माँगपत्रक शिक्षणमाला-5
कार्यस्थल पर सुरक्षा और दुर्घटना की स्थिति में उचित मुआवज़ा हर मज़दूर का बुनियादी हक़ है!
मज़दूर माँगपत्रक 2011 क़ी अन्य माँगों — न्यूनतम मज़दूरी, काम के घण्टे कम करने, ठेका के ख़ात्मे, काम की बेहतर तथा उचित स्थितियों की माँग, कार्यस्थल पर सुरक्षा और दुर्घटना की स्थिति में उचित मुआवज़ा, प्रवासी मज़दूरों के हितों की सुरक्षा, स्त्री मज़दूरों की विशेष माँगों, ग्रामीण व खेतिहर मज़दूरों, घरेलू मज़दूरों, स्वतन्त्र दिहाड़ी मज़दूरों की माँगों के बारे में विस्तार से जानने के लिए क्लिक करें। — सम्पादक
‘भारत के मज़दूरों का माँगपत्रक- 2011’ में सभी कार्यस्थलों पर सुरक्षा के सभी ज़रूरी इन्तज़ाम करने और दुर्घटना होने पर हर प्रभावित मज़दूर को उचित मुआवज़ा सुनिश्चित करने की माँग की गयी है। आज देश के किसी भी औद्योगिक क्षेत्र में जाकर पूछा जाये तो पता चलेगा कि मज़दूर हर जगह जान पर खेलकर काम कर कर रहे हैं। कोई दिन नहीं जाता जब छोटी-बड़ी दुर्घटनाएँ नहीं होती हैं। मुनाफ़ा बटोरने के लिए कारख़ाना मालिक सुरक्षा के सभी इन्तज़ामों, नियमों और सावधानियों को ताक पर रखकर अन्धाधुन्ध काम कराते हैं। ऊपर से लगातार काम तेज़ करने का दबाव, 12-12, 14-14 घण्टे की शिफ़्टों में हफ़्तों तक बिना किसी छुट्टी के काम की थकान और तनाव – ज़रा-सी चूक और जानलेवा दुर्घटना होते देर नहीं लगती। बहुत बार तो मज़दूर कहते रहते हैं कि इन स्थितियों में काम करना ख़तरनाक है लेकिन मालिक-मैनेजर-सुपरवाइज़र ज़बर्दस्ती काम कराते हैं और उन्हें मौत के मुँह में धकेलने का काम करते हैं। और फिर दुर्घटनाओं के बाद मामले को दबाने और मज़दूर को मुआवज़े के जायज़ हक़ से वंचित करने का खेल शुरू हो जाता है। जिन हालात में ये दुर्घटनाएँ होती हैं उन्हें अगर ठण्डी हत्याएँ कहा जाये तो ग़लत नहीं होगा। कारख़ानेदार ऐसी स्थितियों में काम कराते हैं जहाँ कभी भी कुछ भी हो सकता है। श्रम विभाग सब कुछ जानकर भी आँख-कान बन्द किये रहता है। पुलिस, नेता-मन्त्री, यहाँ तक कि बहुत-से स्थानीय डॉक्टर भी मौतों पर पर्दा डालने के लिए एक गिरोह की तरह मिलकर काम करते हैं।
सरकारी आँकड़ों के मुताबिक़ भारत में औद्योगिक और कृषि क्षेत्र की दुर्घटनाओं और उनमें काम के दौरान होने वाली बीमारियों से प्रति वर्ष 4 लाख मज़दूरों की मौत हो जाती है और कई लाख मज़दूर घायल हो जाते हैं। लेकिन ये आँकड़े स्थिति की पूरी तस्वीर नहीं पेश करते क्योंकि ये मुख्यतः संगठित क्षेत्र की मज़दूर आबादी पर ही आधारित हैं। आज देश की लगभग 93 प्रतिशत मज़दूर आबादी असंगठित है और इन मज़दूरों के बारे में सही आँकड़े किसी सरकारी एजेंसी के पास नहीं हैं। ज़्यादातर मज़दूरों का नाम कारख़ाने के किसी रजिस्टर में दर्ज ही नहीं होता है। बहुत भारी संख्या में अवैध कारख़ाने, गोदाम और खदानें भी हैं जिनमें आज करोड़ों मज़दूर काम कर रहे हैं और उनकी कहीं कोई लिखा-पढ़ी नहीं है। इसे राजधानी दिल्ली के उदाहरण से समझा जा सकता है। दिल्ली में कितनी फ़ैक्टरियाँ चल रही हैं, उनमें कितने मज़दूर काम कर रहे हैं, सरकार को कुछ नहीं मालूम। बिगुल मज़दूर दस्ता की ओर से 2008 और 2009 में दिल्ली में होने वाली औद्योगिक दुर्घटनाओं के बारे में जानने के लिए सूचना का अधिकार (आरटीआई) के तहत 50 से ज्यादा आवेदन दाखिल किये गये कि कुल कितनी दुर्घटनाएँ हुईं, इनमें कितने मज़दूरों की मौत हुई, कितने घायल या विकलांग हुए, कितनों को मुआवज़ा मिला, कितने मामलों में ज़िम्मेदार लोगों के ख़िलाफ़ कार्रवाई की गयी, आदि। दिल्ली के श्रम मन्त्री, मुख्यमन्त्री, चीफ़ फ़ैक्टरी इंस्पेक्टर, पुलिस – सबसे अलग-अलग पूछा गया। मगर ज़्यादातर सवालों का जवाब मिला कि सरकार के पास इसका कोई ब्यौरा नहीं है। या फिर, झूठे और आधे-अधूरे आँकड़े भेज दिये गये। ऐसे में अनुमान ही लगाया जा सकता है कि वास्तव में दुर्घटनाओं की संख्या कितनी अधिक होगी। हाल में दिल्ली के कुछ युवा फ़िल्मकारों ने मज़दूरों के साथ होने वाली दुर्घटनाओं पर एक डॉक्युमेण्ट्री फ़िल्म बनाने के लिए जब कुछ मज़दूर बस्तियों में लोगों से बात की तो उन्हें अनगनित ऐसे मामले मिले जिनमें सरकार की ओर से कोई भी कार्रवाई नहीं की गयी। नोएडा के आई.ई.डी. कारख़ाने की रिपोर्ट पाठकों ने ‘बिगुल’ में देखी होगी जहाँ पिछले 8 वर्ष में 300 से ज़्यादा मज़दूरों की उँगलियाँ मशीन में फँसकर कट चुकी हैं। मज़दूर तमाम सरकारी अधिकारियों के चक्कर काट चुके हैं लेकिन आज तक न किसी मज़दूर को मुआवज़ा मिला, न फ़ैक्ट्री मालिकों के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई हुई और न ही उन मशीनों को सुरक्षित बनाने के लिए उनमें सेंसर लगाया गया।
देश भर में धड़ल्ले से जारी असंख्य निर्माण परियोजनाओं में काम करने वाले लाखों-लाख मज़दूरों की हालत तो बँधुआ मज़दूरों जैसी होती है। कभी-कभी तो महीनों तक उन्हें निर्माण स्थल की चारदीवारी से बाहर ही नहीं निकलने दिया जाता। मज़दूरों की पहचान उनके ठेकेदार से होती है और वही उनका सब कुछ होता है। ऐसी स्थिति में कितनी घटनाएँ दर्ज होती हैं और कितने मामलों में किसी भी तरह का कोई मुआवजा मिल पाता है यह कहना बेहद कठिन है। श्रम विभाग की हालत यह है कि जिस दफ़्तर में 50 अधिकारी होने चाहिए वहाँ मौक़े पर पाँच भी नहीं मिलते। वैसे भी, 2002 के सरकारी आँकड़ों के मुताबिक़ केन्द्रीय श्रम विभाग के पास फ़ील्ड अफ़सरों की संख्या इतनी कम थी कि अगर वे लगातार निरीक्षण करते तो भी एक कारख़ाने का नम्बर पाँच साल में एक बार आता। आज तो शायद 10 साल में एक बार आयेगा। मज़दूरों की सुरक्षा से सम्बन्धित क़ानून बेहद लचर, अपर्याप्त और पुराने हैं। सरकार ख़ुद अपने बनाये क़ानूनों का भी पालन नहीं करती। अक्सर तो बड़ी से बड़ी दुर्घटना पर भी मालिकों और प्रबन्धन के ख़िलाफ़ कोई मामला नहीं बनता और अगर बनता भी है तो सज़ा इतनी मामूली होती है कि वह मालिकों के लिए मज़ाक जैसी होती है। जैसे कि आये दिन ब्वायलर फटने से मज़दूर मरते और घायल होते हैं। ऐसी गम्भीर और लगातार होने वाली घटनाओं की रोकथाम के लिए कोई क़दम नहीं उठाया जाता। क़ानून में इसकी सज़ा सिर्फ़ 100 रुपये का जुर्माना तय किया गया है।
इसलिए मज़दूर माँगपत्रक -2011 में माँग की गयी है कि सभी कारख़ानों, खदानों, निर्माणस्थलों पर सुरक्षा के सभी ज़रूरी इन्तज़ाम किये जायें। इनका उल्लंघन होने पर मालिक/कॉण्ट्रैक्टर और मैनेजमेण्ट के ख़िलाफ़ सख़्त कार्रवाई (जुर्माना, जेल की सज़ा और कारख़ाने या कॉण्ट्रैक्टर का लायसेंस रद्द करना) के साथ ही जाँच एवं निगरानी के लिए ज़िम्मेदार सरकारी अधिकारी के ख़िलाफ़ भी कठोर कार्रवाई की जानी चाहिए। इसके लिए मौजूद क़ानून में ज़रूरी संशोधन किये जाने चाहिए या नया क़ानून बनाया जाना चाहिए।
अगर कहीं कोई बड़ी दुर्घटना होने पर सरकार कोई जाँच कराने का आदेश देती भी है तो उसमें लीपापोती करने और असली दोषियों को बचाने के अलावा और कुछ नहीं होता। इसलिए मज़दूर माँगपत्रक में माँग की गयी है कि सभी औद्योगिक दुर्घटनाओं की निष्पक्ष जाँच ऐसी कमेटी से करायी जाये जिसमें श्रम विभाग के उच्च अधिकारी, नागरिक एवं पुलिस प्रशासन के अधिकारी, मज़दूरों के प्रतिनिधि और मालिकों के प्रतिनिधि के साथ ही श्रम क़ानूनों के विशेषज्ञ तथा जनवादी अधिकारकर्मी भी शामिल हों। ऐसा होने पर मनमाने ढंग से तथ्यों को तोड़ने-मरोड़ने और मामले की लीपापोती करने पर रोक लगायी जा सकेगी। इसके अलावा अगर माँग उठती है या आवश्यकता पड़ती है तो विभागीय जाँच के अतिरिक्त न्यायिक जाँच और सीबीआई जाँच के प्रावधान भी होने चाहिए। लापरवाही या नियमों के उल्लंघन की स्थिति में दोषी व्यक्तियों के ख़िलाफ़ सम्बन्धित श्रम क़ानूनों के अतिरिक्त फ़ौजदारी क़ानूनों के तहत भी मुक़दमा चलाया जाना चाहिए। ऐसे मामलों में क़ानूनों को संशोधित कर सज़ाएँ सख़्त बनायी जानी चाहिए और दोष-सिद्धि की क़ानूनी प्रक्रिया को सुगम और त्वरित बनाया जाये।
ड्यूटी के दौरान मृत्यु हो जाने पर न्यूनतम और अधिकतम मुआवज़े की धनराशि अभी बेहद कम है। अभी यह न्यूनतम रु. एक लाख 20,000 से लेकर अधिकतम रु. 4,57,080 है। मज़दूर माँगपत्रक-2011 में माँग की गयी है कि क़ानून में यथाशीघ्र संशोधन इसे बढ़ाया जाये, एकमुश्त मुआवज़े के अतिरिक्त मृतक के परिवार को मृतक के मासिक वेतन का 50 प्रतिशत (अवकाश प्राप्ति के वर्ष तक) देने का प्रावधान किया जाये, तथा परिवार के एक सक्षम व्यक्ति को रोज़गार देने का प्रावधान किया जाये। यदि मृतक के परिवार में नौकरी करने लायक कोई व्यक्ति न हो, तो बच्चों के वयस्क होने तक उनके पालन-पोषण, शिक्षा आदि का ख़र्च मालिकान और सरकार द्वारा उठाने का क़ानूनी प्रावधान किया जाये। इसके साथ ही, ‘वर्कमेन्स कम्पन्सेशन ऐक्ट’ में संशोधन करके दुर्घटना में पूर्णतः विकलांग होने पर मिलने वाली मुआवज़े की एकमुश्त अधिकतम एवं न्यूनतम धनराशि तथा आंशिक रूप से या कुछ समय के लिए विकलांग होने पर मिलने वाली मुआवज़े की एकमुश्त अधिकतम एवं न्यूनतम धनराशि मौजूदा महँगाई और जीवन-निर्वाह ख़र्च के हिसाब से बढ़ायी जाये। अभी यह राशि बहुत ही कम है। जैसे, दुर्घटना में एक आँख हमेशा के लिए बेकार हो जाने पर मज़दूर को महज़ 25 हज़ार रुपये मिल सकते हैं। इस एकमुश्त राशि के साथ ही पूर्णतः विकलांग (या काम करने में अक्षम हो चुके) व्यक्ति के परिवार को भी उसके मासिक वेतन का 50 प्रतिशत (अवकाश प्राप्ति के वर्ष तक) देने तथा परिवार के एक सक्षम व्यक्ति को रोज़गार देने का प्रावधान किया जाये। यदि मृतक के परिवार में नौकरी करने लायक कोई व्यक्ति न हो, तो बच्चों के वयस्क होने तक उनके पालन-पोषण, शिक्षा आदि का ख़र्च मालिकान और सरकार द्वारा उठाने का क़ानूनी प्रावधान किया जाये। काम करने के दौरान कोई पेशागत बीमारी होने पर इलाज के अतिरिक्त समुचित मुआवज़े की भी क़ानूनी व्यवस्था की जानी चाहिए।
महज़ मुआवज़े का प्रावधान कर देना ही काफ़ी नहीं है। दुर्घटना-प्रभावित व्यक्ति को मुआवज़े की राशि मिले यह सुनिश्चित करना भी मुआवज़ा आयुक्त और श्रम आयुक्त के कार्यालय की ज़िम्मेदारी होनी चाहिए। मुआवज़ा पाने की क़ानूनी प्रक्रिया को भी सरल बनाया जाना चाहिए। अभी यह सारी प्रक्रिया इतनी जटिल और उलझाऊ है कि आम मज़दूर ख़ुद इसके लिए कुछ कर ही नहीं सकता। उसे किसी वकील या ट्रेड यूनियन नेता के माध्यम से ही आवेदन करना पड़ता है। ज़्यादातर वकील और यूनियन नेता कमीशनख़ोर दलालों की भूमिका निभाते हैं और मालिकों तथा श्रम विभाग के अधिकारियों की मिली-भगत से मुआवज़े की रक़म का बड़ा हिस्सा ख़ुद ही हड़प कर जाते हैं। क़ानूनी तामझाम के चक्रव्यूह को पार कर मुश्किल से 5-10 प्रतिशत दुर्घटनाग्रस्त मज़दूर मुआवज़े के लिए आवेदन कर पाते हैं और उनमें से मुश्किल से 5 प्रतिशत के पक्ष में फ़ैसला होता है। अधिकांश मज़दूरों के पास तो ऐसा कोई प्रमाण ही नहीं होता कि वह उस कारख़ाने में काम करते हैं जहाँ दुर्घटना हुई। ऊपर से बहुतेरी फ़ैक्ट्रियों का भी कोई नाम-साइनबोर्ड आदि नहीं होता। जाँच होने पर रातोरात फ़ैक्ट्री का नाम ही बदल दिया जाता है। अदालत में मालिक पेश ही नहीं होते और तरह-तरह से मामले को लटकाते रहते हैं। इस सबसे गुज़रकर अगर मुआवज़े का आदेश हो जाये तो भी मज़दूर के लिए रक़म हासिल कर पाना किसी पहाड़ को लाँघने से कम नहीं होता। रक़म उसके हाथ में देने के बजाय किसी ‘श्योरिटी’ (ज़मानत) की माँग की जाती है जिसका इन्तज़ाम करना एक ग़रीब मज़दूर परिवार के लिए बेहद कठिन होता है। इसका फ़ायदा भी दलाल उठाते हैं। इसलिए मुआवज़े की कार्रवाई की पूरी प्रक्रिया को सरल बनाया जाना चाहिए।
मज़दूर माँगपत्रक-2011 में माँग की गयी है कि मुआवज़ा नहीं देने पर, दुर्घटना को छिपाने और प्रभावित मज़दूर या उसके परिवार को डराने-धमकाने या प्रताड़ित करने पर मालिकान/ प्रबन्धन/कॉण्ट्रैक्टर के विरुद्ध फ़ौजदारी क़ानूनों के तहत मुक़दमा चलाकर सज़ा की व्यवस्था सुनिश्चित की जानी चाहिए। मुआवज़ा मिलने में घपला किये जाने की स्थिति में सम्बन्धित सरकारी अधिकारी के विरुद्ध भी क़ानूनी एवं विभागीय कार्रवाई की जानी चाहिए।
इसके अलावा मुआवज़े की राशि निर्धारित करने और उसका भुगतान सुनिश्चित करने वाले मुआवज़ा आयुक्त के काम में सहायता एवं निगरानी के लिए एक समिति बनायी जानी चाहिए जिसमें मज़दूरों और नियोक्ताओं के प्रतिनिधियों के अतिरिक्त श्रम मामलों के विशेषज्ञ, मज़दूर हितों के लिए सक्रिय सामाजिक कर्मी तथा जनवादी अधिकारकर्मी शामिल हों। इस समिति की राय लेना मुआवज़ा आयुक्त के लिए क़ानूनन अनिवार्य हो तथा इसके विरुद्ध अपील पर ऊपर के किसी अधिकारी द्वारा मामले के पुनरीक्षण का प्रावधान हो। यह प्रक्रिया जल्दी से जल्दी पूरी करने की पक्की व्यवस्था की जाये। ऐसा करना इसलिए ज़रूरी है ताकि मनमाने ढंग से मालिकों के पक्ष में कम मुआवज़ा तय करने की प्रवृत्ति पर रोक लगायी जा सके।
भारत सरकार ने अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन के ‘औद्योगिक दुर्घटनाओं की रोकथाम सम्बन्धी कन्वेंशन’ पर जून 2008 में हस्ताक्षर किये हैं जिसमें स्पष्ट प्रावधान है कि सभी नियोक्ता सुरक्षा प्रणालियों और तकनीकी उपायों की पूरी व्यवस्था रखेंगे जिसमें कर्मचारियों का प्रशिक्षण, उनकी सुरक्षा के लिए सभी ज़रूरी साधन मुहैया करना, उचित संख्या में कर्मचारियों की तैनाती, काम के घण्टों का पालन करना आदि शामिल है। लेकिन ख़ुद राजधानी दिल्ली के दर्जनों औद्योगिक क्षेत्रों में ही इसका धड़ल्ले से उल्लंघन होता है, बाकी जगहों की तो बात ही क्या! इस पर अमल कराने की सरकार की मंशा ही नहीं है। तभी तो वर्ष 2005 में जापान जैसे छोटे से देश में जहाँ 3,000 फ़ैक्ट्री इंस्पेक्टर थे वहीं पूरे भारत में मात्र 300 फ़ैक्ट्री इंस्पेक्टर थे। और वैसे इनके होने का भी कोई मतलब नहीं है। क्योंकि सच्चाई यह है कि फ़ैक्टरियों के मालिक इन इंस्पेक्टरों की जेब गरम रखते हैं और उनसे जैसी चाहे वैसी रिपोर्ट तैयार करवा लेते हैं। जो सरकार भोपाल गैस काण्ड जैसे बड़े हत्याकाण्ड को अंजाम देने वालों पर आज तक न कोई कार्रवाई नहीं कर सकी है और न पीड़ितों को उचित मुआवज़ा दिला सकी है, वह कारख़ानों, निर्माण स्थलों और ग्रामीण क्षेत्रों में आये दिन होने वाली दुर्घटनाओं पर क्या करेगी। दुर्घटनाओं के शिकार मज़दूरों की चीखें और कराहें देश की तरक़्क़ी के शोर-शराबे में दबा दी जाती हैं।
कार्यस्थल पर सुरक्षा के पूरे इन्तज़ाम और दुर्घटना होने की स्थिति में उचित मुआवज़ा हर मज़दूर का बुनियादी हक़ है। जो सरकार देश के करोड़ों मज़दूरों को यह बुनियादी हक़ भी नहीं दिला सकती उसे सरकार चलाने का कोई अधिकार नहीं है। मज़दूरों को समझना होगा कि अकेले-अकेले हम यह अधिकार बेशक नहीं हासिल कर सकते लेकिन अगर व्यापक मज़दूर आबादी एकजुट होकर आवाज़ उठायेगी तो सरकार पर दबाव बनाया जा सकता है। मज़दूर माँगपत्रक आन्दोलन- 2011 ने देशभर के मज़दूरों को उनके हक़ों के बारे में जागरूक और इन हक़ों के लिए लड़ने के वास्ते एकजुट करने की शुरुआत कर दी है। आने वाली 1 मई को देश के अलग-अलग हिस्सों से आये हज़ारों मज़दूर दिल्ली में संसद पर प्रदर्शन करके सरकार के दरवाज़े पर पहली दस्तक देंगे।
मज़दूर बिगुल, मार्च 2011
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन