पंजाब की फिज़ा में ज़हर घोल रही हैं साम्प्रदायिक शक्तियाँ

सुखदेव

पिछली सदी के आखिरी दो दशकों के दौरान पंजाब की जनता सरकारी और ख़ालिस्तानी आतंकवाद की चक्की में पिसती रही थी। उस समय जब “धर्मयुद्ध” लड़ रहे खालिस्तानी आतंकवादी दिन-दिहाड़े बेगुनाह लोगों को ए.के. 47 की गोलियों से भून रहे थे तभी वर्दी वाले आतंकवादी बेगुनाह नौजवानों को फ़र्ज़ी मुठभेड़ों का शिकार बना रहे थे। उस समय धर्म गुरुओं, बुर्जुआ राजनीतिक पार्टियों ने अपने संकीर्ण स्वार्थों के लिए डेढ़ दशक तक पंजाब को आग में झोंके रखा और आज फिर ये शक्तियाँ पंजाब की फिज़ा में जहर घोलने का प्रयास कर रही हैं। 5 दिसम्बर को लुधियाना की सड़कों पर साम्प्रदायिक कट्टरपन्थियों के हाथों में चमकती, लहराती तलवारें सम्भावित ख़तरों की ओर इशारा कर रही हैं।

6 dec 2010 sikh protest divya jyoti5-6 दिसम्बर को लुधियाना में दिव्य ज्योति जागृति संस्थान द्वारा धार्मिक समागम किया जाना था। लेकिन दल खालसा, खालसा ऐक्शन कमेटी, सन्त समाज आदि साम्प्रदायिक जुनूनियों ने ऐलान कर दिया कि वे यह समागम नहीं होने देंगे। 5 दिसम्बर को इन संगठनों के नेतृत्व में नंगी तलवारें लेकर एक हुजूम लुधियाना की सड़कों पर उतर आया। पुलिस ने इन्हें इकट्ठा होने से रोकने के लिए कोई कोशिश तक नहीं की। इनके दबाव की वजह से दिव्य ज्योति जागृति संस्थान का 6 दिसम्बर का समागम नहीं हो सका।

दरअसल, दल खालसा, खालसा एक्शन कमेटी, सन्त समाज, दलजीत बिट्टू का अकाली दल आदि तथाकथित सिख संगठन पिछले कई वर्षों से पंजाब में साम्प्रदायिक जुनून भड़काने का प्रयास कर रहे हैं। ये संगठन पंजाब की बहुसंख्यक सिख आबादी की धार्मिक भावनायेँ भड़काकर अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंक रहे हैं। पिछले ढाई तीन वर्षों से डेरा सच्चा सौदा सिरसा के अनुयायियों को भी लगातार डरा-धमकाकर डेरे से दूर करने की कोशिश हो रही है। जगह-जगह इन कट्टरपन्थियों द्वारा डेरा सच्चा सौदा के अनुयायियों को अपने समागम करने से रोका जा रहा है। ये कट्टरपन्थी कभी डेरा सच्चा सौदा और कभी आशुतोष महाराज के अनुयायियों पर अपने फ़ासीवादी फ़रमान थोप रहे हैं। यह दरअसल पंजाब के लोगों की धार्मिक आज़ादी पर हमला है।

हम न तो डेरा सच्चा सौदा के हिमायती हैं और न ही दिव्य ज्योति के और न ही इन साम्प्रदायिक जुनूनियों के। दरअसल ये सभी संगठन, डेरे, जनता के पिछड़ेपन, उनमें बड़े स्तर पर फैले अन्धविश्वासों का फ़ायदा उठाकर करोड़ों के कारोबार चला रहे हैं। जिस डेरे या धर्म के अनुयायी अधिक होंगे उसका कारोबार भी उतना ही फैलेगा। जब लोग एक धर्म की दुकान से धर्म की दूसरी दुकान की तरफ़ पलायन करते हैं तो एक का कारोबार फलता-फूलता है और दूसरे को घाटा होता है। यही इनके बीच झगड़े की मुख्य वजह है।

किसी धर्म या डेरे में श्रद्धा की वजह लोगों का पिछड़ापन या अन्धविश्वास भले ही हो लेकिन आस्था का प्रश्न हर नागरिक का निजी मामला है। किसी को भी ज़बरदस्ती किसी धर्म या डेरे का अनुयायी बनने से रोकना, उनको अपने धार्मिक समागम करने से तलवार के दम पर रोकना एक फ़ासीवादी क़दम है। यह लोगों के धार्मिक चुनाव के जनवादी अधिकार पर हमला है। यही आज कट्टरपन्थी सिख संगठन कर रहे हैं। इन अर्थों में ये हिटलर, मुसोलिनी और उनके मिनी संस्करण नरेन्द्र मोदी के नक्शेक़दम पर चल रहे हैं। पंजाब के मेहनतकश लोगों को धर्म के नाम पर बाँटने की इन साम्प्रदायिक कट्टरपन्थियों की कोशिश और उन्हें अपने ही भाई-बहनों के ख़िलाफ़ लड़ाने की कोशिशों का पुरज़ोर विरोध किया जाना चाहिए। पंजाब के मेहनतकश लोगों (जिनमें पंजाब में दूसरे राज्यों से आकर काम कर रहे मज़दूर भी शामिल हैं) के वास्तविक मुद्दे तो रोज़ी-रोटी के सवाल हैं। कमरतोड़ महँगाई से निजात पाना है, ग़रीबी-भुखमरी से निजात हासिल करने के लिए श्रम के लुटेरों के ख़िलाफ़ डटना है। सिख कट्टरपन्थी संगठनों के पास पंजाब के मेहनतकश लोगों की असल समस्याओं का कोई समाधान नहीं है। दरअसल यह मसले पंजाब के 90 फ़ीसदी ग़रीब लोगों के हैं, इन साम्प्रदायिक कट्टरपन्थियों के नहीं। ये भी तो मालिक वर्गों, सेठों, पूँजीपतियों, बड़े भूमिपतियों आदि द्वारा मेहनतकश लोगों के श्रम की लूट में हिस्सा लेते हैं। ये बिना कोई काम किये ऐयाशी भरी जिन्दगी जीते हैं। किसी भी नये मॉडल की कार जब बाज़ार में आती है तो सबसे पहले इन बाबाओं के पास ही पहुँचती है। इनकी ऐयाशियों के ढेरों क़िस्से हैं।

इन बाबाओं, धर्म गुरुओं को राजनीतिक शह भी प्राप्त है। बदले में बाबा भी चुनावों के दौरान राजनीतिज्ञों की मदद करते हैं। सिख कट्टरपन्थियों को बादल सरकार की प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष शह मिलती है जबकि सिरसा वालों, आशुतोष को कांग्रेस और भाजपा का आशीर्वाद प्राप्त है। इन बाबाओं, साम्प्रदायिक कट्टरपन्थियों और पूँजीवादी राजनीतिज्ञों का गठबंधन पंजाब के मेहनतकश का ख़ून बहाने की जी-तोड़ कोशिशें कर रहा है, ज़रूरत है इनके असल मंसूबों को पहचानने की और लोगों के बीच इनका ख़ूनी चेहरा नंगा करने की।

 

बिगुल, जनवरी-फरवरी 2010

 


 

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