मज़दूरों की असुरक्षा का फ़ायदा उठा रही हैं तरह-तरह की कम्पनियाँ

आनन्द, बादली, दिल्ली

आज ऐसा लगता है जैसे फैक्ट्रियों में मालिकों के आगे मज़दूरों ने घुटने टेक दिये हैं। असहाय हो गये हैं। न्यूनतम मज़दूरी, फ़ण्ड, बोनस, ई.एस.आई., हक़-अधिकार, नियम-क़ानून सब ठेंगे पर रखकर मालिकों की पूरी जमात ने बेतहाशा लूट मचा रखी है। जो मालिकों के मुँह से निकले समझो वही क़ानून है। वरना बोरी-बिस्तर लेकर गेट के बाहर टहलते नज़र आओगे। मालिकों का तो काम ही है लूटना, मगर लगता है जैसे हम मजदूरों ने भी इसी को अपना धर्म मान लिया है कि बाबूजी जो कहें वही सही है। इसके आगे का कोई रास्ता नहीं। आज हर मज़दूर इतना ज्यादा असुरक्षित हो चुका है कि वह अपना अस्तित्व बचाने के लिए तरह-तरह की तीन-तिकड़मों में फँसता चला जा रहा है। तनख्वाह कम होने की वजह से मज़दूरों की सोच में यह बैठ चुका है कि अगर ओवरटाइम, नाइट व डबल डयूटी नहीं लगायेंगे तो गुज़ारा नहीं होगा। और हकीकत भी यह है कि आठ घण्टे काम के लिए 3500-4000 रुपये महीने की तनख्वाह से ज़िन्दगी की गाड़ी रास्ते में ही रुक जायेगी।

unemployment-india

मज़दूरों की इसी बेबसी का फ़ायदा उठाकर तमाम ठग, दलाल, बिचौलिये और यहाँ तक कि बड़ी-बड़ी मल्टीलेवल मार्केटिंग कम्पनियाँ भी मज़दूरों को गुमराह कर टोपी पहनाने का काम कर रही हैं। इसी लाचारी के कारण ये सब भी मज़दूरों को लूटकर चाँदी काट रहे हैं। सुरक्षा के अभाव में आज हर मज़दूर यही सोचता है कि कुछ रुपये फिक्स डिपोज़िट में डालकर बचा लिया जाये। गाढ़े वक्त में काम आने के लिए कुछ बचत कर लिया जाये। एक एल.आई.सी करवा लें। दस-पाँच लोग आपस में मिलकर ही कमेटी चला लेते हैं। दस लोग दस महीने तक पाँच-पाँच सौ रुपये या इससे अधिक जितना भी जमा करते हैं, फिर बोली लगाकर या पर्ची निकालकर हर महीने एक आदमी को एक साथ पाँच हज़ार या कुछ घाटा खाकर रुपये मिल जाते हैं। अब तो आलम यहाँ पहुँच गया है कि एल.आई.सी., सहारा इण्डिया, बजाज इन्श्योरेन्स जैसी कम्पनियों के एजेण्ट कुकुरमुत्तों की तरह घर-घर जाकर मज़दूरों का डेली बीमा कर रहे हैं। बताते हैं कि रोज़ 5, 10, 20, 50 या अधिक जितना भी 5 साल या दस साल तक जमा करो और 10 साल में कुछ ब्याज मिलाकर एकमुश्त रुपया मिल जायेगा। मगर इसमें अधिकतर मज़दूरों का रुपया मारा जाता है। अक्सर तो मज़दूर एक इलाक़े से दूसरे इलाक़े में चले जाते हैं या कभी काम छूट जाने या कोई परेशानी आ जाने पर किश्तें पूरी नहीं कर पाते हैं। इसके अलावा एमवे, मोदीकेयर, डयूसॉफ़्रट, यूनाइटेड इण्डिया, आरसीएम, एलोवेरा, सिक्योर लाइफ़ जैसी असंख्य मल्टीलेवल मार्केटिंग कम्पनियाँ मजदूरों को सपना दिखा-दिखाकर रुपये ऐंठने का काम कर रही हैं। जानकारी न होने की वजह से बहुत से मज़दूर अपनी मेहनत की कमाई उन्हें दे बैठते हैं, और एक बार रुपये चले जाने के बाद इन कम्पनियों के एजेण्टों के दर्शन दुर्लभ हो जाते हैं। अभी शाहबाद डेयरी की झुग्गी बस्तियों में कुछ एजेण्ट जो करीब डेढ़ साल से चक्कर लगा रहे थे, दर्जनों परिवारों के हज़ारों रुपये बटोरकर चम्पत हो गये।

इन सारी समस्याओं के पीछे अगर जड़ खोदें तो यही समझ आता है कि ज़िन्दगी की असुरक्षा ही कारण है। अगर मज़दूरों को उनका पूरा हक़ मिले, रोज़ी-रोटी, मकान, शिक्षा, दवा-इलाज और बच्चों के भविष्य की गारण्टी हो तो कोई ऐसे झूठे सपनों के चक्कर में अपने आज को बर्बाद क्यों करेगा? हमें तो यही लगता है कि ऐसी भूलभुलैया में भटकने के बजाय हम मज़दूरों को अपनी ज़िन्दगी बदलने के लिए लड़ने के बारे में सोचना चाहिए।

 

मज़दूर बिगुलमई 2012

 


 

‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्‍यता लें!

 

वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये

पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये

आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये

   
ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीऑर्डर के लिए पताः मज़दूर बिगुल, द्वारा जनचेतना, डी-68, निरालानगर, लखनऊ-226020 बैंक खाते का विवरणः Mazdoor Bigul खाता संख्याः 0762002109003787, IFSC: PUNB0185400 पंजाब नेशनल बैंक, निशातगंज शाखा, लखनऊ

आर्थिक सहयोग भी करें!

 
प्रिय पाठको, आपको बताने की ज़रूरत नहीं है कि ‘मज़दूर बिगुल’ लगातार आर्थिक समस्या के बीच ही निकालना होता है और इसे जारी रखने के लिए हमें आपके सहयोग की ज़रूरत है। अगर आपको इस अख़बार का प्रकाशन ज़रूरी लगता है तो हम आपसे अपील करेंगे कि आप नीचे दिये गए बटन पर क्लिक करके सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग भी करें।
   
 

Lenin 1बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।

मज़दूरों के महान नेता लेनिन

Related Images:

Comments

comments