अतीत की कड़वी यादें, भविष्य के सुनहरे सपने और भय व उम्मीद की वो रात
“ऐसा होता है सच्चाई का असर”
मक्सिम गोर्की के उपन्यास ‘माँ’ का अंश
एक रात खाना खाने के बाद पावेल ने खिड़की पर परदा डाला, दीवार पर टीन का लैम्प टाँगा और कोने में बैठकर पढ़ने लगा। माँ बर्तन धोकर रसोई से निकली और धीरे-धीरे उसके पास गयी। पावेल ने सिर उठाकर प्रश्नसूचक दृष्टि से माँ की ओर देखा।
“कुछ नहीं, पावेल, मैं तो ऐसे ही आ गयी थी,” वह झटपट बोली और जल्दी से फ़िर रसोई में चली गयी। घबराहट के कारण उसकी भवें फ़ड़क रही थीं। पर थोड़ी देर तक अपने विचारों से संघर्ष करने के बाद वह हाथ धोकर फ़िर पावेल के पास गयी।
“मैं तुमसे पूछना चाहती थी कि तुम हर वक्त यह क्या पढ़ते रहते हो?” उसने धीरे से पूछा।
पावेल ने किताब बन्द कर दी।
“अम्मा, बैठ जाओ।”
माँ जल्दी से सीधी तनकर बैठ गयी। वह कोई बहुत ही महत्वपूर्ण बात सुनने को तैयार थी।
पावेल माँ की तरफ़ देखे बिना बहुत धीमे और न जाने क्यों कठोर स्वर में बोला:
“मैं गैरकानूनी किताबें पढ़ता हूँ। ये गैरकानूनी इसलिए हैं कि इनमें मजदूरों के बारे में सच्ची बातें लिखी हैं। ये चोरी से छापी जाती हैं और अगर मेरे पास पकड़ी गयीं तो मुझे जेल में बन्द कर दिया जायेगा… जेल में इसलिए कि मैं सच्चाई मालूम करना चाहता हूँ, समझी?”
सहसा माँ को घुटन महसूस होने लगी। बहुत गौर से उसने अपने बेटे को देखा और उसे वह पराया-सा लगा। उसकी आवाज भी पहले जैसी नहीं थी-अब वह ज्यादा गहरी, ज्यादा गम्भीर थी, उसमें ज्यादा गूँज थी। वह अपनी बारीक मूँछों के नरम बालों को ऐंठने लगा और आँखें झुकाकर अजीब ढंग से कोने की तरफ़ ताकने लगा। माँ उसके बारे में चिन्तित हो उठी, और उसे उस पर तरस भी आ रहा था।
“पावेल, किसलिए तुम ऐसा करते हो?” माँ ने पूछा।
उसने सिर उठाकर माँ की तरफ़ देखा।
“क्योंकि मैं सच्चाई जानना चाहता हूँ” उसने बड़े शान्त भाव से उत्तर दिया।
उसका स्वर कोमल पर दृढ़ था और उसकी आँखो में एक चमक थी। माँ ने समझ लिया कि उसके बेटे ने जन्म भर के लिए अपने आपको किसी गुप्त और भयानक काम के लिए अर्पित कर दिया है। वह परिस्थितियों को अनिवार्य मानकर स्वीकार कर लेने और किसी आपत्ति के बिना सब कुछ सह लेने की आदी हो चुकी थी। इसलिए वह धीरे-धीरे सिसकने लगी, पीड़ा और व्यथा के बोझ से उसका हृदय इतनी बुरी तरह दबा हुआ था कि वह कुछ भी कह न पायी।
“रोओ नहीं, माँ,” पावेल ने कोमल और प्यार-भरे स्वर में कहा और माँ को ऐसा लगा मानो वह उससे विदा ले रहा हो। “जरा सोचो तो, कैसा जीवन है हम लोगों का! तुम चालीस बरस की हुईं, कुछ भी सुख देखा है तुमने अपने जीवन में? पिता हमेशा तुम्हें मारते थे … अब मैं इस बात को समझने लगा हूँ कि वह अपने तमाम दुःख-दर्दों, अपने जीवन के सभी कटु अनुभवों का बदला तुमसे लेते थे। कोई चीज लगातार उनके सीने पर बोझ की तरह रखी रहती थी पर वह नहीं जानते थे कि वह चीज क्या थी। तीस बरस तक उन्होंने यहाँ खून-पसीना एक किया… जब वह यहाँ काम करने लगे थे, तब इस फ़ैक्टरी की सिर्फ़ दो इमारतें थीं और अब सात हैं।”
माँ बड़ी उत्सुकता के साथ किन्तु धड़कते दिल से उसकी बातें सुन रही थी। उसके बेटे की आँखों में बड़ी प्यारी चमक थी। मेज के कगर से अपना सीना सटाकर वह आगे झुका और माँ के आँसुओं से भीगे हुए चेहरे के पास होकर उसने सच्चाई के बारे में पहला भाषण दिया जिसका उसे अभी ज्ञान हुआ था। अपनी युवावस्था के पूरे जोश के साथ, उस विद्यार्थी के पूरे उत्साह के साथ जो अपने ज्ञान पर गर्व करता है, उसमें पूरी आस्था रखता है, वह उन चीजों की चर्चा कर रहा था जो उसके दिमाग में साफ़ थीं। वह अपनी माँ को समझाने के उद्देश्य से इतना नहीं, जितना अपने आपको परखने के लिए बोल रहा था। बीच में शब्दों के अभाव के कारण वह रुका और तब उस व्यथित चेहरे की ओर उसका ध्यान गया, जिस पर आँसुओं से धुँधलायी हुई दयालु आँखें धीमे-धीमे चमक रही थीं। वे भय और विस्मय के साथ उसे घूर रही थीं। उसे अपनी माँ पर तरस आया। वह फ़िर से बोलने लगा, मगर अब माँ और उसके जीवन के बारे में।
“तुम्हें कौन-सा सुख मिला है?” उसने पूछा। “कौन-सी मधुर स्मृतियाँ हैं तुम्हारे जीवन में?”
माँ ने सुना और बड़ी वेदना से अपना सिर हिला दिया। उसे एक विचित्र-सी नयी अनुभूति हो रही थी जिसमें हर्ष भी था और व्यथा भी, जो उसके टीसते हृदय को सहला रही थी। अपने जीवन के बारे में ऐसी बातें उसने पहली बार सुनी थीं और इन शब्दों ने एक बार फ़िर वही अस्पष्ट विचार जागृत कर दिये थे जिन्हें वह बहुत समय पहले भूल चुकी थी, इन बातों ने जीवन के प्रति असन्तोष की मरती हुई भावना में दुबारा जान डाल दी थी-उसकी युवावस्था के भूले हुए विचारों तथा भावनाओं को फ़िर सजीव कर दिया था। अपनी युवावस्था में उसने अपनी सहेलियों के साथ जीवन के बारे में बातें की थीं, उसने हर चीज के बारे में विस्तार के साथ बातें की थीं, पर उसकी सब सहेलियाँ-और वह खुद भी-केवल दुखों का रोना रोकर ही रह जाती थीं। कभी किसी ने यह स्पष्ट नहीं किया था कि उनके जीवन की कठिनाइयों का कारण क्या है। परन्तु अब उसका बेटा उसके सामने बैठा था और उसकी आँखें, उसका चेहरा और उसके शब्द जो भी व्यक्त कर रहे थे वह सभी कुछ माँ के हृदय को छू रहा था( उसका हृदय अपने इस बेटे के लिए गर्व से भर उठा, जो अपनी माँ के जीवन को इतनी अच्छी तरह समझता था, जो उसके दुःख-दर्द का जिक्र कर रहा था, उस पर तरस खा रहा था।
माँओं पर कौन तरस खाता है।
वह इस बात को जानती थी। उसका बेटा औरतों के जीवन के बारे में जो कुछ कह रहा था एक चिर-परिचित कटु सत्य था और उसकी बातों ने उन मिश्रित भावनाओं को जन्म दिया जिनकी असाधारण कोमलता ने माँ के हृदय को द्रवित कर दिया।
“तो तुम करना क्या चाहते हो?” माँ ने उसकी बात काटकर पूछा।
“पहले खुद पढ़ूँगा और फ़िर दूसरों को पढ़ाऊँगा। हम मजदूरों को पढ़ना चाहिए। हमें इस बात का पता लगाना चाहिए और इसे अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि हमारी जिन्दगी में इतनी मुश्किलें क्यों हैं।”
माँ को यह देखकर खुशी हुई कि उसके बेटे की हमेशा गम्भीर और कठोर रहने वाली नीली आँखों में इस समय कोमलता और मृदुलता चमक रही थी। यद्यपि माँ के गालों की झुर्रियों में अभी तक आँसुओं की बूँदें काँप रही थीं, पर उसके होंठों पर एक शान्त मुस्कराहट दौड़ गयी। उसके हृदय में एक द्वन्द्व मचा हुआ था। एक तरफ़ तो उसे अपने बेटे पर गर्व था कि वह जीवन की कटुताओं को इतनी अच्छी तरह समझता है और दूसरी तरफ़ उसे इस बात की चेतना भी थी कि अभी वह बिल्कुल जवान है, वह जैसी बातें कर रहा है वैसी कोई दूसरा नहीं करता और उसने केवल अपने बलबूते पर ही एक ऐसे जीवन के विरुद्ध संघर्ष करने का बीड़ा उठाया है जिसे बाकी सभी लोग, जिनमें वह खुद भी शामिल थी, अनिवार्य मानकर स्वीकार करते हैं। उसकी इच्छा हुई कि अपने बेटे से कहे, “मगर, मेरे लाल, तू अकेला क्या कर लेगा?”
पर वह ऐसा करने से झिझक गयी, क्योंकि मुग्ध होकर वह बेटे को जी भर देख लेना चाहती थी। उस बेटे को, जो सहसा ऐसे समझदार पर कुछ-कुछ अजनबी व्यक्ति के रूप में उसके सामने प्रकट हुआ था।
पावेल ने अपनी माँ के होंठों पर मुस्कराहट, उसके चेहरे पर चिन्तन का भाव, उसकी आँखों में प्यार देखा और उसे ऐसा लगा कि वह माँ को अपने सत्य का भान कराने में सफ़ल हो गया है। अपनी वाणी की शक्ति में युवोचित गर्व ने उसका आत्म-विश्वास बढ़ा दिया। वह बड़े जोश से बोल रहा था, कभी मुस्कराता, कभी उसकी त्योरियाँ चढ़ जातीं और कभी उसका स्वर घृणा से भर उठता। उसके शब्दों में गूँजती कठोरता को सुनकर माँ को डर लगने लगता और वह सिर झुलाते हुए धीरे से पूछती
“पावेल, क्या ऐसा ही है?”
और वह दृढ़तापूर्वक उत्तर देता, “हाँ।” और वह उन लोगों के बारे में बताता जो जनता की भलाई के लिए उसमें सच्चाई के बीच बोते थे तथा इसी कारण जीवन के शत्रु हिंसक पशुओं की तरह उनके पीछे पड़ जाते थे, उन्हें जेलों में ठूँस देते थे, निर्वासित कर देते थे…
“मैं ऐसे लोगों को जानता हूँ!” उसने बड़े जोश के साथ कहा। “वे धरती के सच्चे लाल हैं!”
ऐसे लोगों के विचार से ही वह काँप गयी और एक बार फ़िर उसकी इच्छा अपने बेटे से पूछने की हुई कि क्या ऐसा ही है, पर उसे साहस नहीं हुआ। दम साधकर वह उससे उन लोगों के बारे में किस्से सुनती रही जिनकी बातें तो वह नहीं समझती थी पर जिन्होंने उसके बेटे को इतनी खतरनाक बातें कहना और सोचना सिखा दिया था। आखिरकार उसने अपने बेटे से कहा:
“सबेरा होने को आया। अब तुम थोड़ी देर सो लो।”
“हाँ, अभी,” उसने कहा और फ़िर उसकी तरफ़ झुककर बोला, “मेरी बातें समझ गयीं न?”
“हाँ,” उसने आह भरकर उत्तर दिया। एक बार फ़िर आँसुओं की धारा बह चली और सहसा वह जोर से कह उठी, “तबाह हो जाओगे तुम!”
पावेल उठा, उसने कमरे का चक्कर लगाया और फ़िर बोला:
“अच्छा, तो अब तुम जान गयीं कि मैं क्या करता हूँ और कहाँ जाता हूँ,” पावेल ने कहा, “मैंने तुम्हें सब कुछ बता दिया है। और अम्मा, अगर तुम मुझे प्यार करती हो, तो तुमसे प्रार्थना करता हूँ कि मेरी राह में बाधा न बनना।”
“ओह, मेरे लाल!” माँ ने रोते हुए कहा। “शायद… शायद अगर तुम मुझसे न बताते तो अच्छा होता।”
पावेल ने माँ का हाथ अपने हाथों में लेकर दबाया।
उसने जितने प्यार के साथ “अम्मा” कहा था और जिस नये तथा विचित्र ढंग से उसने आज पहली बार उसका हाथ दबाया था, उससे माँ का हृदय भर आया।
“मैं बाधा नहीं बनूँगी,” उसने भाव-विह्वल होकर कहा। “मगर अपने को बचाये रखना, बचाये रखना!”
वह नहीं जानती थी कि उसे किस चीज से अपने को बचाना चाहिए, इसलिए उसने दुःखी होते हुए इतना जोड़ दिया:
“तुम दिन-ब-दिन दुबले होते जा रहे हो…”
वह अपने बेटे के लम्बे-चौड़े बलिष्ठ शरीर पर एक प्यार-भरी नजर दौड़ाते हुए जल्दी-जल्दी और धीमी आवाज में बोली:
“तुम जो ठीक समझो करो-मैं तुम्हारी राह में बाधा नहीं बनूँगी। बस, इतनी ही प्रार्थना करती हूँ-इस बात का ध्यान रखना कि किससे बात कर रहे हो। तुम्हें लोगों के मामले में सतर्क रहना चाहिए। लोग एक-दूसरे से नफ़रत करते हैं। वे लालची हैं, एक-दूसरे से जलते हैं, जान-बूझकर दूसरों को नुकसान पहुँचाना चाहते हैं। जैसे ही तुम उन्हें उनकी वास्तविकता बताओगे, भला-बुरा कहोगे, वे जल-भुन जायेंगे और तुम्हें मिटा देंगे।”
पावेल दरवाजे पर खड़ा हुआ उसके वे व्यथा-भरे शब्द सुनता रहा और जब वह अपनी बात खत्म कर चुकी तो मुस्कराकर बोला:
“तुम ठीक कहती हो-लोग बुरे हैं। लेकिन जैसे ही मुझे यह मालूम हुआ कि इस दुनिया में सच्चाई नाम की भी एक चीज है तो लोग भले मालूम होने लगे।”
वह फ़िर मुस्कराया और कहता गया:
“कारण मैं नहीं जानता, पर बचपन में मैं सबसे डरता था। ज्यों-ज्यों बड़ा होता गया, सबसे नफ़रत करने लगा, कुछ से उनकी नीचता के लिए और कुछ से बस यों ही! लेकिन अब हर चीज बदली हुई मालूम होती है। शायद मुझे लोगों पर तरस आता है? समझ नहीं पाता, पर जब मुझे इस बात का आभास हुआ कि अपनी पशुता के लिये हमेशा खुद लोग ही दोषी नहीं होते थे तो मेरा हृदय कोमल हो उठा…”
वह बोलते-बोलते रुक गया मानो अपनी अन्तरात्मा की आवाज सुन रहा हो और फ़िर उसने बड़े शान्त स्वर में विचारशीलता से कहा:
“ऐसा होता है सच्चाई का असर।”
“हे भगवान! खतरनाक परिवर्तन हो गया है तुममें,” माँ ने कनखियों से उसे देखते हुए आह भरकर कहा।
जब वह सो गया, तो माँ अपने बिस्तर से उठकर दबे पाँव उसके पास गयी। पावेल सीधा लेटा हुआ था और सफ़ेद तकिये की पृष्ठभूमि पर उसके सांवले चेहरे की गम्भीर तथा कठोर रूप-रेखा स्पष्ट उभरी हुई थी। नंगे पैर और रात की पोशाक पहने हुए माँ सीने पर दोनों हाथ रखे उसके पास खड़ी थी-मूक होंठ हिल रहे थे और उसके गालों पर आँसू की बड़ी-बड़ी बूँदें ढलक रही थीं।
फ़िर पहले की तरह ही उनका जीवन बीतने लगा, दोनों चुप-चुप रहते, एक-दूसरे से दूर, फ़िर भी बहुत निकट।
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