहास प्रसिध्द हैं।
बंगाल का तेभागा आन्दोलन असामी काश्तकारों और बटाईदारों (बरगादारों और अधियारों) का आन्दोलन था। उनकी माँग थी कि जोतदारों को दी जाने वाली लगान उपज का एक तिहाई होनी चाहिए। जंगल के आग की तरह यह आन्दोलन सितम्बर 1946 से शुरू होकर जल्दी ही बंगाल के 11 जिलों में फैल गया। कलकत्ता और नोआखाली के दंगों के बावजूद इसमें हिन्दू-मुसलमान बरगादारों-अधियारों ने एक साथ मिलकर हिस्सा लिया। पुलिस की ताजीरी टुकड़ियों और जमींदारों के गुण्डों के ख़िलाफ जल्दी ही किसानों ने छापामार संघर्ष की राह पकड़ ली। इसमें भाग लेने वाले किसानों की संख्या 50लाख तक जा पहुँची। आग पर पानी के छींटे मारने के लिए, बंगाल की मुस्लिम लीग सरकार ने बरगादार विधेयक प्रस्तुत किया (जो 1950 में जाकर ही कानून बन सका और वह भी प्रभावी ढंग से कभी लागू नहीं हुआ)। यह चाल भी जब काम न आयी तो फरवरी 1947 में उसने जबरदस्त दमन-चक्र चलाया। 49 किसान शहीद हुए, हजारों घायल हुए और गाँवों में बर्बर पुलिस अत्याचार हुए। ग़ौरतलब है कि कांग्रेसियों ने लीग सरकार के इस दमनचक्र पर चूँ तक की आवाज नहीं निकाली। किसान प्रतिरोध के लिए हथियारों की माँग कर रहे थे, पर कम्युनिस्ट पार्टी सशस्त्र संघर्ष के लिए तैयार ही नहीं थी। अन्तत: मार्च तक आते-आते उतार के दौर की शुरुआत हो चुकी थी। 27 मार्च को कलकत्ता में नये सिरे से दंगे शुरू होने और 28 मार्च को हिन्दू महासभा द्वारा बंगाल विभाजन के लिए आन्दोलन शुरू किये जाने के बाद तेभागा आन्दोलन का पटाक्षेप सुनिश्चित हो गया।
पुनप्रा और वायलार उत्तरी-पश्चिमी त्रावणकोर के शेरतलाई-अलेप्पी-अम्बालपुझा क्षेत्र के दो गाँव हैं जिन्हें शौर्यपूर्ण किसान संघर्षों के दौरान हुई शहादतों ने अमर बना दिया। इस क्षेत्र में 1946 में कम्युनिस्टों ने नारियल के रेशों का काम करने वाले कामगारों, मछुआरों और खेतिहर मजदूरों में सशक्त आधार बना लिया था। मजदूर-किसान संयुक्त मोर्चे का एक शानदार उदाहरण वहाँ तैयार हुआ था। मेहनतकशों ने एकता के बल पर कई उपलब्धियाँ हासिल कर ली थीं। इसी बीच त्रावणकोर रियासत का दीवान रामास्वामी अय्यर अंग्रेजों के चले जाने के बाद स्वयं अपने नियन्त्रण में स्वतन्त्र त्रावणकोर की महत्तवाकांक्षी योजना बना रहा था। स्थानीय कांग्रेसी नेतृत्व कम्युनिस्ट नेतृत्व वाले मजदूर-किसान आन्दोलन का धुर विरोधी था और दीवान के साथ समझौतावादी रुख़ अपना रहा था। लेकिन कम्युनिस्ट नेतृत्व ने दीवान के मंसूबों के विरुध्द प्रचण्ड जनान्दोलन छेड़ दिया। रियासत की सरकार ने बर्बर दमन-चक्र चलाया। आत्मरक्षा की दृष्टि से सताये गये कामगारों के शिविरों में कम्युनिस्ट स्वयंसेवकों ने थोड़ा सैन्य प्रशिक्षण भी देना शुरू किया। 22 अक्टूबर को अलेप्पी-शेरतलाई क्षेत्र में एक राजनीतिक आम हड़ताल की शुरुआत हुई। दो दिन बाद पुनप्रा गाँव के पुलिस कैम्प पर किसान-मजदूर स्वयंसेवक दस्तों ने हमला करके हथियार छीन लिये। 25 अक्टूबर को मार्शल ला लागू होने के बाद स्वयंसेवकों के मुख्यालय पर सेना ने हमला बोला। पुनप्रा-वायलार के संक्षिप्त ख़ूनी विद्रोह में करीब 800 लोग मारे गये। लोग फिर भी लड़ने को तैयार थे, पर कम्युनिस्ट पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व के पास वस्तुत: ऐसी कोई योजना थी ही नहीं। बर्बर सैन्य दमन ने इस आन्दोलन को कुचल दिया, लेकिन इसी का नतीजा था कि कांग्रेस और दीवान के बीच कोई समझौता नहीं हो सका। दीवान रामास्वामी अय्यर भी समझ गया कि स्वतन्त्र त्रावणकोर का मंसूबा मेहनतकश जनता साकार नहीं होने देगी और वह भारत में त्रावणकोर के विलय के लिए तैयार हो गया।
तेलंगाना किसान संघर्ष का फलक तेभागा और पुनप्रा-वायलार से काफी बड़ा था। जुलाई 1946 से अक्टूबर 1951 के बीच तेलंगाना में आधुनिक भारतीय इतिहास का सबसे बड़ा किसान छापामार संघर्ष हुआ। अपने चरम पर, इस सशस्त्र किसान संघर्ष ने कुल 3,000 गाँवों के 16,000 वर्गमील क्षेत्र को मुक्त करा लिया था जिसकी आबादी करीब 30 लाख थी। लगभग डेढ़ वर्षों तक इस क्षेत्र की सारी शासन व्यवस्था किसानों की गाँव कमेटियों के हाथों में थी। हैदराबाद के आसफजाही निजामों के सामन्ती शासन के अन्तर्गत तेलंगाना के निम्न जातियों के व आदिवासी समुदायों के किसान ‘डोरों’ (जमींदारों),देशमुखों और जागीरदारों के बर्बर शोषण-उत्पीड़न के शिकार थे। कम्युनिस्टों ने युध्द के दौरान ही राशन की दुर्व्यवस्था,बेगार (वेट्टी), लगान आदि विविध स्थानीय मसलों को ‘आन्ध्र महासभा’ के बैनर तले उठाते हुए ग़रीबों में व्यापक आधार बना लिया था। विद्रोह की शुरुआत जुलाई 1946 में विशनूर के अत्याचारी देशमुख के ख़िलाफ हुई जो जल्दी ही पूरे तेलंगाना में फैल गयी। 1947 के प्रारम्भ से नियमित सशस्त्र छापामार दस्ते बनाये जाने लगे। अपने चरम काल में इसमें10,000 ग्राम रक्षा स्वयंसेवक और नियमित दस्तों के 2000 सदस्य थे। अगस्त 1947 से सितम्बर 1948 के बीच का समय संघर्ष के चरमोत्कर्ष का काल था। छापामारों के नियन्त्रण के क्षेत्रों में इस दौरान भूमि पुनर्वितरण के अतिरिक्त सामाजिक-सांस्कृतिक बदलाव की दिशा में भी महत्त्वपूर्ण कोशिशें हुईं। लेकिन इस संघर्ष को आगे ले जाने और देशव्यापी राष्ट्रीय जनवादी मुक्ति संघर्ष की कड़ी बनाने के बारे में कम्युनिस्ट पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व की कोई सुचिन्तित-सुसंगत नीति थी ही नहीं। फरवरी-मार्च 1948 की दूसरी पार्टी कांग्रेस में दक्षिणपन्थी पी.सी. जोशी की जगह बी.टी. रणदिवे पार्टी महासचिव बने, जिन्होंने किसान छापामार युध्दों के क्षेत्रों के निर्माण एवं फैलाव तथा उन्हें शहरी जनउभारों से जोड़ने की सुसंगत नीति के बजाय, जनवादी और समाजवादी क्रान्ति की मंजिलों को मिला देने की थीसिस दी तथा देश-भर में सशस्त्र आम विद्रोह का आह्नान किया। इस विनाशकारी ”वाम”-चरमपन्थी लाइन ने पूरे कम्युनिस्ट आन्दोलन और तेलंगाना किसान संघर्ष को भारी नुकसान पहुँचाया। यह अतिवामपन्थी लाइन वस्तुत: दक्षिणपन्थी भटकाव के लम्बे दौर की एक अतिरेकी प्रतिक्रिया थी। मई 1948 में कम्युनिस्ट पार्टी की आन्ध्र इकाई ने रणदिवे की लाइन का विरोध करते हुए चीनी क्रान्ति की आम दिशा के अनुरूप गाँवों में छापामार संघर्ष के जरिये अलग-अलग क्षेत्रों में आधारक्षेत्रों के विकास की लाइन रखी। पर रणदिवे गुट के रहते इस लाइन पर अमल सम्भव नहीं था। तेलंगाना में आन्ध्र कमेटी की लाइन पर काम शुरू हुआ,किन्तु सितम्बर 1948 में भारतीय सेना ने हैदराबाद में प्रवेश किया। निजाम के आत्मसमर्पण के बाद, 50-60 हजार की संख्या और उन्नत हथियारों वाली भारतीय सेना ने कम्युनिस्ट छापामारों के विरुध्द युध्द छेड़ दिया। गाँवों में बर्बर अमानुषिक दमन का ताण्डव हुआ और अन्तत: छापामार दूरवर्ती जंगलों में बिखर गये। चूँकि ऐसे छापामार संघर्षों के कई इलाके विकसित करने की कोई केन्द्रीय पार्टी नीति नहीं थी और आन्ध्र कमेटी के अलग-थलग पड़ जाने के कारण पीछे हटने, बिखर जाने और छापामार संघर्ष के नये दौर की तैयारी की कोई केन्द्रीय योजना नहीं थी, अत: तेलंगाना संघर्ष को अन्तत: त्रासद पराजय और ख़ून के दलदल में धकेल दिया गया था। अपनी ही जनता का बर्बर सैनिक दमन करके नेहरू की सरकार ने अपना वर्ग-चरित्र उघाड़कर रख दिया। पीछे हटने व बिखरने के बावजूद 1950-51 तक छापामार कार्रवाइयाँ जारी रहीं। छापामारों का अन्तिम मोर्चा गोदावरी का वन्य प्रदेश था। मई-जून 1950 में रणदिवे की लाइन की पराजय के बाद कुछ समय के लिए राजेश्वर राव पार्टी महासचिव बने और पार्टी ने आन्ध्र लाइन को आधिकारिक लाइन के तौर पर स्वीकार किया। लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी। ग़लत लाइन के चलते संघर्ष के देशव्यापी विस्तार की सम्भावनाओं का गला घोंटा जा चुका था और नयी बुर्जुआ सत्ता को सुदृढ़ीकरण के लिए तीन वर्षों का समय मिल चुका था। संविधान पारित हो चुका था और पहले आम चुनाव की तैयारियाँ हो रही थीं। कम्युनिस्ट पार्टी संक्रमणकाल का लाभ उठाने का ऐतिहासिक अवसर खो चुकी थी और अब बुर्जुआ संसदीय दायरे में काम करने वाली संशोधनवादी पार्टी बन चुकी थी। विचलन विचारधारा से प्रस्थान बन चुका था। पर यह एक अलग कहानी है। हम अपनी मूल चर्चा पर वापस लौटते हैं।
1946 में कांग्रेस और लीग अंग्रेजों से सौदेबाजी करते हुए जब देश के विभाजन का ब्लू प्रिण्ट तैयार कर रहे थे और संविधान सभा में बैठे 11.5 प्रतिशत लोगों के प्रतिनिधि जब बुर्जुआ शासन-विधान की दिशा एवं स्वरूप तय करने की मशक्कतों में मशग़ूल थे, उस समय तेभागा, तेलंगाना, पुनप्रा- वायलार के अतिरिक्त देश के कई अन्य क्षेत्रों में किसानों के उग्र संघर्ष जारी थे।
1945 के बाद से ही शामराव और गोदावरी पारुलेकर जैसे कम्युनिस्ट कार्यकर्ता ठाणे जिले के वरली आदिवासियों के बीच काम कर रहे थे और कई सफल आन्दोलनों का उन्होंने नेतृत्व किया था। पंजाब में लायलपुर जिले में असामी काश्तकार किसान सभा के नेतृत्व में लगान घटाने और किसानों के ऋणपत्रों के स्थगन के लिए संघर्ष कर रहे थे। संयुक्त प्रान्त में प्रचण्ड संघर्ष बस्ती और बलिया जिलों में चला जहाँ असामी काश्तकार जमींदारों द्वारा भूमि-सुधार की पेशबन्दी के लिए शुरू की गयी व्यापक बेदख़लियों के ख़िलाफ मैदान में आ गये। जम्मू-कश्मीर में भी नेशनल कांप्रफेंस के नेतृत्व में किसानों द्वारा लगान और ऋण की अदायगी न करने का जनान्दोलन राजा की सत्ता को चुनौती देने वाला संघर्ष बन चुका था।
सार-संक्षेप यह कि जिस समय कांग्रेसी नेता कुलीन जनों और सामन्ती शासकों के प्रतिनिधियों के साथ भावी भारत के संविधान की तैयारी पर गहन वार्ताओं में निमग्न थे और अपने-अपने हितों को लेकर उपनिवेशवादियों और देशी बुर्जुआ वर्ग के बीच समझौतों-सौदेबाजियों का गहन दौर जारी था; जिन दिनों ‘बाँटो और राज करो’ की उपनिवेशवादी नीति की चरम परिणति के तौर पर साम्प्रदायिक दंगों का रक्त-स्नान जारी था और सत्ता के लिए आतुर कांग्रेस न केवल यह भारी कीमत चुकाने को तैयार थी बल्कि किसी हद तक वह इसके लिए जिम्मेदार भी थी; ठीक उन्हीं दिनों भारत के बहुसंख्यक मजदूर, किसान और आम मध्यवर्गीय नागरिक जुझारू संघर्षों की उत्ताल तरंगों के बीच थे। अगस्त, 1947 के पहले कांग्रेस और लीग के नेता नौसेना विद्रोह, मजदूरों के आन्दोलनों और किसानों के संघर्षों के दमन के प्रश्न पर उपनिवेशवादियों के साथ थे। अगस्त, 1947 के बाद कांग्रेसी सत्ता जन-संघर्षों के दमन में उपनिवेशवादियों से एक कदम भी पीछे नहीं थी। तेलंगाना किसान संघर्ष के बर्बर सैनिक दमन को कभी भुलाया नहीं जा सकता।
संविधान-निर्माण के इस कालखण्ड का राजनीतिक घटना-प्रवाह भी अपने-आप में इस बात का गवाह था कि भावी भारत का संविधान कितना जनोन्मुखी होगा और इसके आधार पर जो लोकतन्त्र कायम होगा वह वास्तव में कैसा लोकतन्त्र होगा!
(अगले अंक में : माउण्टबेटन योजना, विभाजन और आजादी, भारतीय संविधान की निर्माण-प्रक्रिया)
बिगुल, जून 2010
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