मन्दी की मार झेलते मध्य और पूर्वी यूरोप के मजदूर
नमिता
आज के पूर्वी यूरोप के देशों की औद्योगिक-वैज्ञानिक प्रगति जिस हद तक भी है वह मुख्यत: समाजवादी अतीत की देन है, जबकि इसके जो भी संकट हैं वे पूँजीवादी ढाँचे की देन हैं, यह इतिहास की सच्चाई है।
स्तालिन की मृत्यु के बाद ही रूस और पूर्वी यूरोप में पूँजीवाद की पुनर्स्थापना हो गयी थी लेकिन मार्क्सवाद का मुखौटा लगाये नये पूँजीवादी शासकों ने जनता को छल-कपट से ख़ूब निचोड़ा। 1989 में ये संशोधनवादी कुलीन सत्ताएँ बालू की भीत की तरह ढह गयीं और इनकी जगह बुर्जुआ शासकों ने सम्हाल ली। अब वैश्विक आर्थिक संकट के दुश्चक्र में ये देश भी फँस चुके हैं।
वर्तमान मन्दी ने मध्य और पूर्वी यूरोप की अर्थव्यवस्था को बुरी तरह हिला दिया है। हर दिन यह संकट और ज्यादा गहरा और व्यापक होता जा रहा है। हंगरी, उक्रेन और बाल्टिक राज्यों में आर्थिक गिरावट बहुत ही तेज मानी जा रही है। विश्व बैंक के अनुसार इस वित्तीय संकट से मध्य और पूर्वी यूरोप और पूर्व सोवियत संघ से अलग हुए नये देशों में गरीबों की संख्या बढ़कर 3.5 करोड़ हो जायेगी, जैसाकि 1990 के बाद से देखी नहीं गयी है। कुछ देशों जैसे लातविया, एस्तोनिया, रूस और उक्रेन में बेरोजगारी महीने में एक प्रतिशत की दर से बढ़ रही है।
निर्माण उद्योग में, जिसमें ज्यादातर उक्रेन के प्रवासी मजदूर काम करते थे, बड़े पैमाने पर मन्दी छा गयी है। उक्रेन के मजदूर सालाना लगभग 8.4 करोड़ डॉलर घर भेजते थे, जो उक्रेन के सकल घरेलू उत्पाद का 8 प्रतिशत था। अब घर लौटे उक्रेनियाई मजदूरों के लिए जीविका का कोई वैकल्पिक स्रोत नहीं रह गया है। इस संकट का सबसे बुरा असर महिलाओं पर पड़ रहा है। एक तो उनका रोजगार चला गया और आमदनी का कोई जरिया न रहा और दूसरा उनसे बहुत ही खराब परिस्थिति में घरेलू काम कराये जाने की उम्मीद रखी जाती है। बहुत-सी नौजवान स्त्रियाँ मन्दी और बेरोजगारी की मार से वेश्यावृत्तिा का रास्ता अपनाने को मजबूर हो गयी हैं।
मन्दी ने हालत इतनी बिगाड़ दी है कि हर जगह प्रवासी मजदूरों की माँग कम होने लगी है। चेक गणराज्य में तो वियतनामी मजदूरों को घर वापस भेजने के लिए मुफ्त हवाई टिकट और 500 यूरो नगदी तक दिये जा रहे हैं। नीदरलैण्ड, रोमानिया, बुल्गारिया में पहले से ही प्रवासी मजदूरों को घर वापस भेजने के लिए मजबूर किया जा रहा है।
पिछले 20 सालों में पूर्वी यूरोपीय देश अलग-अलग स्तरों पर विश्व अर्थव्यवस्था के साथ नत्थी हो चुके हैं। नतीजतन वर्तमान संकट वैश्विक उत्पादन और वितरण पर असर डाल रहा है। बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की स्थिति, भले ही वे अमेरिकी (जनरल मोटर्स) हों या भारतीय (वीडियोकॉन ग्रुप), स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं पर बेहद असर डालती है। जब बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की स्थानीय फैक्टरियाँ बन्द या स्थानान्तरित होती हैं तो स्थानीय अर्थव्यवस्था चरमराने लगती है।
कम्पनियों के स्थानान्तरण का खामियाजा भी मजदूरों को ही भुगतना पड़ता है। उन्हें जितनी मजदूरी अपने देश में मिलती थी उससे कम मजदूरी पर उनसे स्थानान्तरित कम्पनियों में काम लिया जाने लगता है। जैसे कुछ कम्पनियाँ जो मध्य पूर्वी यूरोप में स्थानान्तरित हुईं, उन्होंने अपनी ऑपरेशनल लागतें कम कर दीं और मजदूरों को बेहद कम मजदूरी देने लगीं। डेल कम्पनी, जिससे कि आयरलैण्ड के सकल घरेलू उत्पाद का 5 प्रतिशत आता है, ने अपने कम्प्यूटर मैन्युफैक्चर को लिमरिक (आयरलैण्ड) से लोड्ज (पोलैण्ड) में स्थानान्तरित कर दिया। इससे आयरलैण्ड में 1700 स्त्री-पुरुष मजदूरों का रोजगार छिन गया। लिमरिक की स्थानीय अर्थव्यवस्था, जो कभी आयरलैण्ड के आर्थिक ”चमत्कार” का शो-पीस हुआ करती थी, बुरी तरह ढह गयी।
पोलैण्ड में कपड़ा उद्योग भी भयंकर संकट में है। इस उद्योग से लगभग 40,000 मजदूरों की छँटनी की जा चुकी है, जिनमें ज्यादातर महिलाएँ थीं। चेक गणराज्य के टेक्सटाइल उद्योग में पिछले साल लगभग 52,000 मजदूरों की छँटनी की गयी और इस साल 10,000 और नौकरियाँ छिन जायेंगी। बैंकिंग सेक्टर में भी छँटनी की कुल्हाड़ी चल रही है। केवल पोलैण्ड में ही इस सेक्टर में 12,000 मजदूरों पर छँटनी की गाज गिरी। इसका सबसे बुरा असर महिलाओं पर पड़ा है। छँटनीशुदा महिला मजदूर जो रिटायरमेण्ट की उम्र तक पहुँच चुकी हैं, उन्हें अब कहीं भी रोजगार मिलना मुश्किल हो रहा है।
वर्तमान संकट का सामना करते हुए मध्य और पूर्वी यूरोप की सरकारें खस्ताहाल हैं। इस संकट को टालने का उन्हें कोई रास्ता नहीं सूझ रहा है और वे अधिक से अधिक कर्ज के जाल में फँसती जा रही हैं। कई देश जैसे हंगरी, उक्रेन और बाल्टिक राज्य तो लगभग दिवालियेपन के कगार पर हैं।
अर्थव्यवस्था को दिवालिया होने से बचाने के लिए यूरोपीय सरकारों ने राहत पैकेजों का ढेर लगा दिया है। हंगरी को आई.एम.एफ., विश्व बैंक और ईस्टर्न यूनियन ने 15.7 बिलियन डॉलर कर्ज देकर दिवालिया होने से बचाया। रूस में 20 बिलियन डॉलर के राहत पैकेज के साथ बड़े कारपोरेट घरानों के इनकम टैक्स में 20 से 25 प्रतिशत की कटौती भी की गयी। हंगरी ने छोटे और मँझोले उद्योगों को 1.4 मिलियन डॉलर दिया और इनकम टैक्स में कटौती की। लिथुआनियाई सरकार ने देश में रहने वाले मेहनतकशों की तबाही-बर्बादी से पल्ला झाड़ते हुए बड़े ही बेशर्मी से कहा कि ये राहत पैकेज देश के आर्थिक हालात को सुधारने और व्यापार की सहायता के लिए दिया जा रहा है ताकि बाजार के संचालन, निर्यात और निवेश को प्रोत्साहन दिया जा सके।
लेकिन इस वैश्विक मन्दी की सबसे बुरी मार दुनियाभर की गरीब मेहनतकश आबादी पर ही पड़ रही है। उन्हें ही लगातार महँगाई, बेरोजगारी, छँटनी, तालाबन्दी का सामना करना पड़ रहा है, शिक्षा और स्वास्थ्य से बेदखल किया जा रहा है, आत्महत्या करने पर मजबूर होना पड़ रहा है। पूँजीपतियों को दिये जाने वाले राहत पैकेजों की कीमत भी जनता से टैक्सों के जरिये वसूली जायेगी और उसे तबाही-बर्बादी के नर्ककुण्ड में ढकेलकर विश्व अर्थव्यवस्था को बचाने में वैश्विक डाकू एक हो जायेंगे। लेकिन इसका दूसरा पक्ष भी है। आम जनता चुपचाप नहीं बैठी है। इसके खिलाफ हर जगह विरोध प्रदर्शनों का ताँता लग गया है। हंगरी, बुल्गारिया, रूस, लिथुआनिया, लातविया, एस्तोनिया जैसे कई देशों में संसदों पर हिंसक हमले हुए। पिछले साल रूस में पिकोलोवा नामक जगह पर स्थानीय लोगों ने स्त्री मजदूरों के नेतृत्व में रोजगार की माँग को लेकर हाईवे जाम किया। इस जगह सीमेण्ट के चार कारखानों में से तीन बन्द हो गये थे और जो उद्योग चल रहे थे उनमें मजदूरों को तनख्वाह नहीं दी जा रही थी। दुनियाभर में मजदूरों के छोटे-बड़े विरोध प्रदर्शनों ने जता दिया है कि जनता के अन्दर सुलग रहा लावा कभी भी फट सकता है।
इतना तो तय है कि चाहे कितने भी उपाय सुझा लिये जायें, यह संकट दूर नहीं होने वाला। अगर थोड़े समय के लिए पूँजीवादी अर्थव्यवस्था इससे उबर भी जायेगी तो कुछ ही वर्षों में इससे भी भीषण मन्दी की चपेट में आ जायेगी। इस बूढ़ी, जर्जर, मानवद्रोही व्यवस्था को कब्र में धकेलकर ही इसका अन्त किया जा सकता है जिससे इंसानियत भी इसके पंजे से मुक्त होकर खुली हवा में साँस ले सकेगी।
बिगुल, मई 2010
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