कॉ. शालिनी की पहली बरसी पर क्रान्तिकारी श्रद्धांजलि
मज़दूर वर्ग की मुक्ति के मिशन को समर्पित था उनका जीवन
युवा क्रान्तिकारी और जनमुक्ति समर की वैचारिक-सांस्कृतिक बुनियाद खड़ी करने के अनेक क्रान्तिकारी उपक्रमों की एक प्रमुख संगठनकर्ता कॉमरेड शालिनी को हमारे बीच से गये एक वर्ष बीत गया। पिछले वर्ष 29 मार्च की रात को जब पैन्क्रियास के घातक कैंसर ने उन्हें हमसे छीन लिया तब उनकी उम्र सिर्फ़ 38 वर्ष थी।
कॉ. शालिनी एक ऐसी कर्मठ, युवा कम्युनिस्ट संगठनकर्ता थीं, जिनके पास अठारह वर्षों के कठिन, चढ़ावों-उतारों भरे राजनीतिक जीवन का समृद्ध अनुभव था। कम्युनिज़्म में अडिग आस्था के साथ उन्होंने एक मज़दूर की तरह खटकर राजनीतिक काम किया। एक व्यापारी और भूस्वामी परिवार की पृष्ठभूमि से आकर, शालिनी ने जिस दृढ़ता के साथ सम्पत्ति-सम्बन्धों से निर्णायक विच्छेद किया और जिस निष्कपटता के साथ कम्युनिस्ट जीवन-मूल्यों को अपनाया, वह आज जैसे समय में दुर्लभ है और अनुकरणीय भी। उन्होंने अपनी अन्तिम घड़ी तक माओ त्से-तुङ के इन शब्दों को सच्चे अर्थ में अपने जीवन में उतारने की कोशिश की: “एक कम्युनिस्ट को किसी भी समय और किसी भी परिस्थिति में अपने निजी हितों को प्रथम स्थान नहीं देना चाहिए; उसे इन्हें अपने राष्ट्र और आम जनता के हितों के मातहत रखना चाहिए। इसलिए स्वार्थीपन, काम में ढिलाई, भ्रष्टाचार, मशहूरी की ख़्वाहिश इत्यादि प्रवृत्तियाँ अत्यन्त घृणास्पद हैं, जबकि निःस्वार्थपन, भरपूर शक्ति से काम करना, जनता के कार्य में तन-मन से जुट जाना और चुपचाप कठोर परिश्रम करते रहना ऐसी भावनाएँ हैं जो इज़्ज़त पाने लायक हैं।”
कॉ. शालिनी ‘जनचेतना’ पुस्तक प्रतिष्ठान की सोसायटी की अध्यक्ष, ‘अनुराग ट्रस्ट’ के न्यासी मण्डल की सदस्य, ‘राहुल फ़ाउण्डेशन’ की कार्यकारिणी सदस्य और परिकल्पना प्रकाशन की निदेशक थीं। प्रगतिशील, जनपक्षधर और क्रान्तिकारी साहित्य के प्रकाशन तथा उसे व्यापक जन तक पहुँचाने के काम को भारत में सामाजिक बदलाव के संघर्ष का एक बेहद ज़रूरी मोर्चा मानकर वे पूरी तल्लीनता और मेहनत के साथ इसमें जुटी हुई थीं। अपने छोटे-से जीवन के अठारह वर्ष उन्होंने विभिन्न मोर्चों पर सामाजिक-राजनीतिक कामों को समर्पित किये।
इस दौरान, समरभूमि में बहुतों के पैर उखड़ते रहे। बहुतेरे लोग समझौते करते रहे, पतन के पंककुण्ड में लोट लगाने जाते रहे, घोंसले बनाते रहे, दूसरों को भी दुनियादारी का पाठ पढ़ाते रहे या अवसरवादी राजनीति की दुकान चलाते रहे। मगर शालिनी इन सबसे रत्तीभर भी प्रभावित हुए बिना अपनी राह चलती रहीं। एक बार जीवन लक्ष्य तय करने के बाद पीछे मुड़कर उन्होंने कभी कोई समझौता नहीं किया। यहाँ तक कि उनके पिता ने भी जब निहित स्वार्थ और वर्गीय अहंकार के चलते पतित होकर क्रान्तिकारी राजनीति और संगठनों के विरुद्ध कुत्सा-प्रचार और चरित्र-हनन का रास्ता अपनाया तो उनसे पूर्ण सम्बन्ध-विच्छेद कर लेने में शालिनी ने पलभर की भी देरी नहीं की।
बलिया में 1974 में जन्मी कॉमरेड शालिनी का राजनीतिक जीवन बीस साल की उम्र में ही शुरू हो गया था। उन्हें जीने के लिए बहुत कम समय मिला, मगर इतने समय में ही उन्होंने बहुत से मोर्चों पर बहुत सारा काम किया। गोरखपुर में युवा स्त्री कार्यकर्ताओं के एक कम्यून में रहने के दौरान शालिनी ने स्त्री मोर्चे पर, सांस्कृतिक मोर्चे पर और छात्र मोर्चे पर काम किया। 1998-99 के दौरान वह लखनऊ आकर राहुल फ़ाउण्डेशन से मार्क्सवादी साहित्य के प्रकाशन एवं अन्य गतिविधियों में भागीदारी करने लगीं। 1999 से 2001 तक उन्होंने गोरखपुर में ‘जनचेतना’ पुस्तक प्रतिष्ठान की ज़िम्मेदारी सँभाली। इसी दौरान गोरखपुर में दिशा छात्र संगठन और नौजवान भारत सभा में काम करते हुए शालिनी जन अभियानों, आन्दोलनों, धरना-प्रदर्शनों आदि में भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लेती रहीं। वे एक कुशल अभिनेत्री भी थीं और अनेक मंचीय तथा नुक्कड़ नाटकों में उन्होंने काम किया। जनचेतना पुस्तक केन्द्र में बैठने के साथ ही वे अन्य साथियों के साथ झोलों में प्रगतिशील किताबें और पत्रिकाएँ लेकर घर-घर और कॉलेजों-दफ़्तरों में जाती थीं। नवम्बर 2002 से दिसम्बर 2003 तक इलाहाबाद में ‘जनचेतना’ की प्रभारी के रूप में काम करने के साथ ही अन्य स्त्री कार्यकर्ताओं के साथ शालिनी इलाहाबाद में छात्रों-युवाओं तथा नागरिकों के बीच विभिन्न सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियों में हिस्सा लेती रहीं। 2004 से लेकर दिसम्बर 2012 के अन्त में बीमार होने तक वह लखनऊ स्थित ‘जनचेतना’ के केन्द्रीय कार्यालय और पुस्तक प्रतिष्ठान का काम सँभालती रहीं। इसके साथ ही वह ‘परिकल्पना,’ ‘राहुल फ़ाउण्डेशन’ और ‘अनुराग ट्रस्ट’ के प्रकाशन सम्बन्धी कामों में भी हाथ बँटाती रहीं। ‘अनुराग ट्रस्ट’ के पुस्तकालय, वाचनालय, बाल कार्यशालाएँ, बच्चों की पत्रिका आदि की ज़िम्मेदारियाँ उठाने के साथ ही कॉ. शालिनी ने ट्रस्ट की वयोवृद्ध मुख्य न्यासी दिवंगत कॉ. कमला पाण्डेय की जिस लगन और लगाव के साथ सेवा और देखभाल की, वह कोई सच्चा सेवाभावी कम्युनिस्ट ही कर सकता था। 2011 में ‘अरविन्द स्मृति न्यास’ का केन्द्रीय पुस्तकालय लखनऊ में तैयार करने का जब निर्णय लिया गया तो उसकी व्यवस्था की भी मुख्य ज़िम्मेदारी शालिनी ने ही उठायी। इतनी सारी विभागीय ज़िम्मेदारियों के साथ ही शालिनी आम राजनीतिक प्रचार और आन्दोलनात्मक सरगर्मियों में भी यथासम्भव हिस्सा लेती रहती थीं। बीच-बीच में वह लखनऊ की ग़रीब बस्तियों में बच्चों को पढ़ाने भी जाती थीं। लखनऊ के हज़रतगंज में रोज़ शाम को लगने वाले जनचेतना के स्टॉल पर पिछले कई वर्षों से सबसे ज़्यादा शालिनी ही खड़ी होती थीं। आज भी लखनऊ और आसपास ही नहीं बल्कि देश के विभिन्न हिस्सों और नेपाल तक से आने वाले पाठक, बुद्धिजीवी और सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता उन्हें बड़े सम्मान और आत्मीयता के साथ याद करते हैं।
मज़दूर बिगुल, मार्च-अप्रैल 2014
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन