कभी चैन की नींद नहीं सो सकेंगे पूँजीवादी पथगामी…
चीन के नये पूँजीवादी शासकों के ख़िलाफ 4 जून, 1989 को त्येनआनमेन पर हुए जनविद्रोह के बर्बर दमन की 20वीं बरसी पर
सन 1989 के जून महीने की 4 तारीख़ को पूरी दुनिया चीन के बीजिंग शहर में सड़कों पर उतरी आम मेहनतकश जनता और छात्रों के आन्दोलन को संशोधनवादी सेना द्वारा कुचले जाने की गवाह बनी थी। बीजिंग के त्येनआनमेन चौक पर हुए उस बर्बर दमन को पश्चिमी पूँजीवादी मीडिया ने कम्युनिस्टों द्वारा लोकतन्त्र समर्थकों के दमन के रूप में प्रचारित किया और अब तक यही करता रहा है, जबकि वह एक जनविद्रोह था। उसमें माओ की शिक्षाओं को मानने वाले क्रान्तिकारियों के साथ ही वे मज़दूर भी शामिल थे, जो राज्य और पार्टी पर काबिज़ पूँजीवादी पथगामियों की नीतियों के ख़िलाफ सड़कों पर उतरे थे। उनके हाथों में माओ की तस्वीरों वाली तख्तियाँ रहती थीं और ज़बान पर माओ के समर्थन में नारे। इस दमन का शिकार होने वाले हज़ारों लोगों में से अधिकांश वे मज़दूर और छात्र थे, जो माओ के समर्थक और देङपन्थियों के विरोधी थे।
हालाँकि, इस आन्दोलन की शुरुआत उन बुर्जुआ बुद्धिजीवियों और शहरी मध्यवर्ग ने की थी, जो माओ की मौत के बाद सत्ता पर काबिज़ हुए संशोधनवादियों से सत्ता की बन्दरबाँट के लिए अपनी ताकत का प्रदर्शन करना चाहते थे। लेकिन इस आन्दोलन में क्रान्तिकारियों और मज़दूरों के शामिल होने से केवल चीन के नकली कम्युनिस्ट ही नहीं, बल्कि ख़ुद वे बुद्धिजीवी भी घबरा गये थे, क्योंकि वास्तव में वे भी उतने ही मज़दूर विरोधी थे जितने कि संशोधनवादी। संशोधनवादियों ने सेना का प्रयोग करके इस आन्दोलन को बुरी तरह कुचल दिया था। लोकतन्त्र, अभिव्यक्ति की आज़ादी आदि का हल्ला मचाते हुए राजकीय पूँजीपतियों से सत्ता में हिस्सा माँगने वाले अनेक बुर्जुआ छात्र-बुद्धिजीवी दमन से पहले ही देश छोड़कर भाग गये थे और जो उस समय नहीं भाग सके थे वे बाद में रफूचक्कर हो गये। आज इस घटना के बीस वर्षों के बाद भी चीन में जारी वर्ग संघर्ष और जगह-जगह होने वाले प्रदर्शनों-आन्दोलनों से माओ का यह कहना सच साबित होता है कि ”चीन में यदि पूँजीवादी पथगामी पूँजीवाद की पुनर्स्थापना में सफल हो भी गये तो भी वे कभी चैन की नींद नहीं सो सकेंगे और उनका शासन सम्भवत: थोड़े समय तक ही टिक पायेगा, क्योंकि यह उन क्रान्तिकारियों द्वारा बर्दाश्त नहीं किया जा सकेगा, जो पूरी आबादी के 90 प्रतिशत से भी ज्यादा लोगों के हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं।”
सत्ता की बन्दरबाँट के लिए शुरू हुआ था आन्दोलन
माओ की मौत के बाद सत्ता पर काबिज़ हुए संशोधनवादियों ने सत्ता पर मज़बूत पकड़ बनाते ही 1980 में तथाकथित सुधारों की शुरुआत कर दी थी, जो राज्य और पार्टी में बैठे नकली कम्युनिस्टों द्वारा पूँजीवादी नीतियों की राह अपनाने के सिवाय कुछ नहीं था। और पूँजीवाद समर्थक बुद्धिजीवी इन नीतियों के ज़रिये अपना स्वर्ग बनाने की आस लगाये बैठे थे। चीन में उस समय यूनिवर्सिटी के टीचरों, इंजीनियरों, लेखकों, कलाकारों और शहरी मध्यवर्ग के रूप में उभरने वाले यूनिवर्सिटी के छात्रों सहित हर उस व्यक्ति को बुद्धिजीवी कहा जाता था जो उच्च शिक्षा प्राप्त था। 1949 की चीनी क्रान्ति के बाद अनेक बुद्धिजीवियों ने सर्वहारा वर्ग का पक्ष चुना था, पारम्परिक रूप से सुविधाभोगी सम्पन्न सामाजिक तबके से सम्बन्ध रखने वाले अनेक बुद्धिजीवी क्रान्ति (विशेष तौर पर सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति) से नफरत करते थे और मज़दूरों तथा किसानों के प्रति अपनी नफरत ज़ाहिर करते रहते थे। दरअसल, चीन की नयी जनवादी क्रान्ति से लेकर महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति तक ऐसे बुद्धिजीवियों की सुविधाओं में कटौती हो गयी थी और 1980 के दौर के अधिकांश चीनी बुद्धिजीवी क्रान्ति पूर्व के पूँजीपति वर्ग या ज़मींदार वर्ग से आये थे।
ये बुर्जुआ बुद्धिजीवी पूँजीवादी नीतियों के समर्थक थे और उम्मीद करते थे कि सामाजिक और आर्थिक असमानता बढ़ने पर उनकी भौतिक सुविधाओं में भी बढ़ोत्तरी होगी। उन्हें आशा थी कि विश्व पूँजीवादी बाज़ार में प्रवेश से उन्हें पूँजीवादी देशों में जाने या बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में काम करके ऊँची आय कमाने के अधिक अवसर प्राप्त होंगे, जिससे वे पूँजीवादी देशों के बुद्धिजीवियों की बराबरी कर सकेंगे। 1980 के अन्त तक वे खुले आम पूरी तरह निजीकरण करने और मुक्त बाज़ार की पूँजीवादी व्यवस्था कायम करने की वकालत करने लगे।
हालाँकि, पूँजीवादी नीतियों को लेकर संशोधनवादियों और इन बुर्जुआ बुद्धिजीवियों में कोई मतभेद नहीं था, लेकिन उनके बीच इस बारे में कोई सहमति नहीं बन पायी कि समाजवादी उपलब्धियों के पूँजीवादी रूपान्तरण से मिलने वाली राजनीतिक ताकत और आर्थिक लाभ को आपस में कैसे बाँटा जाये। बुर्जुआ बुद्धिजीवी इस बात से असन्तुष्ट थे कि तथाकथित सुधारों के बाद पैदा हुआ धन राजकीय पूँजीपतियों और निजी उद्यमियों के पास इकट्ठा हो रहा था, लेकिन उन्हें हाल ही में पैदा हुई इस पूँजीवादी लूट में बराबर का भागीदार नहीं बनाया जा रहा था।
यही थी इन बुर्जुआ बुद्धिजीवियों द्वारा ”स्वतन्त्रता और जनवाद” की माँग की बुनियाद। वास्तव में चीन का शहरी मध्यवर्ग देश के पूँजीवादी राह पर बढ़ने के साथ ही शक्ति और धन में अधिक साझेदारी की माँग कर रहा था। कुछ बुर्जुआ बुद्धिजीवियों ने जापान, ताइवान, सिंगापुर जैसे पूँजीवादी मॉडल की मुखर माँग की, जो मज़दूर वर्ग के लिए तो दमनकारी हो, लेकिन पूँजीपतियों के लिए ”सम्पत्ति के अधिकार” और इन बुद्धिजीवियों के लिए ”नागरिक स्वतन्त्रता” की गारण्टी देता हो।
इधर विश्व पूँजीवादी तन्त्र में टिके रहने और स्थिति मज़बूत करने के लिए ज़रूरी था कि संशोधनवादी मज़दूरों को प्राप्त रहे-सहे अधिकार भी छीन लें और बेरोज़गारों की फौज तैयार करें, जिसे निचोड़कर पूँजी संचय की रफ्तार तेज़ की जा सके। और 80 के मध्य तक आते-आते तथाकथित सुधारों की रफ्तार तेज़ कर दी गयी। अब मज़दूरों को बाज़ार समाजवाद के नाम पर शुरू की गयी नीतियों की असलियत पता चलने लगी थी और उनकी स्थिति बदतर होती जा रही थी, साथ ही उनके सारे अधिकारों को एक-एक करके छीना जा रहा था। समाजवादी दौर में वे जिन फैक्टरियों के मालिक हुआ करते थे, वहाँ अब वे केवल मज़दूरी करके अपना पेट पाल सकते थे। सामूहिक खेती, स्वास्थ्य, आवास, शिक्षा आदि की सुविधाएँ एक-एक करके ध्वस्त की जा रही थीं। इन सब वजहों से उनमें रोष था और वे धीरे-धीरे कम्युनिस्ट नामधारी पार्टी तथा राज्य पर काबिज़ संशोधनवादियों से नफरत करने लगे थे।
इन स्थितियों में बुद्धिजीवियों ने ”स्वतन्त्रता और जनवाद” की माँग को लेकर छात्रों को एकजुट करना शुरू कर दिया, ताकि अपने साथ छात्रों की ताकत दिखाकर वे लूट में हिस्सा देने के लिए संशोधनवादियों को बाध्य कर सकें।
पूँजीवादी नीतियों से तबाह मज़दूर भी शामिल हुए
1989 से पहले भी उन्होंने छात्रों के आन्दोलन के ज़रिये शक्ति प्रदर्शन का प्रयास किया जिसे पश्चिम पूँजीवादी मीडिया ने हाथों-हाथ लिया और प्रचारित किया कि चीन के छात्र और आम जनता कम्युनिस्टों के ख़िलाफ एकजुट हो रहे हैं। लेकिन आम जनता का समर्थन हासिल न होने के कारण इन आन्दोलनों का व्यापक असर नहीं हुआ। फिर 1989 के अप्रैल महीने के मध्य में बुर्जुआ बुद्धिजीवियों के आह्नान पर बीजिंग के छात्र सड़कों पर उतर आये। शुरुआत में इन आन्दोलकारियों की संख्या कुछ हज़ार थी। लेकिन धीरे-धीरे कारख़ानों के मज़दूर और आम जनता भी स्वत:स्फूर्त ढंग से इसमें शामिल होने लगे। ये आन्दोलनकारी जहाँ से गुज़रते वहाँ के कारख़ानों के मज़दूर इनके साथ हो लेते। दिन बीतने के साथ-साथ और मज़दूरों के शामिल होने के कारण आन्दोलनकारियों की संख्या बढ़कर कई लाख हो गयी। अब जुलूसों में माओ के उद्धरणों की किताब और माओ की तस्वीरों वाली तख्तियाँ भी दिखने लगीं, जिनकी संख्या दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही थी। तियेनआनमेन चौक इन प्रदर्शनों का केन्द्र बन चुका था जहाँ लाखों प्रदर्शनकारी डटे रहते थे।
उधर, इस आन्दोलन में मज़दूरों और आम जनता की भागीदारी से लूट के माल में भागीदारी के इच्छुक घबराने लगे थे, क्योंकि वे मज़दूरों और किसानों से उतनी ही नफरत करते थे जितनी नफरत संशोधनवादी और मालिकों की अन्य जमातें करती थीं। वे डरे हुए थे, क्योंकि महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान मेहनतकशों की एकजुटता ने उन्हें पीछे हटने को मजबूर किया था और उनके विशेषाधिकार छीन लिये थे। 17 मई से पहले तक जब मज़दूर बड़ी संख्या में इस आन्दोलन में शामिल नहीं हुए थे, बुर्जुआ बुद्धिजीवी और छात्र केवल सरकार से बातचीत के लिए आगे आने की माँग कर रहे थे। लेकिन छात्रों के समर्थन में मज़दूर भी सड़कों पर उतरने लगे तो वे कहने लगे कि संगठित हुए बिना भी हम ”शान्तिपूर्ण और तार्किक” तरीकों से इन आन्दोलनों के लक्ष्यों को हासिल कर सकते हैं, वे कहने लगे कि सफलता मिले या न मिले हमें इन ”शान्तिपूर्ण और तार्किक” तरीकों को नहीं छोड़ना चाहिए।
जैसे-जैसे आन्दोलन आगे बढ़ने लगा ये बुर्जुआ बुद्धिजीवी पीछे हटने लगे, इनके इशारों पर नाचने वाले छात्र आन्दोलन को आगे बढ़ने से रोकने का प्रयास करने लगे। लेकिन असन्तोष बढ़ता गया और अन्तत: मज़दूरों और आम जनता से घबराकर संशोधनवादियों ने सेना को यह आन्दोलन कुचलने के आदेश दे दिये। फिर भी, पहली बार, व्यापक आबादी के सड़कों पर उतर आने के कारण सेना बीजिंग शहर में नहीं घुस सकी। मज़दूरों और आम जनता तथा क्रान्तिकारी छात्रों ने शहर में घुसने के सारे रास्ते जाम कर दिये। वे लोग टैंकों के आगे खड़े हो गये। मजबूरन सेना को पीछे हटना पड़ा। इसके बावजूद, यह नहीं कहा जा सकता कि आम आबादी और मज़दूर उस समय संगठित थे और क्रान्तिकारी ताकतें उनका नेतृत्व कर रही थीं। यह सब स्वत:स्फूर्त ढंग से हो रहा था। 3 जून को जब दोबारा सेना के आने की ख़बर मिली तो प्रदर्शनकारियों ने शहर में प्रवेश के चारों प्रमुख रास्ते जाम कर दिये। जगह-जगह बैरीकेड लगा दिये गये और बसें जलाकर रास्ते में खड़ी कर दी गयीं। लेकिन ज़बरदस्त प्रतिरोध के बावजूद वे सेना को नहीं रोक सके और वह सैकड़ों लोगों को मौत के घाट उतारते हुए रात तक प्रदर्शन और आन्दोलन के केन्द्र त्येनआनमेन चौक तक पहुँच गयी।
4 जून की सुबह सेना ने त्येनआनमेन चौक पर जमा लाखों प्रदर्शनकारियों पर गोलियाँ चला दीं और तोप से हमला किया। हज़ारों मज़दूर और छात्र मारे गये, जबकि कई बुर्जुआ बुद्धिजीवी और उनके समर्थक छात्र वहाँ से निकल भागे। सेना ने चौक को ख़ाली कराकर उस पर कब्ज़ा कर लिया था। अगली सुबह जब कुछ प्रदर्शनकारियों ने चौक में प्रवेश करने का प्रयास किया तो सैनिकों की तोपें और बन्दूकें फिर गरज उठीं। आन्दोलन को कुचल दिया गया था। दसियों हज़ार की संख्या में आम मेहनतकश आबादी मारी गयी थी और त्येनआनमेन चौक ख़ून से रँग गया था।
संशोधनवादियों की बर्बरता का कम्युनिस्टों के कारनामों के रूप में प्रचार
इस घटना के तुरन्त बाद दुनियाभर के पूँजीवादी देशों और मीडिया ने प्रचारित करना शुरू किया कि चीन की कम्युनिस्ट सरकार ने लोकतन्त्र समर्थक आन्दोलन का बर्बर दमन किया। पूँजीवादी मीडिया ने यह नहीं बताया कि इस बर्बर दमन में हज़ारों की संख्या में मज़दूरों और छात्रों की मौत हुई लेकिन पश्चिमी मीडिया मज़दूरों की भागीदारी तथा संशोधनवादी सरकार के प्रति उनके असन्तोष को दबा गया और इसे मात्र लोकतन्त्र के समर्थन में चलने वाले आन्दोलन को कम्युनिस्टों द्वारा कुचले जाने के रूप में प्रचारित किया। यह चीज़ जानबूझकर छिपायी गयी कि उस आन्दोलन में भारी संख्या आम मेहनतकश आबादी और क्रान्तिकारी छात्रों की थी, जिनके हाथ में माओ की तस्वीरों वाली तख्तियाँ थीं। वे कम्युनिस्ट होने का ढोंग करने वाली संशोधनवादी पार्टी का विरोध कर रहे थे। यदि वे नहीं होते तो यह आन्दोलन इतना फैलता ही नहीं।
आने वाले समय में ऐसे अनेक विद्रोहों के संकेत
मौजूदा दौर में चीन से जो छिटपुट ख़बरें आ रही हैं, उनसे पता चलता है माओ ने जो कहा था वह सच साबित हो रहा है। जनता अब बाज़ार समाजवाद की असलियत जान चुकी है। वहाँ लगातार असमानता, ग़रीबी, बेरोज़गारी बढ़ रही है, किसी समय चीनी समाज के निर्माता कहे जाने वाले मज़दूरों के साथ जानवरों जैसा व्यवहार किया जा रहा है। उन्हें बुनियादी सुविधाएँ तक प्राप्त नहीं हैं। सामूहिक खेती और स्वास्थ्य की व्यवस्था नष्ट हो चुकी है। चीन के मज़दूर वर्ग में व्याप्त असन्तोष और आक्रोश के समय-समय पर और जगह-जगह फूट पड़ने वाले लावे को व्यवस्था परिवर्तन की दिशा देने के लिए आज फिर माओ की शिक्षाओं को याद किया जा रहा है। पूरे चीन के पैमाने पर क्रान्तिकारी गतिविधियों के संकेत समय-समय पर मिलते रहते हैं। लगभग दो वर्ष पहले ही माओ के विचारों के समर्थन में पर्चे बाँटने के कारण चार मज़दूर कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया था, जिसके विरोध में चीन के अनेक माओ समर्थक बुद्धिजीवियों ने भी आवाज़ बुलन्द की थी। इसके अलावा भी क्रान्तिकारी विचारों को मानने वाले कई संगठन पूरे चीन में मज़दूरों को जागृत, गोलबन्द और संगठित करने और माओ की शिक्षाएँ उन तक पहुँचाने का लगातार प्रयास कर रहे हैं। इससे अन्दाज़ा लगाया जा सकता है कि आने वाला समय चीन में तूफानी उथल-पुथल का दौर होगा और पूँजीवादी पथगामी वाकई चैन से नहीं बैठ सकेंगे।
बिगुल, जून 2009
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन
bahut sahi…..
Cheen ki maowadi kranti ki safalta bharat ke liye labhdayak hogi….
ham uski safalta ki kamna karte hain..