गहराते आर्थिक संकट के बीच मेहनतकश अवाम की लूट और तेज़ करने के इन्तज़ाम में जुटी सरकार और संघ परिवार के संगठन लोगों को बाँटने में जुट गये हैं
अच्छे दिनों का भ्रम छोड़ो, एकजुट हो, सामने खड़ी चुनौतियों का मुकाबला करने की तैयारी करो!

सम्‍पादक मण्‍डल

पिछले महीने अपनी पूरी सरकार के साथ नागपुर में आर.एस.एस. के दरबार में मत्था टेककर नरेन्द्र मोदी ने भोले लोगों के लिए भी सन्देह की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी कि यह सरकार वास्तव में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एजेण्डा पर ही चल रही है। और संघ का एजेण्डा बिल्कुल साफ है। हिन्दुत्व और राष्ट्रवाद की तमाम बातों के बावजूद असलियत यह है कि संघ इस देश में देशी-विदेशी बड़ी पूँजी का बेरोकटोक राज चाहता है। और इसी के लिए लोगों को बाँटने-लड़ाने के लिए उसे हिन्दू राष्ट्र का अपना एजेण्डा देश पर थोपना है। यही संघियों के परम गुरू हिटलर का एजेण्डा था और यही इनका भी लक्ष्य है।

मोदी सरकार के पिछले डेढ़ वर्ष के शासन में अब यह बिल्कुल साफ हो चुका है। यह दौर जनता के बुनियादी अधिकारों की कीमत पर देश के शोषक वर्गों के हितों को सुरक्षित करने और उन्हें तमाम तरह से फायदे पहुँचाने के इन्तज़ाम करने में ही बीता है। आम अवाम के लिए ‘अच्छे दिन’ न आने थे और न आये, लेकिन अपने पूँजीपति आकाओं को अच्छे दिन दिखाने में मोदी ने कोई कसर नहीं उठा रखी। मज़दूरों और ग़रीबों की बात करते हुए सबसे पहला हमला बचे-खुचे श्रम अधिकारों पर किया गया। पहले राजस्थान सरकार ने घोर मज़दूर-विरोधी श्रम सुधार लागू किये और उसी तर्ज़ पर केन्द्र में श्रम क़ानूनों में बदलाव करके मज़दूरों के संगठित होने तथा रोज़गार सुरक्षा के जो भी थोड़े अधिकार कागज़ पर बचे थे, उन्हें भी निष्प्रभावी बना दिया। योजना आयोग को ख़त्म करके बने नीति आयोग का उपाध्यक्ष जिन अरविन्द पनगढ़िया को बनाया गया है वे ही राजस्थान की भाजपा सरकार के श्रम सुधारों के मुख्य सूत्रधार रहे हैं। पनगढ़िया महोदय सारा जीवन अमेरिका में रहकर साम्राज्यवादियों की सेवा करते रहे हैं और खुले बाज़ार अर्थव्यवस्था तथा श्रम सम्बन्धों को ‘लचीला’ बनाने के प्रबल पक्षधर हैं। इससे पहले मुक्त बाज़ार नीतियों  के एक और पैरोकार अरविन्द सुब्रमण्यन को प्रधानमंत्री का मुख्य आर्थिक सलाहकार नियुक्त किया जा चुका है। जो बात हम ‘मज़दूर बिगुल’ के पाठकों के सामने बार-बार रखते आ रहे हैं वह अब बिल्कुल साफ हो चुकी है। मोदी सरकार के तमाम पाखण्डपूर्ण दावों के बावजूद सच यही है कि यह उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों को मनमोहन सरकार से भी ज़्यादा ज़ोरशोर से लागू करेगी और इनसे मचने वाली तबाही के कारण जनता के असन्तोष को बेरहमी से कुचलेगी तथा लोगों को आपस में लड़ाने के लिए साम्प्रदायिक फासीवादियों के हर हथकण्डे का इस्तेमाल करेगी।

Modiएनडीए की सरकार बनने के पहले देश की जनता को तमाम गुलाबी सपने दिखाये गये थे। दावा किया गया था कि महँगाई और बेरोज़गारी की मार को ख़त्म किया जायेगा; पेट्रोल-डीज़ल से लेकर रसोई गैस की कीमतें घटेंगी, रेलवे भाड़ा नहीं बढ़ाया जायेगा; भ्रष्टाचार दूर होगा और विदेशों इतना से काला धन वापस लाया जायेगा कि हर आदमी के बैंक में लाखों रुपये पहुँच जायेंगे! लेकिन पिछले सात महीनों में ही देश की आम मेहनतकश जनता को समझ आने लगा है कि किसके “अच्छे दिन” आये हैं! रसोई गैस की कीमतें और रेल किराया बढ़ चुका है, खाने-पीने की चीज़ों के दाम आसमान छू रहे हैं। श्रम क़ानूनों से मज़दूरों को मिलने वाली सुरक्षा को छीना जा चुका है, तमाम पब्लिक सेक्टर की मुनाफ़ा कमाने वाली कम्पनियों का निजीकरण किया जा रहा है, जिसका अंजाम होगा बड़े पैमाने पर सरकारी कर्मचारियों की छँटनी। ठेका प्रथा को ‘अप्रेण्टिस’ जैसे नये नामों से बढ़ावा दिया जा रहा है। पेट्रोलियम उत्पादों की अन्तरराष्ट्रीय कीमतें आधी हो जाने के बावजूद मोदी सरकार ने तमाम टैक्स और शुल्क बढ़ाकर उसकी कीमतों को ज़्यादा नीचे नहीं आने दिया है। विदेशों से काला धन वापस लाने को लेकर तरह-तरह के बहाने बनाये जा रहे हैं और देश में काले धन को और बढ़ावा देने के इन्तज़ाम किये जा रहे हैं। विदेशों में जमा काला धन का एक पाई भी नहीं आया। देश के हर नागरिक के खाते में 15 लाख रुपये आना तो दूर, फूटी कौड़ी भी नहीं आयी। कुल काले धन का 80 फीसदी तो देश के भीतर है। उसमें भारी बढ़ोत्तरी के सारे इन्तज़ाम किये जा रहे हैं। रुपये की कीमत में रिकार्ड गिरावट के चलते महँगाई और ज़्यादा बढ़ रही है।

दूसरी तरफ़, अम्बानी, अदानी, बिड़ला, टाटा जैसे अपने आकाओं को मोदी सरकार एक के बाद एक तोहफ़े दे रही है! तमाम करों से छूट, लगभग मुफ्त बिजली, पानी, ज़मीन, ब्याजरहित कर्ज़ और मज़दूरों को मनमाफिक ढंग से लूटने की छूट दी जा रही है। देश की प्राकृतिक सम्पदा और जनता के पैसे से खड़े किये सार्वजनिक उद्योगों को औने-पौने दामों पर उन्हें सौंपा जा रहा है। ‘स्वदेशी’,  ‘देशभक्ति’, ‘राष्ट्रवाद’ का ढोल बजाते हुए सत्ता में आये मोदी ने अपनी सरकार बनने के साथ ही बीमा, रक्षा जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों समेत तमाम क्षेत्रों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को इजाज़त दे दी है। ‘मेक इन इण्डिया’ के सारे शोर-शराबे का अर्थ यही है कि “आओ दुनिया भर के मालिको, पूँजीपतियो और व्यापारियो! हमारे देश के सस्ते श्रम और प्राकृतिक संसाधनों को बेरोक-टोक जमकर लूटो!”

सच तो यह है कि विदेशों से आने वाली पूँजी अतिलाभ निचोड़ेगी और बहुत कम रोजगार पैदा करेगी। मोदी के ‘‘श्रम सुधारों’’ के परिणामस्वरूप मज़दूरों के रहे-सहे अधिकार भी छिन जायेंगे। असंगठित मज़दूरों के अनुपात में और अधिक बढ़ोत्तरी हो रही है। बारह-चौदह घण्टे सपरिवार खटने के बावजूद मज़दूर परिवारों का जीना मुहाल है।  औद्योगिक क्षेत्रों में व्यापक स्तर पर मज़दूर असन्तोष बढ़ रहा है लेकिन दलाल और सौदेबाज यूनियनें 2 सितम्बर की हड़ताल जैसे अनुष्ठानिक विरोध से उस पर पानी के छींटे डालने का ही काम कर रही हैं। मगर यह तय है कि आने वाले समय में स्वतःस्फूर्त मज़दूर बगावतें बढ़ेंगी और क्रान्तिकारी वाम की कोई धारा यदि सही राजनीतिक लाइन से लैस हो, तो उन्हें सही दिशा में आगे बढ़ा सकती है।

जल, जंगल, ज़मीन, खदान – सब कुछ पहले से कई गुना अधिक बड़े पैमाने पर देशी-विदेशी कारपोरेट मगरमच्छों को सौंपने की मोदी सरकार की मंशा भूमि अधिग्रहण कानून से ही साफ हो गयी थी। भारी विरोध के कारण अभी उसे वापस भले ही ले लिया गया है लेकिन  जमीन सहित प्राकृतिक संसाधनों को लुटेरों के हाथों में सौंपने की नीयत में कोई बदलाव नहीं आया है। लोगों को बन्दूक की नोक पर विस्थापित किया जायेगा और उनके हर प्रतिरोध को बर्बरतापूर्वक कुचलने की कोशिश जारी हैं।

विश्वव्यापी मंदी और आर्थिक संकट की जिस नयी प्रचण्ड लहर की भविष्यवाणी दुनिया भर के अर्थशास्त्री कर रहे हैं, वह तीन-चार वर्षों के भीतर भारतीय अर्थतंत्र को एक भीषण दुश्चक्रीय निराशा के भँवर में फँसाने वाली है। मँहगाई और बेरोजगारी तब विकराल हो जायेगी। व्यवस्था का क्रान्तिकारी संकट अपने घनीभूततम और विस्फोटक रूप में सामने होगा। अभी मोदी सरकार भले ही चीन के संकट का लाभ उठाने के मुंगेरीलाल वाले हसीन सपने देख रही हो, लेकिन यह तय है कि उसके हाथ भी कुछ खास आने वाला नहीं है।

मोदी की तमाम धावा-धूपी और देशी-विदेशी लुटेरों के आगे पलक-पाँवड़े बिछाने की कोशिशों के बावजूद असलियत यह है कि निवेशक पूँजी लेकर आ ही नहीं रहे हैं। जैसा कि हमने ‘मज़दूर बिगुल’ के पिछले अंक में कहा था, लगातार गहराती मन्दी के कारण  विश्व पूँजीवादी व्यवस्था के सारे सरगना ख़ुद ही परेशान हैं। अति-उत्पादन के संकट के कारण दुनियाभर में उत्पादक गतिविधियाँ पहले ही धीमी पड़ रही हैं और तमाम उपायों के बावजूद बाज़ार में माँग उठ ही नहीं रही है, तो ‘मेक इन इंडिया’ करने के लिए पूँजी निवेशकों की लाइन कहाँ से लगने लगेगी? जो आयेगा भी, वह चाहेगा कि कम से कम लगाकर ज़्यादा से ज़्यादा निचेाड़ ले जाये। मोदी आजकल यही लुकमा फेंकने की कोशिश कर रहे हैं कि किसी भी तरह आप पूँजी लगाओ तो सही, हम आपको यहाँ लूटमार मचाने की हर सुविधा की गारंटी करेंगे। हाल में भारतीय पूँजीपतियों के संगठन एसोचैम ने कहा कि निजी क्षेत्र में निवेश बढ़ने की सम्भावना ही कहाँ है जबकि बहुत से उद्योगों में पहले ही सिर्फ 30-40 प्रतिशत उत्पादन हो रहा है। अब तमाम पूँजीपति सरकार से खर्च बढ़ाने की गुहार लगा रहे हैं।

हालात की एक झलक तो तभी मिल गयी जब पूँजीपतियों को आसमान के तारे तोड़कर लाने के वादे करने वाले मोदी ने उनसे कहा कि पूँजीनिवेश करने के लिए उन्हें “जोखिम” उठाना पड़ेगा। अब कौन व्यापारी इतना बेवकूफ होगा कि संकट और मन्दी के माहौल में और भी बढ़कर रिस्क उठायेगा? यही करना तो मोदी को लाने की क्या ज़रूरत थी? लुब्बेलुआब यह है कि आर्थिक संकट मोदी के तमाम लच्छेदार भाषणों की हवा निकालने में लगा हुआ है। ऐसे में लोगों का असन्तोष बढ़ना लाजिमी है।

भविष्य के ‘‘अनिष्ट संकेतों’’ को भाँपकर मोदी सरकार अभी से पुलिस तंत्र, अर्द्धसैनिक बलों और गुप्तचर तंत्र को चाक-चौबन्द बनाने पर सबसे अधिक बल दे रही है। घनीभूत संकट के दौरान शासक वर्गों की राजनीतिक एकजुटता भी छिन्न-भिन्न होने लगी और बढ़ती अराजकता भारतीय राज्य को एक ‘‘विफल राज्य’’ जैसी स्थिति में भी पहुँचा सकती है। जन-संघर्षों और विद्रोहों को कुचलने के लिए सन्नद्ध दमन तंत्र भारतीय राज्य को एक ‘पुलिस स्टेट’ जैसा बना देगा।

मोदी के अच्छे दिनों के वायदे का बैलून जैसे-जैसे पिचककर नीचे  उतरता जा रहा है, वैसे-वैसे हिन्दुत्व की राजनीति और साम्प्रदायिक तनाव एवं दंगों का उन्मादी खेल जोर पकड़ता जा रहा है ताकि जन एकजुटता तोड़ी जा सके। अंधराष्ट्रवादी जुनून पैदा करने पर भी पूरा जोर है। पाकिस्तान के साथ सीमित या व्यापक सीमा संघर्ष भी हो सकता है क्योंकि जनाक्रोश से आतंकित दोनों ही देशों के संकटग्रस्त शासक वर्गों को इससे राहत मिलेगी।

मोदी सरकार की नीतियों ने उस ज्वालामुखी के दहाने की ओर भारतीय समाज के सरकते जाने की रफ्रतार को काफी तेज कर दिया है, जिस ओर घिसटने की यात्रा गत लगभग तीन दशकों से जारी है। भारतीय पूँजीवाद का आर्थिक संकट ढाँचागत है। यह पूरे सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर रहा है। बुर्जुआ जनवाद का राजनीतिक-संवैधानिक ढाँचा इसके दबाव से चरमरा रहा है। मोदी सरकार पाँच वर्षों के बाद लोगों के सामने अलग नंगी खड़ी होगी। भारत को चीन और अमेरिका जैसा बनाने के सारे दावे हवा हो चुके रहेंगे। भक्तजनों को मुँह छुपाने को कोई अँधेरा कोना नहीं नसीब होगा। फिर ‘एण्टी-इन्कम्बेंसी’ का लाभ उठाकर केन्द्र में चाहे कांग्रेस की सरकार आये या तीसरे मोर्चे की शिवजी की बारात और संसदीय वामपंथी मदारियों की मिली-जुली जमात, उसे भी इन्हीं नवउदारवादी नीतियों को लागू करना होगा, क्योंकि कीन्सियाई नुस्खों की ओर वापसी अब सम्भव ही नहीं।।

आम लोग “अच्छे दिनों” की असलियत को समझ रहे हैं और उनके भीतर नाराज़गी और गुस्सा बढ़ रहा है। यही कारण है कि मोदी सरकार लुटेरों की सेवा करने के अपने जनविरोधी कदमों के साथ ही देश भर में साम्प्रदायिक तनाव भड़काया जा रहा है। पहले ‘लव जिहाद’ का शोर मचाया गया था, जो कि फ़र्जी निकला; उसके बाद, ‘घर वापसी’ के नाम पर तनाव पैदा किया जा रहा है ‘रामज़ादे-हरामज़ादे’ जैसी बयानबाज़ियाँ की जा रही हैं मोदी सरकार को भगवा ब्रिगेड 800 वर्षों बाद ‘हिन्दू राज’ की वापसी क़रार दे रही है कुछ वर्षों में सारे भारत को हिन्दू बनाने का एलान किया जा रहा है हिन्दू औरतों से चार बच्चे पैदा करने के लिए कहा जा रहा है! भगवा ब्रिगेड की हिन्दुत्ववादी साम्प्रदायिकता के साथ ओवैसी जैसी इस्लामिक कट्टरपंथी नेता भी साम्प्रदायिक उन्माद भड़का रहे हैं। साम्प्रदायिक माहौल और दंगों का लाभ चुनावों में हिन्दुत्ववादी कट्टरपंथियों को भी मिलेगा और साथ ही ओवैसी जैसे इस्लामिक कट्टरपंथियों को भी; इसके अलावा, कांग्रेस, सीपीआई, सीपीएम, सपा, बसपा, आप, राजद, जद (यू) जैसी तथाकथित सेक्युलर पार्टियों को भी वोटों के ध्रुवीकरण का लाभ मिलेगा। और इस तनाव के माहौल में किन लोगों की जान-माल का नुकसान होगा? आम मेहनतकश जनता का, चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान!

आने वाले वर्षों में व्यवस्था के निरन्तर जारी असाध्य संकट का कुछ-कुछ अन्तराल के बाद सड़कों पर विस्फोट होता रहेगा। जब तक साम्राज्यवाद विरोधी पूँजीवाद विरोधी सर्वहारा क्रान्ति की नयी हरावल शक्ति नये सिरे से संगठित होकर एक नये भविष्य के निर्माण के लिए आगे नहीं आयेगी, देश अराजकता के भँवर में गोते लगाता रहेगा और पूँजीवाद का विकृत से विकृत, वीभत्स से वीभत्स, बर्बर से बर्बर चेहरा हमारे सामने आता रहेगा

ऐसे में हम तमाम मेहनतकश लोगों का आह्वान करते हैं कि ‘अच्छे दिनों’ के भरम से बाहर निकलो और आने वाले कठिन दिनों के संघर्षों के लिए ख़ुद को तैयार करें।

 

मज़दूर बिगुल, अगस्‍त-सितम्‍बर 2015


 

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