नये साल के मौके पर मेहनतकश साथियों का आह्वान
पूँजीवाद की क़ब्र खोदने के लिए कमर कसकर तैयार हो जाओ!
नयी समाजवादी क्रान्ति की अलख जगाओ!
सम्पादकीय
नयी सदी का एक और साल इतिहास बन गया। यूँ देखा जाये तो मेहनकश अवाम के लिए यह साल हाल के कुछ वर्षों से ज्यादा अलग नहीं था। पूँजी की लुटेरी मशीन के चक्के इस वर्ष भी मेहनतकशों को पीसते रहे, उनकी रक्त-मज्जा की एक-एक बूँद निचोड़कर मुनाफ़ाख़ोरों की तिजोरियाँ भरती रहीं, जनसंघर्षों का दमन-उत्पीड़न कुछ और तेज हो गया, जाति-धर्म-क्षेत्र-भाषा के मुद्दे उभाड़कर लोगों को आपस में लड़ाने के गन्दे खेल में कुछ नयी घिनौनी चालें जुड़ गयीं, संसद के सुअरबाड़े में जनता के करोड़ों रुपये खर्च कर थैलीशाहों की सेवा और जनता के दमन के लिए क़ानून बनाने और बकबक करने का काम बदस्तूर चलता रहा, लाल कलगी वाले नकली वामपन्थी मुर्गे मज़दूरों को बरगलाने-भरमाने के लिए समर्थन और विरोध की बुर्जुआ राजनीति के दाँवपेंचों की नयी बानगियाँ पेश करते रहे, पूँजीवादी राजनीति के कोढ़ से जन्मा आतंकवाद का नासूर सच्चे मुक्ति संघर्ष की राह को और कठिन बनाता रहा और क्रान्तिकारी शक्तियों की दिशाहीनता और बिखराव के कारण जनता के सामने विकल्पहीनता की स्थिति ज्यों-की-त्यों बरकरार रही…
लेकिन फिर भी 2008 का वर्ष इक्कीसवीं सदी के इतिहास में एक अहम मुक़्क़ाम के तौर पर दर्ज किया जायेगा। इस वर्ष एक ऐसी मन्दी की शुरुआत हुई है जिसकी तुलना 1930 की महामन्दी से ही की जा सकती है और जो कुछ मायनों में पूँजीवाद के लिए उस पहली महामन्दी से भी ज़्यादा घातक साबित होगी। वैसे तो 1970 के दशक से ही विश्व पूँजीवाद मन्दी से पूरी तरह कभी उबर नहीं सका है। 1970 के दशक में शुरू हुई मन्दी लगातार बनी ही रही है। बीच-बीच में मन्दी के भीतर मन्दी का संकट भयंकर रूप में फूट पड़ता रहा है। लेकिन पिछले वर्ष के उत्तरार्द्ध में जो ज़बर्दस्त वित्तीय संकट फट पड़ा और जिसका असर तमाम बेलआउट पैकेजों के बावजूद फैलता ही जा रहा है, वह कई मायनों में अभूतपूर्व है। 1973 के तेल संकट और ब्रेट्टन वुड्स समझौते के टूटने के बाद पैदा हुई मन्दी, 1981-82 की मन्दी, 1987 में शेयर बाज़ारों के महाध्वंस, 1990 में ‘एशियाई शेरों’ की अर्थव्यवस्था के बर्बादी के कगार पर पहुँच जाने जैसे बीच के किसी भी भीषण आर्थिक संकट से इस स्थिति की तुलना नहीं की जा सकती। यह 1930 के दशक के बाद की सबसे बड़ी और गहरी महामन्दी है, लेकिन यह पिछली महामन्दी से अलग भी है। यह भूमण्डलीकरण के दौर की मन्दी है जिसका फैलाव वाकई वैश्विक पैमाने पर है। विश्व अर्थव्यवस्था का कोई हिस्सा इसकी मार से बचा नहीं रह सकता। अमीर देशों द्वारा अपने संकट को पिछड़े देशों की अर्थव्यवस्थाओं पर टाल देने की गुंजाइश अब पहले से बहुत कम रह गयी है क्योंकि ये देश खुद ही संकट के शिकार हैं।
पूँजीवादी तंत्र के सिपहसालारों और रणनीति- विशारदों को इस संकट से बचने का कोई भी उपाय नहीं सूझ रहा है। पूँजीवादी सरकारें बैंकों और कम्पनियों को दिवालिया होने से बचाने के लिए एक के बाद सैकड़ों अरब डॉलर के ‘बेल आउट पैकेज’ घोषित कर रही हैं लेकिन सारी रकमें तपती बालू में पानी की बूँदों की तरह ग़ायब हो जा रही हैं और अर्थव्यवस्था की हालत और भी खस्ताहाल होती जा रही है। पूँजीवादी व्यवस्था के मैनेजरों की बदहवासी इस बात से समझी जा सकती है कि वे आज वही काम कर रहे हैं जिसे वे महज तीन साल पहले व्यवस्था के लिए घातक बता चुके हैं। 2005 में सब-प्राइम संकट से उबरने के लिए बाज़ार में सरकारी पूँजी झोंकने के प्रस्ताव को अमेरिकी फेडरल रिज़र्व ने यह कहकर ख़ारिज कर दिया था कि इससे तात्कालिक राहत तो मिलेगी लेकिन कुछ ही समय बाद वित्तीय संकट और भी बड़े पैमाने पर लौटकर आ जायेगा। अब सबकुछ जानते हुए भी पूँजीवादी दुनिया के महारथियों को इसी तरीके पर अमल करने के सिवा कोई रास्ता नहीं सूझ रहा है तो उनकी बौखलाहट और निरुपायता का अनुमान लगाया जा सकता है।
इस विश्वव्यापी वित्तीय संकट ने एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि साम्राज्यवाद के आगे पूँजीवाद की कोई और अवस्था नहीं है और एक सामाजिक-आर्थिक संरचना और विश्व- व्यवस्था के रूप में पूँजीवाद की उम्र बहुत लम्बी नहीं हो सकती। एक बार फिर यह स्थापना वस्तुगत यथार्थ के रूप में उभरकर सामने आने लगी है कि साम्राज्यवाद की अवस्था सर्वहारा क्रान्तियों की पूर्वबेला है।
जनता की कमाई से टैक्सों के रूप में उगाही गयी भारी धनराशियाँ पूँजीपतियों को बचाने के लिए लुटा रही सरकारों ने बुर्जुआ जनवाद की असलियत को तार-तार कर दिया है। यह बात एकदम नंगे तौर पर सामने आ गयी है कि बुर्जुआ सरकारें वास्तव में पूँजीपति वर्ग की मैनेजिंग कमेटी ही होती हैं।
इस सबकी क़ीमत आखिरकार मेहनतकश जनता को ही चुकानी है। पूरी दुनिया में छँटनी, तालाबन्दी, बेरोज़गारी का सिलसिला हर दिन तेज़ होता जा रहा है। अमेरिका में पिछले एक महीने में पाँच लाख रोज़गार कम हो गये। भारत में केवल निर्यात क्षेत्र में एक करोड़ रोज़गार खत्म होने का अनुमान लगाया जा रहा है। दुनिया की तमाम कम्पनियों ने एकमुश्त या किश्तों में छँटनी शुरू कर दी है या करने वाली हैं। बहुतेरी कम्पनियों ने उत्पादन लक्ष्य कम कर दिये हैं, कुछ कम्पनियाँ हफ़्ते में एक या दो दिन काम बन्द रख रही हैं तो कुछ ने सीधे अपने कुछ संयन्त्रों को बन्द कर दिया है। दुनियाभर के अर्थशास्त्रियों और पूँजी की दुनिया के नेताओं को इस दुश्चक्र से बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा है। लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं कि अपने संकटों के बोझ से पूँजीवाद की इमारत ख़ुद ही ढह जायेगी। पूँजीवादी व्यवस्था का नाश तो जनक्रान्तियों के द्वारा ही सम्भव है। हाँ, यह तय है कि देर-सबेर मन्दी के भँवर से उबर जाने के बाद भी पूँजीवाद के खुशहाल दिनों की वापसी नहीं होने वाली है। खुद पूँजीवादी विचारक भी ऐसी कोई उम्मीद नहीं पाल रहे हैं। कुछ ही समय पहले तक पूँजीवाद को अजर-अमर व्यवस्था बताने वालों की घिग्घी बँध गयी है और उन्हें कुछ भी सूझ नहीं रहा है। पूँजीवाद के आज के सबसे बड़े विचारकों में से एक, फ्रांसिस फुकोयामा, जो कुछ साल पहले इतिहास के अन्त का फतवा देते हुए पूँजीवाद की अन्तिम विजय की उद्घोषणा कर रहा था, आज पूँजीवाद को निरुपाय बताते हुए जनक्रान्तियों का ख़तरा मँडराते हुए देख रहा है।
सिर्फ़ आर्थिक ही नहीं, राजनीतिक तौर पर भी पूँजीवाद का संकट बढ़ता जा रहा है। अमेरिका के ठीक पिछवाड़े लातिन अमेरिका में साम्राज्यवाद विरोधी लहर जारी है जहाँ एक के बाद एक देशों में ऐसी ताक़तें सत्ता में आयी हैं, जो किसी न किसी रूप में साम्राज्यवादी हितों पर चोट पहुँचा रही हैं। इन लोकप्रिय आन्दोलनों और सत्ताओं का राजनीतिक चरित्र भले ही मध्यवर्गीय हो, लेकिन इनके पीछे शक्ति मेहनतकश अवाम की है। इसके साथ जिस दिन सर्वहारा विचारधारा का मेल हो जायेगा, उस दिन इसके चमत्कारी परिणाम सामने आयेंगे। लातिनी अमेरिका में मेहनतकशों के आन्दोलन भी मौजूद हैं और क्रान्तिकारी विचार भी। प्रश्न यह है कि वहाँ के क्रान्तिकारी साम्राज्यवाद की कार्यपद्धति में आये नये बदलावों को समझकर नयी रणनीति बनाने का काम कितनी कुशलता के साथ करते हैं।
अफ्रीका में एक ओर तेल और कच्चे माल के लिए ललचाये साम्राज्यवादियों की नज़र फिर से गड़ी हुई है वहीं दूसरी लम्बी शीतनिद्रा के बाद एक बार फिर अफ्रीका महाद्वीप नये सिरे से वर्गसंघर्ष के लिए करवट लेने के संकेत दे रहा है। उपनिवेशवाद के खि़लाफ़ मुक्तियुद्धों का नेतृत्व करने वाले नेताओं का नायकत्व खण्डित होने और आज़ाद हुए देशों के विश्व- पूँजीवादी तन्त्र में समायोजित हो जाने के बाद जनता के मोहभंग और निराशा का लम्बा दौर अब ख़त्म होता दिख रहा है। नाइजीरिया से लेकर अल्जीरिया तक, तंज़ानिया से लेकर दक्षिण अफ्रीका तक मेहनतकशों के रैडिकल संघर्षों की ख़बरें मिल रही हैं।
एशिया में दुनिया के दो सबसे बड़े देश चीन और भारत आने वाले दशक में क्रान्ति के तूफ़ानों का केन्द्र बन सकते हैं। पश्चिम एशिया में साम्राज्यवादी चाहे जितनी बर्बरता से हमले करें, वे हर दिन वहाँ ज़्यादा से ज़्यादा फँसते जा रहे हैं। अरब जनता की नफ़रत की बाढ़ में एक दिन उन्हें डूब कर मरना ही है। चीन में मज़दूरों -किसानों की बढ़ती तबाही और बदहाली के बीच से युवा मज़दूरों में बढ़ती वर्ग चेतना और पुरानी पीढ़ी के मेहनतकशों तथा बुद्धिजीवियों के बीच से उभरती संगठित क्रान्तिकारी कोशिशें चीन के नये पूँजीवादी शासकों के लिए परेशानी का सबब बनती जा रही हैं।
कहने की ज़रूरत नहीं कि विश्व पूँजीवाद का गहराता आर्थिक और राजनीतिक संकट एक अनुकूल क्रान्तिकारी परिस्थिति तैयार कर रहा है। दुनिया के हालात पुकार-पुकार कर क्रान्तिकारियों से अपना कठमुल्लापन छोड़कर खुले दिमाग से नयी सच्चाइयों को समझने और नयी चुनौतियों से जूझने के रास्ते निकालने के लिए कह रहे हैं। अगर कोई भी व्यक्ति विज्ञान से दुश्मनी करने की न ठान चुका हो, तो उसे यह स्वीकार करने में कोई झिझक नहीं होगी कि देश-दुनिया की परिस्थितियों में ऐसे व्यापक बदलाव आ चुके हैं जिन्हें पुराने उसूली चौखटों में कसकर नहीं समझा जा सकता। क्रान्तिकारी सिद्धान्तों की बुनियादी शिक्षाओं को आत्मसात करके उनकी रोशनी में आज की नयी समस्याओं का अध्ययन करना होगा और साम्राज्यवाद-पूँजीवाद विरोधी नयी समाजवादी क्रान्तियों की वैचारिक और रणनीतिक तैयारी करनी होगी।
भारत के क्रान्तिकारियों को भी अपनी रूढ़ सोच और अतीतग्रस्तता से मुक्त होकर आज की चुनौतियों और सामने उपस्थित सवालों का साहस के साथ सामना करना होगा। उन्हें समझना होगा कि यह पूँजीवाद का ढाँचागत संकट ही है जो उद्योग, कृषि, वित्त हर क्षेत्र को संकटग्रस्त किये हुए है। उन्हें पुरानी क्रान्तियों के कार्यक्रम सम्बन्धी चौखटे से बाहर निकलकर नये सामाजिक यथार्थ को पहचानना होगा। हम समझते हैं कि बीत चुकी क्रान्तियों की शिक्षाओं की याददिहानी की जानी चाहिए, उनके अनुभवों का निचोड़ लेकर आगे के सबक निकाले जाने चाहिए लेकिन पिछली क्रान्तियों की उँगली पकड़कर नहीं चला जा सकता। यह एक दुखद सच्चाई है कि ज़्यादातर क्रान्तिकारी संगठनों का नेतृत्व अब पुरानी लीक पर क़दमताल करते हुए बस वक़्त काटने का काम कर रहा है। क्रान्तिकारी शिविर मुख्यतः और मूलतः क्षरित और विघटित हो चुका है और एक नयी क्रान्तिकारी पार्टी का निर्माण करने के लिए नये क्रान्तिकारी तत्वों की भरती, तैयारी और प्रशिक्षण का काम आज बेहद अहम बन गया है। इसी के साथ हमें नये सर्वहारा पुनर्जागरण और नये सर्वहारा प्रबोधन के वैचारिक- राजनीतिक कार्यभारों को भी पूरा करना होगा। हमें अतीत की क्रान्तियों के अनुभवों और सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक उपलब्धियों को लोगों के सामने लाना होगा और साथ ही दुनिया भर में आर्थिक मूलाधार और अधिरचना के दायरों में हुए व्यापक बदलावों का अध्ययन करके क्रान्ति के सिद्धान्त और व्यवहार को आगे विस्तार देना होगा। ज़ाहिर है, ये तमाम काम अध्ययन कक्षों और पुस्तकालयों में बैठकर नहीं किये जा सकते बल्कि सामाजिक प्रयोगों और जनता के संघर्षों के बीच रहकर और उनसे सीखते हुए ही इन्हें पूरा किया जा सकता है।
आज देश की 84 करोड़ ग़रीब आबादी 20 रुपये रोज़ पर गुज़ारा करने के लिए मजबूर है। 40 करोड़ से भी अधिक मज़दूर आबादी में से करीब 95 प्रतिशत असंगठित मज़दूर हैं। ग्रामीण और शहरी अर्द्धसर्वहारा आबादी को जोड़ लिया जाये तो मेहनतकशों की तादाद 60 करोड़ से भी ऊपर हो जायेगी। लेकिन यह विशाल आबादी आज राजनीतिक रूप से असंगठित, बिखरी हुई और हताश है। उसे अपनी ताक़त का भी अहसास नहीं है।
दूसरा पहलू यह है कि मज़दूरों का प्रतिनिधि होने का दम भरने वाले नक़ली वामपन्थी ज़्यादा से ज़्यादा नंगे होते जा रहे हैं और बुर्जुआ राजनीति की गन्दगी में और गहरे धँसते जा रहे हैं। वर्तमान मन्दी और गहराता आर्थिक संकट एक ओर मज़दूरों की तबाही और बदहाली को और बढ़ायेगा, तो दूसरी ओर नकली वामपन्थियों, ट्रेडयूनियनवाद और अर्थवाद से उनके मोहभंग को बढ़ाने की स्थितियाँ भी पैदा करेगा। ऐसे में यह कहना ग़लत नहीं कि पूँजीवाद को उखाड़ फेंकने के लिए मेहनतकश अवाम को संगठित करने की परिस्थितियाँ दिन-ब-दिन ज़्यादा अनुकूल होती जा रही है। समस्या क्रान्तिकारी शक्तियों की तैयारी की है। उन्हें व्यवस्था के संकट को क्रान्तिकारी संकट में तब्दील करना सीखना होगा। देश में क्रान्तिकारी उभार की ज़मीन पूँजीवाद खुद तैयार कर रहा है। बेशक यह चन्द एक वर्षों की बात नहीं है लेकिन 2008 में घटी घटनाओं ने इसकी दिशा का संकेत दे दिया है।
वैसे तो हर नया साल नये सिरे से शपथ लेने और नये संकल्प बाँधने का मौका होता है लेकिन गुज़रे हुए साल ने हमें जिन हालात में छोड़ा है, वे हमसे माँग कर रहे हैं कि हम सच्ची क्रान्तिकारी भावना के साथ 2009 के एक-एक पल को नये इंक़लाब की तैयारी में लगा देने के लिए कमर कस लें। कवि वेणुगोपाल के शब्दों में
न हो कुछ भी
सिर्फ़ सपना हो
तो भी हो सकती है शुरुआत
और यह एक शुरुआत ही तो है
कि वहाँ एक सपना है…
और आज तो हमारे पास न सिर्फ़ सपना है, बल्कि एक स्पष्ट दिशा भी है। हम इस नये साल की शुरुआत के मौके पर तमाम मेहनतकश साथियों का आह्वान करते हैं कि इन्सान का खून पीकर ज़िन्दा रहने वाली इस जालिम व्यवस्था को नेस्तनाबूद करने के लिए उठ खड़े हों।
बिगुल, जनवरी 2009
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