16वाँ लोकसभा चुनाव: पंचवर्षीय ख़र्चीला पूँजीवादी जलसा!
वे अपना विकल्प चुन रहे हैं! हमें अपना विकल्प चुनना होगा!
लेकिन भारत के मज़दूर वर्ग के सामने विकल्प क्या है?
सम्पादक मण्डल
16वें लोकसभा चुनाव होने जा रहे हैं। दुनिया के “सबसे बड़े लोकतन्त्र” का सबसे ख़र्चीला और दुनिया का दूसरा सबसे महँगा चुनाव होने जा रहा है! अगर ग़ैर-क़ानूनी ख़र्चों और कारपोरेट घरानों द्वारा पूँजीवादी चुनावबाज़ पार्टियों के प्रचार में ख़र्च की जाने वाली रक़म को जोड़ दिया जाये तो यह दुनिया का सबसे महँगा चुनाव है। लेकिन इन चुनावों में देश के मज़दूरों और आम मेहनतकशों के पास चुनने के लिए क्या है? लगभग सभी प्रमुख राष्ट्रीय पार्टियाँ इस बार “विकास” की बीन बजा रही हैं। कांग्रेस जहाँ ‘भव्य भारत निर्माण’ की बात कर रही है, तो वहीं मोदी की फासीवादी लहर पर सवार भाजपा विकास के ‘गुजरात मॉडल’ की बात कर रही है। लेकिन अगर पिछले दस वर्षों की कांग्रेस-नीत संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन सरकार और साथ ही पिछले लगभग पन्द्रह वर्षों से गुजरात में काबिज़ मोदी सरकार के राज्य में आम ग़रीब और मेहनतकश जनता के हालात पर निगाह डालें तो साफ़ हो जाता है कि कांग्रेस और भाजपा के ‘विकास’ का हम मज़दूरों-मेहनतकशों के लिए क्या अर्थ है!
सही कहें तो कांग्रेस और भाजपा की बस भाषा ही अलग है। दोनों का ‘विकास’ का मॉडल बिल्कुल समान है। पूँजीपति वर्ग को हमेशा ही अपने हितों की सेवा करने के लिए कई बुर्जुआ पार्टियों की आवश्यकता होती है। कारण यह कि जनविरोधी और पूँजीपरस्त नीतियों को लागू करना हो तो एक पार्टी काफ़ी नहीं होती, क्योंकि पूँजीवादी संसदीय जनतन्त्र में कुछ वर्षों में ही जनविरोधी नीतियों पर अमल के कारण उसकी स्वीकार्यता और विश्वसनीयता कम होने लग जाती है। ऐसे में, हर पाँच या दस वर्ष बाद सरकार में एक पार्टी की जगह दूसरी और दूसरी की जगह कभी-कभी तीसरी पूँजीवादी पार्टी को सरकार में बिठाना पूँजीपति वर्ग के लिए ज़रूरी होता है। लेकिन इन सभी पार्टियों का मक़सद पूँजीवादी व्यवस्था में एक ही होता है: पूँजीपति वर्ग की सेवा करना! अगर कांग्रेस और भाजपा और साथ ही अन्य पूँजीवादी चुनावी पार्टियों की आर्थिक नीतियों पर एक निगाह डालें तो यह बात साफ़ हो जाती है।
एक दशक की कांग्रेस-नीत यूपीए सरकार ने मज़दूर वर्ग के साथ क्या सलूक किया?
अगर आज़ादी के बाद के पूरे इतिहास को छोड़ दें और कांग्रेस के पिछले 10 वर्ष के ही शासन को देखें तो हम क्या देखते हैं? 1991 में भारत में निजीकरण-उदारीकरण और श्रम के ठेकाकरण की नीतियों की बड़े पैमाने पर शुरुआत करने वाली कांग्रेस पार्टी ने 2004 से 2014 के बीच भी उन्हीं नीतियों को जारी रखा है। पिछले 10 वर्षों के दौरान देश में जमकर निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों को लागू किया गया और अम्बानी, टाटा, बिड़ला आदि जैसे बड़े पूँजीपतियों को देश की प्राकृतिक सम्पदा और साथ ही श्रम को लूटने की पूरी छूट दी गयी। इस लूट को क़ानूनी तौर पर भी इजाज़त दी गयी और ग़ैर-क़ानूनी तौर पर भी इसे मदद पहुँचायी गयी। जहाँ एक ओर लगातार श्रम क़ानूनों के विनियमन को ढीला किया गया, वहीं दूसरी ओर पूँजीपतियों की लूट में बाधा बनने वाले सभी नियम-कायदों को एक-एक करके तिलांजलि दे दी गयी। पिछले 10 वर्षों में ठेका मज़दूरी में जितनी तेज़ी से बढ़ोत्तरी हुई है, उतनी भारत के इतिहास में किसी भी दशक में नहीं हुई है। जिन कार्यों में नियमतः ठेका मज़दूरों को नहीं रखा जा सकता है, उनमें भी बड़े पैमाने पर ठेका मज़दूरों की भर्ती की जा रही है। भारतीय रेलवे और दिल्ली मेट्रो रेल कारपोरेशन जैसे सरकारी प्रतिष्ठानों में भी सारे नियमों-कायदों को ताक पर रखकर नियमित प्रकृति के कामों में हज़ारों और लाखों की संख्या में ठेका मज़दूरों को रखा गया। कॉमनवेल्थ खेलों के दौरान दिल्ली में हुए निर्माण-कार्य में निर्माण मज़दूरों द्वारा गुलामों की तरह काम कराया गया। आज भी दिल्ली में एयरसिटी जैसी जगहों पर नारकीय दासत्व जैसी स्थितियों में ठेका मज़दूरों द्वारा काम करवाया जा रहा है। क्या कांग्रेस पार्टी की सरकार को यह पता नहीं है? ऐसा नहीं है! वास्तव में यह सब उन्हीं की इजाज़त से ही तो हो रहा है। और यही नीतियाँ पिछले दस वर्षों में पूरे देश में लागू की गयी हैं।
कांग्रेस-नीत संप्रग सरकार ने मनरेगा (महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारण्टी योजना) का काफ़ी शोर मचाया था। लेकिन आज इसकी सच्चाई क्या है। मनरेगा के लिए सरकार द्वारा दिये जाने वाले पैसे में से लगभग आधा ख़र्च ही नहीं होता। जो आधा ख़र्च भी होता है, उसका बड़ा हिस्सा प्रधान, तहसीलदार, ब्लॉक डेवलपमेण्ट ऑफ़िसरों से लेकर निगरानी के लिए लगाये गये स्वयंसेवी संगठनों और एनजीओ के मालिक और प्रबन्धक खा जाते हैं। नतीजतन, गाँव के सर्वहारा वर्ग के पास इस योजना का कोई ख़ास लाभ नहीं पहुँचता; हाँ, गाँव के स्तर की सरकारी अफ़सरशाही की जेबें बेशक गर्म हो जाती हैं! साथ ही, जहाँ यह योजना कुछ बेहतर ढंग से लागू हुई भी है, वहाँ भी इसने ज़्यादा से ज़्यादा ग्रामीण मज़दूर को भुखमरी के स्तर पर जिलाये रखा है! सालभर में 100 दिनों के रोज़गार और प्रतिदिन 100 रुपये की दिहाड़ी से एक मज़दूर का परिवार क्या दो वक़्त खाना भी खा सकता है? यह गाँव के मज़दूरों के साथ एक भद्दा मज़ाक़ है।
अगर बेरोज़गारी की बात करें तो शहरों और गाँवों, दोनों में ही स्थिति लगातार भयंकर हुई है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के ताज़ा आँकड़ों के अनुसार 29 वर्ष की आयु तक की शहरी ग्रेजुएट आबादी में से करीब 17 फ़ीसदी बेरोज़गार है। अगर तमाम तकनीकी डिप्लोमा या सर्टिफ़िकेट अर्जित किये कुशल मज़दूरों की बात करें तो 29 प्रतिशत कुशल शहरी मज़दूर बेरोज़गार हैं। उसी प्रकार, डिप्लोमा प्राप्त औरत कुशल मज़दूरों में से करीब 17.3 प्रतिशत शहरी औरत मज़दूर बेरोज़गार हैं। पूरे देश में रोज़गार पैदा होने की दर कांग्रेस की सरकार के दौरान 0.8 प्रतिशत रही, जबकि देश की कार्यशक्ति में 1.5 प्रतिशत की दर से इज़ाफ़ा हुआ है। इस प्रकार वास्तविक रोज़गार पैदा होने की दर नकारात्मक है। ध्यान रहे कि बेरोज़गारी के इन आँकड़ों में केवल सरकारी परिभाषा वाली बेरोज़गारी को जोड़ा गया है। यानी कि “स्वरोज़गार” करके मुश्किल से कुपोषण और भुखमरी में जी पाने वाली एक विशाल मज़दूर आबादी को बेरोज़गारों में नहीं गिना गया है। उसके बाद भी बेरोज़गारी के ये आँकड़े चौंकाने वाले हैं। कुछ अर्थशास्त्रियों के आकलन के अनुसार अगर बेरोज़गारों और अर्द्धबेरोज़गारों की कुल आबादी को जोड़ दें तो वह भारत में करीब 30 करोड़ के आस-पास बैठती है।
आम मेहनतकश आबादी को मिलने वाले पोषण के मामले में भी स्थिति पहले से ख़राब हुई है। ग़रीबी रेखा के पैमाने को नीचे करके कांग्रेस सरकार और उससे पहले भाजपा की सरकार ने लगातार ग़रीबी को कम करके दिखाने का प्रयास किया। लेकिन अगर ग़रीबी रेखा के मूल आँकड़े देखें तो हम क्या पाते हैं? शहरों में 2100 कैलोरी प्रतिदिन का पोषण नहीं पाने वाले लोगों की तादाद 1993-94 में 57 फ़ीसदी थी; 2004-05 में यह बढ़कर 64.5 फ़ीसदी हो गयी और 2009-10 में यह बढ़कर 73 प्रतिशत हो गयी। यानी कि शहरों में आज ग़रीबी रेखा के नीचे बसर करने वालों का हिस्सा कुल शहरी आबादी में 73 फ़ीसदी है। गाँवों में हालात और भी बदतर थे। गाँवों में 2200 कैलोरी से कम का पोषण पाने वाले लोगों का हिस्सा 1993-94 में 58.5 फ़ीसदी था; 2004-05 में यह बढ़कर 69.5 प्रतिशत हो गया और 2009-10 में यह बढ़कर 76 प्रतिशत हो गया। आज सरकारी आँकड़ों के हिसाब से ही चलें तो भारत में बच्चों की कुल आबादी का करीब 40 प्रतिशत कुपोषित है। लेकिन सच्चाई यह है कि वास्तविक आँकड़ा 56 प्रतिशत के ऊपर बैठता है। सरकार हर वर्ष कुपोषण और भुखमरी को कम करने की बजाय, कुपोषण और भुखमरी के पैमाने को ही नीचे ले आती है, ताकि कुपोषण के आँकड़ों को कम करके दिखाया जा सके।
कांग्रेस-नीत संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन सरकार के एक दशक की नवउदारवाद और निजीकरण की नीतियों का यह परिणाम मेहनतकश और मज़दूर जनता को भुगतना पड़ा है। ऐसे में, मोदी को भाजपा देश की आम जनता के सामने, मध्यवर्गीय जनता के सामने एक विकल्प के रूप में पेश कर रही है! यह बताया जा रहा है कि मोदी के नेतृत्व में देश विश्व की ‘महाशक्ति’ बन जायेगा, भ्रष्टाचार ख़त्म हो जायेगा, ‘विकास’ होगा, पूरे देश में बुलेट ट्रेनों का नेटवर्क बिछा दिया जायेगा, वग़ैरह। लेकिन वास्तव में मोदी की नीतियाँ क्या हैं? मोदी ने पिछले 15 वर्षों में गुजरात में मेहनतकश जनता के साथ क्या बर्ताव किया है?
पूँजी की नग्न तानाशाही को लागू करने वाला बेशर्म मोहरा: नरेन्द्र मोदी
नरेन्द्र मोदी ने पिछले 13 वर्षों में गुजरात में जो नीतियाँ लागू की हैं, वे वास्तव में फासीवादी नीतियों को लागू करने का एक मॉडल हैं। याद रहे कि इसी नरेन्द्र मोदी ने एक बार कहा था कि वह पूरे गुजरात को पूँजीपतियों के लिए एक विशेष आर्थिक क्षेत्र बना देगा; साथ ही कुछ ही वर्ष पहले इसी मोदी ने कहा था कि गुजरात में श्रम विभाग की कोई आवश्यकता नहीं है। ये दो कथन मज़दूर वर्ग के प्रति मोदी के नज़रिये को दिखलाते हैं। मोदी ने पिछले 13 वर्षों में गुजरात में नंगे तौर पर पूँजी की तानाशाही को लागू किया है। निश्चित तौर पर, गुजरात की प्रति व्यक्ति आय देश की प्रति व्यक्ति आय से 20 प्रतिशत ज़्यादा है। लेकिन साथ ही यह भी एक तथ्य है कि गुजरात में गाँवों और शहरों में मज़दूरी देश की औसत ग्रामीण और शहरी मज़दूरी से कहीं कम है। वास्तव में, गुजरात की औसत मज़दूरी बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे ग़रीब राज्यों से भी कम है। केवल एक राज्य है जो मज़दूरी के मामले में गुजरात से पीछे है और वह है छत्तीसगढ़, जहाँ पर मोदी जैसा ही भाजपा का एक अन्य फासिस्ट रमन सिंह सत्ता में बैठा है! इस आँकड़े का अर्थ क्या है? प्रति व्यक्ति आय भारत की प्रति व्यक्ति आय से ज़्यादा और मज़दूरी सबसे कम? इसका अर्थ यह है कि गुजरात में जो विकास हो रहा है, जो उत्पादन हो रहा है, उसका बेहद छोटा हिस्सा ग़रीब मेहनतकश जनता के पास पहुँचता है। इतना कम कि दो वक़्त का खाना भी मुश्किल से जुगाड़ हो पाता है। वहीं पूँजीपतियों का मुनाफ़ा गुजरात में देश के औसत से कहीं ज़्यादा है। यह बेवजह नहीं है कि हर पूँजीपति आज गुजरात में कारख़ाना लगाना चाहता है! इसका सीधा कारण यह है कि उसे गुजरात में लगभग मुफ़्त ज़मीन, लगभग मुफ़्त पानी (वह भी बड़े बाँधों को बनाकर और लाखों परिवारों को उजाड़कर!), कई वर्षों तक कर से छूट, श्रम क़ानूनों को लागू करने की मजबूरी से पूरी तरह छूट, और मज़दूरों के आवाज़ उठाने पर उन्हें कुचलने के लिए तैयार बैठी सरकार मिलती है! यही कारण है कि गुजरात में होने वाले मज़दूर उभारों की ख़बर तक गुजरात के बाहर नहीं जाने दी जाती। पाशविक स्थितियों में मज़दूरों से काम करवाया जाता है; उन्हें न्यूनतम मज़दूरी से भी बेहद कम मज़दूरी दी जाती है; और ज़रा भी चूँ-चपड़ करने पर डण्डे और गोलियाँ बरसाने में कोई कसर नहीं छोड़ी जाती! मोदी के विकास का यही अर्थ है: पूँजीपतियों को बेरोक-टोक ज़बरदस्त मुनाफ़ा, खाते-पीते मध्यवर्ग को चमचमाते शॉपिंग मॉल, 8-लेन एक्सप्रेस हाईवे, मल्टीप्लेक्स हॉल, आदि और मज़दूरों के लिए? मज़दूरों के लिए “देश और राष्ट्र के विकास” के लिए 15-15 घण्टे कारख़ानों और वर्कशापों में हाड़ गलाना और चुपचुाप हाड़ गलाना! जो आवाज़ उठायेगा, वह देश का दुश्मन और शत्रु कहलायेगा! मोदी के “राष्ट्र” में मज़दूरों की जगह वही है जो कि प्राचीन रोम और यूनान के गणराज्यों में गुलामों की थी! “राष्ट्र” के “विकास” का मोदी के लिए क्या अर्थ है? यह है पूँजीपतियों का अकूत मुनाफ़ा, खाते-पीते मध्यवर्ग को ढेर सारी सहूलियतें और आम ग़रीब मेहनतकश आबादी के लिए नारकीय और पाशविक जीवन! यही कारण है कि आज पूरा मीडिया मोदी के पक्ष में लहर बनाने में लगा हुआ है। मोदी ने अपने प्रचार के लिए वर्ल्डवाइड, सोहा इण्टरनेशनल व एपको जैसी कम्पनियों को करोड़ों-करोड़ के ठेके दिये हैं। इसके लिए जो अरबों डॉलर ख़र्च किये जा रहे हैं, वे कहाँ से आ रहे हैं? वे इसी देश के कारपोरेट घरानों, पूँजीपतियों और धनपशुओं की जेब से आ रहे हैं! वैश्विक मन्दी की मार भारत के पूँजीपतियों पर पड़ी है; ऐसे में, अपने मुनाफ़े की दर को बनाये रखने के लिए पूँजीपति इस मन्दी का पूरा बोझ मज़दूर वर्ग पर डालना चाहते हैं, उनका शोषण बढ़ाना चाहते हैं, उनकी लूट को और सघन बनाना चाहते हैं; लेकिन देश का मज़दूर वर्ग पहले ही असहनीय दमन और शोषण से सुलग रहा है! ऐसे में, देश के अम्बानी-टाटा-बिड़ला सरीखे पूँजीपतियों को कोई तानाशाह चाहिए जो कि “निर्णायकता” से मज़दूर असन्तोष, जन असन्तोष से निपट सके! जब प्रचार में आपसे कहा जाता है कि मोदी जैसे “निर्णायक नेता” की देश को ज़रूरत है, तो हम मज़दूरों को समझ जाना चाहिए कि किसके लिए, किसके ख़िलाफ़ और किसके द्वारा “निर्णायकता” की बात की जा रही है। आज भारत के पूँजीपति वर्ग को नरेन्द्र मोदी जैसे तानाशाह की ज़रूरत है जो पूँजी के पक्ष में तानाशाही क़ायम करने के लिए पूर्ण निर्णायकता दिखला सके। यही कारण है कि जबसे चुनावों की घोषणा हुई है, तबसे भारत का शेयर बाज़ार उछला जा रहा है! वह इस बात की सम्भावना से गदगद है कि मोदी सत्ता में आ सकता है और इसके लिए उसने मोदी पर अरबों-खरबों का दाँव भी लगा दिया है! 2014 में बेहद ख़राब हालत में खुला सेंसेक्स चुनाव की घोषणा होते ही 22,000 के ऊपर जा पहुँचा तो वहीं निफ़्टी 6500 के ऊपर उछल गया। यह सब क्यों हो रहा है? क्योंकि “मोदी आ रहे हैं और पूँजीपतियों की नंगी तानाशाही ला रहे हैं!” हम मज़दूर अगर इस बात को नहीं समझते तो आने वाला समय हमारे लिए बेहद कठिन होगा! यह एक नंगा मज़दूर-विरोधी तानाशाह है, जिसे आज देश की सभी समस्याओं के समाधान के रूप में पेश किया जा रहा है! हम अपनी अधूरी राजनीतिक चेतना और ज़िन्दगी के नारकीय हालात से मुक्ति की चाहत में इस बात पर ध्यान नहीं देते कि आख़िर मोदी कौन-सी नीतियों की बात कर रहा है। लेकिन मज़दूर वर्ग के हरेक व्यक्ति को आज इस बात पर ग़ौर करना चाहिए कि मोदी की नीतियाँ क्या हैं।
गुजरात में पिछले 13 वर्षों से मोदी की अगुवाई में संघ गिरोह अपना फासीवादी प्रयोग कर रहा है। इस प्रयोग ने गुजरात की जनता को क्या दिया है? आइये देखते हैं। 2002 में मुसलमानों के विरुद्ध जो नरसंहार मोदी की सरकार के संरक्षण में हुआ, उसमें मरने वाले अधिकांश मुसलमान कौन थे? उसमें जलाये और काटे जाने वाले बेगुनाह कौन थे? मुख्यतः और मूलतः वे बेगुनाह गुजरात के ग़रीब मुसलमान थे। एक एहसान ज़ाफ़री की दर्दनाक हत्या आज तक सुर्खि़यों में है, लेकिन गुजरात में मारे गये अनगिन बेगुनाह ग़रीब मुसलमान गुमनाम हो चुके हैं। मज़दूरों पर पूँजी की फासीवादी तानाशाही को स्थापित करने का काम हमेशा ही किसी न किसी क़िस्म के कट्टरवाद को बढ़ावा देकर किया जाता है। हिटलर ने यह काम यहूदियों को निशाना बनाकर किया था, तो मोदी और संघ गिरोह यह काम भारत में मुसलमानों को निशाना बनाकर करता है। फासीवाद को मज़दूरों और आम मध्यवर्गीय जनता के सामने कोई नक़ली शत्रु पेश करना होता है, ताकि असली शत्रु पर ध्यान न जाये। इसलिए पूँजीपति वर्ग की सेवा करते हुए मोदी जैसे फासीवादी भारत में मुसलमानों को शत्रु के रूप में पेश करते हैं और हिन्दू मज़दूरों से कहते हैं कि 14 करोड़ मुसलमान यानी 14 करोड़ बेरोज़गार हिन्दू! लेकिन सच्चाई क्या है? 14 करोड़ मुसलमानों में बेरोज़गारी की दर हिन्दुओं के बीच बेरोज़गारी की दर से कहीं ज़्यादा है! जो मुसलमान रोज़गारशुदा नागरिकों के तौर पर सरकारी आँकड़ों में दर्ज हैं, उनमें से अधिकांश स्वरोज़गार-प्राप्त मज़दूर हैं! वास्तव में, जब पूँजीवादी व्यवस्था जनता के व्यापक हिस्सों को रोज़गार नहीं दे पाती, तभी वह इस प्रकार के विभाजन को अंजाम देती है। और यह काम सबसे कारगर तरीक़े से फासीवादी ताक़तें अंजाम देती हैं और एक अन्धी कट्टरता को भड़काकर मज़दूरों के बीच बँटवारा करती हैं। हमें इसकी असलियत को समझना चाहिए! अगर मोदी सरकार हिन्दुओं की इतनी ही बात करती है, तो ज़रा देखिये कि गुजरात में समूची जनता के जीवन के हालात क्या हैं? इसी से पता चल जायेगा कि मोदी जैसी फासीवादी साम्प्रदायिकता का केवल इस्तेमाल करते हैं और उनका असली मक़सद होता है मज़दूर वर्ग की एकजुटता को धार्मिक आधार पर तोड़ना और उसके बाद उन पर पूँजी के चाबुक बरसाना।
गुजरात में 51.9 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं। मनरेगा के तहत इस योजना के अधिकारी सभी ग्रामीण मज़दूरों में से मात्र 19 प्रतिशत को रोज़गार मिलता है और वह भी मात्र 60 दिनों के लिए। गुजरात में मज़दूरों के बीच बेरोज़गारी की दर देश के सभी राज्यों से ज़्यादा है और जिन्हें रोज़गार मिलता भी है, उनमें ठेका मज़दूरों का प्रतिशत सबसे ज़्यादा है। गुजरात पर विदेशी क़र्ज़ 1 लाख 38 हज़ार करोड़ डॉलर का है जिसका सूद चुकाने के लिए गुजरात की आम मेहनतकश जनता पर करों का भयंकर बोझ है। गुजरात में विकास का अर्थ पूँजीपतियों के लिए अबाधित मुनाफ़ा है। कारपोरेट कम्पनियों को निवेश के लिए सबसे अनुकूल अवसर मुहैया कराये जाते हैं, जिनकी हम ऊपर चर्चा कर चुके हैं। ऐसे में, अगर हम कांग्रेस और भाजपा की आर्थिक नीतियों की बात करें तो उनमें कोई गुणात्मक अन्तर नहीं है। भाजपा ज़्यादा तानाशाह और दमनकारी तरीक़े से पूँजी के शासन को लागू करती है, जबकि कांग्रेस थोड़े “कल्याणवाद” की चाशनी में भिगोकर उन्हीं नीतियों को लागू करती है। फ़िलहाल, मन्दी की मार खाये पूँजीपति वर्ग को मोदी के रूप में ज़्यादा तानाशाह क़िस्म के शासन की ज़रूरत है और यही कारण है कि पूरा कारपोरेट मीडिया और पूँजीपति वर्ग इस समय नरेन्द्र मोदी के कसीदे पढ़ रहा है। लेकिन सच्चाई यह है कि कांग्रेस की सरकार बने या फिर भाजपा की, मेहनतकश वर्ग को भूख, कुपोषण, बेरोज़गारी और महँगाई के अलावा और कुछ नहीं मिलने वाला है। याद रहे कि जब अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन की सरकार बनी थी, उस समय देश के इतिहास में पहली बार निजीकरण की गति को बढ़ाने के लिए एक विनिवेश मन्त्रालय बना था, जिसका ज़्यादा सही नाम ‘निजीकरण मन्त्रालय’ होना चाहिए। इस दौर में ठेकाकरण और निजीकरण की रफ़्तार अभूतपूर्व रूप से बढ़ी थी। इसी समय प्याज़ और नमक की क़ीमतों ने सारे रिकॉर्ड तोड़े थे, जिसके कारण राजग की सरकार 2004 में गिर गयी थी। इसलिए भाजपा की आर्थिक नीतियाँ वही हैं, जो कि कांग्रेस की आर्थिक नीतियाँ हैं; शराब वही है, बस बोतल अलग है।
तथाकथित “तीसरे मोर्चे” की सच्चाई: मौक़ापरस्त, सत्तालोलुप भ्रष्टाचारियों और पूँजी के चाकरों का मजमा
तीसरे मोर्चे का शासन भी भारत की मेहनतकश जनता 1996 से 1997 तक देख चुकी है। इस दौर में भी निजीकरण और उदारीकरण की रफ़्तार में कोई कमी नहीं आयी थी। संयुक्त मोर्चे की सरकार के दौरान संसदीय वामपन्थी भी सरकार में शामिल थे और कृषि मन्त्रालय संसदीय वामपन्थी नेता चतुरानन मिश्र के हाथों में था। और इसी दौर में इस संशोधनवादी नेता ने कृषि के क्षेत्र में विदेशी निवेश और साथ ही साम्राज्यवादी हस्तक्षेप को आज्ञा देने की नीतियाँ लागू करते हुए ‘टर्मिनेटर बीजों’ को इजाज़त दी थी। यह भूलना नहीं चाहिए कि यह कृषि के क्षेत्र में पूँजीपतियों को लाभ पहुँचाने वाली एक अहम नीति थी, जिसकी क़ीमत देश का ग़रीब किसान आज तक भुगत रहा है।
आज जो ताक़तें तीसरा मोर्चा बनाने में लगी हुई हैं, वे कौन हैं? बीजू जनता दल के नवीन पटनायक जिसने ओडिशा में पास्को जैसी कम्पनियों को प्राकृतिक संसाधनों को लूटने और जनजातीय और किसान आबादी को उजाड़ने की पूरी आज़ादी दी है; यही राज्य है जिसमें निजी कम्पनियों को खनिजों और धातुओं के उत्खनन के अरबों रुपयों के ठेके दिये गये हैं। तीसरे मोर्चे के एक अन्य घटक हैं मुलायम सिंह यादव, जिन्होंने उत्तर प्रदेश में अपने विभिन्न शासनकालों के दौरान भ्रष्टाचार और अपराध के सारे कीर्तिमान ध्वस्त कर दिये। हाल के मुज़फ्ऱफ़रनगर दंगों में समाजवादी पार्टी की मुसलमानों की हिमायत की असलियत भी खुलकर सामने आ गयी। बसपा की मायावती की कहानी भी कुछ अलग नहीं है, जिनका सपना पहले उत्तर प्रदेश की दलित महारानी बनने का था और अब प्रधानमन्त्री बनने का हो गया है। दलितों के हितों की बात करते हुए मायावती को एक समय में भाजपा जैसी सवर्णवादी पार्टी से गठजोड़ बनाने में कोई तक़लीफ़ नहीं पेश आयी थी! अपने शासन के दौरान उत्तर प्रदेश में कारपोरेट पूँजीपति वर्ग को ज़बरदस्त मुनाफ़े वाले निर्माण के ठेके देने में तो मायावती ने सारे रिकॉर्ड तोड़ दिये थे; कईयों ने तो मायावती की सरकार को जेपी बिल्डर की सरकार क़रार दिया था। और इस पूरी प्रक्रिया में दलित साम्राज्ञी मायावती ने अपने लिये भी राजसी शानो-शौक़त के तमाम इन्तज़ाम कर लिये। जयललिता और करुणानिधि जैसे लोग पहले ही साबित कर चुके हैं कि अपने राजनीतिक हितों और सत्ता के लालच में वे कभी भी किसी की भी गोद में बैठने में कोई दिक्क़त नहीं महसूस करते! ममता बनर्जी के बारे में जितना कम कहा जाये उतना अच्छा है! अभी हाल ही में पश्चिम बंगाल में मज़दूरों और निम्न मध्यवर्ग का पैसा लेकर भागने वाले सारदा चिटफ़ण्ड के मालिक से ममता बनर्जी के करीबी रिश्ते आज सभी के सामने हैं! क्या कोई भूल सकता है कि 1970 के दशक में पश्चिम बंगाल में क्रान्तिकारी नौजवानों और मज़दूरों का क़त्लेआम करवाने में ममता बनर्जी की क्या भूमिका थी? अभी इन तमाम व्याभिचारियों और भ्रष्टाचारियों की तीसरे मोर्चे में भागीदारी पक्की नहीं है और ये मौक़ापरस्त छोटी व क्षेत्रीय पूँजीवादी पार्टियाँ चुनाव के नतीजों का इन्तज़ार कर रही हैं और अपने सारे पत्ते खोले हुए हैं। नतीजों के बाद ये तय करेंगे कि किसे किसकी गोद में बैठना है!
जहाँ तक संसदीय वामपन्थियों का सवाल है, तो साम्प्रदायिक फासीवाद को रोकने के नाम पर वे भी हर प्रकार के सिद्धान्तहीन मोर्चे बनाने के लिए तैयार हैं। केरल और पश्चिम बंगाल में अपने शासनकालों में इन संसदीय वामपन्थियों ने टाटा-बिड़ला सरीखे बड़े पूँजीपतियों के समक्ष यह सिद्ध किया कि पूँजी के तलवे चाटने के मामले में उनकी जीभ कांग्रेस और भाजपा जैसी नंगी पूँजीवादी पार्टियों से छोटी नहीं है! नन्दीग्राम, सिंगूर और लालगढ़ में पूँजीपतियों के लिए ज़मीन और अन्य संसाधन जनता से छीनने के लिए अगर क़त्लेआम भी करना पड़ा तो इसमें माकपा और भाकपा जैसी संसदीय वामपन्थी पार्टियों ने कोई हिचक नहीं दिखलायी। इनका दोगलापन इसी बात से ज़ाहिर हो जाता है कि जिन मज़दूर-विरोधी नीतियों को ये अपने शासन में लागू करती रही थीं, राष्ट्रीय पैमाने पर मज़दूर वर्ग का वोट पाने के लिए ये उन्हीं नीतियों के नक़ली विरोध का नाटक करती हैं। इनकी सीटू, एटक आदि जैसी संशोधनवादी ग़द्दार ट्रेड यूनियनें हर वर्ष दो दिनों की आम हड़ताल का एक जलसा आयोजित करती हैं, जिसे कि सरकार ने भी बीमा, बैंक आदि में काम करने वाले खाते-पीते कर्मचारियों के लिए “राष्ट्रीय छुट्टी” मान लिया है! लेकिन इस देश के 93 प्रतिशत ठेका व दिहाड़ी मज़दूरों की माँगों पर ये ट्रेड यूनियनें या तो चुप हैं या फिर नक़ली विरोध की नौटंकी करती हैं। सही मायनों में ये संसदीय वामपन्थी देश के मज़दूरों के सबसे बड़े दुश्मन हैं और इनकी असलियत को समझना आज मज़दूर आन्दोलन के लिए एक बुनियादी पूर्वशर्त बन चुका है।
मज़दूर वर्ग और जनता को ठगने का नया औज़ार: आम आदमी पार्टी
पिछले वर्ष भारतीय पूँजीवादी राजनीति में आम आदमी पार्टी के रूप में एक नये सितारे का उदय हुआ। इस पार्टी ने आते ही “नयी आज़ादी”, “स्वराज्य”, “भ्रष्टाचार-मुक्त भारत” आदि जैसे गर्मागर्म नारे दिये। दिल्ली के विधानसभा चुनावों में 28 सीटें हासिल करके ‘आप’ ने कांग्रेस के बाहरी समर्थन से सरकार भी बनायी। और 49 दिनों बाद मज़दूर आन्दोलन के दबाव के कारण यह पार्टी सरकार छोड़कर भाग खड़ी हुई। उसे भागने के लिए एक बहाना चाहिए था, जो कि ‘जनलोकपाल बिल’ के रूप में उसे मिल गया! इस बिल के पहले इस पार्टी ने सभी अन्य निर्णयों को पास करवाने के लिए उपराज्यपाल के पास भेजा था। लेकिन जनलोकपाल बिल को उपराज्यपाल के पास अनुमोदन के लिए नहीं भेजने पर ‘आप’ के मुख्यमन्त्री अरविन्द केजरीवाल अड़ गये! क्योंकि उन्हें भागने का कोई कारण चाहिए था! केजरीवाल क्यों भागना चाहता था? इसका कारण यह है कि अपने घोषणापत्र में ‘आप’ ने दिल्ली के मज़दूरों से वायदा किया था कि ठेका प्रथा को नियमित प्रकृति के कामों से ख़त्म किया जायेगा। सरकार बनते ही दिल्ली परिवहन निगम, होम गार्ड, दिल्ली मेट्रो रेल, ठेका शिक्षकों व असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले हज़ारों मज़दूरों ने केजरीवाल सरकार को घेरना शुरू किया। इन मज़दूरों की माँग थी कि ठेका प्रथा ख़त्म करने के वायदे को केजरीवाल सरकार पूरा करे। लेकिन केजरीवाल सरकार इन वायदों को कैसे पूरा कर सकती थी? उसने तो अपना श्रम मन्त्री ही एक ऐसे व्यक्ति गिरीश सोनी को बनाया था जो कि चमड़े के कारख़ाने का मालिक है! नतीजतन, 6 फ़रवरी को जब हज़ारों ठेका मज़दूरों ने दिल्ली सचिवालय का घेराव किया तो श्रम मन्त्री गिरीश सोनी ने ठेका-प्रथा ख़त्म करने के लिए विधेयक पास करवाने से साफ़ इंक़ार कर दिया और इस तरह मज़दूरों के साथ किये गये वायदे से ‘आप’ सरकार खुले तौर पर मुकर गयी। इसके पहले दिल्ली परिवहन निगम व अन्य कई ठेका कर्मचारी केजरीवाल को दौड़ा चुके थे। केजरीवाल को यह समझ आ गया था कि सरकार में बने रहने पर उसकी बहुत किरकिरी होगी, क्योंकि मज़दूर उसे जवाबदेही से भागने नहीं देंगे! नतीजतन, केजरीवाल सरकार छोड़कर ही भाग खड़ा हुआ।
इसके बाद उसने पूँजीपतियों की एक बैठक में आम आदमी पार्टी की आर्थिक नीति का खुलासा करते हुए कहा कि आम आदमी पार्टी उद्योग-धन्धों में सरकार के हस्तक्षेप को ख़त्म कर देगी! इसका अर्थ क्या है? इसका अर्थ है कि सभी प्रकार के श्रम क़ानूनों, कर अनिवार्यताओं से पूँजीपतियों को छूट! यही काम तो कांग्रेस और भाजपा पिछले कई दशकों से कर रही हैं! तो फिर मज़दूरों के लिए कांग्रेस, भाजपा और आम आदमी पार्टी में क्या फ़र्क़ रहा? कुछ भी नहीं! बस इतना फ़र्क़ है कि आम आदमी पार्टी भ्रष्टाचार-विरोध के नारे की आड़ में जनता को मूर्ख बना रही है। केजरीवाल का कहना है कि देश में सभी समस्याओं के मूल में भ्रष्टाचार है! यदि भ्रष्टाचार ख़त्म हो जाये तो साम्प्रदायिकता, शोषण आदि सबकुछ ख़त्म हो जायेगा! लेकिन अगर भ्रष्टाचार ख़त्म हो भी जाये (जोकि पूँजीवादी व्यवस्था में असम्भव है!) तो भी क़ानून-सम्मत लूट का क्या होगा? देश का संविधान और क़ानून निजी सम्पत्ति और मुनाफ़ा कमाने की इजाज़त देता है! देश का क़ानून जो ग़रीबी रेखा और न्यूनतम मज़दूरी तय करता है, यदि उस पर अमल हो भी जाये (जोकि असम्भव है!) तो क्या मज़दूरों को एक इज़्ज़त-आसूदगी भरी ज़िन्दगी मिल सकती है? नहीं! गुजरात में न्यूनतम मज़दूरी 5300 रुपये है। इसी से कुछ आगे या कुछ पीछे अधिकांश अन्य राज्यों की न्यूनतम मज़दूरी है! यह न्यूनतम मज़दूरी यदि लागू हो भी जाये तो क्या हम अपने बच्चों को एक बेहतर भविष्य दे सकते हैं? नहीं! और पूँजीपतियों को भ्रष्टाचार ख़त्म होने से कोई नुक़सान नहीं होगा! क्योंकि भ्रष्टाचार के ज़रिये बस कुल मुनाफ़े के बँटवारे में फ़र्क़ आयेगा! देश की नेताशाही और नौकरशाही ग़लत ठेके देने आदि में पूँजीपतियों से जो घूस लेती है, यदि वह घूस न ले तो वह पैसा देश के मज़दूर वर्ग के पास नहीं आयेगा, बल्कि टाटा-बिड़ला-अम्बानी की जेब में ही जायेगा! लूट के माल में बँटवारे को लेकर जो झगड़ा पूँजीपति मालिक वर्ग और पूँजीपति नौकरशाह और नेता वर्ग के बीच है, उससे हम मज़दूरों का क्या लेना-देना? अगर आम आदमी पार्टी घूसखोरी और भ्रष्टाचार को पूरी तरह ख़त्म भी कर दे (जो कि एक दिवास्वप्न है!) तो भी इससे लूट की हिस्सेदारी के अनुपात में फ़र्क़ आयेगा और मालिक वर्ग का हिस्सा बढ़ जायेगा! हम मज़दूरों को इससे कुछ नहीं मिलेगा। इसलिए हमें एक भ्रष्टाचार-मुक्त सन्त पूँजीवाद नहीं चाहिए, बल्कि हमें पूँजीवाद का विकल्प चाहिए; और आम आदमी पार्टी के तमाम नेता कई बार पूँजीपतियों के सामने दाँत चियारकर बोल चुके हैं कि वे पूँजीवाद-विरोधी नहीं हैं, बल्कि भ्रष्टाचारी पूँजीवाद विरोधी हैं। लेकिन किसी और क़िस्म का पूँजीवाद हो ही नहीं सकता। जब आप मुनाफ़ाखोर व्यवस्था बनाते हैं, मुनाफ़े की अन्धी हवस और संस्कृति को पनपाते हैं, तो फिर मुनाफ़ाखोरी नियम-कायदे-क़ानून के दायरे में नहीं रहती! वह मुनाफ़ाखोरी घूसखोरी, भाई-भतीजावाद आदि को भी जन्म देती है। जो भी मज़दूर वर्ग को भ्रष्टाचार-मुक्त पूँजीवाद का सपना दिखलाता है, वह मज़दूर वर्ग का ग़द्दार है, उसे धोखा दे रहा है। आम आदमी पार्टी आज यही काम कर रही है, ताकि पूँजीवादी व्यवस्था से उठते भरोसे को फिर से बिठाया जा सके और मज़दूर वर्ग में पूँजीवाद को लेकर विभ्रम पैदा किया जा सके। इसलिए आम आदमी पार्टी से मज़दूरों को ख़ास तौर पर सावधान रहना चाहिए, ये सबसे ख़तरनाक पूँजी के चाकरों में से एक हैं!
हमारे पास क्या विकल्प है?
उपरोक्त सभी पार्टियाँ जब-जब शासन में रही हैं तो इन्होंने उन्हीं आर्थिक नीतियों को अलग-अलग ज़ोर के साथ लागू किया है जिन नीतियों को कांग्रेस और भाजपा लागू करती रही हैं; जिन नीतियों के फलस्वरूप आज देश का मज़दूर वर्ग ग़रीबी और तंगहाली के दलदल में फँसा हुआ है। न तो वह दो वक़्त इज़्ज़त और सुकून की रोटी खा सकता है, न अपने बच्चों का इलाज करा सकता है, न उन्हें पढ़ा सकता है।
मज़दूरों और मेहनतकशों की यह हालत इसलिए नहीं हो रही है कि देश में खाने के लिए अनाज, इलाज के लिए दवा, रहने के लिए मकान और पहनने के लिए कपड़े की कमी है। इन सभी चीज़ों के उत्पादन में दुनिया में भारत अव्वल कतारों में है। लेकिन ये सारे संसाधन, धन-दौलत, ऐशो-आराम के साज़ो-सामान पैदा करने के बावजूद देश का मज़दूर और मेहनतकश भुखमरी और कुपोषण में जी रहा है। इसका कारण क्या है? इसका कारण मुनाफ़ा-केन्द्रित पूँजीवादी व्यवस्था है जो श्रम की लूट पर टिकी हुई है। इस व्यवस्था की सेवा करने वाली राज्यसत्ता का ध्वंस किये बिना इस व्यवस्था का विकल्प नहीं खड़ा किया जा सकता है। चुनावों के रास्ते सरकार बना लेने से यह व्यवस्था नष्ट नहीं होने वाली है क्योंकि व्यवस्था का अर्थ केवल संसद, विधानसभा आदि नहीं होते। ये तो पूँजीवादी व्यवस्था के दिखाने के दाँत हैं। इस व्यवस्था के असली खाने के दाँत तो पुलिस, फ़ौज, सशस्त्र बल और नौकरशाही है, जो कि चुनाव के दायरे में नहीं आते। हर चार या पाँच वर्ष पर सरकारें बदल जाती हैं लेकिन पूँजीवादी व्यवस्था की सेवा करने वाला समूचा राज्य-तन्त्र वही रहता है! जब तक इस पूरे तन्त्र का क्रान्ति के ज़रिये ध्वंस नहीं किया जाता, तब तक पूँजीवाद का बाल भी बाँका नहीं होने वाला! ज़ाहिर है कि महज़ बग़ावतें करने या गुस्सा निकालने से मज़दूर वर्ग मज़दूर इंक़लाब नहीं ला सकता है। इसके लिए एक क्रान्तिकारी विचारधारा और एक क्रान्तिकारी पार्टी की ज़रूरत है। यह क्रान्तिकारी पार्टी ही मज़दूर वर्ग को इंक़लाब की ओर ले जा सकती है। यह पार्टी ही बिखरे हुए जनता के संघर्षों को एक कड़ी में पिरो सकती है। ऐसी पार्टी ही देशव्यापी क्रान्तिकारी आन्दोलन को खड़ा कर सकती है और उसकी अगुवाई कर सकती है। एक ऐसी नयी क्रान्तिकारी देशव्यापी पार्टी खड़ा करना ही आज मज़दूर वर्ग के सामने सबसे महत्त्वपूर्ण लक्ष्य है। जब तक ऐसी इंक़लाबी मज़दूर पार्टी नहीं खड़ी की जाती है, तब तक हम हताशा के अन्धकार में ही जीते रहेंगे! तब तक हम नागनाथ और साँपनाथ में से किसी को चुनने की कवायद करते रहेंगे! इसलिए आज से ही ऐसी पार्टी खड़ी करने की मुहिम में जुटना होगा!
लेकिन इंक़लाबी पार्टी खड़ा करने के साथ ही हमें मज़दूर वर्ग की राजनीति की अन्य धाराओं को भी विकसित और संगठित करना होगा। हमें आज से ही अपने आपको अपनी क्रान्तिकारी पंचायतों में संगठित करना होगा। देश का मज़दूर वर्ग सबकुछ बनाता है। लिहाज़ा, वह सबकुछ चला भी सकता है। मज़दूर वर्ग को स्वयं राजनीतिक निर्णय लेना सीखना होगा; उसे ऐसी संस्थाएँ खड़ी करनी होंगी जिनमें वह एक वर्ग के तौर पर अपने हितों के लिए राजनीतिक फ़ैसले ले सके। और ऐसी संस्थाओं के तौर पर ही उसे मज़दूर बस्तियों और मुहल्लों में, गाँवों में, औद्योगिक क्षेत्रें में अपनी क्रान्तिकारी लोकस्वराज्य पंचायतें खड़ी करनी होंगी जोकि आने वाली क्रान्तिकारी व्यवस्था में सत्ता के निकायों की भूमिका निभा सकें; ऐसी संस्थाएँ जहाँ मज़दूर अपने शासन-सम्बन्धी राजनीतिक फ़ैसले ले सकें! इसके लिए हमें भावी क्रान्ति के बाद मौक़ा नहीं मिलने वाला है। हमें अभी से ही समानान्तर जन-सत्ता की संस्थाएँ खड़ी करनी होंगी। इसके बिना मज़दूर वर्ग को फ़ैसला लेने की अपनी ताक़त पर कैसे भरोसा पैदा होगा? वह कैसे जान पायेगा कि वह समूचे देश के शासन की बागडोर अपने हाथों में ले सकता है? उसे अपनी राजनीतिक क्षमता पर आत्मविश्वास कैसे पैदा होगा? और इस आत्मविश्वास के बिना क्या मज़दूर वर्ग मज़दूर क्रान्ति को अंजाम दे सकता है? क्या वह क्रान्ति के बाद सत्ता को सँभाल और चला सकता है? नहीं! इसलिए हमें इन्तज़ार नहीं करना चाहिए! अपनी मदद हमें ख़ुद करनी होगी और आज ही से हमें हर इलाक़े, हर मुहल्ले, हर बस्ती, हर क्षेत्र में अपनी क्रान्तिकारी लोकस्वराज्य पंचायतें खड़ी करनी होंगी, एक वर्ग के तौर पर अपने हितों की पहचान करना सीखना होगा, इन वर्ग हितों के अनुसार निर्णय लेना सीखना होगा! हम यह कर सकते हैं और हमें यह करना ही होगा!
इंक़लाबी पार्टी और क्रान्तिकारी लोकस्वराज्य पंचायतों के साथ ही, आज हमें एक नये क्रान्तिकारी ट्रेड यूनियन आन्दोलन की आवश्यकता है। मज़दूर वर्ग अपने दुश्मन के तौर पर समूचे पूँजीपति वर्ग की पहचान रोज़मर्रा के वर्ग संघर्ष के ज़रिये ही करता है। जब तक मज़दूर के सामने एक कारख़ाने का मालिक या कुछ कारख़ानों के मालिक दुश्मन के तौर पर नज़र आते हैं, तब तक वह मज़दूर अपने शोषण और उत्पीड़न के असल कारणों तक नहीं पहुँच पाता है। अभी तक वह यह नहीं समझ पाया है कि उसका दुश्मन एक मालिक, एक ठेकेदार या जॉबर नहीं है, बल्कि समूचा पूँजीपति वर्ग है। अभी वह पूँजीवाद-विरोधी नहीं बना है, अभी वह राजनीतिक तौर पर वर्ग सचेत नहीं बना है। और ऐसा मज़दूर वर्ग कभी इंक़लाब नहीं कर सकता है, जोकि अपने दुश्मन वर्ग को न पहचानता हो। यह पहचान तभी हो सकती है, जब मज़दूर वर्ग अपने आर्थिक और राजनीतिक हितों की रक्षा के लिए एक क्रान्तिकारी ट्रेड यूनियन आन्दोलन नहीं खड़ा करता। आज देश का ट्रेड यूनियन आन्दोलन देश की मज़दूर आबादी के करीब 90 फ़ीसदी को समेटता ही नहीं है। संशोधनवादी और संसदीय वामपन्थी पार्टियों की ट्रेड यूनियनें देश के मज़दूरों के महज़ 7-8 प्रतिशत हिस्से की नुमाइन्दगी करती हैं। यह छोटा-सा हिस्सा आमतौर पर बैंक, बीमा व अन्य बड़े सार्वजनिक उपक्रमों में स्थायी करारनामे पर काम करने वाली मज़दूर व कर्मचारी आबादी है, जिसका एक अच्छा-ख़ासा हिस्सा मौजूदा व्यवस्था द्वारा सहयोजित कर लिया गया है, और उसे अब क्रान्तिकारी परिवर्तन की आवश्यकता महसूस नहीं होती। यह छोटा-सा कुलीन मज़दूर वर्ग सिर्फ़ वेतन-भत्तों की लड़ाई तक सीमित रहना चाहता है और संशोधनवादी ट्रेड यूनियनें इस छोटे-से हिस्से के वेतन-भत्तों की ही लड़ाई लड़ रही हैं। इनके अतिरिक्त देश में कल-कारख़ानों, खानों-खदानों में खटने वाला एक विशालकाय औद्योगिक मज़दूर वर्ग और साथ ही तथाकथित “स्वरोज़गार” में लगा एक विशालकाय अनौपचारिक मज़दूर वर्ग है जोकि निर्माण मज़दूर के रूप में, रिक्शे-ठेले खींचने वाले मज़दूरों के रूप में और इसी प्रकार के छोटे-मोटे काम-धन्धों में लगा हुआ है। ये ठेका, दिहाड़ी व अनौपचारिक मज़दूर देश की कुल मज़दूर आबादी का करीब 93 फ़ीसदी है और सबसे नारकीय कार्य व जीवन स्थितियों में रहता है। मौजूदा केन्द्रीय ट्रेड यूनियन संघ इस मज़दूर आबादी के हितों की नुमाइन्दगी करते ही नहीं। यह मज़दूर आबादी कोई पिछड़ी हुई मज़दूर आबादी नहीं है, बल्कि यह कई क़िस्म के कामों में कुशल और कई प्रकार के यन्त्रों पर काम करने वाली एक ऐसी मज़दूर आबादी है जिसके पैरों में चक्का लगा हुआ है। यह विशालकाय मज़दूर आबादी सबसे क्रान्तिकारी और सबसे अधिक व्यवस्था-विरोधी है; यह वह आबादी है जो सबसे शिद्दत के साथ परिवर्तन की आवश्यकता को महसूस करती है। एक नये क्रान्तिकारी ट्रेड यूनियन आन्दोलन की आवश्यकता है, जो इस बहुसंख्यक मज़दूर आबादी के हक़ों की हिफ़ाज़त के लिए संघर्ष करे। इसके लिए संसदीय वामपन्थियों समेत विभिन्न चुनावी पार्टियों से जुड़े केन्द्रीय ट्रेड यूनियन संघों से स्वतन्त्र नयी क्रान्तिकारी ट्रेड यूनियनों के निर्माण की आवश्यकता है। आज पहले से मौजूद चुनावी पार्टियों की ट्रेड यूनियनों में घुसकर क्रान्तिकारी राजनीतिक व ट्रेड यूनियन कार्य आमतौर पर मुश्किल होता जा रहा है, क्योंकि इन ट्रेड यूनियनों में कोई आन्तरिक जनवाद नहीं है। आज देशभर में मज़दूरों की विशाल बहुसंख्या को पूँजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध संगठित करने और अपने हक़ों के लिए लड़ना सिखाने के लिए नये क्रान्तिकारी ट्रेड यूनियन आन्दोलन की ज़रूरत है। ऐसा ट्रेड यूनियन आन्दोलन ही पूँजीवादी व्यवस्था को उसके असम्भाव्यता के बिन्दु पर ले जा सकता है।
मज़दूर वर्ग की एक नयी क्रान्तिकारी पार्टी का निर्माण, देशभर में मेहनतकश जनता की समानान्तर सत्ता के रूप में क्रान्तिकारी लोकस्वराज्य पंचायतों की स्थापना और साथ ही एक नये क्रान्तिकारी ट्रेड यूनियन आन्दोलन का निर्माण आज हमारे सामने उपस्थित सबसे महत्त्वपूर्ण कार्यभार हैं। हमारे पास यही विकल्प है! और हमें इसी को चुनना चाहिए। 67 वर्ष मौजूदा पूँजीवादी जनतन्त्र की असलियत को पहचानने के लिए काफ़ी होते हैं! 67 वर्ष नींद से जागने के लिए काफ़ी होते हैं!
मज़दूर बिगुल, मार्च-अप्रैल 2014
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन