जन्मतिथि (9 अप्रैल) और पुण्यतिथि (14 अप्रैल) के अवसर पर
ग़रीब किसानों और मज़दूरों के ‘राहुल बाबा’
राहुल सांकृत्यायन, जिन्हें ग़रीब किसान और मज़दूर प्यार से राहुल बाबा बुलाते थे, एक चोटी के विद्वान, कई भाषाओं और विषयों के अद्भुत जानकार थे, चाहते तो आराम से रहते हुए बड़ी-बड़ी पोथियाँ लिखकर शोहरत और दौलत दोनों कमा सकते थे परन्तु वे एक सच्चे कर्मयोद्धा थे। उन्होनें आम जन, ग़रीब किसान, मज़दूर की दुर्दशा और उनके मुक्ति के विचार को समझा। उनके बीच रहते हुए उन्हें जागृत करने का काम किया और संघर्षों में उनके साथ रहे। वे वास्तव में जनता के अपने आदमी थे।
उन तमाम लेखकों व बुद्धिजीवियों से अलग जो अपने ए.सी. कमरे में बैठकर दुनिया और उसमें घटनेवाली घटनाओं की तटस्थ व्याख्या करते हैं, जनता की दुर्दशा की और सामाजिक बदलाव की बस बड़ी-बड़ी बातें करते हैं या पद-ओहदा- पुरस्कार की दौड़ में लग रहते हैं, राहुल ने अपनी प्रतिभा का इस्तेमाल समाज को बदलने के लिए जनता को जगाने में किया। इसके लिए उन्होंने सीधी-सरल भाषा में न केवल अनेक छोटी-छोटी पुस्तकें और सैकड़ों लेखे लिखे, बल्कि लोगों के बीच घूम-घूमकर ग़ुलामी और अन्याय के ख़िलाफ़ संघर्ष के लिए उन्हें संगठित भी किया।
पूर्वी उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ ज़िले में एक पिछड़े गाँव में जन्मे राहुल के मन में बचपन से ही उस ठहरे हुए और रुढ़ियों में जकड़े समाज के प्रति बग़ावत की भावना घर कर गयी और विद्रोह-स्वरूप वे घर से भाग गये। 13 साल की उम्र में एक मन्दिर के महन्त बने, फिर आर्यसमाजी बनकर समाज में रूढ़ियों और मानसिक ग़ुलामी के ख़िलाफ़ अलख जगायी लेकिन भारतीय समाज के सदियों पुराने गतिरोध, अन्धविश्वास, कूपमण्डूकता और जाति-पाँति जैसी सामाजिक बुराइयों को लेकर उनके विद्रोही मन में बेचैनी बढ़ती रही और उन्हें लगने लगा कि आर्यसमाज इन सवालों को हल नहीं कर सकता। उन्होंने बौद्ध धर्म अपना लिया लेकिन दुनिया-समाज में बराबरी और न्याय क़ायम करने का रास्ता उसके पास भी नहीं था। राहुल को अपने सभी सवालों का जवाब बौद्ध धर्म से भी न मिल पाया। समानता और न्याय पर टिके तथा हर प्रकार के शोषण और भेदभाव से मुक्त समाज बनाने की राह खोजते हुए वे मार्क्सवादी विचारधारा तक पहुँचे। उन्होंने गेरुआ चोगा उतारकर मज़दूरों-किसानों के लिए लड़ने और उनके दिमाग़ों पर कसी बेड़ियों को तोड़ डालने को अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया। उन्होंने समझ लिया कि – “साम्यवादी समाज का आर्थिक निर्माण नयी तरह से करना चाहते हैं और वह निर्माण रफ़ू या लीपापोती करके नहीं करना होगा। एक तरह से उसे नयी नींव पर दीवार खड़ी करके करना होगा। भारत की साधारण जनता की ग़रीबी इतनी बढ़ी हुई है कि उसके लिए अनन्त की ओर इशारा नहीं किया जा सकता। हमें अपने काम में तुरन्त जुट जाना चाहिए।”
उनका स्पष्ट मानना था कि – “जनता के सामने निधड़क होकर अपने विचार को रखना चाहिए और उसी के अनुसार काम करना चाहिए। हो सकता है, कुछ समय तक लोग आपके भाव न समझ सकें और ग़लतफ़हमी हो, लेकिन अन्त में आपका असली उद्देश्य हिन्दू-मुसलमान सभी ग़रीबों को आपके साथ सम्बद्ध कर देगा।”
और आम ग़रीबों से अपने को जोड़ने तथा रूढ़ियों व परम्पराओं पर प्रचण्ड प्रहार करने के लिए राहुल जी ने आम लोगों की बोलचाल की भाषा में ‘भागो नहीं दुनिया को बदलो’, ‘दिमाग़ी ग़ुलामी’, ‘तुम्हारी क्षय’, ‘नइकी दुनिया’, ‘मेहरारुन के दुरदसा’, ‘साम्यवाद ही क्यों’ जैसी छोटी-छोटी किताबें लिखकर लोगों को जागृत करने का काम शुरू कर दिया। साथ-साथ उन्होंने गाँव-गाँव घूमकर किसानों और ग़रीबों को जगाना और अंग्रेज़ हुकूमत तथा ज़मींदारों के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए संगठित करना भी शुरू किया। कई बार उन्हें जेल में डाला गया लेकिन वहाँ भी वे लगातार लिखते रहे। उनकी कई किताबें तो अलग-अलग जेलों में ही लिखी गयीं।
राहुल दूर तक देख सकते थे इसलिए उन्होंने यह समझ लिया था कि भारतीय समाज की तर्कहीनता, अन्धविश्वास सदियों पुराने गतिरोध, कूपमण्डूकता आदि पर करारी चोट करके ही आगे बढ़ाया जा सकता है। आज़ादी के आन्दोलन में जब धर्म का प्रवेश हुआ था, तभी राहुल ने इस बात को पहचान लिया था कि धार्मिक बँटवारे पर चोट करना बेहद ज़रूरी है। उन्होंने सभी धर्मों में व्याप्त कुरीतियों का ही विरोध नहीं किया बल्कि स्पष्ट रूप से बताया कि धर्म आज केवल जनता को बाँटने और शासकों की गद्दी सलामत रखने का औजार बन चुका है। उन्होंने खुले शब्दों में कहा – “धर्मों की जड़ में कुल्हाड़ा लग गया है और इसलिए अब मज़हबों के मेल-मिलाप की बातें भी कभी-कभी सुनने में आती हैं। लेकिन, क्या यह सम्भव है? ‘मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना’ – इस सफ़ेद झूठ का क्या ठिकाना। अगर मज़हब बैर नहीं सिखलाता तो चोटी.दाढ़ी की लड़ाई में हज़ार बरस से आजतक हमारा मुल्क पागल क्यों है? पुराने इतिहास को छोड़ दीजिये, आज भी हिन्दुस्तान के शहरों और गाँवों में एक मज़हब वालों को दूसरे मज़हब वालों के ख़ून का प्यासा कौन बना रहा है? असल बात यह है – ‘मज़हब तो है सिखाता आपस में बैर रखना। भाई को है सिखाता भाई का ख़ून पीना।’ हिन्दुस्तान की एकता मज़हबों के मेल पर नहीं होगी, बल्कि मज़हबों की चिता पर।”
किसानों की लड़ाई लड़ते हुए भी राहुल ने इस बात को नहीं भुलाया कि केवल अंग्रेज़ों से आज़ादी और ज़मीन मिल जाने से ही उनकी समस्याओं का अन्त नहीं हो जायेगा। उन्होंने साफ़ कहा कि मेहनतकशों की असली आज़ादी साम्यवाद में ही आयेगी। उन्होंने लिखा, “खेतिहर मज़दूरों को ख़याल रखना चाहिए कि उनकी आर्थिक मुक्ति साम्यवाद से ही हो सकती है, और जो क्रान्ति आज शुरू हुई है, वह साम्यवाद पर ही जाकर रहेगी।”
वे बिना रुके काम में जुटे रहते। भारतीय समाज की हर बुराई, हर क़िस्म की दिमाग़ी ग़ुलामी, हर तरह के अन्धविश्वास, तमाम ग़लत परम्पराओं पर वह चोट करना चाहते थे, उनके विरुद्ध जनता को शिक्षित करना चाहते थे। वे मेहनतकश लोगों से प्यार करते थे और उनके लिए अपना जीवन क़ुर्बान कर देना चाहते थे। जीवन छोटा था, काम बहुत अधिक था। सदियों से सोये भारतीय समाज को जगाना आसान नहीं था। बाहरी दुश्मन से लड़ना आसान था, लेकिन अपने समाज में बैठे दुश्मनों और ख़ुद अपने भीतर पैठे हुए संस्कारों, मूल्यों, रिवाज़ों के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए लोगों को तैयार करना उतना ही कठिन था। राहुल को एक बेचैनी सदा घेरे रहती। कैसे होगा यह सब। कितना काम पड़ा है! वे एक साथ दो-दो किताबें लिखने में जुट जाते। ट्रेन में चलते हुए, सभाओं के बीच मिलने वाले घण्टे-आध घण्टे के अन्तराल में, या सोने के समय में भी कटौती करके वह लिखते रहे। लगातार काम करते रहने से उनका लम्बा, बलिष्ठ, सुन्दर शरीर जर्जर हो गया। पर वह रुके नहीं। यह सिलसिला तब तक चला जब तक मस्तिष्क पर पड़ने वाले भीषण दबाव से उन्हें स्मृतिभंग नहीं हो गया। याद ने साथ छोड़ दिया। आर्थिक परेशानी ने घेर लिया। पूरा इलाज भी नहीं हो सका और 14 अप्रैल 1963 को 70 वर्ष की उम्र में मज़दूरों-किसानों के प्यारे राहुल बाबा ने आँखें मूँद लीं। लेकिन उन्होंने जो मुहिम चलायी उसे आगे बढ़ाये बिना आज हिन्दुस्तान में इन्क़लाब लाना मुमकिन नहीं है। आज हमारे समाज को जिस नये क्रान्तिकारी पुनर्जागरण और प्रबोधन की ज़रूरत है, उसकी तैयारी के लिए राहुल सांकृत्यायन का जीवन और कर्म हमें सदैव प्रेरित करता रहेगा।
बिगुल, अप्रैल 2009
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन