ये दरिद्रता के आँकड़े नहीं बल्कि आँकड़ों की दरिद्रता है
योजना आयोग द्वारा ग़रीबी के नये आँकड़े जारी
आनन्द सिंह
योजना आयोग द्वारा जारी ग़रीबी के नये आँकड़ों को मानें तो 2004-2005 से 2009-2010 के बीच देश में ग़रीबों की संख्या में भारी कमी आ गयी है। जो काम पिछले 50 वर्ष में नहीं हुआ वह इन पाँच वर्षों में हो गया! ग़रीबी-रेखा से नीचे रहने वाले लोगों की संख्या 37.2 प्रतिशत से गिरकर केवल 29.9 प्रतिशत रह गयी! इन चमत्कारिक आँकड़ों को देखने के बाद यह सवाल उठना लाज़िमी है कि सरकार ने आख़िर वह कौन-सी जादू की छड़ी घुमायी कि विश्वव्यापी आर्थिक संकट और आसमान छूती महँगाई के इस दौर में भी, जब ग़रीब तो क्या आम मध्य वर्ग का भी जीना दूभर हो गया है, इतनी भारी तादाद में लोगों को ग़रीबी से छुटकारा मिल गया। दरअसल इस जादू की छड़ी को कहते हैं – आँकड़ों की बाज़ीगरी, जिसमें योजना आयोग के उपाध्यक्ष और मनमोहन सिंह के चहेते मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने महारत हासिल कर ली है।
यह वही मोंटेक सिंह हैं जिनकी अभी कुछ महीने पहले ही खूब जगहँसाई और छीछालेदर हुई थी जब उनकी अगुआई में योजना आयोग ने उच्चतम न्यायालय में हलफ़नामा देकर दावा किया था कि देश के ग्रामीण इलाक़ों में जो लोग रोज़ाना 26 रुपये (रु. 781 प्रतिमाह) और शहरी इलाक़ों में जो लोग रोज़ाना 32 रुपये (रु. 965 प्रतिमाह) ख़र्च कर सकते हैं उनको ग़रीब नहीं माना जायेगा। अगर किसी को लग रहा हो कि चारो ओर से थुक्का-फ़जीहत के बाद योजना आयोग और अहलूवालिया बुद्धि और संवेदना की ग़रीबी रेखा से ऊपर उठेंगे और और उनको देश के ग़रीबों पर थोड़ा तरस आयेगा, तो ग़रीबी के नये आँकड़ों को देखकर उसको एक तगड़ा झटका लगेगा। इन नये आँकड़ों के मुताबिक़ यदि ग्रामीण इलाक़े में कोई व्यक्ति प्रतिदिन 22.42 रुपये (रु. 673 प्रतिमाह) और शहरी इलाक़े में प्रतिदिन 28.35 रुपये (रु 859 प्रतिमाह) से अधिक ख़र्च करता है तो वह ग़रीबी रेखा से ऊपर माना जायेगा। जी हाँ! आपने ग़लत नहीं पढ़ा है, यह ग़रीबी-रेखा उच्चतम न्यायालय में दायर हलफ़नामे की ग़रीबी-रेखा से भी नीचे है। कोई भी व्यक्ति यह समझ सकता है कि यह रेखा ग़रीबी तो क्या अब तो भुखमरी की भी रेखा नहीं कही जा सकती क्योंकि इस रेखा के ऊपर भी ऐसे तमाम लोग होंगे जो कुपोषण और भुखमरी के शिकार होंगे। इसके बावजूद एक धूर्त और मक्कार क़ानूनची की तरह अहलूवालिया बेशर्मी से इस बात की रट लगाये हुए हैं कि देश में ग़रीबी कम हुई है।
योजना आयोग के ये नये आँकड़े सुरेश तेन्दुलकर समिति की सिफ़ारिशों के आधार पर तैयार किये गये हैं और इनका स्रोत है राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के 66वें चक्र के उपभोक्ता ख़र्चे के आँकड़े। ग़ौरतलब है कि तेन्दुलकर समिति वर्ष 2009 में ग़रीबी की रेखा को नापने के तरीके में सुधार के लिए बनायी गयी थी। लेकिन जैसा कि हालिया आँकड़ों से स्पष्ट है कि इस समिति की सिफ़ारिशें भी भारत में ग़रीबी रेखा को नापने की पद्धति की गम्भीर त्रुटियों को दूर नहीं कर सकी हैं।
पहले ग़रीबी रेखा तय करने का पैमाना एक स्वस्थ व्यक्ति को जिलाये रखने के लिए आवश्यक न्यूनतम किलोकैलोरी की मात्रा पर आधरित था। गाँवों में यह पैमाना 2400 किलोकैलोरी और शहरों में 2100 किलोकैलोरी तय किया गया था। वर्ष 1973-74 में योजना आयोग ने पहली और आख़िरी बार इस पैमाने के आधार पर सीधे-सीधे न्यूनतम आवश्यक खाद्य सामग्री का आकलन किया और फिर यह हिसाब लगाया गया कि उस समय की क़ीमतों के अनुसार इसके लिए कितनी न्यूनतम आय होनी चाहिए। 1974 के बाद से हर पाँच वर्ष पर उपभोग ख़र्च का आकलन करने के लिए न्यूनतम आवश्यक भोजन का नये सिरे से ख़र्च निकाल कर ग़रीबी रेखा तय करने की बजाय पुरानी ग़रीबी रेखा का क़ीमत सूचकांकों के साथ समाकलन शुरू कर दिया गया। इसकी वजह से ही ग़रीबी रेखा मापन की प्रक्रिया में एक गम्भीर त्रुटि उत्पन्न हुई। क़ीमत सूचकांक का इस्तेमाल केवल कर्मचारियों के महँगाई भत्ते में किया जा सकता है क्योंकि वह सिर्फ़ बाज़ार में क़ीमतों में होने वाले उतार-चढ़ाव पर ही निगाह रखता है, वह भी आंशिक रूप से। जैसे-जैसे समय बीतता गया यह त्रुटि और बढ़ती गयी क्योंकि समय के साथ 2400/2100 किलोकैलोरी के लिए आवश्यक खाद्य सामग्री के समकालीन मूल्य और क़ीमत सूचकांक के समाकलन से प्राप्त मूल्य यानी ग़रीबी रेखा के बीच का अन्तर बढ़ता गया। यानी कि ग़रीबी रेखा स्थिर होने की बजाय नीचे गिरती चली गयी। चूँकि ग़रीबी रेखा ही नीचे कर दी गयी इसलिए इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि पिछले दो दशकों में प्रति व्यक्ति खाद्य उपलब्ध्ता कम होने के बावजूद योजना आयोग के आँकड़ों में ग़रीबी में निरन्तर गिरावट देखने में आयी है। प्रख्यात अर्थशास्त्री उत्सा पटनायक ने यह दिखाया है कि न्यूनतम किलोकैलोरी (2400/2100) के लिए आवश्यक खाद्य सामग्री के वर्ष 2004-2005 में रहे मूल्य के आधार पर यदि ग़रीबी रेखा नापी जाये तो देश के 75 प्रतिशत से भी अधिक लोग ग़रीबी-रेखा के नीचे होंगे जबकि क़ीमत सूचकांकों के आधार पर तय की गयी ग़रीबी रेखा के अनुसार यह संख्या मात्र 37.5 प्रतिशत थी। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि इसी सरकार की बनायी अर्जुन सेनगुप्ता कमेटी की रिपोर्ट के मुताबिक़ देश के 77 प्रतिशत लोग रोज़ाना सिर्फ़ 20 रुपये पर गुज़ारा करते हैं।
तेन्दुलकर समिति ने न्यूनतम कैलोरी मानक पर आधरित पुरानी पद्धति को ख़ारिज़ करके भोजन और शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी सेवाओं पर ख़र्चे के आधार पर ग़रीबी रेखा निर्धारित करने की बात कही। लेकिन कथनी में पुरानी पद्धति को ख़ारिज़ करने के बावजूद तेन्दुलकर समिति ने अपने ही द्वारा दिये गये सिद्धान्त के अनुसार नये सिरे से ग़रीबी रेखा निर्धारित करने के बजाय पुरानी पद्धति से तैयार किये गये वर्ष 2004-2005 के शहरी क्षेत्रों के ग़रीबी के आँकड़ों को ही आधार मानकर नयी ग़रीबी रेखा बनायी जो पुरानी रेखा से थोड़ी ऊपर थी (37.5 प्रतिशत)। इसका कारण यह बताया गया कि ग़रीबी में परिवर्तन नापने के लिए पुराने आँकड़ों से निरन्तरता ज़रूरी है और चूँकि पुरानी पद्धति में गाँव की ग़रीबी रेखा के मुकाबले शहरी ग़रीबी रेखा कम विवादास्पद है इसलिए शहरी ग़रीबी रेखा को आधार बनाकर नयी ग़रीबी रेखा बनाना उचित है। इस जुगाड़ू तरीक़े का परिणाम यह हुआ कि 2004-2005 के ग़रीबी के नये आँकड़ों में प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन कैलोरी उपभोग की मात्रा 1800 किलोकैलोरी रह गयी यानी पुरानी पद्धति के कैलोरी मानक से भी कम। कैलोरी मानक में गिरावट को सही ठहराने के लिए समिति ने संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन की रिपोर्ट का हवाला दिया जिसके अनुसार भारत में एक स्वस्थ व्यक्ति के लिए न्यूनतम 1800 किलोकैलोरी की ज़रूरत है। लेकिन समिति ने बड़ी ही चालाकी से यह बात दबा दी कि इस रिपोर्ट के कैलोरी मानक सम्बन्धित आँकड़े दरअसल दफ्तरी काम करने वाले लोगों के लिए हैं न कि ग़रीबों और मज़दूरों के लिए जो अपेक्षतया अधिक शारीरिक श्रम करते हैं। योजना आयोग का यह दावा भी सरासर झूठा है कि 2004-05 और 2009-10 के बीच ग़रीबी कम हुई है क्योंकि 2009-10 की ग़रीबी रेखा में इस्तेमाल किये गये उपभोग के मानक 2004-05 के मुक़ाबले कहीं कम हैं। एक समान उपभोग के मानक को लेकर तुलना करने पर हम पाते हैं कि ग़रीबी वास्तव में बढ़ी है।
इस प्रकार तेंदुलकर समिति की सिफ़ारिशों ने भी ग़रीबी-रेखा के नाम पर इस देश की ग़रीब जनता के साथ पिछले 4 दशक से जारी क्रूर मज़ाक को जारी रखने का ही काम किया है। इनके आधार पर तैयार किये गये हास्यास्पद आँकड़ों से होने वाली फ़जीहत से बचने के लिए सरकार ने आनन-फ़ानन में ग़रीबी रेखा के निर्धारण की नयी पद्धति तय करने के लिए एक नयी समिति के गठन की घोषणा कर दी। कहने की ज़रूरत नहीं कि इस तरह की समितियाँ जनता में झूठी उम्मीद जगाने के लिए बनायी जाती हैं जिससे कि जनता के बीच व्यवस्था के खुलेपन और संवेदनशीलता का भ्रम बरकरार रखा जा सके।
[stextbox id=”black” caption=”अहलूवालिया और अय्यर जैसों की निगाह में मज़दूर इन्सान नहीं सिर्फ़ ढोर-डाँगर हैं!”]
जय पुष्प
देश के एक अरब 20 करोड़ लोगों के लिए योजना बनाने की ज़िम्मेदारी जिस संस्था के पास है उसके मुखिया मोण्टेक सिंह का कहना है कि 28 रुपया कोई छोटी राशि नहीं है और आज के ज़माने में भी 28 रुपये रोज़ में आराम से ज़िन्दगी काटी जा सकती है। ये अलग बात है कि योजना आयोग के 9 सदस्य और एक मन्त्री मिलकर वेतन और भत्तों के रूप में हर महीने 15 लाख रुपये से भी ज़्यादा उठाते हैं।
टाइम्स ऑफ़ इंडिया अख़बार में लिखने वाले स्वामीनाथन अय्यर नाम के बुर्जुआ अर्थशास्त्री तो दो क़दम और आगे चले गये। अमीरों को और अमीर बनाने के नुस्ख़े बताने की कमाई खाने वाले इस शख्स ने बेशर्मी की सारी हदें पार करते हुए लिखा है कि कठोर श्रम करने वाला एक मज़दूर (जिसे रोज़ाना 3000 कैलोरी ऊर्जा की ज़रूरत होती है) भी 20 रुपये किलो के हिसाब से गेहूँ और 45 रुपये किलो के हिसाब से चने की दाल ख़रीदकर 18.75 रुपये में ‘दाल-रोटी’ खा सकता है और इस तरह 28 रुपये रोज़ाना में मौज़ से जी सकता है। उसके ख़्याल से ग़रीब आदमी को तेल, नमक, हल्दी, प्याज़, लहसुन, किरासन या गैस आदि की ज़रूरत नहीं पड़ती। सब्ज़ी, फल या दूध के बारे में सोचना पाप है और दिन में एकाध कप चाय तो उसके लिए अय्याशी होगी। सिर पर छत या फ़र्श पर एक मोटी-झोंटी चादर फ़िज़ूलख़र्ची है और कपड़े-लत्तों के बारे में ग़रीबों को सोचना भी नहीं चाहिए!
इनकी अक्ल ठिकाने लगाने का एक आसान तरीक़ा तो यह है कि इनके एअरकंडीशंड दफ्तरों और गद्देदार कुर्सियों से घसीटकर इन्हें किसी भी मज़दूर बस्ती में ले आया जाये और कहा जाये कि दो दिन भी 28 रुपये रोज़ पर जीकर दिखाओ। मगर ये अकेले नहीं हैं। अमीरों से लेकर खाये-पिये मध्यवर्गीय लोगों तक एक बहुत बड़ी जमात है जो कमोबेश ऐसा ही सोचते हैं। इनकी निगाह में मज़दूर मानो इन्सान ही नहीं हैं। वे ढोर-डाँगर या बोलने वाली मशीनें भर हैं जिनका एक ही काम है दिन-रात खटना और इनके लिए सुख के सारे साधन पैदा करना। ग़रीबों को शिक्षा, दवा-इलाज़, मनोरंजन, बच्चों की ख़ुशी, बुजुर्गों की सेवा, किसी भी चीज़ का हक़ नहीं है। ये लोग मज़दूरों को सभ्यता-संस्कृति और मनुष्यता की हर उस उपलब्धि से वंचित कर देना चाहते हैं जिसे इन्सानियत ने बड़ी मेहनत और हुनर से हासिल किया है।
स्वामीनाथन अय्यर वही शख़्स है जिसने अपने एक लेख में राशन की कालाबाज़ारी रोकने के लिए सरकार को सुझाव दिया था कि कोटे वाले राशन को पाउडर के रूप में बाँटा जाये और इतना बेस्वाद बनाकर बाँटा जाये कि अमीर लोग उसे खाना पसन्द ही न करें। इस तरह कालाबाज़ारी रुक जायेगी और इस बेस्वाद पाउडर का लाभ केवल वही लोग उठायेंगे जो वास्तव में भूख से मर रहे होंगे। क्या अब भी कोई सन्देह रह जाता है कि ये धनपशु ग़रीबों के बारे में क्या सोचते हैं?
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[stextbox id=”black” caption=”भुखमरी की भयानक तस्वीर”]
पूरी दुनिया में 82 करोड़ लोग रोज़ भूखे सोते हैं, और इनमें से चौथाई लोग केवल भारत के हैं। वैश्विक स्तर पर भुखमरी को मापने के पैमाने ग्लोबल हंगर इंडेक्स के अनुसार कुपोषण के मामले में दुनिया के सर्वाधिक प्रभावित देशों में से भारत 67वें स्थान पर है।
राष्ट्रीय परिवार एवं स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार (जो आख़िरी बार सात साल पहले हुआ था), भारत में 23 प्रतिशत शादीशुदा पुरुष, 52 प्रतिशत विवाहित महिलाएँ और 72 प्रतिशत नवजात शिशु ख़ून की कमी से पीड़ित हैं।
संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन (एफ.ए.ओ.) के अनुसार भारत के 23 करोड़ लोग भरपेट भोजन नहीं कर पाते और कुपोषण के शिकार हैं। जबकि अन्तरराष्ट्रीय खाद्य नीति शोध संस्थान (आई.एफ.पी.आर.आई.) के अनुसार, भारत के 21 प्रतिशत लोगों को पूरा पोषण नहीं मिलता, 5 वर्ष से कम आयु के 40 प्रतिशत बच्चों का वजन सामान्य से कम है और उनमें से 7 प्रतिशत बच्चे पाँच वर्ष की उम्र पूरी नहीं कर पाते। भारत को दुनिया के सर्वाधिक भूख के शिकार देशों की श्रेणी में रखा गया है, और सूडान, पाकिस्तान, श्रीलंका या नेपाल की स्थिति भी इस मामले में बेहतर है।
सेव द चिल्ड्रन नामक संस्था के हालिया सर्वेक्षण के अनुसार दुनिया भर के एक चौथाई बच्चों को इतना पोषण नहीं मिलता है जो उनके विकास के लिए जरूरी है, और हर घण्टे दुनियाभर में तकरीबन 300 बच्चे कुपोषण के कारण मौत के मुँह में समा जाते हैं। जिन देशों में यह सर्वेक्षण किया गया वहाँ चार में से एक परिवार को अपने खाने में कटौती करनी पड़ी है। हर छह में से एक बच्चा ज़िन्दा रहने के लिए अपने परिवार की मदद करने के इरादे से स्कूल छोड़ देता है। भारत में कुल बच्चों की जनसंख्या में से आधे कुपोषण के शिकार हैं और एक चौथाई बच्चों को अक्सर खाली पेट सोना पड़ता है। यही स्थिति बनी रही तो अगले पन्द्रह वर्षों में दुनियाभर में 45 करोड़ बच्चे अपनी उम्र की तुलना में कम लम्बाई और वज़न के होंगे, और उनकी वृद्धि रुकने का कारण कुपोषण और भुखमरी ही होगी।
दूसरी ओर, एक छोटी-सी आबादी बेहिसाब खा रही है और उससे भी ज्यादा बर्बाद कर रही है। इसका अनुमान सिर्फ़ इस तथ्य से लगाइये कि केवल दिल्ली में मोटापा कम करने का सालाना कारोबार 200 करोड़ रुपये से ज्यादा का है।
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मज़दूर बिगुल, अप्रैल 2012
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