अमेरिकी साम्राज्यवाद की अफगानिस्तान जंग के दस वर्ष
जंग आख़िर जनता ही जीतेगी…
लखविन्दर
अफगानिस्तान पर अमेरिका के कब्ज़े को दस वर्ष हो चुके हैं। आतंकवाद का बहाना बनाकर सन् 2001 में अमेरिकी साम्राज्यवादी शासकों ने अफगानिस्तान पर हमला करके इस देश पर कब्ज़ा जमा लिया था। अफगानिस्तान में कहने को तो वहाँ की अपनी सरकार है लेकिन वह अमेरिका शासकों की कठपुतली के सिवा और कुछ नहीं। इस छोटे से देश में इस समय लगभग डेढ़ लाख विदेशी सैनिक हैं जिसमें अमेरिका के एक लाख और साम्राज्यवादी देशों के गुट नाटो के पचास हज़ार सैनिक शामिल हैं। अमेरिकी शासक यह झूठ असंख्य बार बोल चुके हैं कि यह जंग आतंकवाद को ख़त्म करके दुनिया में शांति स्थापित करने के लिए लड़ी जा रही है। अफगानिस्तान पर अमेरिकी कब्ज़े के 10 वर्ष अमेरिकी शासकों के इन दावों को तार-तार कर चुके हैं। दुनिया का सबसे बड़ा आतंकवादी अमेरिकी साम्राज्यवाद हमेशा से मध्य पूर्व और एशिया महाद्वीप में दबदबा क़ायम करने के लिए जीतोड़ कोशिशें करता रहा है। इस मामले में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर और पेंटागन इमारतों पर 9 सितम्बर 2001 को हुए हमले अमेरिकी शासकों के लिए वरदान साबित हुए। 7 अक्टूबर 2001 को अमेरिका और ब्रिटेन की फौजों ने अफगानिस्तान पर ज़बर्दस्त बमबारी के साथ हमला बोल दिया। जल्दी ही इसमें दूसरे साम्राज्यवादी देश भी शामिल हो गये। अब इस बात के बहुत से पुख्ता सबूत सामने आ चुके हैं कि इस हमले की योजना 9 सितम्बर के हमले के महीनों पहले ही बना ली गयी थी।
अमेरिका को यह खुशफहमी थी कि अफगानिस्तान पर कब्ज़ा जमाना काफी आसान होगा। लेकिन अफगान जनता पर ढाये गये निर्मम अत्याचारों के बाद भी अफगानिस्तानी जनता की आज़ादी की आवाज को दबाया नहीं जा सका। अमेरिकी जनता ने अपने देश पर कब्ज़े के इन 10 वर्षों के दौरान अमेरिकी हुक्मरानों को एक दिन भी चैन की नींद नहीं सोने नहीं दिया है। अमेरिकी शासक आज भले ही कामयाबी हासिल कर पाने के कितने भी झूठे दावे क्यों न करें लेकिन असल में अमेरिका अफगानिस्तान जंग हार चुका है। विदेशी सैनिक पस्तहिम्मती का शिकार हो चुके हैं। अमेरिकी साम्राज्यवाद के लिए न तो अफगानिस्तान में टिके रहना सम्भव है और न ही वहाँ से भाग पाना इतना आसान है। आगे कुआँ तो पीछे खाई है।
अफगानिस्तान पर हमला करते समय अमेरिकी हुक्मरानों ने दावा किया था कि अफगानिस्तान से तालिबान को ख़त्म कर वहाँ जनतन्त्र स्थापित किया जायेगा और अफगान लोगों की ज़िन्दगी की पूरी तरह कायापलट कर दी जायेगी। लेकिन अमेरिकी शासकों के दावों की हवा निकल चुकी है। अफगानिस्तान में उसने अपनी कठपुतली सरकार बिठा दी मगर हामिद करजई सरकार से अफगान जनता घोर नफरत करती है। जनता की जीवन परिस्थितियाँ बदतर से बदतर होती चली गई हैं। स्त्रियों की हालत भी पहले से कहीं बुरी होती गयी है। अफगान जनता को भयानक अत्याचारों का सामना करना पड़ा है। सामूहिक कत्लेआम, बमबारी, रात के दौरान पड़ने वाले छापों और धरपकड़, यातनाओं, गुप्त कत्लों, ड्रोन हमलों के ज़रिए साधारण अफगान नागिरकों को निशाना बनाया जाता रहा है। अमेरिकी बम, मिसाइलें और गोलियाँ हज़ारों बेकसूर पुरुषों, महिलाओं और बच्चों को निशाना बना चुके हैं।
विदेशी सैनिक अक्सर अफगानी घरों में घुसकर मारपीट करते हैं, तलाशी लेते हैं, लोगों को पकड़कर ले जाते हैं और यातनाएँ देते हैं। लोगों पर बिना चेतावनी दिये गोलियाँ दाग दी जाती हैं और मारे गये बेगुनाह लोगों को आतंकवादी बता दिया जाता है। एक छोटे नगर गारदेज़ में एक परिवार के छह सदस्यों को गोलियों से मार दिया गया। इनमें से तीन गर्भवती स्त्रियाँ थीं। बचे लोगों को पूछताछ के बहाने हिरासत में रखा गया। उन्हें बर्बरतापूर्वक यातनाएँ दी गयीं।
अफगान जनता विदेशी सैनिकों द्वारा स्त्रियों पर किये गये जुल्मो-सितम को कभी नहीं भूलेगी। साथ ही आज अफगान स्त्रियाँ कुपोषण का भयानक रूप से शिकार हैं। अफगानिस्तान में स्वास्थ्य सुविधाओं की बदतर हालत ने उनकी हालत और भी भयंकर बना दी है। कट्टर इस्लामी युद्ध सरदारों को अमेरिकी शासकों ने अफगानिस्तान की सत्ता में लाकर स्त्रियों के रहे-सहे अधिकारों से भी वंचित कर दिया है। इन इस्लामी कट्टरपन्थियों ने बेहद स्त्री-विरोधी नीतियाँ लागू की हैं। करजई सरकार ने क़ानून बनाकर शादी में बलात्कार को मान्यता दे दी है। स्त्रियों को अधिकार देने के नाम पर दो क़ानून पास किये गये हैं एक अपने पति की आज्ञापालन का अधिकार और दूसरा नमाज पढने का अधिकार लेकिन मस्जिद में नहीं।
बिना पायलट के ड्रोन हवाई जहाजों के ज़रिए हमले लगातार बढ़ते चले गए हैं। बराक ओबामा के शासनकाल में ड्रोन हमलों का इस्तेमाल ख़ास तौर पर काफी बढ़ गया है। आज रोज़ाना कम से कम 20 ड्रोन हमले किये जाते हैं। एक साल पहले यह संख्या आधी थी। जनवरी 2009 से फरवरी 2010 तक अमेरिकी सैनिकों ने अफगान जनता पर 184 मिसाइलों और 66 लेजर बमों से हमले किये। बहाना हमेशा आतंकवादी छुपे होने के शक को बनाया जाता है और निशाना बनाया जाता है नागरिकों को।
22 जून 2011 को अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा ने ऐलान किया कि अफगानिस्तान से 32000 सैनिक वापस बुलाये जा रहे हैं। उन्होंने इसे अफगानिस्तान जंग ख़त्म करने की शुरुआत बताया। ओबामा ने सत्ता सम्भालने से पहले यह ऐलान किया था कि उनकी सरकार अफगानिस्तान जंग रोक देगी। जब ओबामा ने 2009 में अमेरिकी सत्ता सम्भाली थी उस समय अफगानिस्तान में 32000 अमेरिकी सैनिक थे। लेकिन ओबामा ने यह संख्या एक लाख तक पहुँचा दी। अब अगर 32 हज़ार वापस भी बुला लिये जाते हैं तो भी यह संख्या ओबामा शासनकाल की शुरुआत के समय से दोगुने से भी अधिक है।
वैसे भी अफगानिस्तान में जिस आतंकवाद के खिलाफ जंग के नाम पर अफगान जनता का क़त्लेआम किया जा रहा है उस आतंकवाद का जन्मदाता खुद अमेरिका है। सन् 1979 में अमेरिका के साम्राज्यवादी प्रतिद्वन्दी सोवियत संघ द्वारा अफगानिस्तान पर कब्ज़ा किया गया। अपने इस प्रतिद्वन्द्वी को हराने के लिए अमेरिका ने तीन अरब डालर से भी अधिक की वित्तीय और हथियारों की मदद कट्टरपन्थी इस्लामी गुटों को दी। ओसामा बिन लादेन ने भी अमेरिकी शासकों की मदद से ही आतंकवादी गतिविधियाँ शुरू की थीं। इसलिए अमेरिकी शासकों का यह प्रचार कि अफगानिस्तान जंग आतंकवाद के खिलाफ और शांति के लिए लिए लड़ी जा रही है एक सफेद झूठ है। अफगानिस्तान पर कब्ज़ा करके अमेरिका दक्षिण एशिया में अपनी सैनिक चौकी स्थापित करना चाहता था। कास्पियन सागर में मिलने वाले तेल पर भी उसकी निगाहें लगी थीं।
अफगानिस्तान जंग अमेरिकी इतिहास की सबसे लम्बी जंग बन चुकी है। लेकिन इतनी लम्बी जंग लड़ने के बाद भी अमेरिका अफगान जनता पर नियन्त्रण नहीं कर सका है। और ऐसा अब सम्भव भी नहीं है। दुनिया आज वहीं नहीं खड़ी है जहाँ उपनिवेशवाद के दौर में थी। आज किसी देश की जनता को उपनिवेशवाद के दौर की तरह ग़ुलाम बना पाना सम्भव नहीं रह गया है। अफगानिस्तान हो या इराक, ये इसी तथ्य की पुष्टि करते हैं। साम्राज्यवाद को दुनिया की जनता कब्र में लिटाकर ही दम लेगी।
मज़दूर बिगुल, जूलाई 2011
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