मुनाफ़े की व्यवस्था में बेअसर हो रही जीवनरक्षक दवाएँ
डॉ. अमृत
आधुनिक स्वास्थ्य प्रणाली का एक बहुत अहम हिस्सा रोगाणु-रोधक दवाएँ (ऐण्टीबायोटिक्स) जिस तरह बे-असर होने की तरफ़ बढ़ रही हैं, उसके भयानक नतीजे अब स्पष्ट दिखायी देने लगे हैं और इसके बारे में अब विश्व स्तर पर चर्चा होनी शुरू हो चुकी है। इसका सीधा सम्बन्ध मुनाफ़े पर टिके इस सामाजिक ढाँचे से है।
भारत में एक बड़ी बीमारी चुपचाप पैर पसार रही है जिसका कारण ऐसे बैक्टीरिया की किस्मों का बड़ी संख्या में सामने आना है, जिन पर रोगाणु-रोधक दवाओं का या तो बिल्कुल ही कोई असर नहीं होता या फिर बहुत कम दवाओं का ही असर होता है और जब तक सही दवा का पता लगता है, तब तक रोगी की हालत पहले ही लाइलाज हो चुकी होती है या उसकी मृत्यु हो जाती है। एक ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार इसका सबसे भयानक प्रभाव नवजात बच्चों में दिखायी दे रहा है। भारत में हर वर्ष आठ लाख नवजात बच्चे किसी न किसी कारण मौत के मुँह में चले जाते हैं। पिछले वर्ष इन आठ लाख बदकिस्मत बच्चों में से 58,000 बच्चे ऐसे बैक्टीरिया का शिकार हुए जिन पर रोगाणु-रोधक-दवाओं का कोई प्रभाव नहीं हुआ, और कभी पूरी तरह इलाजयोग्य रही बीमारियाँ लाइलाज बन गयीं। चाहे फ़िलहाल यह संख्या नवजात बच्चों की कुल मौतों का बहुत छोटा हिस्सा प्रतीत होती है, परन्तु डॉक्टरों के अनुसार यह संख्या तेज़ी से बढ़ सकती है, क्योंकि भारत में वे सभी हालात मौजूद हैं जो ऐसे बैक्टीरिया के बहुत तेज़ी से फैलने के लिए अनुकूल माहौल मुहैया करवाते हैं।
प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी चाहे ‘स्वच्छ भारत’ के जितने मर्ज़ी तमाशे करें, परन्तु वास्तविकता यह है कि आधी से अधिक आबादी के पास आधुनिक तो क्या, साधारण बोर-होल पाखाने की सुविधा भी नहीं है। नतीजा, भारत के पानी के स्रोत, खेत, सिवरेज आदि रोगाणु-रोधक दवाओं को बे-असर करने वाले बैक्टीरिया से भरे हुए हैं। आबादी के बड़े हिस्से को रहने के लिए ज़रूरत की जगह भी नहीं मिलती, कम जगह में बहुत ज़्यादा लोगों के रहने के कारण मनुष्य से मनुष्य के दरमियान भी बैक्टीरिया तेज़ी से फैलते हैं। रिहायशी स्थानों के साथ-साथ अस्पताल, ख़ासकर सरकारी अस्पताल भी भीड़-भड़क्के वाले स्थान बन गये हैं। सरकारें एक तरफ़ अस्पतालों में प्रसव को बढ़ाने के लिए नक़द प्रोत्साहन दे रही हैं, परन्तु अस्पतालों की सामर्थ्य बढ़ाने की तरफ़ उन का कोई भी ध्यान नहीं है, क्योंकि हमारे नेताओं और नीति-निर्माताओं को लगता है कि अस्पताल में प्रसूति कराने के लिए कुछ रुपयों की नक़द राशि देकर उनकी ज़िम्मेदारी ख़त्म हो जाती है। अस्पतालों में बिस्तर ही पूरे नहीं हैं, एक-एक बिस्तर पर दो-दो तीन-तीन औरतें अपने नवजात बच्चों को लेकर बैठी हैं। जिन्हें बेड पर जगह नहीं मिलती, उनको ज़मीन पर चादर बिछाकर दिन काटने पड़ते हैं। अस्पतालों की हालत का अन्दाज़ा यूनीसेफ़ द्वारा राजस्थान के ज़िला अस्पतालों पर किये एक अध्ययन से हो जाता है जिसके अनुसार 70 प्रतिशत अस्पतालों में पानी दूषित था, हाथ धोने के लिए बने वाशबेसिनों में से 78 प्रतिशत पर हाथ धोने के लिए साबुन ही नहीं था, 67 प्रतिशत गुसलख़ाने और पाख़ाने मानवीय प्रयोग के लायक नहीं थे। यह वास्तविकता ‘स्वच्छ भारत’ के ड्रामों के साथ भी ख़त्म नहीं होने वाली। ये सभी हालात रोगाणु-रोधक दवाओं को बेअसर करने वाले बैक्टीरिया के फैलने के लिए बेहद अनुकूल माहौल पेश कर रहे हैं और डॉक्टरों की यह चेतावनी ऐसे ही नहीं है, क्योंकि अगर एक बार ऐसे बैक्टीरिया का फैलना शुरू हो जाता है तो इसको रोकना आसान नहीं होगा।
सर गंगा राम अस्पताल, नई दिल्ली के बच्चों के विशेषज्ञ डॉक्टरों के अनुसार वहाँ रैफ़र होते बच्चों में से लगभग शत-प्रतिशत ही ऐसे बैक्टीरिया का शिकार होते हैं। उनके अनुसार यह पिछले कुछ वर्षों से ही शुरू हुआ है और यह स्थिति बड़ी डरावनी है। भारत के आगे यह ख़तरा खड़ा होने के साथ नवजात बच्चों की मृत्यु-दर जोकि पहले ही आज के मेडिकल विज्ञान के पैमानों और मानवीय विकास के स्तर के अनुसार बहुत ज़्यादा है, फिर से बढ़ने के आसार बनते दिखायी दे रहे हैं। वैसे भी भारत में यह दर नीचे आने का कारण कोई सामाजिक या आर्थिक बदलाव नहीं था, जिसने लोगों के जीवन-हालात को बेहतर कर दिया हो, जैसेकि पश्चिमी मुल्कों में हुआ है। पिछले वर्षों में नवजात बच्चों की मृत्यु दर अगर कुछ नीचे आयी थी तो इसका कारण नवजात बच्चों में बैक्टीरिया की छूत को क़ाबू करने में रोगाणु-रोधक दवाओं के प्रयोग पर निर्भरता है। अगर ये दवाएँ बे-असर होनी शुरू हो जाती हैं तो नवजात बच्चों की मुत्यु-दर का फिर से बढ़ना स्वाभाविक है। सिर्फ़ बच्चे ही नहीं, बड़ों में भी इन बैक्टीरिया द्वारा होने वाली बीमारियों के फैलने का ख़तरा है। सबसे बड़ा ख़तरा टीबी के इलाज के लिए इस्तेमाल की जाने वाली मौजूदा दवाओं के बे-असर हो जाने का है, जिसके बारे में कई डॉक्टरों का तो यहाँ तक कहना है कि आने वाले नज़दीकी भविष्य में भारत में टीबी का इलाज कर पाना असम्भव हो जायेगा और हम एक बार फिर उस युग में पहुँच जायेंगे, जब टीबी की बीमारी हो जाने का मतलब कई महीनों के लिए लहू मिली बलगम थूकते हुए मौत का इन्तज़ार करना होता था।
भारत समेत तीसरी दुनिया के लगभग सभी देशों में रोगाणु-रोधक दवाओं के बे-असर होते जाने की संख्या विकसित देशों के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा है। इसका एक कारण तो इन देशों में रोगाणु-रोधक दवाओं का अन्धाधुन्ध प्रयोग है जिसका मुख्य कारण अशिक्षित झोलाछाप डॉक्टर और कैमिस्टों द्वारा आम लोगों को ये दवाएँ देने पर कोई रोक-टोक का न होना है, दूसरा बाकायदा शिक्षित डिग्रीधारक डॉक्टर भी इन दवाओं के वैज्ञानिक प्रयोग के प्रति बहुत सचेत नहीं हैं और कम्पनियों की तरफ़ से दवाएँ लिखने के लिए दिये जाते कमीशन उनमें से बहुतों को सचेत होने भी नहीं देते। इसके साथ ज़रूरी लैब टेस्टों की उपलब्धता न होना या बहुत महँगा होना भी इन दवाओं के ग़ैर-ज़रूरी प्रयोग को प्रोत्साहित करता है। विकसित मुल्कों में भी रोगाणु-रोधक दवाओं का अनावश्यक प्रयोग कोई कम नहीं है। विकसित यूरोपीय देशों में इन दवाओं का प्रयोग आधे मामलों में अनावश्यक होता है, परन्तु इन मुल्कों के मुक़ाबले भारत जैसे मुल्कों में ऐसे बैक्टीरिया के फैलने का ख़तरा अधिक है, क्योंकि ऊपर ज़िक्र किये गये हालात, जो रोगाणु-रोधक दवाओं को बे-असर करने वाले बैक्टीरिया के सामने आने के बाद उनके फैलने के लिए और ज़्यादा माफ़िक़ होते हैं, भारत जैसे देशों में ही मौजूद होते हैं। विकसित मुल्कों में पिछले एक दशक के दौरान इन दवाओं के अनावश्यक प्रयोग पर लगाम कसी गयी है। कुछ समय पहले अमरीका में ओबामा सरकार ने इसको राष्ट्रीय एमरजेंसी ऐलान कर इस समस्या को क़ाबू करने के लिए क़दम उठाये हैं। विकसित मुल्कों में बिक्री नीचे आने के कारण दवा-कम्पनियों का पूरा ज़ोर अब विकासशील देशों में बिक्री बढ़ाने पर लगा हुआ है। ऊपर से पहले ही बेअसर क़ानूनी और प्रशासनिक प्रबन्ध मौजूदा नवउदारवादी दौर में और भी ढीला कर दिया गया है, जिसके कारण भारत जैसे देशों में इस समस्या को कण्ट्रोल करने के लिए कोई क़दम उठाया जायेगा, इसकी सम्भावना कम ही दिखायी दे रही है। और तो और, यहाँ तो गंगा उलटी बहती है। मात्र एक वर्ष पहले दिल्ली के अस्पतालों में ऐसे ही एक बैक्टीरिया के मिलने की रिपोर्ट एक मेडिकल मैगजीन में छपी जिसको भारत के मीडिया और राजनैतिक पार्टियों ने ‘राष्ट्रीय सम्मान’ पर हमला बना दिया। होना तो यह चाहिए था कि इन मामलों की तह तक पहुँचा जाता, क्योंकि ऐसे बैक्टीरिया का मिलना पूरी मानवता के लिए ख़तरा बन सकता है। परन्तु नहीं, भारत के पूँजीपतियों के लिए यह ‘राष्ट्रीय सम्मान’ का सवाल बन गया, क्योंकि इस रिपोर्ट के साथ दिल्ली और अन्य शहरों के बड़े-बड़े कारपोरेट अस्पतालों में ‘मेडिकल टूरिज़्म’ के कारोबार से होते मुनाफ़े को ख़तरा खड़ा हो सकता था। यह है धनाढ्यों का ‘राष्ट्रीय सम्मान’ जो मण्डी में से पैदा होता है और मण्डी के साथ बढ़ता-फूलता है। भारत की चुनी हुई लोकतान्त्रिक सरकार जो समूचे देश के निवासियों के लिए ज़िम्मेदार होती है, धनाढ्यों के ‘राष्ट्रीय सम्मान’ पर चोट पड़ने के साथ झटपट से सक्रिय हो गयी और रिपोर्ट को झुठलाने के ‘नेक काम’ में जुट गयी। परन्तु सच्चाई तो सामने आनी ही है, अब इस ताज़ा रिपोर्ट ने फिर रोगाणु-रोधक दवाओं को बेअसर करने वाले बैक्टीरिया के फैलने की सच्चई को ज़ाहिर कर दिया है, परन्तु मोदी सरकार मनमोहनी-सरकार से दो क़दम आगे जायेगी, पीछे नहीं।
बाक़ी मामला सिर्फ़ मनुष्य में इन दवाओं के अनावश्यक प्रयोग का ही नहीं है, पशुपालन और पोल्ट्री में इन दवाओं का बहुत बड़े स्तर पर प्रयोग होता है। पोल्ट्री में मुर्गों को डाली जाने वाली फ़ीड में ऐण्टीबायोटिक्स का प्रयोग इसलिए होता है क्योंकि इसके साथ कम खुराक से ही मुर्गों का वज़न बढ़ाया जा सकता है। इससे खुराक पर होने वाला ख़र्चा लगभग 30 प्रतिशत कम हो जाता है, नतीजा मुनाफ़े की प्रतिशत अधिक हो जाती है। पूँजीवादी ढाँचे में जब लाभ ही सारी उत्पादक गतिविधियों का मक़सद बन जाता है, तब फिर मानवता किस को याद रहनी है।
मज़दूर बिगुल, जनवरी 2015
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