कम्बोडिया में मज़दूर संघर्षों का तेज़ होता सिलसिला
बिगुल संवाददाता
कम्बोडिया में पिछले वर्ष से मज़दूर आन्दोलन में एक नया उभार आया है। टूलडाउन, हड़तालों, प्रदर्शनों आदि में तेज़ी आयी है। दिसम्बर 2013 से आन्दोलन और भी तीखा हो गया है। 24 दिसम्बर 2013 को न्यूनतम वेतन दोगुना करने (80 डॉलर से 160 डॉलर करने) की माँग के तहत वस्त्र उद्योग के दसियों हज़ार मज़दूरों ने हड़ताल कर दी थी। इसके साथ ही, पिछले 28 सालों से प्रधानमन्त्री की कुर्सी पर क़ाबिज़ हुन सेन के इस्तीफ़े की माँग भी की गयी। सरकार ने मज़दूर आन्दोलन को दमन के ज़रिये कुचलने की कोशिश की है। 2 और 3 जनवरी को सेना बुलाकर निहत्थे मज़दूरों पर ए.के. 47 जैसे हथियारों से गोलियाँ बरसायी गयीं। लाठीचार्ज किया गया। लोहे की छड़ों से पीटा गया। इस दमन में पाँच मज़दूरों के मारे जाने की पुष्टि हुई है। बड़ी संख्या में मज़दूर ज़ख़्मी हुए हैं। 23 लोगों को गिरफ़्तार किया गया। दो लोगों को बाद में जमानत पर छोड़ दिया गया, लेकिन 21 अभी जेल में हैं। इन पर मज़दूरों को भड़काने, हिंसा फैलाने, सरकारी-ग़ैरसरकारी सम्पत्ति को नुक़सान पहुँचाने जैसे बेबुनियाद दोष लगाये गये हैं। सरकार ने किसी भी तरह के प्रदर्शन पर रोक लगा दी है।
सरकार ने न्यूनतम वेतन में बीस डॉलर की वृद्धि करने की बात कही है। लेकिन मज़दूरों को यह वृद्धि स्वीकार नहीं है। जेल से 21 मज़दूरों को रिहा करने, 23 मज़दूरों पर चलाये जा रहे मुक़द्दमे रद्द करने और न्यूनतम मज़दूरी 160 डॉलर करने की माँगों पर फ़रवरी में कई दिनों तक चले टूलडाउन में तीन लाख मज़दूरों ने हिस्सा लिया। इस टूलडाउन के अन्तर्गत मज़दूरों ने ओवरटाइम लगाने से मना कर दिया। 12 मार्च को चार दिनों की हड़ताल की जानी थी, जोकि बाद में 17-24 अप्रैल को करने का फ़ैसला किया गया। लेकिन मार्च में भी मज़दूरों के एक हिस्से ने हड़तालों में हिस्सा लिया। 17 अप्रैल से 24 अप्रैल तक होने वाली हड़ताल में 18 यूनियनें हिस्सा ले रही हैं।
दक्षिण एशिया में स्थित, वियतनाम और थाईलैण्ड के पड़ोसी कम्बोडिया देश की कुल आबादी लगभग 1 करोड़ 52 लाख है। कम्बोडिया का सकल घरेलू उत्पादन 14 बिलियन डॉलर है, जिसमें अकेले वस्त्र उद्योग का हिस्सा 5 बिलियन डॉलर है। वस्त्र उद्योग से ही कम्बोडिया का अधिकतर निर्यात होता है। इस उद्योग में लगभग 7 लाख मज़दूर काम करते हैं, जिसमें 90 प्रतिशत स्त्रियाँ हैं। ये मज़दूर नाईक, गैप, एडीडास, पूमा, एच एण्ड एम, मार्क्स एण्ड स्पेंसर जैसे ब्राण्डों के लिए माल तैयार करते हैं। चीन में न्यूनतम वेतन में वृद्धि होने के चलते ये कम्पनियाँ कम्बोडिया में अधिक ऑर्डर दे रही हैं। जहाँ कारख़ानों के मालिक, ठेकेदार और ब्राण्डेड कम्पनियाँ मालामाल हो रहे हैं, वहीं मज़दूरों की हालत बेहद बदतर है।
80-100 डॉलर महीना कमाने वाले इन मज़दूरों को भारत के मज़दूरों की तरह ही गन्दगी भरी परिस्थितियों में छोटे-छोटे कमरों में रहना पड़ रहा है और पर्याप्त व पौष्टिक भोजन की कमी से जूझना पड़ रहा है। वे दवा-इलाज की ज़रूरतें पूरी नहीं कर पाते। कमरों के किराये, भोजन, पानी, बिजली, दवा-इलाज की बढ़ती क़ीमतें गुज़ारा और भी मुश्किल बनाती जा रही हैं। 12-14 घण्टे का काम का बोझ, पर्याप्त और पौष्टिक भोजन, दवा-इलाज की कमी, कार्यस्थल पर अस्वास्थ्यकारी परिस्थितियाँ आदि के कारण मज़दूरों का स्वास्थ्य गिरता जा रहा है। 2 अप्रैल की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ एक दिन में ही तीन कारख़ानों में दो सौ मज़दूरों के बेहोश हो जाने के चलते उन्हें अस्पताल में दाखि़ल करवाना पड़ा था। एक रिपोर्ट के मुताबिक़ सन् 2011 में एक हज़ार मज़दूर कारख़ानों में काम के दौरान बेहोश हुए। शासन-प्रशासन देशी-विदेशी पूँजीपतियों के इशारों पर नाचता है। भ्रष्टाचार सारे रिकॉर्ड तोड़ रहा है। ऐसे हालात में मज़दूरों में आक्रोश होना स्वाभाविक है। कम्बोडिया के मज़दूरों का मौजूदा एकजुट उभार व्यापक रूप में फैले आक्रोश का ही नतीजा है।
विभिन्न पूँजीवादी चुनावी पार्टियाँ और यूनियनें मज़दूरों के इस आन्दोलन को समर्थन दे रही हैं। इसका मतलब यह हर्गिज़ नहीं है कि ये पूँजीवादी संगठन मज़दूरों का भला चाहते हैं। सबसे पहली बात तो यह है कि ये पूँजीवादी पार्टियाँ और यूनियनें मज़दूरों के आन्दोलन को अधिक से अधिक सीमित कर देना चाहते हैं, ताकि देसी-विदेशी पूँजीपतियों के हितों को कम से कम नुक़सान पहुँचे। दूसरा अपनी चुनावी रोटियाँ सेंकने के मकसद से मज़दूरों का समर्थन हासिल करने के लिए उन्हें मज़दूरों की माँगों के समर्थन का दिखावा भी करना पड़ रहा है।
मज़दूर आन्दोलन में मौजूद क्रान्तिकारी तत्व इस आन्दोलन को किस कदर सही दिशा में आगे बढ़ा पायेंगे, यह तो आने वाला समय ही बतायेगा। कम्बोडिया का यह मज़दूर उभार उस समय आया है जब विश्व पूँजीवाद भीषण आर्थिक मन्दी का शिकार है। मज़दूरों-मेहनतकशों के श्रम को किसी न किसी तरीक़े से अधिक से अधिक निचोड़कर मन्दी से छुटकारा हासिल करने की कोशिशें हो रही हैं। तेज़ी से बढ़ती महँगाई, महँगाई के मुकाबले मज़दूरी का बहुत कम बढ़ना, यहाँ तक कि वेतनों-भत्तों में कटौती होना, सरकार की तरफ़ से मिलने वाली सहूलियतों पर कटौती आदि विश्व पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में छाई मन्दी का ही नतीजा हैं। लेकिन जैसे-जैसे मज़दूरों-मेहनतकशों पर मन्दी का बोझ बढ़ता जा रहा है, वैसे-वैसे जनाक्रोश भी बढ़ता जा रहा है। दुनिया के हर हिस्से में मज़दूरों-मेहनतकशों के आन्दोलन बढ़ते जा रहे हैं। कम्बोडिया के मज़दूर आन्दोलन का उभार विश्व मज़दूर आन्दोलन की एक नयी प्राप्ति है। यह साफ़ है कि नारकीय जीवन जैसे हालात में धकेल देने वाले पूँजीपति हुक़मरानों को मज़दूर वर्ग चैन की नींद नहीं लेने देगा।
मज़दूर बिगुल, मार्च-अप्रैल 2014
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन