किसानी के सवाल पर कम्युनिस्ट दृष्टिकोण पर बहस: एक पत्र और उसका सम्पादकीय उत्तर

छोटे-मँझोले किसानों को कम्युनिस्ट किन माँगों पर साथ लेंगे

एक कार्यकर्ता, रुद्रपुर (ऊधमसिंह नगर)

पूँजीवादी खेती के संकट और छोटे-मँझोले किसानों के सवाल पर ‘बिगुल’ के जनवरी अंक में सम्पादकों के दृष्टिकोण के बारे में पढ़ा।

‘बिगुल’ का सम्पादक-मण्डल और कामरेड नीरज और कामरेड सुखदेव जैसे लोग मुझे मार्क्सवाद की किताबी समझ से ग्रस्त प्रतीत होते हैं। आपकी लाइन का तो कुल नतीजा यही निकलेगा कि छोटे मिल्की किसान भी क्रान्ति से दूर भाग जायेंगे। यह बात भी मुश्किल से ही किसी के गले के नीचे उतरेगी कि क़र्ज़ के बोझ से लदे और अपनी फ़सल की लागत तक न निकाल पाने के चलते तबाही की दहलीज़ पर खड़े बड़े किसान मेहनतकशों के दुश्मन और पूँजीपतियों के दोस्त हैं। बड़े किसानों को छोड़ भी दें, तो यदि आप छोटे और मँझोले किसानों को भी सिर्फ़ यही बताते रहेंगे कि पूँजीवाद के अन्तर्गत उनकी तबाही लाज़िमी है और इसलिए वे समाजवाद के हिमायती बन जायें, तो क्या वे आपके साथ आ जायेंगे? ऐसा तो कोई शेखचिल्ली ही सोच सकता है। यह तो बताइये जनाब कि समाजवाद के प्रचार के ‘स्ट्रेटेजिक’ कार्यक्रम के अतिरिक्त छोटे और मँझोले किसानों के लिए आप आम ‘टैक्टिकल’ नारे क्या देंगे और उसे सीधे समझ आने वाली और उसके वर्ग-हित के अनुकूल लगने वाली प्रत्यक्ष, ठोस माँगें क्या होंगी। गाँवों में कम्युनिस्ट, छोटे-मँझोले मिल्की किसानों का आन्दोलन किन माँगों पर संगठित करेंगे? क्या इस मुद्दे पर आप अपना नज़रिया साफ़ करेंगे?

छोटे-मँझोले किसान किन माँगों पर लड़ेंगे? मज़दूर आन्दोलन के साथ वे कैसे आयेंगे? उनकी ठोस, तात्कालिक माँगें क्या होंगी?

बिगुल सम्पादक-मण्डल

किसी साथी ने रुद्रपुर से पत्र भेजकर यह सवाल उठाया है कि समाजवाद के प्रचार एवं शिक्षा के अतिरिक्त गाँवों के छोटे और मँझोले किसानों के आन्दोलन संगठित करने के लिए ठोस कार्यक्रम और नारे क्या होंगे?

यह एक निहायत ज़रूरी सवाल है। यह स्पष्ट कर दें कि ‘बिगुल’ के जनवरी अंक में किसानी के सवाल पर सही कम्युनिस्ट दृष्टिकोण के प्रश्न पर विचार करते हुए हमने मुख्यतः लागत मूल्य कम करने की माँग और लाभकारी मूल्य की माँग की चीरफ़ाड़ करने का काम किया था, क्योंकि मुख्यतः यही वह भारतीय नरोदवादी छुतही बीमारी है जो पूरे कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन में फ़ैली हुई है। इस नरोदवादी बीमारी का एक और लक्षण है गाँव की भूमिहीन सर्वहारा-अर्द्धसर्वहारा आबादी में (पट्टे बाँटने जैसी माँगें उठाकर) ज़मीन की भूख जगाना और उन्हें मिल्की मानसिकता देने की उलटी दिशा में ले जाना। इसके बारे में भी मार्क्सवादी दृष्टिकोण एकदम साफ़ है। इन्हीं नरोदवादी भटकावों को स्पष्ट करते हुए हमने बताया था कि सर्वहारा वर्ग के हरावल दस्ते गाँव के छोटे-मँझोले किसानों को लगातार यह बताते हैं कि उनकी पूँजीवादी तबाही को रोकने का एकमात्र रास्ता समाजवाद ही हो सकता है। वे बताते हैं कि पूँजी की ताक़त से बड़े मालिक छोटे मालिकों को तबाह करेंगे ही। इस प्रक्रिया को थोड़ा टालकर लम्बा करना दुखदायी ही होगा। वे उन्हें यह भी बताते हैं कि विभिन्न रूपों में सरकारी रियायतें हासिल करके भी वे अपनी क्रमिक तबाही को रोक नहीं सकते और पूँजीवाद के अन्तर्गत यदि वे सहकारी खेती भी संगठित करें तो उसका लाभ सिर्फ़ बड़े भागीदारों को ही मिलेगा तथा छोटे भागीदारों की तबाही लाज़िमी है। अपनी-अपनी वर्ग-स्थिति के अनुरूप छोटे मालिक किसान इस बात को जल्दी समझते हैं, जबकि मँझोले मालिक किसान देर से समझते हैं और उनका एक हिस्सा ही समझता है और समझने वालों का भी एक बड़ा हिस्सा ढुलमुल बना रहता है। कम्युनिस्ट गाँव के ग़रीबों को लगातार यह बताते हैं कि ज़मीन के एक छोटे से टुकड़े का मालिक बनकर वे शोषण-उत्पीड़न भरे दुर्दिन से मुक्त नहीं हो सकते। उन्हें फि़र भी ज़िन्दगी की न्यूनतम ज़रूरतों के लिए उजरती गुलामी करनी ही पड़ेगी। इसलिए उन्हें मज़दूरी के सवाल पर और मज़दूरों के तमाम जनवादी एवं नागरिक अधिकारों के सवाल पर लड़ते हुए, शहरी मज़दूर वर्ग के साथ एका मज़बूत करना चाहिए और समाजवाद की लड़ाई में पूरी जनता की अगुवाई करनी चाहिए।

चूँकि यह कम्युनिस्ट प्रचार एवं शिक्षा ज़िन्दगी की सच्चाइयों से मेल खाती है, चूँकि पूँजीपतियों और बड़े किसानों के हाथों तबाही और दिन-रात हाड़ गलाने पर भी नतीजा वही ‘ढाक के तीन पात’ की स्थिति को छोटे-मँझोले मालिक किसान महसूस करते हैं, इसलिए जब कम्युनिस्ट कार्यकर्ता इस स्थिति का, (और इसके आगे की स्थिति का भी) बुनियादी तर्क उन्हें बताते हैं तो बात उन्हें धीरे-धीरे जँचने लगती है।

प्रचार और शिक्षा की इस कार्रवाई को कम्युनिस्ट उपदेशकों-अध्यापकों के अन्दाज़ में नहीं चलाते। रोज़मर्रा की ज़िन्दगी के मुद्दों पर रुटीनी संघर्षों और आन्दोलनात्मक कार्रवाइयों के दौरान इसे अंजाम दिया जाता है। गाँवों की आम आबादी के सामने नागरिक एवं जनवादी अधिकारों के अपहरण, नौकरशाही-नेताशाही के भ्रष्टाचार, पुलिसिया दमन आदि से जुड़ी समस्याएँ शहर की आम आबादी के मुक़ाबले बहुत अधिक होती हैं। बुनियादी सुविधाओं (शिक्षा-स्वास्थ्य सुविधाएँ, पेयजल की सुविधा आदि-आदि के अनगिनत मुद्दे होते हैं, जिन पर संगठित होने के अभाव में गाँव की आम आबादी लड़ नहीं पाती। इन अगणित मुद्दों को गिनाना न यहाँ सम्भव है, न ही ज़रूरी। इन तमाम मुद्दों पर, एक कम्युनिस्ट संगठनकर्ता गाँव के मज़दूरों से लेकर छोटे-मँझोले मिल्कियों तक के रोज़मर्रा के संघर्ष संगठित करता है, उनकी वर्गीय एकजुटता को मज़बूत बनाता है और स्वयं उनके साथ गहरे विश्वास का रिश्ता बनाता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि इस प्रक्रिया में एक कुशल कम्युनिस्ट संगठनकर्ता सुधार के बहुतेरे काम भी हाथ में लेता है। वह मज़दूर और ग़रीब-मध्यम किसान घरों के नौजवानों को साथ लेकर युवा संगठन बनाता है, खेलकूद-पुस्तकालय-वाचनालय-सांस्कृतिक टोली आदि संगठित करता है और इस प्रक्रिया में जनता के विभिन्न वर्गों की वर्गीय एकजुटता के आधार को परोक्ष रूप से पुख़्ता बनाने के साथ ही युवाओं के बीच से सीधे क्रान्तिकारी भर्ती के काम को भी आगे बढ़ाता है (और इस बात पर भी विशेष ध्यान देता है कि इन्हीं ग़रीब युवाओं के बीच से एक बड़ा हिस्सा रोज़ी-रोटी के लिए गाँव छोड़ने के बाद, शहरी सर्वहाराओं की जमात में शामिल होता रहता है)।

इतनी पृष्ठभूमि स्पष्ट करने के बाद हम अपने मूल प्रश्न पर वापस लौट सकते हैं। आखि़रकार वे कौन-सी ठोस माँगें होंगी, जिन पर गाँव के छोटे-मँझोले मालिक किसानों को संगठित किया जायेगा? उन्हें बड़े मालिक किसानों से अलग करके मेहनतकशों के पक्ष में खड़ा करने के लिए, समाजवादी प्रचार एवं शिक्षा के अतिरिक्त, आन्दोलन के ठोस मुद्दे क्या होंगे?

सबसे पहले, इस बात पर स्पष्ट हो लेना ज़रूरी है कि भूमि-सम्बन्धों में पूँजीवादी बदलाव के बाद (चाहे वह जिस रास्ते से भी हो और जिस रूप में भी हो), गाँव की आम आबादी और शहर की आम आबादी की बुनियादी माँगों के बीच, ग्रामीण मध्य वर्ग और शहरी मध्य वर्ग की बुनियादी माँगों के बीच, तथा ग्रामीण और शहरी मज़दूरों की बुनियादी माँगों के बीच, काफ़ी हद तक की एकरूपता आ जाती है और व्यापक आबादी के व्यापक आन्दोलनों के लिए ज़्यादा अनुकूल वस्तुगत आधार तैयार हो जाता है। साथ ही, गाँव की आम जनता का शोषण-उत्पीड़न शहरों के मुक़ाबले और अधिक बढ़ जाता है और उसके राजनीतिक अधिकारों (नागरिक एवं जनवादी अधिकारों) का अपहरण एवं दमन भी ज़्यादा बड़े पैमाने पर होता है, जिन्हें मुद्दा बनाकर आन्दोलन संगठित करना कम्युनिस्ट संगठनकर्ताओं की एक अहम ज़िम्मेदारी होती है।

1. कम्युनिस्ट संगठनकर्ता गाँव के छोटे और मँझोले किसानों को इस माँग पर लामबन्द करता है कि सभी क़िस्म के परोक्ष करों को पूरी तरह से मंसूख कर दिया जाना चाहिए। बहुत कम आम लोग इस सच्चाई से परिचित हैं कि कारख़ानेदारों, व्यापारियों और चल-अचल सम्पत्ति वाले धनी लोगों पर आय कर, सम्पत्ति कर, गृह कर, व्यापार कर, उत्पादन कर आदि के रूप में जो प्रत्यक्ष कर लगते हैं, उन्हें, तथा टोल टैक्स, चुँगी, आबकारी तथा आयात-निर्यात पर लगने वाले प्रत्यक्ष करों को मिलाकर, सरकारी ख़ज़ाने में जो धन आता है, उससे कई गुना अधिक रक़म सरकार उपभोग के सामानों पर कर लगाकर आम लोगों से वसूल लेती है। नागरिक जो भी सामान ख़रीदते हैं उनकी क़ीमत में ये सरकारी कर शामिल होते हैं। लुटेरों के लूटतन्त्र को सुरक्षित रखने के लिए जो राज्यसत्ता क़ायम है, उसका ख़र्च भी मुख्यतः वही उठाते हैं जिन्हें लूटा और निचोड़ा जाता है। इसलिए सभी परोक्ष करों की मंसूखी एक ऐसी माँग है जो शहर और गाँव की मज़दूर आबादी के साथ शहरी मध्य वर्ग और गाँव के छोटे-मँझोले किसानों एवं अन्य ग्रामीण मध्यवर्गीय तबक़ों को जोड़ने का काम करती है।

2. उपरोक्त माँग के साथ ही गाँव के छोटे-मँझोले किसानों को कृषि पर तथा डेयरी-पोल्ट्री-फिशरी व तमाम कृषि आधारित उद्यमों पर भी आय कर लगाने की माँग अवश्य ही करनी चाहिए और इसकी ज़द में उन सभी बड़े किसानों को शामिल करने की माँग उठानी चाहिए जो मुनाफ़े के लिए पैदा करते हैं, तथा उन सभी ग्रामीण उद्योगों को शामिल करने की माँग उठानी चाहिए, जो मज़दूरों से काम कराते हैं। उन्हें इन सभी धनिक ग्रामीण वर्गों पर सम्पत्ति कर भी लगाने की माँग करनी चाहिए। उन्हें उन सभी तिकड़मों के विरुद्ध आवाज़ उठानी चाहिए, जिनका सहारा लेकर, सरकार और नौकरशाही की मिलीभगत से, धनिक वर्ग कर अदा करने से बच निकलते हैं।

3. ग़रीब और मँझोले किसानों की माँग यह होनी चाहिए कि ज़मीन सहित उत्पादन के साधनों के स्वामित्व की एक सुनिश्चित मात्रा को पैमाना बनाकर, धनी किसानों और अन्य ग्रामीण पूँजीपतियों से बिजली और पानी की क़ीमत वसूली जानी चाहिए, जबकि उन सभी किसानों को, जो मुनाफ़े के लिए नहीं पैदा करते, सापेक्षतः रियायती दर पर बिजली-पानी आदि मिलनी चाहिए। साथ ही, उन्हें यह माँग करनी चाहिए कि घरों में उपयोग के लिए गाँव की ग़रीब आबादी को निःशुल्क और मध्यम तबक़े को अत्यधिक रियायती दरों पर बिजली मिलनी चाहिए, जबकि मुनाफ़ा ख़ोर तबक़ों से उसकी वही क़ीमत वसूली जानी चाहिए, जो शहरी उपभोक्ताओं से वसूली जाती है। शहरों में भी यह एक महत्त्वपूर्ण माँग बनती है कि आम मध्यवर्गीय नौकरीपेशा लोगों को निःशुल्क बिजली-पानी मिलना चाहिए, जबकि (आय और बिजली के ख़र्च को पैमाना बनाकर) धनी तबक़ों से ऊँची दरों पर इसकी क़ीमत ली जानी चाहिए, तथा कारख़ानों और व्यापारिक प्रतिष्ठानों से इतनी ऊँची दरों पर बिजली की क़ीमत ली जानी चाहिए कि बिजली पैदा करने का मुख्य ख़र्च उसी से निकले (आज इसके ठीक उलटा होता है, उद्योगपतियों को अत्यन्त सस्ती दरों पर बिजली दी जाती है और उसकी भी क़ीमत अदा करने के बजाय वे अरबों रुपये डकार जाते हैं)। गाँव के छोटे-मँझोले किसानों को पूरे देश की जनता की इस आम माँग के इर्दगिर्द संगठित किया जाना चाहिए कि जनता को बिजली-पानी जैसी बुनियादी सुविधाएँ निःशुल्क उपलब्ध कराना सरकार की ज़िम्मेदारी है और इसे उसको हर क़ीमत पर निभाना चाहिए।

4. गाँव के छोटे और मँझोले किसानों को इस माँग पर ग़रीब मेहनतकशों के साथ एकजुट किया जाना चाहिए कि आम आबादी घर बनाने-मरम्मत कराने, हारी-बीमारी जैसे घरेलू संकटों-ज़रूरतों के लिए बैंक से जो क़र्ज़ ले, उस पर ब्याज की दर एकदम कम होनी चाहिए और सबसे ग़रीब आबादी को ब्याज-मुक्त क़र्ज़ मिलना चाहिए, जबकि उत्पादन के साधनों की ख़रीद के लिए धनी किसानों द्वारा लिये जाने वाले कर्ज़ों पर ब्याज दर अधिक होनी चाहिए।

5. गाँव के छोटे और मँझोले किसानों की सर्वहारा आबादी से एकता क़ायम करने के लिए कम्युनिस्टों द्वारा उन्हें इस माँग पर संगठित किया जाना चाहिए कि सार्वजनिक वितरण-प्रणाली द्वारा (आय-वर्ग के सुनिश्चित पैमाने पर धनी-ग़रीब तय करके) रियायती दरों पर (और अकाल के समय में मुफ़्त) राशन, चीनी, किरासन तेल आदि बुनियादी ज़रूरत की चीज़ें ग़रीब और मध्यम तबक़े को पूरे देश के पैमाने पर उपलब्ध कराना सरकार की ज़िम्मेदारी है। इसे एक बुनियादी अधिकार बनाकर पूँजीवादी राज्यसत्ता के विरुद्ध जन-लामबन्दी की जानी चाहिए, सार्वजनिक वितरण-प्रणाली को तोड़ने की मौजूदा सरकारी साज़िशों को जनता के बुनियादी हक़ छीने जाने का मुद्दा बनाकर, संघर्ष के माध्यम से किसानों को भी व्यापक ग़रीब आबादी के साथ एकजुट किया जाना चाहिए।

6. सभी बच्चों के लिए मुफ़्त और अनिवार्य शिक्षा की माँग समूची जनता की और विशेष तौर पर ग़रीबों की एक ऐसी माँग है जिस पर छोटे ही नहीं बल्कि मध्यम किसान भी साथ आ जायेंगे क्योंकि शिक्षा के ज़्यादा से ज़्यादा बढ़ते बाज़ारीकरण के वर्तमान माहौल में केवल गाँवों के धनी लोगों के बच्चों को ही बेहतर शिक्षा के अवसर मिल पाते हैं। मुफ़्त शिक्षा के साथ ही कम्युनिस्टों का अनिवार्य दायित्व है कि वे शिक्षा के समान अवसर की माँग पर सर्वहारा-अर्द्धसर्वहारा आबादी के साथ ही गाँवों-शहरों के मध्य वर्ग और मँझोले किसानों को भी संगठित करें क्योंकि यह जनता का बुनियादी राजनीतिक अधिकार है जिसे पूँजीवादी जनवादी गणतन्त्र भी सिद्धान्त रूप में स्वीकार करता है, पर व्यवहार में कभी लागू नहीं करता। यह मसला पूँजीवादी जनवाद की असलियत उजागर करने का एक अहम मुद्दा होना चाहिए जिसे सिर्फ़ क्रान्तिकारी छात्र-युवा आन्दोलन के एजेण्डा पर ही रखकर सन्तोष करने के बजाय व्यापक आम आबादी के आन्दोलन का मुद्दा बनाया जाना चाहिए।

7. यही बात समान शिक्षा के साथ ही सबको रोज़गार के नारे के साथ भी लागू होती है। वास्तव में इस माँग को कभी भी, छात्र-युवा आन्दोलन के अतिरिक्त, जनता के विभिन्न वर्गीय आन्दोलनों की एक बुनियादी माँग के रूप में रखते हुए आन्दोलन की लम्बी तैयारी, और बुर्जुआ जनवाद के ‘एक्सपोज़र’ का काम किया ही नहीं गया है। महज औपचारिकता के रूप में इस माँग की चर्चा बार-बार की जाती रही है और इसे एक घिसा हुआ सिक्का बना दिया गया है। यह एक ऐसी ज्वलन्त माँग है जो छोटे-मँझोले मालिक किसानों को व्यापक ग़रीब आबादी के साथ एकजुट करने के साथ ही हमें यह अवसर देती है कि हम लोगों को यह ज़रूरी शिक्षा दे सकें कि किस प्रकार सामाजिक जीवन में रोज़गार की कमी कभी नहीं हो सकती, किस प्रकार बेरोज़गारी पूँजीवादी मुनाफ़ा ख़ोरी की व्यवस्था का एक अपरिहार्य परिणाम है। इस मसले पर जनता को शिक्षित करते हुए हमें आरक्षण की सरकारी तिकड़म, और प्रतिक्रियावादी अवस्थिति से किये जाने वाले उसके विरोध के बारे में बताने का अवसर मिलता है और तभी हम लोगों को यह भी बता सकते हैं कि आज इतने रोज़गार पैदा ही नहीं हो रहे हैं कि आरक्षण का आम आबादी के किसी हिस्से को लाभ मिल सके या किसी हिस्से को नुक़सान हो सके। अतः सबसे ज़रूरी है कि जनता ‘समान शिक्षा, सबको रोज़गार’ की माँग पर एकजुट होकर लड़े। इस लम्बी लड़ाई की प्रक्रिया के दौरान आरज़ी या तात्कालिक तौर पर बेरोज़गारी भत्ता की माँग भी उठायी जानी चाहिए। ध्यान रहे कि सबको रोज़गार के हक़ की लड़ाई एक ऐसी लड़ाई है जो बुर्जुआ जनवाद के दोग़लेपन और पूँजीवादी उत्पादन- प्रणाली की असलियत उजागर करने के साथ ही हमें यह अवसर भी देती है कि हम जनता के बीच के जातिगत बँटवारों और आरक्षण की आज की सच्चाई को जनता के सामने सही ढंग से स्पष्ट करें, जनता को बाँटने की साज़िशों को बेनक़ाब कर सकें और वर्गीय एकजुटता को ठोस रूप में आगे बढ़ा सकें। इसी प्रक्रिया में कम्युनिस्टों को समाजवाद के इस प्रोग्राम को भी स्पष्ट करने का सबसे सही अवसर मिलता है कि समाजवादी व्यवस्था (और केवल वही) किस प्रकार सभी काम करने योग्य नागरिकों को काम देती है और किस प्रकार उनकी सभी ज़रूरतों को पूरा करने की स्थिति पैदा करती है।

8. निःशुल्क चिकित्सा की सार्विक सुविधा भी जनता की ऐसी ही एक बुनियादी राजनीतिक माँग है, जिसका अभाव प्रकारान्तर से जनता के जीने के अधिकार पर ही हमला है। इस मसले पर भी बुर्जुआ जनवाद की दोमुँही असलियत को उजागर करते हुए तथा चिकित्सा-व्यवस्था को निजी हाथों में सौंपकर पूरी तरह से ख़रीद-फ़रोख़्त की वस्तु बना देने, दवा-कम्पनियों की बेशुमार लूट और धोखाधड़ी तथा सार्वजनिक चिकित्सा-व्यवस्था को ध्वस्त करने के वर्तमान सिलसिले के ख़िलाफ़ व्यापक आबादी को संघर्ष के लिए तैयार करते हुए, सर्वहारा वर्ग की एक सही-सच्ची पार्टी गाँव के छोटे-मँझोले किसानों को भी समाजवाद की लड़ाई में शामिल करने में तथा समाजवाद के ख़िलाफ़ उनके पूर्वाग्रहों को तोड़ने में क्रमशः ज़्यादा से ज़्यादा कामयाबी हासिल करेगी।

9. सबको शिक्षा, रोज़गार और दवा-इलाज की सुविधा की ही तरह सभी के लिए आवास को भी जनता के एक बुनियादी राजनीतिक अधिकार के रूप में प्रस्तुत करते हुए प्रचार और लामबन्दी का काम किया जाना चाहिए। इस माँग का मध्यम किसान कम से कम विरोध नहीं करेंगे और छोटे किसानों की भारी आबादी इस मुद्दे पर गाँवों-शहरों की सर्वहारा-अर्द्धसर्वहारा आबादी का साथ देगी।

10. हमें देश की बुर्जुआ जनवादी व्यवस्था में संसदीय चुनावों, संसद-विधानसभा की कार्रवाइयों, सरकार और एम.पी.-एम.एल.ए. के वेतन-भत्तों, नौकरशाही के विराट तन्त्र और सेना-पुलिस पर सालाना होने वाले विशाल ख़र्चों की असलियत व्यापक आम जनता के सामने बार-बार लानी चाहिए, यह भी दिखलाना चाहिए कि इन सबके मुक़ाबले, जनता से ही वसूले गये धन का कितना छोटा हिस्सा शिक्षा, स्वास्थ्य आदि सबसे बुनियादी ज़रूरतों पर ख़र्च होता है। हमें यह माँग उठानी होगी कि ख़र्चीले चुनावों की प्रणाली समाप्त की जाये, कथित जनप्रतिनिधियों और मन्त्रियों की विलासिता, शानो-शौक़त और तमाम विशेषाधिकारों को तत्काल समाप्त किया जाये, नौकरशाही के भी बेहिसाब वेतन-भत्तों में कटौती की जाये, उसके सभी विशेषाधिकारों को समाप्त कर दिया जाये और पूरे नौकरशाही तन्त्र को काट-छाँटकर एकदम छोटा, कम से कम आज का दसवाँ हिस्सा कर दिया जाये। हमें यह माँग उठानी होगी कि नौकरशाही के ज़्यादातर ज़रूरी कामों को जनता की चुनी गयी समितियों के सुपुर्द कर दिया जाये और फ़ालतू की लाल फ़ीताशाही को ख़त्म करके दफ़्तरी कामों को आसान बना दिया जाये। यही आम पहुँच कोर्ट-कचहरी के विराट परजीवी तन्त्र पर भी लागू होनी चाहिए। हमें पुरज़ोर शब्दों में यह माँग करनी चाहिए कि स्थायी सेना के विराट ढाँचे को विघटित कर देना चाहिए और उसकी जगह आम नागरिकों को सैन्य-प्रशिक्षण देना चाहिए। यह एक ज़रूरी माँग है क्योंकि जनता से निचोड़ी गयी सरकारी रक़म का एक बड़ा हिस्सा उस सेना पर ख़र्च होता है और देशभक्ति के नाम पर अन्धराष्ट्रवादी भावनाएँ उभाड़कर इस सच्चाई पर पर्दा डाल दिया जाता है कि इस सेना का मुख्य उद्देश्य शासक वर्गों की हिफ़ाज़त करना और उसके ख़िलाफ़ उठ खड़ी होने वाली जनता का दमन करना होता है। हमें यह भी माँग करनी चाहिए कि प्रतिरक्षा की ज़रूरत के नाम पर गुप्तता की उस व्यवस्था को समाप्त कर दिया जाना चाहिए जिसकी आड़ में हर वर्ष रक्षा-सौदों के घोटालों में जनता से वसूले गये धन में से अरबों-खरबों रुपये नेता-नौकरशाह और दलाल हड़प कर जाते हैं। हमें यह माँग उठानी चाहिए कि क़ानून-व्यवस्था की आड़ में जनता पर ही ज़ुल्म ढाने वाली पुलिस-व्यवस्था को भी भंग कर देना चाहिए और यह काम नागरिकों की चुनी हुई कमेटियों और प्रशिक्षित दस्तों को सौंप देना चाहिए जो अपने रोज़ी-रोज़गार के साथ-साथ इस काम को, पारी बाँधकर अंजाम देंगे और इस तरह से होने वाली अरबों की बचत को विकास-कार्यों में लगाया जा सकेगा। समाजवाद की लड़ाई के लिए जनता को तैयार करने के लिए ये माँगें बेहद ज़रूरी हैं। एक ताक़तवर, व्यापक आधार वाली पार्टी ही इन माँगों पर आन्दोलन खड़ा कर सकती है, पर इन माँगों पर समुचित तथ्यों और तर्कों से जनता को शिक्षित करने का काम एकदम शुरू से ही चलना चाहिए और आम प्रचार की कार्रवाइयों से लेकर गाँव-गाँव, बस्ती-बस्ती की बैठकों-सभाओं तक में चलना चाहिए तथा लगातार अख़बारों-पर्चों के ज़रिये भी चलना चाहिए। जनता को यह बताया जाना चाहिए कि सिर्फ़ सरकार, विधायिका, नौकरशाही और सेना-पुलिस के फ़ालतू ख़र्चों और विशेषाधिकारों में ही कटौती कर दी जाये तो जनता की सभी बुनियादी ज़रूरतें आराम से पूरी की जा सकती हैं तथा विकास के तमाम कामों को नयी रफ़्तार दी जा सकती है। इन माँगों के लिए लड़ते हुए जनता व्यवहार में पूँजीवादी आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था के जनविरोधी चरित्र की भयंकरता की और समाजवादी व्यवस्था की अनिवार्य ज़रूरत की क्रमशः गहरी समझ हासिल करती चलती है। ये ऐसी माँगें हैं, जिन पर गाँवों के छोटे-मँझोले किसान और शहर के परेशानहाल मध्यवर्गीय तबक़े मेहनतकशों के साथ आ खड़े होंगे और उनके बीच समाजवाद के लिए संघर्ष की स्वीकार्यता ज़्यादा से ज़्यादा स्थापित होती चली जायेगी।

11. छोटे और मँझोले किसानों के बीच कम्युनिस्ट ‘प्रोपेगैण्डा’ और ‘एजिटेशन’ का एक अहम मसला यह भी होना चाहिए कि वे गाँवों में इस तरह की किसान समितियाँ संगठित करें जिनमें धनी किसान, महाजन और ग्रामीण पूँजीपतियों जैसा कोई भी मुनाफ़ा ख़ोर तबक़ा न हो। ये समितियाँ व्यापक आम आबादी के हितों की रक्षा करेंगी, उनसे जुड़ी माँगों को उठायेंगी तथा छोटे-मँझोले मालिक किसानों को यह अवसर मुहैया करायेंगी कि वे धनी किसानों की दबंगई से आज़ाद रहकर अपने हितों की रक्षा कर सकें और अपने हक़ की लड़ाई लड़ सकें। कम्युनिस्ट पार्टी की भरपूर कोशिश यह रहती है कि धनी होने की मृग मरीचिका से बाहर निकलकर छोटे और मँझोले किसान ज़्यादा से ज़्यादा मुद्दों पर गाँव (और शहरों के भी) के ग़रीबों के साथ खड़े हों। इसके लिए उन्हें यथार्थवादी ढंग से, ऐसे ही व्यापक मुद्दों पर व्यावहारिक ढंग से लड़ाई के लिए संगठित होने की प्रेरणा लगातार देने की ज़रूरत होती है। इसमें यह भी बात ध्यान रखने की होती है कि छोटे-मँझोले देहाती मिल्की वर्गों के जो उन्नत (और प्रायः युवा) तत्त्व पूँजीवादी व्यवस्था में छोटे मालिकाने के हश्र को समझकर, सर्वहारा वर्ग की विचारधारा को और फि़र उसकी क्रान्तिकारी पार्टी की मातहती को स्वीकार करते हैं, उनकी, पूरे वर्ग को जनपक्ष में ला खड़ा करने में एक अहम भूमिका होगी।

12. छोटे और मँझोले किसानों को ग्राम पंचायतों और ब्लॉक समितियों आदि के स्तरों पर कुलकों-फ़ार्मरों के वर्चस्व को तथा स्थानीय नौकरशाही के साथ गठबन्धन के सहारे चलने वाली उनकी दादागिरी को ख़त्म करने के लिए ग्रामीण मज़दूरों के साथ एकताबद्ध करने का प्रयास लगातार करना चाहिए, पंचायतों के तहत होने वाले विकास-कार्यों की जन-निगरानी संगठित की जानी चाहिए, पंचायत चुनावों में धन के ज़ोर के ख़िलाफ़ तथा पंचायत समितियों के जनवादी ढंग से काम करने के सवाल पर व्यापक ग़रीब आबादी के साथ मध्यम किसानों को ला खड़ा करने की हरचन्द कोशिश की जानी चाहिए। कहने की ज़रूरत नहीं कि ज़मीनी स्तर पर सुधारपरक, शिक्षापरक और प्रचारपरक कार्रवाई के एक लम्बे सिलसिले के बाद ही लोगों की वर्ग-चेतना उन्नत करने की बुनियादी समस्याओं को हल किया जा सकेगा, जिनमें से सर्वप्रमुख वह जातिगत बँटवारा है, जो एक हद तक वर्गीय अन्तर्वस्तु को भी प्रकट करता है, लेकिन आज मुख्यतः वर्गीय ध्रुवीकरण और वर्ग-चेतना के उन्नतिकरण को बाधित करने का काम कर रहा है। यह प्रश्न अलग से प्रचार, शिक्षा, सांस्कृतिक कार्य और आन्दोलन की एक सुसंगत नीति पर विचार करने की माँग करता है। यहाँ यह न सम्भव है, न ज़रूरी। व्यापक ग़रीब आबादी के साथ मँझोले मालिक किसानों की एक हद तक की जुझारू एकजुटता स्थापित हो जाने के बाद, यह प्रयास किया जाना चाहिए कि पंचायतों पर कुलक-नौकरशाही गँठजोड़ के वर्चस्व को तोड़ने के लिए, पंचायत चुनावों में भी ग्रामीण सर्वहारा आबादी और छोटे-मँझोले किसान एकजुट हस्तक्षेप करें और इन संस्थाओं को गाँवों में वर्ग-संघर्ष का एक प्लेटफ़ॉर्म बना देने की कोशिश करें।

13. लेकिन एक सुसंगत कम्युनिस्ट नीति सिर्फ़ इतने से ही तसल्ली नहीं कर सकती। सरकारी ग्राम पंचायतों (ग्राम-सभाओं) से अलग, गाँवों में ग्रासरूट स्तर पर ऐसे जन-प्लेटफ़ॉर्म संगठित करने की लगातार कोशिश एक लम्बे सिलसिले के रूप में जारी रहनी चाहिए, जिस पर ग्रामीण शोषक वर्गों की कोई भागीदारी न हो और जहाँ व्यापक आम जनता की आबादी की जुटान अपनी साझा माँगों-समस्याओं पर जनवादी ढंग से विचार करे, फ़ैसला ले और आन्दोलन का कार्यक्रम बनाये। इसी बोध के तहत ‘बिगुल’ ने विभिन्न क्रान्तिकारी जनसंगठनों के साथ मिलकर गाँवों और शहर की मज़दूर बस्तियों में क्रान्तिकारी लोक स्वराज्य पंचायत’ की अवधारणा प्रस्तुत की है, जिसके बारे में ‘बिगुल’ में पहले लिखा जा चुका है। यह जनता की उस वैकल्पिक सत्ता का ग्रासरूट स्तर पर भ्रूण विकसित करने की एक कोशिश है (ऐसे अन्य प्रयोग भी हो सकते हैं), जो समाजवादी क्रान्ति के विकास की उन्नत अवस्था में, सामाजिक-राजनीतिक संकट के उथल-पुथल के दौर में देशस्तर पर एक दोहरी सत्ता की मौजूदगी जैसी स्थिति में रूपान्तरित हो सकती है। यह मुद्दा भारतीय क्रान्ति के मार्ग पर चर्चा से जुड़ा है जो अलग से विस्तार की माँग करता है। वर्तमान चर्चा के प्रसंग में, फ़िलहाल इतना ही उल्लेख काफ़ी है।

14. छोटे-मँझोले मालिक किसानों के बीच छोटे पैमाने के पूँजीवादी उत्पादन से (और प्राकृतिक अर्थव्यवस्था के अतीत से भी) पैदा हुई कूपमण्डूकता के कारण धार्मिक पूर्वाग्रहों, अन्धविश्वासों की भी मज़बूत मौजूदगी होती है। आज भारत में धार्मिक कट्टरपन्थी फ़ासीवाद का जो व्यापक उभार हुआ है, उसका एक व्यापक सामाजिक आधार गाँवों के पूँजीवादी भूस्वामियों-कुलकों-फ़ार्मरों में भी विकसित हुआ है। धार्मिक पूर्वाग्रहों, भावनाओं को बढ़ावा देकर (तथा जातिगत ध्रुवीकरण की मदद से भी), गाँवों के साम्प्रदायिक फ़ासीवाद-समर्थक धनी वर्ग, मँझोले और छोटे मालिक किसानों को भी अपने साथ खड़ा कर लेते हैं। इससे एक ओर गाँवों में जनता की एकजुटता का आधार टूट रहा है और दूसरी ओर साम्प्रदायिक फ़ासीवाद को ताक़त मिल रही है। कम्युनिस्ट यदि उपरोक्त आर्थिक और राजनीतिक मसलों पर छोटे- मँझोले किसानों को जागृत, गोलबन्द और संगठित करने की ज़मीनी कार्रवाई कर रहे हों तो उन्हें धर्म की राजनीति के विरुद्ध जमकर तथा हर सम्भव तरीक़े से प्रचार करना चाहिए, इसके असली उद्देश्य एवं चरित्र का भण्डाफ़ोड़ करना चाहिए, बुर्जुआ राजनीति व संविधान की धर्मनिरपेक्षता के नक़लीपन को उजागर करना चाहिए, मज़दूर राजनीति की सच्ची धर्मनिरपेक्षता का स्वरूप स्पष्ट करना चाहिए तथा पुरज़ोर शब्दों में यह माँग रखनी चाहिए कि :

  (i) धर्म को और धार्मिक संस्थाओं को राजनीतिक-सामाजिक जीवन तथा सार्वजनिक शिक्षा-संस्कृति के दायरे से एकदम अलग कर दिया जाना चाहिए।

  (ii) हर नागरिक को निजी धार्मिक (या अधार्मिक) विश्वास की पूरी आज़ादी होनी चाहिए तथा इसमें राज्य का या किसी अन्य संस्था का कोई हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए, न ही किसी भी नागरिक को दूसरे के ऊपर, या आबादी के एक हिस्से को दूसरे के ऊपर, अपने धार्मिक विश्वास को थोपने की इजाज़त दी जानी चाहिए। यह काम आज साम्प्रदायिक फ़ासीवाद के विरुद्ध तैयारी की फ़ौरी ज़रूरत है और गाँवों में समाजवादी क्रान्ति के वर्ग-संश्रय को क़ायम करने और मज़बूत बनाने के लिए भी ज़रूरी है। हमें गाँव के ग़रीबों से लेकर मध्यम किसानों तक के बीच लगातार प्रचार करके यह माँग उठाने के लिए उन्हें अवश्य ही तैयार करना चाहिए कि मठों-मन्दिरों-गुरुद्वारों में जमा अरबों रुपये, सोना-चाँदी और हज़ारों एकड़ ज़मीन ज़ब्त करके सार्वजनिक हित के कार्यों में लगा दिया जाना चाहिए। साधु-सन्तों-महन्तों को पूजा-पाठ का पूरा अधिकार होना चाहिए, लेकिन अकूत सम्पत्ति की जमाख़ोरी का अधिकार उन्हें क़त्तई नहीं होना चाहिए। कम्युनिस्टों को न केवल धार्मिक रूढ़ियों, अन्धविश्वास, धर्म के राजनीतिक इस्तेमाल और धार्मिक कट्टरपन्थ के विरुद्ध लगातार प्रचार और शिक्षा का काम चलाना चाहिए, बल्कि उन्हें बुनियादी राजनीतिक एवं आर्थिक प्रश्नों पर जनता को गोलबन्द और संगठित करने के साथ-साथ, धर्म के प्रश्न पर कम्युनिस्ट विचारों का लगातार प्रचार करना चाहिए तथा लेनिन की शिक्षा का अनुसरण करते हुए, इस भ्रान्ति का क़त्तई शिकार नहीं होना चाहिए कि इससे जनता बिदक जायेगी। हम अपने धर्म-विषयक विचारों को जनता पर लादते नहीं हैं और इसे समाजवाद के लिए संघर्ष की शर्त नहीं बनाते हैं, लेकिन अपने विचारों को छिपाते भी नहीं हैं। इससे समाजवाद के लिए संघर्ष को नुक़सान ही पहुँचता है। जनता हमेशा इतनी व्यावहारिक होती है कि इस बात को समझती है। समाजवाद के लिए संघर्ष की अपरिहार्य आवश्यकता उसकी अपनी ज़रूरत है, यह बात जनता वस्तुगत परिस्थितियों से समझती है और हम उसे लगातार यह अहसास भी कराते हैं।

ऊपर की चर्चा में सभी मुद्दे शामिल नहीं हैं, पर हमने केन्द्रीय मुद्दों को, और उससे भी अधिक, छोटे और मँझोले किसानों को मज़दूर आन्दोलन के साथ जोड़ने के प्रति कम्युनिस्ट पहुँच को, स्पष्ट करने की कोशिश की है। इन्हीं ठोस माँगों पर कम्युनिस्ट गाँवों में मँझोले और छोटे मालिक किसानों को संगठित करने की कोशिश करते हैं, पर यह याद रखना बेहद ज़रूरी है कि हर हमेशा हमारा ज़ोर उनके सामने यह स्पष्ट करने पर होता है कि पूँजीवाद के अन्तर्गत उनका कोई भविष्य नहीं है, कि छोटे मालिकाने, छोटी पूँजी और छोटे पैमाने के पूँजीवादी उत्पादन की तबाही सुनिश्चित है और इसलिए छोटे-मँझोले मालिकों के सामने एकमात्र व्यावहारिक विकल्प यही है कि वे समाजवाद के पक्ष में आ खड़े हों। एक सच्चा कम्युनिस्ट गाँव के इन मिल्की वर्गों को लगातार समाजवाद के बारे में शिक्षित करता है, ज़मीन के निजी मालिकाने के प्रति उनके हवाई और रूढ़िवादी मोह के ख़िलाफ़ संघर्ष करता है और उन्हें यह समझाने की कोशिश करता है कि समाजवाद उनसे उनके मिथ्या भ्रम के अतिरिक्त कुछ भी नहीं लेता है और बदले में उन्हें समूची आज़ादी और हज़ार गुना बेहतर ज़िन्दगी की गारण्टी देता है।

साथ ही, कम्युनिस्ट दृष्टिकोण हमें छोटे मालिक किसानों और मध्यम मालिक किसानों के बीच फ़र्क करने की भी शिक्षा देता है। लगातार, तेज़ी के साथ, उजड़ते छोटे किसानों को कम्युनिस्टों की बात अपनी ज़िन्दगी के हालात से जल्दी समझ में आ जाती है, जबकि मँझोले किसान लम्बे समय तक बीच में झूलते रहते हैं। वे अन्ततोगत्वा समाजवादी क्रान्ति के ढुलमुल दोस्त ही होते हैं। उनका छोटा-सा ऊपरी हिस्सा धनी बनने की ओर उन्मुख होता है, बीच का एक हिस्सा दोनों ओर ताकता रहता है और नीचे का हिस्सा गाँव के ग़रीबों का पक्ष लेता है।

कम्युनिस्ट वस्तुगत परिस्थितियों की आन्तरिक गति को देखते हुए भविष्य के मद्देनज़र काम करते हैं और नारे देते हैं। भारतीय समाज के तीव्र पूँजीवादीकरण की वर्तमान दिशा को देखते हुए, यह स्पष्ट है कि एक दशक के भीतर ही गाँवों में वर्गीय ध्रुवीकरण की तस्वीर बहुत अधिक स्पष्ट हो जायेगी, छोटे मालिकों का बड़ा हिस्सा तबाह होकर गाँवों-शहरों की सर्वहारा जमातों में शामिल हो जायेगा और मध्यम किसानों की आबादी भी सिकुड़कर काफ़ी छोटी हो जायेगी।

वैसे आज की ही स्थिति यह है कि गाँवों और शहरों की सर्वहारा-अर्द्धसर्वहारा आबादी कुल आबादी के पचास प्रतिशत के आसपास पहुँच रही है। कम्युनिस्ट इसी आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं। यही समाजवादी क्रान्ति की नेतृत्वकारी शक्ति है, जो अब तेज़ी से (आबादी की दृष्टि से) मुख्य शक्ति भी बनती जा रही है। शहरी निम्न मध्य वर्ग की भारी, परेशानहाल आबादी इसकी मुख्य सहयोगी बनेगी क्योंकि इसे अपना कोई भविष्य नहीं दीख रहा है और निजी भू-स्वामित्व के मोह जैसी बाधा से भी यह मुक्त है। गाँवों के छोटे किसान सर्वहारा वर्ग के दूसरे क़रीबी दोस्त हैं। मध्यम किसान इसके ढुलमुल दोस्त हैं और आबादी की दृष्टि से भी इसकी कोई वजह नहीं दीखती कि कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग को छोड़कर इस ढुलमुल दोस्त की चिन्ता में ही दुबले हुए जा रहे हैं। यह नरोदवादी भटकाव नहीं तो भला और क्या है?


बिगुल, फरवरी 2003


 

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