कारख़ाना मज़दूर यूनियन के नेतृत्व में 100 से भी अधिक पावरलूम कारख़ानों के मज़दूरों ने कायम की जुझारू एकजुटता
शक्तिनगर के मज़दूरों की आठ दिन और गौशाला, कश्मीर नगर व माधोपुरी के मज़दूरों की 15 दिन की हड़ताल से हासिल हुई शानदार जीत
लखविन्दर
कारख़ाना मज़दूर यूनियन, लुधियाना के नेतृत्व में पहले न्यू शक्तिनगर के 42 कारख़ानों के मज़दूरों की 24 अगस्त से 31अगस्त तक और फिर गौशाला, कश्मीर नगर और माधोपुरी के 59 कारख़ानों की 16 सितम्बर से 30 सितम्बर तक शानदार हड़तालें हुईं। दोनों ही हड़तालों में मज़दूरों ने अपनी फौलादी एकजुटता और जुझारू संघर्ष के बल पर मालिकों को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया। जहाँ दोनों ही हड़तालों में पीस रेट में बढ़ोत्तरी की प्रमुख माँग पर मालिक झुके वहीं शक्तिनगर के मज़दूरों ने तो मालिकों को टूटी दिहाड़ियों का मुआवज़ा तक देने के लिए मजबूर कर दिया। लेकिन इस हड़ताल की सबसे बड़ी उपलब्धि इस बात में है कि इस हड़ताल ने मज़दूरों में बेहद लम्बे अन्तराल के बाद जुझारू एकजुटता कायम कर दी है। 1992 में पावरलूम कारख़ानों में हुई डेढ़ महीने तक चली लम्बी हड़ताल के बाद 18 वर्षों तक लुधियाना के पावरलूम मज़दूर संगठित नहीं हो पाये थे। इन अठारह वर्षों में लुधियाना के पावरलूम मज़दूर एक भयंकर किस्म की निराशा में डूबे हुए थे। मुनाफे की हवस में कारख़ानों के मालिक उनकी निर्मम लूट में लगे हुए थे। लेकिन किसी संगठित विरोध की कोई अहम गतिविधि दिखायी नहीं पड़ रही थी। लेकिन अब फिर से कारख़ाना मज़दूर यूनियन के नेतृत्व में उनके संगठित होने की नयी शुरुआत हुई है। यही मज़दूरों की सबसे बड़ी जीत भी है। यह आन्दोलन न सिर्फ पावरलूम मज़दूरों के लिए बल्कि लुधियाना के अन्य सभी कारख़ाना मज़दूरों के लिए एक नयी मिसाल कायम कर गया है।
शक्तिनगर में हुई हड़ताल के बाद गीता नगर के लगभग 50 कारख़ानों के मज़दूरों ने भी 6 सितम्बर से 1 अक्टूबर तक हड़ताल की और वे भी पीस रेट वेतन बढ़ोत्तरी हासिल करने में सफल रहे। इस हड़ताल का नेतृत्व माकपा से टूट कर बनी एक पार्टी सी.पी.एम. पंजाब के मज़दूर फ्रण्ट सी.टी.यू. पंजाब के हाथ में था। इस हड़ताल के नेतृत्व के घोर अवसरवादी चरित्र के कारण लुधियाना के मज़दूर आन्दोलन को एक बार फिर बड़ा नुकसान उठाना पड़ा। गीता नगर के पावरलूम मज़दूर साथियों की हड़ताल पर हम आगे अलग रपट प्रकाशित करेंगे।
लुधियाना के पावरलूम मज़दूरों की नारकीय जीवन परिस्थितियाँ
लुधियाना के पावरलूम कारख़ानों में मालिकों का बर्बर जंगल राज कायम है। इन कारख़ानों में काम करने वाले मज़दूर कितनी भयंकर ज़िन्दगी जीने पर मजबूर होंगे इसका अन्दाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि पिछले 10-12 वर्षों से उनके वेतन में ज़रा सी भी बढ़ोत्तरी नहीं हुई है। बल्कि बहुत से मामलों में तो उनके पीस रेट घटा दिये गये हैं। दूसरी तरफ इन 10-12 वर्षों के दौरान मज़दूरों की बुनियादी ज़रूरतों की वस्तुओं की कीमतें आसमान छूने लगी हैं। इस दौरान आटे की कीमत लगभग दोगुनी हो चुकी है। मूँग-मसूर और अरहर की दाल ग़रीबों का रोज़मर्रा का भोजन माना जाता था,लेकिन अब ये भी मज़दूरों की पहुँच में नहीं हैं। खाना पकाने का तेल, सब्ज़ियाँ आदि सब चीज़ों की आसमान छू रही कीमतें मज़दूरों की कमर तोड़ रही हैं। फल ख़रीद सकने का तो मज़दूर सपना भी नहीं देख सकते। कमरों के किराये इन10-12 वर्षों में लगभग चार गुना बढ़ चुके हैं। हर जगह की तरह शक्तिनगर के पावरलूम मज़दूरों को मालिक इतना ही देते हैं कि वे सिर्फ ज़िन्दा रह सकें। मज़दूरों को कारख़ाना मालिकों ने महज़ अपनी मशीनों के पुर्ज़े बना दिया है। ऐसा कोई भी पावरलूम मज़दूर नहीं है जो कम-से-कम 12 घण्टे काम न करता हो। 14-16 घण्टे काम करना तो बहुत साधरण-सी बात मानी जाती है। लेकिन इसके बावजूद भी कुछेक को छोड़कर सभी की मासिक कमाई 3500 से 5000 ही बन पाती है। वे न अच्छा खा सकते हैं, न अच्छा पहन सकते हैं, न अच्छी रिहायश प्राप्त कर सकते हैं, न दवा-इलाज करवा सकते हैं। मनोरंजन के लिए उनके पास न तो समय है न पैसा। वहीं शक्तिनगर के कारख़ाना मालिकों के मुनाफे दिन दूने-रात चौगुने बढ़े हैं। मालिकों ने शाल के कपड़े की कीमतें पहले से बहुत अधिक बढ़ा दी हैं। उनके बँगलों-गाड़ियों की संख्या बढ़ती जा रही है, वे अपने घरेलू जानवरों पर ही महीने में दसियों हज़ार ख़र्च कर देते हैं, पार्टियों-जश्नों में बेहिसाब धन उड़ा देते हैं। लेकिन मज़दूरों की आमदनी में वे एक पैसे की भी बढ़ोत्तरी करने को तैयार नहीं होते। ये बर्बर कारख़ाना मालिक मज़दूरों की सुरक्षा पर एक भी पैसा ख़र्च करने को तैयार नहीं। कारख़ानों में अक्सर भयंकर हादसे होते रहते हैं। शक्तिनगर के कारख़ाने मज़दूरों के साथ होने वाले हादसों के लिए मशहूर हैं। मशीनों में करण्ट आने से, ताने में लिपटने से अक्सर मज़दूर जानलेवा हादसों का शिकार होते रहते हैं। ई.एस.आई. कार्ड आदि की तो बात ही छोड़िये मालिक तो उन्हें पहचानपत्र तक बना कर देने को तैयार नहीं। इसीलिए वे हादसे होने पर मज़दूरों को मुआवज़ा देने की ज़िम्मेदारी से भी बच जाते हैं। मज़दूर के मरने पर भी वे दस-बीस हज़ार में बात निपटाने की कोशिश करते हैं। आठ घण्टे कार्यदिवस,हाज़िरी रजिस्टर, हाज़िरी कार्ड, पी.एफ, छुट्टियाँ आदि सभी श्रम कानूनों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाने वाले इन मालिकों को किसी का डर नहीं। लेबर विभाग, पुलिस- प्रशासन सहित सारा सरकारी तन्त्र इनकी जेब में है। मालिकों द्वारा बेहद घृणित व्यवहार मज़दूरों को सहना पड़ता है। बात-बात पर गाली-गलौज, मार-पिटाई साधारण बात है।
पूरे लुधियाना में आम मज़दूर आबादी की यही स्थिति है। लेकिन इन मज़दूरों को संगठित करने की बजाय क्रान्तिकारी वाम का बड़ा हिस्सा स्वयं अवसरवादी हो धनी किसानों की माँगों को लेकर लड़ने में लगा हुआ है। इस विशालकाय मज़दूर आबादी को संशोधनवादी ट्रेडयूनियनों के भरोसे छोड़ दिया गया है। इन्हें न संगठित करने के लिए तरह-तरह के मज़ाकिया बहाने दिये जाते हैं जैसे कि इन मज़दूरों का प्रवासी होना, इनकी स्थायी रिहायश न होना, आदि। लेकिन इस ज़िम्मेदारी से मुँह चुराने का वास्तविक कारण इस पुराने पड़ चुके वामपन्थी नेतृत्व की अवसरवादिता और उसकी पुरानी पड़ चुकी सोच में निहित है।
पावरलूम मज़दूरों में क्रान्तिकारी चेतना व संगठन के बीज बोये जाना, शक्तिनगर के मज़दूरों का बिखरा स्वत:स्फूर्त संघर्ष, का.म.यू. के नेतृत्व में संगठित हड़ताल का पहला दौर और शानदार जीत
जैसा कि हमने रिपोर्ट की शुरुआत में ही बताया कि लुधियाना के पावरलूम मज़दूर 1992 की पावरलूम मज़दूरों की हड़ताल की असफलता के बाद बेहद निराश हो गये थे। 18 वर्षों तक पावरलूम मज़दूर आबादी में एक भयंकर चुप्पी छाई थी। इन मज़दूरों को फिर से जगाना और संगठित करने के बेहद कठिन और चुनौतीपूर्ण काम को बिगुल ने 2008 के लगभग 5-6महीनों से हाथ में लिया थ। बिगुल मज़दूर दस्ता द्वारा मज़दूरों के बीच लगातार और गहन क्रान्तिकारी प्रचार-प्रसार किया गया। शक्तिनगर के इलाके में मज़दूरों की अच्छी-ख़ासी संख्या ‘बिगुल’ तथा अन्य क्रान्तिकारी साहित्य पढ़ने लगी। जुलाई2008 में मुख्यत: बिगुल के साथ जुड़े लुधियाना के मज़दूरों को साथ लेकर कारख़ाना मज़दूर यूनियन का गठन किया गया था। जून में पप्पू नाम के एक मज़दूर की मशीन पर काम करते वक्त क़रण्ट लगने से मौत हो जाने के बाद न्यू शक्तिनगर के इन मज़दूरों ने कारख़ाना मज़दूर यूनियन के नेतृत्व में अपने साथी की मौत के अफसोस में और कारख़ाना मालिक से उसके परिवार को उचित मुआवज़ा दिलाने के लिए एक दिन की हड़ताल की थी। इस एक दिन की हड़ताल के बाद मज़दूरों ने मालिकों को उनके पीस रेट में बढ़ोत्तरी करने की माँग करने का साहस दिखाना शुरू किया। पहले सभी कारख़ानों के मरोड़ी कारीगरों ने हड़ताल करके मालिकों से पीस रेट बढ़वाया, फिर ताना बाइण्डरों ने हड़ताल करके रेट बढ़वाया, फिर कुछ कारख़ानों के मशीन ऑपरेटरों ने रेट बढ़वा लिया। कुछ कारख़ानों में कोना बाइण्डरों के भी पीस रेट बढ़ गये थे। उनके बाद जब नलिया बाइण्डर हड़ताल पर बैठे तो मालिक ग़ुस्से से पागल हो उठे। नलिया बाइण्डर मज़दूरों की चल रही हड़ताल के दौरान ही यूनियन एक पर्चा छापकर बाँटने की तैयारी कर रही थी जिसमें मज़दूरों को इस तरह की बिखरी हड़तालों की बजाय सारे मज़दूरों की संगठित हड़ताल किये जाने का आह्नान किया जाना था। इससे पहले कि मज़दूरों के पास वह पर्चा पहुँचता मालिकों ने ख़ुद ही अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारते हुए सभी मज़दूरों की एकजुट हड़ताल का रास्ता साफ कर दिया। मज़दूरों की माँगों से ग़ुस्से से पागल हो उठे मालिकों ने मज़दूरों को सबक सिखाने के इरादे से, उनमें दहशत फैलाने के लिए 24 तारीख़ को ख़ुद ही कारख़ाने बन्द कर दिये। उन्होंने सोचा था कि उनके ऐसा करने से मज़दूर भविष्य में उनके सामने किसी प्रकार की कोई माँग रखने का साहस नहीं दिखायेंगे। उन्होंने पिछलें दिनों में मज़दूरों द्वारा बढ़वाये पीस रेट भी रद्द कर दिये और कहा कि अब जिसने काम करना है करो बाकी जाओ। मालिकों ने सोचा था कि मज़दूर उनके सामने हाथ जोड़ेंगे, उनके पैर पकड़ेंगे और पीस रेट बढ़ाने की माँग रखने का साहस दिखाने के लिए क्षमा माँगेंगे और 2-3 घण्टों में जब मज़दूर ज़मीन पर आ जायेंगे तो वे फिर काम शुरू कर लेंगे। लेकिन साहसी मज़दूरों ने उनकी सारी योजनाओं पर पानी फेर दिया। मज़दूरों ने मालिकों की ईंट का जवाब पत्थर से दिया। मज़दूरों ने तुरन्त कारख़ाना मज़दूर यूनियन से सम्पर्क किया और उन्हें रास्ता दिखाने को कहा। तुरन्त मज़दूरों की बड़ी मीटिंग बुलायी गयी। लगभग 400 मज़दूरों की इस मीटिंग में सर्वसम्मति से एलान किया गया कि जब तक सारे के सारे मज़दूरों के पीस रेट और जो मज़दूर वेतन पर काम करते हैं उनके वेतन नहीं बढ़ा दिये जाते तब तक शक्तिनगर में कोई कारख़ाना नहीं चलेगा। 25 अगस्त को नाममात्र संख्या को छोड़कर बाकी सारे मज़दूर हड़ताल पर थे।
मालिकों को अभी भी यह भ्रम था कि मज़दूर काम पर अपने आप लौट आयेंगे, लेकिन समय के साथ उनका भ्रम टूटता गया। हड़ताल और मज़बूत होती गयी। किसी-किसी कारख़ाने में जो थोड़ा-बहुत काम हो रहा था, वह भी बन्द होता चला गया। 42 कारख़ानों का काम पूरी तरह से ठप्प हो गया। 25 को श्रम विभाग पर ज़बर्दस्त रोष-प्रदर्शन करके पीस रेट बढ़ाने, कारख़ानों में मज़दूरों की सुरक्षा इन्तज़ामों सहित सभी श्रम कानून लागू करने के लिए ए.एल.सी. नेत्र सिंह धालीवाल को माँगपत्र सौंपा गया। 26 को मालिकों की एसोसिएशन सारे मालिकों की तरफ से बातचीत के लिए बैठने को तैयार हो गयी। यह उनकी मजबूरी थी, क्योंकि तेज़ी का सीज़न था और उन्हें हड़ताल से भारी नुकसान उठाना पड़ रहा था। ताना मास्टरों और मरोड़ी वालों के रद्द किये बढ़े हुए रेट फिर से लागू करने, कोना बाइण्डरों और मशीन ऑपरेटरों के कुछेक कारख़ानों में बढ़े हुए रेट सारे कारख़ानों में लागू करवाने की माँगें तो उसी दिन मान कर मालिकों को अपना थूका चाटना पड़ा। नलियाँ बाइण्डरों का अठारह मशीनों तक 1000 रुपये और उससे ऊपर मशीनें होने पर 1000 रुपये की बढ़ोत्तरी के अलावा 55 रुपये प्रति मशीन बढ़ाने की माँग मानने पर मालिकों को उसी दिन मजबूर होना पड़ा। लेकिन मशीन ऑपरेटरों के पीस रेट में बढ़ोत्तरी की उस दिन कोई सहमति न बन पायी। जब 27 को दोपहर तक मालिकों ने कोई बातचीत न चलायी और श्रम अधिकारी टालमटोल करते रहे तो तुरन्त श्रम दफ्तर पर पहुँचकर धरना दे दिया गया। मज़दूरों के ग़ुस्से से घबराकर सारे श्रम अधिकारी दफ्तर छोड़कर भाग खड़े हुए। एलान किया गया कि अगर रविवार तक मज़दूरों की माँगें नहीं मान ली जातीं तो सोमवार को श्रम विभाग का घेराव किया जायेगा। शनिवार को चली बातचीत बेनतीजा रही। रविवार को लेबर इंस्पेक्टर मालिकों से बातचीत करने कारख़ानों के चक्कर लगाता रहा। सोमवार को हड़ताली मज़दूरों ने श्रम कार्यालय का घेराव कर दिया। मालिक श्रम विभाग में बातचीत के लिए नहीं आना चाहते थे। वे किसी होटल में बातचीत करने को कह रहे थे। यूनियन द्वारा किसी भी होटल में जाने से इंकार कर देने पर मालिक एक सार्वजनिक पार्क में बैठकर बातचीत करने के लिए तैयार हुए। लेकिन वे चलती बातचीत में ही उठकर भाग खड़े हुए। लेकिन श्रम अधिकारी घबराये हुए थे। उन्हें चेतावनी दी गयी थी कि अगला घेराव अनियमितकाल तक होगा और उनका बाथरूम जाना भी बन्द कर दिया जायेगा, और घेराव बिना किसी पूर्वसूचना के होगा। श्रम अधिकारियों ने मालिकों के प्रतिनिधियों को जैसे-तैसे फिर बुलाया और रात साढ़े नौ बजे तक बातचीत चलती रही। डीसी बार-बार ए.एल.सी. को फोन करके स्थिति के बारे में पूछ रहा था। मशीन ऑपरेटरों के लिए बुलबुल, फेदर जैसी कैटगिरी पर 7 प्रतिशत और कैसमोलोन, पीपी की कैटगिरी पर 11प्रतिशत पीस रेट बढ़ोत्तरी पर सहमति बन गयी। लेकिन हड़ताल की टूटी हुई दिहाड़ियों के भुगतान पर बात फिर अटक गयी। 31 को श्रम विभाग सारा दिन भाग-दौड़ करता रहा। मालिकों ने पहले तो टूटी दिहाड़ियों का एक भी पैसा देने से इंकार कर दिया। फिर वे 200 रुपये बतौर मुआवज़ा देने को तैयार हुए, धीरे-धीरे करके जब वे 31 की शाम तक हड़ताल के मुआवज़े के तौर पर हर मज़दूर को 400 रुपये देने को राज़ी हो गये तो सभी मज़दूरों ने एकमत होकर जोशीले और गौरवशाली नारों के साथ हड़ताल की समाप्ति का ऐलान किया।
का.म.यू. के नेतृत्व में दूसरे व तीसरे दौर की हड़तालें
शक्तिनगर की शानदार हड़ताल और उसकी गौरवशाली जीत ने लुधियाना के बाकी इलाकों के पावरलूम मज़दूरों में बड़े स्तर पर नयी जागृति का संचार किया और उनमें भी संघर्ष के राह पर चलने का साहस पैदा किया। कारख़ाना मज़दूर यूनियन ने शक्तिनगर की हड़ताल के दौरान और समाप्ति के बाद पावरलूम मज़दूरों के बीच लगभग 60 हज़ार पर्चे बाँटे। मज़दूरों ने पर्चों का जोशो-ख़रोश के साथ स्वागत किया। शक्तिनगर की हड़ताल की समाप्ति के साथ अगले ही दिन 1 सितम्बर को पवन टेक्सटाइल, पुरानी माधोपुरी के मज़दूरों ने हड़ताल के साथ आन्दोलन के दूसरे दौर की शुरुआत होती है। चार दिन की हड़ताल के बाद मालिक को शक्तिनगर वाला सारा समझौता लागू करने के लिए झुकना पड़ा। इसी दौरान शक्तिनगर के कुछ कारख़ानों के मालिकों ने समझौता लागू करने से इंकार कर दिया। इन कारख़ानों में कुछ घण्टों से लेकर 2 दिन तक काम बन्द रहा। मालिकों को फिर झुकना पड़ा। 7 सितम्बर को जिन्दल टेक्सटाइल, गौशाला के मज़दूरों ने हड़ताल कर दी। यह ऐसा समय था जब यह तय हो चुका था कि गौशाला, कश्मीर नगर और माधोपुरी के मज़दूर हर हाल में हड़ताल करेंगे। यूनियन इस बात को समझती थी कि अगर वेतन मिलने से पहले मज़दूर हड़ताल करते हैं तो मज़दूरों का हड़ताल में अधिक दिन तक टिक पाना सम्भव न होगा। यूनियन मज़दूरों के बीच लगातार यह प्रचार चला रही थी कि तालमेल बिठाकर योजनाबद्ध ढंग से हड़ताल की जाये। जिन्दल टेक्सटाइल के मज़दूरों की हालाँकि यह ग़लती थी कि वे अपने आप ही बिना यूनियन से सलाह किये हड़ताल पर चले गये थे। लेकिन दूसरों से अलग पहले ही हड़ताल कर देने के नकारात्मक पहलू को सकारात्मक पहलू में बदल दिया गया। जिन्दल टेक्सटाइल के मज़दूरों को साथ लेकर गौशाला, माधोपुरी, कश्मीर नगर के सारे इलाके के मज़दूरों के साथ तालमेल बिठाकर एक बड़ी मीटिंग का आयोजन किया गया। इस मीटिंग के साथ इन इलाकों के मज़दूरों की सामूहिक और योजनाबद्ध हड़ताल की नींव रख दी गयी। मज़दूरों के साथ विचार-विमर्श के बाद यह एलान कर दिया गया कि जिस कारख़ाने के मालिक शक्तिनगर के समझौते को लागू करेंगे, वहाँ मज़दूर हड़ताल पर नहीं जायेंगे। इसके लिए 15 सितम्बर तक का समय मालिकों को दिया गया। सात कारख़ानों के मालिकों ने लिखित में इस बात को माना। 16 सितम्बर को गौशाला, माधोपुरी, कश्मीर नगर के 22 कारख़ानों के मज़दूरों की हड़ताल के साथ हड़तालों के तीसरे दौर की शुरुआत होती है। 17 सितम्बर को इन इलाकों के सहायक श्रम आयुक्त आर.के. गर्ग को 25 प्रतिशत पीस रेट बढ़ोत्तरी, कारख़ानों में मज़दूरों की सुरक्षा के इन्तज़ामों और सभी श्रम कानूनों को लागू करवाने सम्बन्धी माँगपत्र सौंपा गया। यहाँ के मालिक अधिक अड़ियल निकले। गौशाला इलाके के मालिक लुधियाना के सबसे पुराने मालिकों में से हैं। ये वही मालिक हैं जिन्होंने 1992 की हड़ताल को कामयाब नहीं होने दिया था। ये मालिक 30 सितम्बर को ही वार्ता के लिए आये। मालिकों का यह भ्रम था कि वे मज़दूरों को तोड़ लेंगे, बुरी तरह से टूटा। आये दिन नये-नये कारख़ानों के मज़दूर हड़ताल में शामिल होते गये। कई बार श्रम विभाग के चक्कर काटने के बाद वहाँ से यह आश्वासन मिला था कि 27सितम्बर को मालिकों को हर हाल में वार्ता के लिए लाया जायेगा और समझौता करवाया जायेगा। मज़दूर रात के 9 बजे तक श्रम विभाग पर धरना लगाये बैठे रहे लेकिन कोई मालिक न आया। श्रम अधिकारी बेशर्मी भरी ड्रामेबाज़ी करते रहे। मालिकों को पूरा यकीन था कि उनका यह रवैया मज़दूरों के हौसले पस्त कर देगा। लेकिन अगले दिन (28 सितम्बर) उन आठ कारख़ानों के मज़दूर भी हड़ताल पर बैठ गये जहाँ पहले समझौता हो चुका था और एलान किया कि अब सभी का फैसला इकट्ठा होगा। अब इस हड़ताल में 59 पावरलूम कारख़ानों के मज़दूर शामिल हो चुके थे। मज़दूरों की इस फौलादी एकजुटता ने मालिकों को बुरी तरह तोड़ दिया। 29 तारीख़ को गौशाला के वीर हकीकत स्कूल के मैदान में मालिकों की बड़ी मीटिंग हुई। सारा मैदान भरा पड़ा था। मालिकों में बुरी तरह फूट पड़ चुकी थी। उनमें भयंकर झगड़ा हुआ। मार-पिटाई को छोड़कर सब हुआ। 30 तारीख़ को वार्ता के लिए 26 कारख़ानों के मालिक पहुँचे। उनकी लाचारी देखते बनती थी। लिखित में समझौता हुआ कि मशीन ऑपरेटरों के लिए कैसमोलोन और काटन की कैटगरी (पी.पी. बोरा, डाइड बोरा) पर 11प्रतिशत और बुलबुल, फेदर, गलोरी की कैटगरी पर सात प्रतिशत की बढोत्तरी होगी, नली बाइण्डरों के वेतन में 12 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी, कोना बाइण्डर के लिए प्रति पूड़ा एक रुपये की बढ़ोत्तरी, ताने वाले मज़दूरों को बुलबुल और पीपी पर 50 पैसे प्रति पूड़ा और कैसमोलोन कैटगिरी पर 1 रुपये प्रति पूड़ा बढ़ोत्तरी मिलेगी। इस तरह 30 की शाम सात बजे को सारे मज़दूरों द्वारा समझौते पर जोशीले नारों के साथ सहमति प्रगट किये जाने के बाद हड़ताल की समाप्ति हो गयी। इन हड़तालों में लुधियाना की दोनों मोल्डर एण्ड स्टील वर्कर्ज़ यूनियनों, मज़दूर चेतना विचार मंच जैसे संगठनों ने बिना किसी शर्त के सहयोग करते हुए अपना बिरादराना फर्ज़ पूरा किया।
कारख़ाना मज़दूर यूनियन के नेतृत्व में चली हड़तालों की अहम उपलब्धियाँ
जैसा कि हमने रिपोर्ट की शुरुआत में ही कहा है कि हड़ताल की सबसे बड़ी जीत तो इसी बात में थी कि भयंकर निराशा का शिकार अट्ठारह वर्षों से चुप बैठी लुधियाना की पावरलूम मज़दूर आबादी के संगठित होने की नयी शुरुआत हो गयी। शक्तिनगर के मज़दूरों ने एक जुझारू संगठन कायम कर लिया है। इस हड़ताल ने इन मज़दूरों को एक नया जीवन दिया है। वे एक नयी राह पर चल पड़े हैं। संगठन ही वह ताकत है जिसके ज़रिये मज़दूर अपने अधिकारों के लिए लड़ सकते हैं। हालाँकि मज़दूरी में बढ़ोत्तरी उतनी नहीं हुई जितनी आशा थी लेकिन जो हासिल हुआ है वह अहम है। मज़दूरों की आमदनी लगभग 500 से 1300 रुपये तक बढ़ी है। लेकिन पैसे की बढ़ोत्तरी से कहीं अधिक बड़ी जीत संगठन बन जाने में है। उपलब्धियों को हमेशा पैसे में नहीं तोला जाता। मज़दूरों का संगठन ही है जिसकी बदौलत आज वे सिर उठाकर जी सकते हैं। संगठन ही मज़दूरों के आत्मसम्मान की रक्षा कर सकता है। जो मज़दूर कभी मालिक के सामने ऊँचे स्वर में बात नहीं कर सकते थे, जिन्हें इंसान का दर्जा नहीं दिया जाता था, उन्होंने एक होकर, संगठन बनाकर मालिकों के ख़िलाफ अपने हक की लड़ाई लड़ी है। संगठन ही वह औज़ार है जिसके ज़रिये मज़दूर आमदनी में बढ़ोत्तरी की रक्षा कर सकते हैं। संगठन के दम पर मज़दूर पुलिस सहित सारे सरकारी तन्त्र द्वारा मज़दूरों को दबाये जाने का मुकाबला कर सकते हैं, रिहायशी इलाके की सारी समस्याओं को हल करवा सकते हैं। इस संघर्ष में मज़दूरों में जो भाईचारा बना है उसके दम पर मज़दूर अपने विरोधी कारख़ाना मालिकों की मज़दूरों को बाँटकर रखने की चालों को नाकामयाब कर सकते हैं। जहाँ मज़दूरों में मज़बूत एकजुटता कायम हुई, वहीं मालिकों में बुरी तरह फूट पड़ गयी थी। जब भी मज़दूर मालिकों के ख़िलाफ संघर्ष का झण्डा उठाते हैं तो मालिक उनके संघर्ष को ख़त्म करने के लिए उनकी एकता तोड़ने के लिए, उन्हें सही राह से हटाने के लिए तरह-तरह की चालें चलते हैं। अगर मज़दूर जागृत न हो, नेतृत्व सावधान न हो तो मालिक अपनी चालों में कामयाब हो जाते हैं। इस हड़ताल की यह भी अहम प्राप्ति रही कि मालिक इससे इस तरह बौखला उठे कि उनके दिमाग़ों ने काम करना बन्द कर दिया और वे आपस में ही लड़ गये और अपने प्रधान को थप्पड़ तक मार दिये। दोनों ही हड़तालों में मज़दूरों के बीच में से संघर्ष कमेटी बनाकर हड़ताल को चलाया गया। क्या माँगें रखी जानी चाहिए, किन माँगों पर कहाँ तक समझौता करना चाहिए – सब मज़दूरों के साथ गहन विचार-विमर्श और सहमति के आधार पर तय किया जाता था और संघर्ष कमेटी के लोग ही मालिकों से वार्ता करते थे। मज़दूरों के लिए यह बात बिलकुल नयी थी। फैसलों में आम मज़दूरों की भागीदारी की नीति को सफलतापूर्वक लागू किया जाना इन हड़तालों की बहुत बड़ी उपलब्धि है।
ऐसे उदाहरण कम ही खोजे जा सकते हैं कि मज़दूरों को हड़ताल की टूटी दिहाड़ियों के एवज में भी कुछ मिला हो। कम-से-कम असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों के लिए तो यह नामुमकिन-सा ही लगता था। लुधियाना में तो इस सम्बन्ध में समझौतापरस्त, दलाल, कायर सीटू के नेतृत्व में एवन साइकिल मैनेजमेण्ट से बेहद शर्मनाक समझौता करके मज़दूरों पर थोप देने का उदाहरण मिलता है, जब एवन के हड़ताली मज़दूरों को हड़ताल की सज़ा के तौर पर 9 दिनों तक मुफ्त में काम करना पड़ा था।
ख़ैर, पहले एक साथ 42 कारख़ानों में, फिर 59 कारख़ानों में हड़ताल और मालिकों को झुका लेना भी इस हड़ताल की अहम उपलब्धि है। असल में इन छोटे-छोटे कारख़ानों के मज़दूरों को इसी ढंग से संगठित किया जा सकता है। जो श्रम अधिकारी मज़दूरों की बात तक सुनने को तैयार नहीं होते थे, जो सप्ताह में दो दिन छुट्टी करके आराम फरमाते थे, इस हड़ताल ने उन्हें मज़दूरों के लिए छुट्टी वाले दिनों में भी काम करने पर मजबूर किया। 30 अगस्त (सोमवार) को ए.एल.सी. एन.एस. धाारीवाल और उनका स्टाफ रात साढ़े दस बजे तक बैठा रहा। 27 सितम्बर को भी सहायक लेबर कमिशनर आर.के. गर्ग और उनके स्टाफ को रात नौ बजे तक काम करना पड़ा। इन हड़तालों के ज़रिये न सिर्फ हड़ताल में शामिल मज़दूरों की आमदनी में बढ़ोत्तरी हुई है बल्कि जिन इलाकों में अभी हड़ताल नहीं फैली थी वहाँ भी मज़दूरों ने मालिकों से पीट रेट-वेतन बढ़वा लिया।
संघर्ष के कुछ नकारात्मक पहलू और आगे की चुनौतियाँ
जहाँ इस संघर्ष को महत्तवपूर्ण सफलताएँ हासिल हुई हैं, वहीं कुछ नकारात्मक पहलू भी हैं। आगे की गम्भीर चुनौतियों को देखते हुए नकारात्मक पहलुओं को रेखांकित करते हूए उन्हें दूर किया जाना ज़रूरी है। फौरी तौर पर सबसे बड़ी चुनौती यह है कि हासिल हुई जीत की रक्षा करनी है। मालिक कभी भी मज़दूरों की मानी हुई माँगों को पूरी तरह लागू करने के लिए तैयार नहीं होते। जितना जीत हासिल करने के लिए संघर्ष करना पड़ता है, उतना ही जीत की रक्षा के लिए लड़ना होता है। समझौते को लागू करवाने के लिए जी-जान लगा देनी पड़ेगी। इसमें सबसे बड़ी रुकावट तो यह है कि मज़दूरों में अभी पर्याप्त चेतना नहीं है। शक्तिनगर और उससे भी अधिक गौशाला, कश्मीर नगर व माधोपुरी की हड़ताल में देखा गया कि मज़दूरों की काफी बड़ी संख्या हड़ताल करके घर बैठ गयी। वे रोज़ाना की मीटिंगों, धरने-प्रदर्शनों, जुलूसों में शामिल होना बेकार की बात समझते थे। उनका व्यवहार ऐसा था जैसे हड़ताल न की हो बल्कि मालिक से रूठ गये हों। मीटिंगों में आने वाले मज़दूरों में भी यह बड़ी समस्या थी कि मंच पर चल रही बातों पर पर्याप्त ध्यान नहीं देते थे। ये चीजें सामूहिक विचार-विमर्श और एकमत बनने में रुकावट बनती रहीं। मज़दूर जब संगठन को अनदेखा कर स्वयंस्फूर्त ढंग से बिना कोई सलाह-मशविरा किये, बिना योजना बनाये हड़ताल करते हैं तो स्थिति पेचीदा बन जाती है। इस स्वयंस्फूर्तता को सचेतनता के पहलू से जोड़े जाने की आवश्यकता होती है वरना बड़ी लड़ाइयों में मालिकों को शिकस्त दे पाना मुश्किल हो जाता है।
पूँजीपति वर्ग हर जायज़ जनसंघर्ष पर आतंकवाद की साज़िश होने का दोष लगाता है। यहाँ भी ये कोशिशें शुरू हो चुकी हैं। हज़ारों मज़दूरों के इस जनान्दोलन को ”माओवादी” आतंकवादियों की साज़िश बताकर दमन करने की साज़िशें बन रही हैं। सरकार, पुलिस-प्रशासन व मालिक तो हमेशा यह कहते ही हैं, लेकिन उनका साथ देने वाले कुछ नकली लाल झण्डे वाले भी हैं। सीटीयू (पंजाब) के नेता गीता नगर के पावरलूम मज़दूरों की मीटिंगों, धरना-प्रदर्शनों के मंचों से खुलेआम तथा पुलिस-प्रशासन अधिकारियों से बातचीत में कारख़ाना मज़दूर यूनियन के नेतृत्व पर ”माओवादी” आतंकवादी होने का दोष लगाकर दमन के लिए उकसाते रहे। उनके ऐसा करने के पीछे मज़दूरों को डराने का मकसद भी था। दमन की इस तरह की साज़िशों को नाकाम करने का रामबाण मज़दूरों की विशाल फौलादी एकजुटता, अनुशासन, संगठित ताकत ही हो सकती है।
लुधियाना के मज़दूरों के लिए एक नयी राह
कारख़ाना मज़दूर यूनियन के नेतृत्व में लड़े गये पावरलूम मज़दूरों के संघर्ष के मिसालपूर्ण जुझारूपन और शानदार जीत की बात करते वक्त हम यह कतई नहीं कहते कि लुधियाना में इससे पहले हुए संघर्षों में मज़दूरों ने जुझारूपन और साहस की कमी दिखायी या उन्होंने कभी कुछ हासिल किया ही नहीं। लुधियाना में समय-समय पर उठ खड़े होने वाले संघर्षों में मज़दूरों ने जिस ज़ोशो-खरोश, जुझारूपन, और दृढ़ता का परिचय दिया, हम उसके दिल की गहराइयों से कायल हैं। लेकिन इन संघर्षों में आमतौर पर ऐसी दो गम्भीर खामियाँ हमेशा से मौजूद रही हैं जिन्होंने लुधियाना के मज़दूर आन्दोलन को बेहद नुकसान पहुँचाया है। पहली कमी जो आमतौर पर दिखायी पड़ती है, वह यह है कि लुधियाना के मज़दूर स्वत:स्फूर्त ढंग से, बिना किसी योजना-तैयारी के या बिना किसी नेतृत्व के अक्सर मैदान में कूद पड़ते हैं। इस तरह के आन्दोलन कुछ अपवादों को छोड़कर आमतौर पर नुकसान ही उठाते हैं। ढण्डारी काण्ड के समय 3-4 दिसम्बर 2009 को मज़दूरों का सड़कों पर उतर आना बेशक उनके जुझारूपन और साहस का परिचय देता है, लेकिन उस आन्दोलन का न कोई नेतृत्व था,न कोई योजना, न कोई स्पष्ट राह। इसलिए भारी नुकसान हुआ। दूसरी बात यह कि पहले के संघर्षों में मज़दूरों ने आमतौर पर दलाल, बेईमान और समझौतापरस्त नेताओं व यूनियनों से धोखा खाया है। इन दलालों के चक्करों में फँसकर अपने सारे जुझारूपन, बहादुरी, दृढ़ता और कुर्बानी की भावना के बावजूद संघर्षों में मज़दूरों ने जो नुकसान उठाया है, उसे ऑंका नहीं जा सकता। इन दलालों के चंगुल से छुटकारा पाना लुधियाना के मज़दूरों के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती है। शक्तिनगर,कश्मीर नगर, माधोपुरी, गौशाला के पावरलूम मज़दूरों का यह संघर्ष शानदार जीत हासिल करने तक इसीलिए दृढ़ता से जारी रहा, क्योंकि यह संघर्ष उपरोक्त दोनों खामियों से मुक्त था। दलालों, समझौतापरस्तों, कायरों के विपरीत मज़दूरों को इस संघर्ष में ईमानदार, दृढ़, साहसी, समझदार नेतृत्व हासिल था।
निचोड़ के तौर पर तीन मुख्य बातों ने मिलकर इस बार मज़दूरों के संघर्ष को जीत हासिल करवायी। पहली मुख्य बात,मज़दूरों का जुझारूपन, साहस और कुर्बानी की भावना और उनके द्वारा दिखायी गयी समझदारी थी। दूसरी थी, उनका संगठित होना और संघर्ष का योजनाबद्ध होना। तीसरी बात थी, उनके संगठन का ईमानदार, साहसी, दृढ़ और समझदार नेतृत्व। आगे भी मज़दूरों को स्वत:स्फूर्तता को सचेतना और योजनाबद्धता में तब्दील करके सफलता के नये मुकाम हासिल करने हैं।
मज़दूर बिगुल, नवम्बर 2010
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन