न्यूनतम मजदूरी और बुनियादी अधिकारों के लिए बंगलादेश के टेक्सटाइल मजदूरों का आन्दोलन
ट्रेड यूनियनों की ग़द्दारी, मजदूरों के हक़ की नहीं मालिकों के मुनाफ़े की चिन्ता
पिछले 12 दिसम्बर 2010 को बंगलादेश की राजधानी ढाका में सरकार द्वारा तय न्यूनतम मजदूरी लागू न करने के ख़िलाफ आन्दोलनरत कपड़ा मजदूरों पर बंगलादेशी पुलिस की गोलीबारी से चार मजदूरों की मौत हो गयी और अनेक घायल हो गये। सरकार और पूँजीपतियों की तरफ से खुला हाथ मिलने के बाद पुलिस ने मजदूरों और उनके परिवारों पर कहर बरपा करने में कोई नरमी नहीं दिखायी। न्यूनतम मजदूरी और काम की बेहतर परिस्थितियों जैसी बुनियादी माँगों के लिए आन्दोलनरत मजदूरों का बर्बर दमन करने के बाद उद्योगपतियों के प्रतिनिधियों ने सरकारी मन्त्री और कुछ ट्रेड यूनियनों के साथ बैठक करके भविष्य में उठ सकने वाले मजदूर आन्दोलनों को कुचलने की रणनीति विकसित करने के बारे में विचार- विमर्श किया! वहीं सरकार ने एक्सपोर्ट प्रोसेसिंग जोन में मजदूरों का दमन करने के लिए विशेष औद्योगिक बल के गठन का प्रस्ताव किया।
इस संकट की शुरुआत 2008 से हुई थी। पिछले 3 सालों से न्यूनतम मजदूरी में कोई इजाफा नहीं हुआ था जबकि खाने-पीने सहित सभी बुनियादी चीजों की कीमतों में दो से तीन गुने की वृध्दि हो गयी थी। लम्बे संघर्ष के बाद 2009 में सरकार ने न्यूनतम मजदूरी 1662 टका (लगभग 1061.50 रुपये) से बढ़ाकर3000 टका (लगभग 1915.70 रुपये) करने का फैसला किया था जबकि मजदूरों की माँग थी कि न्यूनतम मजदूरी 5000 टका की जाये। जब सरकार के आदेश के बावजूद तय समयसीमा (जुलाई 2010) के बीत जाने पर भी मालिकों ने न्यूनतम मजदूरी देना शुरू नहीं किया तो मजदूरों को आन्दोलन का रास्ता अख्तियार करना पड़ा। कई दिनों तक काम ठप्प रहा और अनेक विदेशी कम्पनियों के लिए कपड़ा बनाने वाली इकाइयाँ बन्द पड़ी रहीं। राजधानी ढाका के पास स्थित औद्योगिक जिले ग़ाजीपुर में मजदूरों ने एक मुख्य राजमार्ग को जाम कर दिया और फैक्ट्रियों के सामने प्रदर्शन किया। आन्दोलन का एक-एक दिन मालिकों पर भारी गुजर रहा था। यूरोप और अमेरिका के देशों में त्योहारों और छुट्टियों का सीजन आ रहा था और फैक्ट्रियों में काम का अम्बार था। आख़िरकार बंगलादेश की पूँजीवादी सरकार से मालिकों का नुकसान देखा न गया और उसने मालिकों पर दबाव बनाने के बजाय मजदूरों के दमन का रास्ता अपनाया।
सस्ते श्रम के दोहन के लिए पूरी दुनिया की ख़ाक छानने वाले पूँजीपतियों के लिए बंगलोदश वैसी ही मनमुआफिक जगह है जैसे कि भारत और तीसरी दुनिया के अन्य देश। भारत के पूँजीपतियों की तरह ही बंगलादेश के पूँजीपति साम्राज्यवादी लुटेरों के जूनियर पार्टनर बनकर अपने देश की जनता की हाड़-तोड़ मेहनत के बूते अपनी और विदेशी लुटेरों की तिजोरियाँ भरते हैं। यह जरूर है कि यहाँ के पूँजीपति वर्ग की हैसियत भारत के पूँजीपति वर्ग जितनी नहीं है, जो एक पर्याप्त भारी-भरकम जूनियर पार्टनर है और अपने विशालकाय घरेलू बाजार के बूते पर साम्राज्यवादी देशों के तमाम शिविरों से कई बार अपनी शर्तों पर लेन-देन करता है। बंगलादेशी पूँजीपति वर्ग इसकी तुलना में काफी निर्भर है और इसकी कई मामलों में भारतीय पूँजीपति वर्ग पर भी काफी निर्भरता है।
लूट के इस खेल में बंगलादेश की सरकार को भी अच्छा-ख़ासा मुनाफा होता है और यह विदेशी मुद्रा अर्जित करने का सबसे बड़ा स्रोत है, और इसीलिए यहाँ की सरकार का मुख्य काम यह देखना होता है कि लूट का यह निजाम बदस्तूर जारी रहे।
उदारीकरण-निजीकरण की पटरी पर बंगलादेश की अर्थव्यवस्था की गाड़ी तेज गति से दौड़ रही है। पिछले कई वर्षों से बंगलादेश अन्तरराष्ट्रीय पूँजीवादी तन्त्र की एक प्रयोगभूमि बना हुआ है। विश्व बैंक और अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष जैसे साम्राज्यवादियों के संस्थानों की देखरेख में कई सामाजिक-आर्थिक कार्यक्रम बंगलादेश की सरकार द्वारा चलाये जा रहे हैं। ग्रामीण बैंक के मुहम्मद युनुस का माइक्रो फाइनेंस (सूक्ष्म ऋण या बहुत छोटे कर्ज) का प्रयोग भी ऐसा ही एक कार्यक्रम है जिसके लिए श्रीमान युनुस को अर्थशास्त्र का नहीं बल्कि शान्ति का नोबेल पुरस्कार दिया गया था। (माइक्रो फाइनेंस के बारे में एक विस्तृत लेख इसी अंक में अलग से दिया जा रहा है – सम्पादकध्द। भूमण्डलीकरण के दौर में पूरी दुनिया के पूँजीपति बंगलादेश जैसे देशों के सस्ते श्रम और उभरते बाजार पर गि( दृष्टि लगाये हुए हैं। दुनिया की अनेक नामी-गिरामी कम्पनियों, जैसे कि वॉल-मार्ट, टॉमी हिलफिगर, लेवी स्ट्रॉस, मार्क एण्ड स्पेंसर के लिए कपड़े बंगलादेश की फैक्ट्रियों में बनते हैं। यूँ तो ये कम्पनियाँ अपने-अपने देश के मीडिया में स्वयं को मानवाधिकारों के अलमबरदार के रूप में प्रचारित करती हैं लेकिन असलियत में इन फैक्ट्रियों में काम करने वाले मजदूरों की हालत बेहद दयनीय है। सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम मजदूरी अपने आप में इतनी कम है कि इससे मजदूरों के परिवार का पेट नहीं पल सकता लेकिन मुनाफाख़ोर मालिक मजदूरों को उतना भी नहीं देना चाहते। कई फैक्ट्रियों में तो काम के घण्टे इतने अधिक हैं कि मजदूर अपने कमरों पर जाने के बजाय फैक्ट्री में ही सो कर काम चलाते हैं। सुरक्षा और चिकित्सा व्यवस्था के अभाव के कारण जल्दी ही मजदूर बीमार पड़ जाते हैं जिससे कई बार उनका काम छूट जाता है और फिर या तो वे बेरोजगारों की विशाल फौज में शामिल हो जाते हैं या पहले से भी कम मजदूरी और ख़राब परिस्थितियों में काम पकड़ने को मजबूर हो जाते हैं। फैक्ट्रियों में सुरक्षा व्यवस्था का आलम यह है कि राजधानी ढाका से 25 किलोमीटर दूर अशुलिया में एक12 मंजिला इमारत की दसवीं मंजिल पर आग लगने से 29 मजदूरों की मौत हो गयी और 50 से अधिक गम्भीर रूप से जख्मी हो गये थे। इस इमारत में करीब दस हजार मजदूर काम करते थे और यहाँ आग से सुरक्षा की कोई व्यवस्था नहीं थी।
धयान देने योग्य बात यह है कि बंगलादेश के कुल निर्यात में वस्त्र उद्योग का हिस्सा 80 प्रतिशत है जो कि लगभग 12-15 बिलियन डॉलर के बराबर है। वर्ष2010 की पहली तिमाही में इसमें 37 प्रतिशत की वृध्दि दर्ज की गयी थी। यह सबसे अधिक लोगों को रोजगार देने वाला औद्योगिक सेक्टर भी है जिसमें लगभग30 लाख लोग कार्यरत हैं जिनमें अधिकतर महिलाएँ हैं। जाहिर है कि इतना मुनाफा कमाने वाले इस उद्योग का चलते रहना बंगलादेश की सरकार और वहाँ के पूँजीपति वर्ग के लिए कितना जरूरी है। इसीलिए वहाँ की सरकार ने पूँजीपतियों को तमाम श्रम कानूनों से छूट दे रखी है। बल्कि इससे भी आगे बढ़ते हुए भारत और चीन की तर्ज पर वहाँ भी एक्सपोर्ट प्रोसेसिंग जोन (ईपीजेड) बनाये गये हैं जिनमें स्थित कम्पनियों पर लगभग कोई श्रम कानून लागू नहीं होते।
एक तरफ जहाँ बंगलादेशी मजदूरों की हालत भारत के मजदूरों की तरह ही ख़राब है, वहीं भारत की बड़ी और स्थापित ट्रेड यूनियनों की तरह ही बंगलादेश की बड़ी और स्थापित ट्रेड यूनियनों की ग़द्दारी भी जगजाहिर है। वास्तव में ये समझौतापरस्त ट्रेड यूनियनें फिलहाल मजदूर आन्दोलन की सबसे बड़ी बाधा बनी हुई है। इनका मुख्य काम मजदूरों के हितों के लिए संघर्ष करना नहीं बल्कि मालिकों के दलाल की भूमिका निभाते हुए मजदूर आन्दोलन को विघटन और हताशा के गर्त में डुबाना है। इन यूनियनों की सारी सक्रियता मालिकों के पक्ष में समझौता कराने, कमीशनख़ोरी करने और मजदूरों की जुझारू एकजुटता को तोड़ने में नजर आती है। हाल ही में एक तरफ जहाँ मजदूर सड़कों पर पुलिसिया उत्पीड़न के शिकार हो रहे थे, वहीं दूसरी तरफ कुछ ट्रेड यूनियनों का नेतृत्व श्रम मन्त्री मोन्नजुम सूफियाँ और मालिकों के प्रतिनिधियों के साथ भविष्य में मजदूर आन्दोलनों से निपटने की रणनीति और प्रणाली विकसित करने की योजना बनाने में व्यस्त था। जिसके नतीजे के तौर पर मन्त्री ने फैक्ट्रियों में यूनियन-नियोक्ता-सरकार की संयुक्त समितियाँ बनाने का प्रस्ताव किया, वहीं दूसरी तरफ सरकार ने ईपीजेड में औद्योगिक पुलिस तैनात करने का प्रस्ताव किया। साफतौर पर देखा जा सकता है कि बंगलादेश की सरकार को मजदूरों के बुनियादी अधिकारों की नहीं, बल्कि पूँजीपतियों के मुनाफे की अधिक चिन्ता है।
बंगलादेश का मजदूर आन्दोलन विकल्पहीनता का शिकार है। ज्यादातर मजदूर वे हैं जो गाँवों की भयंकर ग़रीबी से परेशान होकर औद्योगिक क्षेत्रों में काम के लिए आते हैं। प्रवासी होने के कारण फैक्ट्रियों में उनका भयंकर शोषण किया जाता है। उन्हें किसी प्रकार की सामाजिक या स्वास्थ्य सुरक्षा सरकार की ओर से नहीं मिलती है। हाड़-तोड़ परिश्रम करने के बाद वे मुश्किल से गुजारा करने लायक मजदूरी कमा पाते हैं। मजदूरों का असन्तोष समय-समय पर आन्दोलनों की शक्ल में फूटता रहता है पर ट्रेड यूनियनों की ग़द्दारी के कारण आगे नहीं बढ़ पाता। बंगलादेश के मजदूर भी साम्राज्यवादी पूँजी और देशी पूँजी के अपवित्र गठबन्धान के उसी जुवे के नीचे पिस रहे हैं जिसके नीचे भारत, चीन या मेक्सिको और दक्षिण अफ्रीका के मजदूर। और इस तरह वे एक वैश्विक उत्पादन शृंखला का अंग हैं। और इसलिए दुनियाभर के सर्वहारा वर्ग के पैरों की बेड़ी बनी इस शृंखला को छिन्न-भिन्न करने के लिए बंगलादेश के मजदूरों को भी पूरी दुनिया के मजदूर आन्दोलन से जुड़ना पड़ेगा। आज के भूमण्डलीकरण के दौर में पूँजी की वैश्विक लूट का चरित्र कहीं अधिक साफतौर पर दिखायी पड़ रहा है। दुनियाभर के,और ख़ासतौर पर, एशिया, अफ्रीका और लातिनी अमेरिका के पिछड़े पूँजीवादी देशों के मजदूर असंख्य अदृश्य तारों से एक-दूसरे से जुड़ रहे हैं। पूरा विश्व पूँजीवादी तन्त्र जहाँ एक सम्बध्द विशाल मशीनरी का रूप ले रहा है, वहीं इसके कारण इसकी अन्दरूनी ख़ामियाँ भी मजदूरों के लिए जाहिर हो रही हैं। दुनिया के एक कोने में आने वाले झटके का कम्पन सारी दुनिया में महसूस किया जाता है। बंगलादेश का मजदूर भी आज उन सम्भावना-सम्पन्न मजदूर वर्गों में से एक है जो भविष्य में ऐसे झटके विश्व पूँजीवादी तन्त्र को दे सकता है। लेकिन इसके लिए उसे संसदीय वामपन्थी और अन्य चुनावी पार्टियों की ट्रेड यूनियनों के जाल से छुटकारा पाना होगा और अपनी क्रान्तिकारी ट्रेड यूनियनें खड़ी करनी होंगी; और साथ ही, अपनी इन्कलाबी पार्टी के निर्माण की दिशा में आगे बढ़ना होगा, जो पुराने फार्मूलों के आधार पर नहीं, बल्कि ठोस परिस्थितियों के ठोस विश्लेषण के बल पर क्रान्ति का कार्यक्रम तैयार करे।
मज़दूर बिगुल, जनवरी 2011
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