दक्षिण चीन सागर की घटनाएँ और साम्राज्यवादी ताक़तों के बीच बढ़ता तनाव
मानव
पिछली अक्टूबर के आखिरी हफ्ते, एक अमरीकी समुद्री युद्ध पोत यू.एस.एस लासेन दक्षिण चीन समुद्र में चीनी क्षेत्र के भीतर दाखल हुआ | इस पोत के साथ एक जासूसी विमान भी था | इस दखलंदाज़ी के बाद चीनी सरकार की ओर से आधिकारिक तौर पर अमेरिका की इन भड़काऊ कार्रवाइयों के लिए भत्सर्ना की गयी और चीन की ओर से ऐसी कार्रवाइयों का आगे से जवाब देने की पूरी तैयारी होने का दावा भी किया गया | वहीं, अमेरिका के रक्षा सचिव ऐश्टन कार्टर ने भी एक भड़काऊ ब्यान जारी करते हुए कहा कि अमेरिका ऐसे अंतर्राष्ट्रीय जल क्षेत्रों में किसी भी रूप में अपने पोत भेजने के लिए आज़ाद है और आने वाले महीनों के अंदर ऐसी और कार्रवाइयां की जायेंगी | दोनों ताकतों के दरमियान की यह तल्खी विभिन्न मंचों पर देखी जा रही है | कार्टर की ओर से इस घटना के बाद पूरे दक्षिण पूर्वी एशिया का दौरा करके यह माँग बार-बार उठाई गयी कि चीन को इन विवादित टापुओं से अपना दावा छोड़ देना चाहिए | साम्राज्यवादी राजनीतिक गलियारों में आजकल यह खबर ही सबसे अधिक चर्चा में है और इस बारे में कयास लगे जा रहे हैं कि यह मुद्दा इन दोनों ताकतों के दरमियान क्या रुख अख्तियार करेगा |
आज पूँजीवादी ढाँचा संकटों के ऐसे दौर में फंसा हुआ है कि इस संकट से निजात पाने के लिए इसे लगातार युद्धों का सहारा लेना पड़ रहा है | मतलब कि यह अपनी खुद कि होंद बचाने के लिए पूरी मानवता की सुरक्षा को दाँव पर लगा रहा है | दक्षिण चीन सागर की घटनाएँ भी उसी अंतर-साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्धा का ही नतीजा है जिसका अंजाम आज सीरिया भुगत रहा है | यूक्रेन और सीरिया में अमेरिकी-रूसी होड़ के बाद की यह सबसे महत्त्वपूर्ण घटना है |
क्या है इन विवादित टापुओं का मुद्दा ?
दक्षिण चीन सागर में, हिन्द-चीन और फिलीपींस के दरमियान करीब 700 छोटे टापू हैं, जिनको सामूहिक तौर पर स्प्राटले टापुओं का समूह भी कहा जाता है | यह टापू कुदरती संसाधनों के लिहाज़ से काफी ज़रखेज़ हैं | इस समय इन टापुओं के ऊपर चीन, ब्रूनेई, वियतनाम, ताइवान, मलेशिया और फिलीपींस अपना-अपना दावा जता रहे हैं और इन टापुओं को लेकर इन मुल्कों के दरमियान यह झगड़ा कई दशकों से चलता आ रहा है | अगर इन दावेदारियों के कानूनी पक्ष को छोड़ दिया जाये तो यह बात साफ़ है कि इन मुल्कों के दरमियान इस झगडे ने कभी इतना तीव्र रूप नहीं लिया था, मतलब कि अभी तक यह मुल्क स्थानीय स्तर पर वार्तायों के ज़रिए इस मसले पर जूझते आये थे |
तो अब यह सवाल लाज़िमी है कि अब अचानक पिछले कुछ महीनों से अमेरिका की इन टापुओं में दिलचस्पी इतनी क्यों बढ़ गयी है, जो वह एक स्थानीय मुद्दे को उभारकर उसको विश्व महत्ता का बनाकर पेश कर रहा है, हालांकि पड़ोसी मुल्कों के दरमियान इस तरह के सीमा विवाद एक आम बात है |
इस सवाल का जवाब उन्हीं अंतर-साम्राज्यवादी अन्तरविरोधों के तीखे होने में है, जिनकी बदौलत आज सीरिया में अमेरिका और रूस आमने-सामने हैं | अगर हम विश्व राजनीतिक घटनाक्रम पर नज़र डालें तो देखते हैं कि पिछले 10-12 सालों में अमेरिकी धौंस को चुनौती देने के लिए दो नयी ताकतें – रूस और चीन – उभरे हैं | सोवियत यूनियन के 1991 में बिखरने के बाद से जल्दी ही अमेरिका का विजयी रथ धीमा पड़ गया था जब रूस अपनी कुदरती संसाधनों पर आधारित अर्थव्यवस्था के आधार पर एक नयी आर्थिक शक्ति के रूप में उभरा | उसी ही समय, सन 2000 में चीन ने अपनी ‘विश्विकृत हो’ (‘गो ग्लोबल’ ) नीति की शुरुआत की थी | इस नीति का मुख्य मकसद था – चीनी निवेशकों को चीन के बाहर निवेश करने के लिए प्रोत्साहित करना | चूंकि 1976 में माओ की मौत के बाद से जब सरकारी क्षेत्र को तोड़ा जाने लगा, तब से यहाँ भी नौकरशाही की ऊपरी परत इस क्षेत्र पर काबिज़ होकर धीरे धीरे अमीर होने लगी थी | दूसरा, निजीकरण की नीतियों के चलते पूँजी का कुछ हाथों में निरंतर केंद्रित होना भी बढ़ रहा था | इक्कीसवीं सदी तक आते-आते चीन के पूँजीपतियों के पास इतनी पूँजी इकट्ठी हो चुकी थी कि वह अब इसे चीन से बाहर भी निवेश करें | यह चीनी पूँजीवाद की जरूरत थी कि चीनी बाज़ार के ऊपर कब्ज़े के बाद वह अब पूरे विश्व के दुसरे बाज़ारों में भी अपना फैलाव करे | इसी का नतीजा थी ‘विश्विकृत हो’ नीति |
तब से लेकर आज तक चीनी पूँजीवाद ने विश्व के अन्य क्षेत्रों में अपना निवेश लगातार बढ़ाया है | अगर हम आंकड़ों में बात करें तो यह पूरा घटनाक्रम और भी साफ़ हो जता है | वर्ष 2002 में चीन का बाहरी सीधा विदेशी निवेश केवल 2.5 अरब डॉलर था, जबकि वर्ष 2013 में यह बढ़कर 101 अरब डॉलर पर जा पहुँचा | अमेरिका और जापान के बाद अब दुनिया में निवेश करने के मामले में चीन तीसरे नंबर पर है और यदि इसकी यही रफ़्तार जारी रहती है तो यह जल्द ही जापान को (135 अरब डॉलर ) पीछे छोड़ दूसरे नंबर पर आ जायेगा ( उपरोक्त आंकड़े अंकटाड (UNCTAD) की ‘वैश्विक निवेश रिपोर्ट’ के हैं )। इस विदेशी निवेश का बड़ा हिस्सा (तकरीबन 50%) चीन ने एशिया में ही निवेश किया है | उसके बाद यूरोप (19%), अमेरिका (13%) और फिर लातिनी अमेरिका और अफ्रीका का नंबर आता है | पिछले कुछ समय में चीन ने लातिनी अमेरिका और अफ्रीका के कई देशों के साथ बड़े-बड़े समझौते किये हैं, जिससे इन क्षेत्रों में चीन एक नयी आर्थिक ताकत के तौर पर उभरा है | लातिनी अमेरिका में चीन अमेरिका के बाद यहाँ का दूसरा सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार है जबकि अफ्रीका में इसका पहला नंबर है | चीन की बढ़ती आर्थिक ताकत का अंदाजा इसके अफ्रीका में निवेशों से लगाया जा सकता है | सन 2000 में अफ्रीका और चीन के दरमियान कुल व्यापर महज़ 10.5 अरब डॉलर का था जो केवल 15 साल में ही बीस गुना बढ़कर 200 अरब डॉलर से भी ज्यादा हो चुका है | इस तरह अब हम देख सकते हैं कि चीन अब पूरे विश्व की असेंबली लाइन में ही एक महत्त्वपूर्ण कड़ी नहीं, बल्कि विश्व भर में एक बड़ा निवेशक भी है और इसी वजह से यह पूरे विश्व के अलग-अलग पूँजीवादी सरदारों (खासकर अमेरिका) की मौजूदा हैसियत को प्रभावित कर रहा है |
अमेरिका के खिलाफ चीन को रूस में एक स्वाभाविक सहयोगी भी मिल गया है | यह दोनों मुल्क अब यह कोशिश कर रहे हैं कि विश्व में अमेरिका की आर्थिक ताकत के प्रभाव का कोई विकल्प पेश किया जाये | इसीलिए यह अपना खुद का कारोबार भी अमेरिकी डॉलर को छोड़ खुद की मुद्राओं में करने लगे हैं | इनकी अगुवाई में ब्रिक्स का बनना भी अमेरिकी अगुवाई वाले जी-7 जैसे गुटों को एक चुनौती ही थी | वहीं, एशिया में अपनी स्थिति को और मजबूत करने के लिए चीन ने 2014 में ‘एशिया अवसंरचनात्मक निवेश बैंक’ की स्थापना की | चीन के बढ़ते इन क़दमों से अमेरिका के कान खड़े होना स्वाभाविक ही था | वहीं, यह भी परेशानी का एक सबब था कि यूरोप में अमेरिका के अब तक सहयोगी रहे ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी जैसे देश भी, इस आर्थिक संकट के चलते चीन के प्रति नरमी दिखाने लगे थे और उन्होंने भी इस बैंक की सदस्य्ता लेने का ऐलान कर दिया | संकट में बुरी तरह फंसे इन देशों की कंपनियों के लिए चीन एक बड़ी मंडी है और चीन खुद भी यूरोप में एक बड़ा निवेशक है | सो यह स्वाभाविक ही था कि यह देश चीन के प्रति नरमी दिखाते | चीन के राष्ट्रपति ज़ाई जिनपिंग के पिछले महीने इंग्लैण्ड दौरे के दौरान उनका जमकर स्वागत हुआ और इंग्लैण्ड और चीन के दरमियान बड़े समझौतों पर दस्तखत हुए। उसके तुरंत बाद जर्मनी और फ़्रांस के राजनेताओं ने भी अपने-अपने देश के पूँजीपतियों के बड़े काफिलों सहत चीन का दौरा किया और चीन-यूरोप के बढ़ते संबंधों को और पक्का किया |
इस सबसे तिलमिलाए अमेरिका ने भी चीन को घेरने के लिए नयी रणनीति तैयार की | आर्थिक क्षेत्र में सबसे बड़ा अमेरिकी कदम था – टी.पी.पी ( ट्रांस पैसिफिक पार्टनरशिप ) का ऐलान करना | 5 अक्टूबर, 2015 को यह समझौता किया गया | अमेरिका ने एशिया-प्रशान्त क्षेत्र के अपने सहयोगियों (आस्ट्रेलिया, जापान, मलेशिया, वियतनाम, सिंगापुर इत्यादि ) के साथ मिलकर इस समझौते को पक्का किया | टी.पी.पी समझौता दो कारणों से अमेरिका के लिए बेहद अहम है | पहला कारण है, एशिया-प्रशान्त क्षेत्र में जो क्षेत्रीय एकीकरण हो रहे हैं, उनमें से अमेरिका बाहर नहीं रहना चाहता | अमेरिका का एक-चौथाई से अधिक निर्यात एशिया को है और यहाँ इसको इन क्षेत्रीय देशों के आपसी व्यापार का सामना करना पड़ रहा है | अगर अमेरिका इन क्षेत्रीय समझौतों से परे रह जाता है तो इसका फायदा अमेरिका के प्रतिद्वंदी चीन को होगा | दूसरा कारण, अमेरिका इससे बढ़ने वाली आर्थिक ताकत से चीन को युद्धनीतिक तौर पर भी घेरना चाहता है | इसके लिए वह कई तरह के हथकंडे भी अपना रहा है, जैसे फिलीपींस के जरिये चीन के ऊपर दक्षिण चीन सागर को लेकर अंतराष्ट्रीय अदालत में केस दर्ज करवाना |
इसके अलावा सैन्य कार्रवाइयों के जरिये भी अमेरिका चीन को पीछे धकेलना चाहता है | इसी का नतीजा है कि वह इस विवादग्रस्त जल क्षेत्र में अपने युद्ध पोत भेज रहा है | एक नीति के मुताबक अमेरिका वर्ष 2020 तक प्रशांत महासागर में अपनी हवाई और नौसैनिक सेना की दो-तिहाई ताकत लगाना चाहता है | प्रशांत महासागर का यह इलाका व्यापार की दृष्टि से भी बहुत महत्त्वपूर्ण है | इस मार्ग के जरिए हर साल 5.3 खरब डॉलर का व्यापार होता है जबकि चीन की तेल जरूरतों की 83% आपूर्ति इसी मार्ग से होती है | इसीलिए चीन को घेरने के लिए अमेरिका के लिए यह क्षेत्र बेहद अहम है |
इस मुद्दे को उभारने के पीछे अमेरिका खुद दो कारण बता रहा है | पहला कारण है कि चीन इस क्षेत्र में अपने एकाधिकार के जरिए पूरे विश्व के व्यापार को उलटे रुख प्रभावित करेगा | इस पहले कारण का कोई वास्तविक आधार नहीं है क्यों जो हमने देखा ही है कि यह क्षेत्र चीन के खुद के लिए कितना अहम है | दूसरा कारण यह कि चीन इन टापुओं के ऊपर अपनी दावेदारी पेश करके विश्व शान्ति को ख़तरा पहुंचा रहा है | ज़ाहिरा तौर पर चीन की खुद की साम्राज्यवादी महत्त्वाकांक्षाएं हैं लेकिन इस क्षेत्र में अमेरिका का खुद का इतिहास क्या रहा है?
अमेरिका की पूँजीवादी विश्व में एक प्रभावी खिलाड़ी के रूप में दावेदारी 1898 में एक युद्ध से ही हुई थी | और वह युद्ध एशिया के ही एक देश फिलीपींस के ऊपर से स्पेनी कब्ज़ा हटाके खुद का अधिकार कायम करने को लेकर लड़ा गया युद्ध था | और एशिया में अपनी ताकत को उसने 1945 में हिरोशिमा और नागासाकी में लाखों लोगों को बम के जरिये एक ही झटके में मारकर स्थापित किया था | उसके बाद लगातार इस क्षेत्र में अमेरिका ने अपना दबदबा बरकरार रखने के लिए और अपने कम्युनिज़्म विरोध के चलते लगातार इस क्षेत्र में जनवादी सरकारों का तख्ता पलट करवा कर अपने हितैषियों को यहाँ बिठाया है और बड़े पैमाने पर आम लोगों और खासकर कम्युनिस्टों के कत्लेआम करवाए हैं | धुर दक्षिणपंथी सिंग्मान री की सरकार को बचाने के लिए और कम्युनिस्टों को सत्ता पर कब्ज़ा करने से रोकने के लिए अमेरिका ने 1950-53 तक कोरिआई युद्ध चलाया जिसमें 10 लाख से ऊपर लोगों का कत्लेआम किया गया | इंडोनेशिया और वियतनाम में दूसरे विश्व युद्ध के बाद, बीसवीं शताब्दी के सबसे भयंकर कत्लेयाम किये गए (इन युद्ध अपराधों के बारे में और जानने के लिए पाठक मज़दूर बिगुल का जुलाई 2011 और जून 2015 अंक देख सकते हैं ) |
ज़ाहिरा तौर पर अमेरिका इस क्षेत्र में कोई अमन कायम करने के लिए नहीं गया है, बल्कि आर्थिक और राजनीतिक तौर पर मजबूत हो रहे अपने एक प्रतिद्वंदी चीन को उसी के पिछवाड़े जाकर घेरने के लिए गया है | इस क्षेत्र में चीन को आर्थिक, राजनीतिक और सामयिक रूप से घेरने की अमेरिका की यह कोशिशें उसकी उसी ‘एशिया को धुरी’ नीति का हिस्सा हैं जो ओबामा प्रशासन ने 2011 में घोषित की थी | इस नीति के ऐलान के बाद से अमेरिका लगातार इस क्षेत्र में अपने सहयोगियों के साथ मिलकर सैनिक अभ्यास और इस तरह की भड़काऊ कार्रवाइयों को अंजाम देता रहा है, फिलीपींस और अन्य देशों में तैनात अपने सैनिकों की गिनती में लगातार इज़ाफ़ा करता रहा है और जापान और दक्षिण कोरिया के साथ मिलकर लगातार नए हथियारों की खोज को अंजाम देता रहा है और साथ ही एक व्यापक आर्थिक घेराबन्दी के लिए टी.पी.पी समझौता भी स्याहीबन्द किया है |
इस तरह हम देख सकते हैं कि किस तरह एक साम्राज्यदी ताकत अमेरिका की ये कार्रवाइयां, दूसरी साम्राज्यवादी ताकत चीन के पास दो ही रास्ते छोड़ रही हैं, या तो वह अमेरिका के सामने आत्म-समर्पण करे और या फिर उसका जवाब दे | यह स्वाभाविक ही है कि चीन ने अपनी हैसियत मुताबिक दूसरा रास्ता चुना और अमेरिका को आगे के लिए खबरदार किया | इसके जरिये जहाँ चीन के सत्ताधारी वर्ग को अपने देश के लोगों में पनप रहे गुस्से को राष्टर्वादी छींटे मारकर कुछ देर के लिए बढ़ने से रोक जा सकता है, वहीं चीन का सत्ताधारी वर्ग भी जानता है कि अमेरिका की आर्थिक हालत में लगातार गिरावट आती जा रही है और इसीलिए वह अमेरिका का आगे बढ़कर सामना कर रहा है | लेकिन दो बड़ी साम्राज्यवादी ताकतों के दरमियान ये भड़काऊ कार्रवाइयाँ और भीषण होते सुर, पूरी मानवता को एक नए संभावी युद्ध की ओर धकेल रहे हैं, चाहे वह युद्ध क्षेत्रीय हो या फिर व्यापक।
मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2015
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