सावधान! फ़ासीवादी शक्तियाँ अपने ख़तरनाक खेल में लगी हैं!
इनका निशाना है जनता की एकता!
इनके नापाक इरादों को नाकाम करना ही होगा!
धर्म के नाम आम लोगों को बाँटकर और लड़ाकर अपना उल्लू सीधा करने में लगी ताक़तें अभी भी मुज़फ़्फ़रनगर में साम्प्रदायिक आग ठण्डी नहीं होने दे रही हैं। दशहरे के दिन भी इन्होंने माहौल बिगाड़ने की पूरी कोशिश की। अभी त्योहारों का समय चल रहा है, इसलिए कोई बड़ी बात नहीं होगी कि ये मानवद्वेषी लोग फिर से किसी किस्म का साम्प्रदायिक फ़साद खड़ा कर दें। लेकिन मुज़फ़्फ़रनगर के दंगे इस साल की पहली साम्प्रदायिक घटना नहीं है। इस साल अगस्त महीने तक पूरे देश में साम्प्रदायिक हिंसा की 479 घटनाएँ हो चुकी हैं जिनमें 93 तो उत्तर प्रदेश में हुई हैं। 2012 का साल भी ऐसा ही गुज़रा था, तब साम्प्रदायिक हिंसा की घटनाओं की संख्या 640 रही थी।
भारत में साम्प्रदायिकता का खेल सभी राजनीतिक पार्टियाँ खेलती हैं, मगर यहाँ फ़ासीवादी राजनीति का केन्द्र राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ही है जो साम्प्रदायिक दंगे-फसादों को बाकायदा रणनीति बनाकर प्रायोजित करता है। अक्सर बुद्धिजीवियों, जनवादी राजनीतिक कार्यकर्ताओं सहित तमाम लोगों को यह भ्रम रहता है कि भारत में फ़ासीवाद का मतलब सत्ता में, खासकर केन्द्र में भाजपा की सरकार होने या ना होने से है। “लाल” झण्डे वाली संसदीय वाम पार्टियों ने इस धारणा को ओर बल दिया है जो अक्सर साम्प्रदायिक ताक़तों को सत्ता से बाहर रखने के नाम पर कांग्रेस के आंगन में झाड़ू-पोंछा करती रहती हैं लेकिन वास्तव में हक़ीक़त ऐसी बिलकुल भी नहीं है। भाजपा भारतीय फ़ासीवादी धारा का सिर्फ एक राजनीतिक संगठन है जिसका इस्तेमाल संघ संसदीय स्पेस को ज़्यादा से ज़्यादा इस्तेमाल करने के लिए करता है। संघ के 30 से ज़्यादा और संगठन भी हैं। इसलिए अगर भाजपा सत्ता में नहीं हो तो इसका मतलब यह नहीं है कि फ़ासीवाद का ख़तरा टला हुआ है और फ़ासीवाद का मुकाबला करने का मतलब महज भाजपा को केन्द्र में सरकार बनाने से रोकना है। इसके उलट ऐसे समय में फ़ासीवाद अपना काम चुप-चाप लेकिन उतने ही सघन और पूरी ताक़त से कर रहा होता है जितना वह सत्ता में रहने के दौरान करता है। संघ की सरगर्मियों और पिछले एक दशक के दौरान, जब इसकी संसदीय ‘शाखा’ यानी भाजपा केन्द्रीय सत्ता से बाहर है, इसके कारनामों को देखकर इस बात का अन्दाज़ा भली-भाँति हो जाता है।
यहाँ हम यह स्पष्ट कर दें कि संघी साम्प्रदायिकता और फ़ासीवाद को बेनकाब करने और उसका विरोध करने का मतलब यह हरगिज़ नहीं है कि हम दूसरे धर्मों की साम्प्रदायिक धाराओं और फ़ासीवादी रंगतों को किसी भी तरह की छूट दे रहे हैं, या किसी को उनकी निन्दा और विरोध नहीं करना चाहिए। मुस्लिम कट्टरपन्थी सहित हर तरह के साम्प्रदायिक संगठनों और फ़ासीवादी रंगतों को भी आवाम के सामने और ख़ास तौर पर उन धर्मों, इलाकों के लोगों के बीच बेनक़ाब करना उतना ही ज़रूरी है। पर हमें यह भी समझ लेना चाहिए कि भारत में सरेआम फ़ासीवादी सत्ता कायम करना, दूसरे धर्मों, जाति या इलाका आधारित अल्पसंख्यक लोगों को दबाने, क़त्लेआम करने और बड़े पूँजीपतियों के लिए संकट के दौर में डण्डे का राज क़ायम करने, हर तरह के जन विरोध को कुचलने का सामर्थ्य और सम्भावना सिर्फ संघी फ़ासीवाद में ही है। भारतीय पूँजीपति वर्ग भी “कठिन समय” में अपना दारोमदार संघी फ़ासीवाद के ऊपर ही डालेगा। भारतीय पूँजीपतियों जैसे टाटा, अम्बानी आदि द्वारा गुजरात के “विकास पुरुष” नरेंद्र मोदी की समय-समय पर की जा रही खुले दिल से तारीफ़ और भाजपा द्वारा मोदी को 2014 के चुनाव में प्रधानमंत्री पद के लिए आगे लाना आने वाले कल की झलक पेश कर रहा है। अन्तरराष्ट्रीय पूँजीवाद की भोंपू ‘टाइम’ पत्रिका तो बहुत पहले ही अपने पहले पन्ने पर मोदी की फोटो लगाकर उनके द्वारा गुजरात के “विकास” के कसीदे पढ़ चुकी है और उन्हें भारत के भविष्य के नेता के रूप में पेश कर चुकी है। दूसरी तरफ, अल्पसंख्यक साम्प्रदायिक धाराओं या फ़ासीवादी रंगतों में ऐसी सम्भावना या सामर्थ्य बिलकुल भी नहीं है, लेकिन चूँकि ये धाराएं और रंगतें जनवादी ताक़तों के फ़ासीवादी विरोधी कैम्प की एकता को तोड़ने, बिखेरने और संघी फ़ासीवाद के प्रचार के लिए मसाला उपलब्ध करवाने के सिवा और कुछ नहीं करतीं, इसलिए इनका पर्दाफाश भी उतना ही ज़रूरी है। पर यह याद रखना चाहिए कि इनमें से ज़्यादातर ताक़तें अपनी खुराक संघी-मार्का हिन्दू फ़ासीवाद के विरोध में और अल्पसंख्यकों के बीच असुरक्षा की भावना से ही प्राप्त करती हैं।
2014 के चुनाव आ रहे हैं, और संघ के फ़ासीवादी गिरोह धर्म के नाम पर जनता का ध्रुवीकरण करने के लिए पूरे ज़ोर-शोर से लगे हुए हैं। दंगे-फसाद कराने के अलावा संघ के फ़ासीवादी गिरोह और भी बहुत कुछ करते हैं जिन पर अक्सर ही आम लोगों की नज़र नहीं पड़ती। इन सब के बारे में चर्चा करने से पहले हम संघी संगठनों (जिनको ‘संघ परिवार’ कहा जाता है) के कारनामों पर एक नज़र डाल लें जिनमें मुसलमानों और ईसाईयों के विरुद्ध हिंसा शामिल हैं ।
संघी फ़ासीवाद की करतूतों पर एक नज़र
अपने जन्म से लेकर ही, संघ की तरफ से फैलाया गया साम्प्रदायिक ज़हर कितना ख़तरनाक और व्यापक रूप धारण कर चुका है, इसका पता गुजरात और महाराष्ट्र में हुई साम्प्रदायिक घटनाओं और दंगों से चलता है। हालांकि काँग्रेस (जिसकी 1984 के सिख विरोधी दंगों में भूमिका जगजाहिर है) और महाराष्ट्र में शिवसेना और एन.सी.पी. आदि भी साम्प्रदायिक हिंसा भड़काने में शामिल रही हैं लेकिन फ़ासीवादी कार्यक्रम संघ के पास ही है, यह इसकी बाकायदा रणनीति है। अकेले महाराष्ट्र में 1998-2008 के 11 साल के दौरान 1123 साम्प्रदायिक झड़पें या दंगे हुए, जिनमें तकरीबन 200 लोगों की जान गयी। अलग-अलग साल के हिसाब से देखा जाए तो यह पूरे देश में होने वाली इस तरह की घटनाओं का 10.23 प्रतिशत है। यह संख्या गुजरात से भी ज़्यादा है जहाँ 2002 के दंगों में 2000 से ज़्यादा लोग मारे गये। महाराष्ट्र की राजधानी मुंबई में देश के बाकी सभी शहरों से ज्यादा साम्प्रदायिक दंगे या झड़पें हुई हैं। जलगाँव, धूले, ठाणे, परभणी, नांदेड़, शोलापुर आदि शायद ही कोई शहर हो इस प्रांत में जहाँ साम्प्रदायिक दंगे नहीं हुए। हाल यह हो चुका है कि महाराष्ट्र में अब औसतन हर बीस दिन में साम्प्रदायिक दंगों जैसी घटना होती है।
गुजरात में इसी दौरान 823 साम्प्रदायिक दंगों की घटनाएँ हुई जिनमें 1114 मौतें (सरकारी सूचनाओं पर आधारित) हुई हैं। अन्य रिपोर्टों के अनुसार अकेले 2002 के गुजरात दंगों में ही 2000 मौतों का अनुमान है। उत्तर प्रदेश भी पीछे नहीं है, यहाँ पर भी 2001-11 के अन्तराल में 1112 साम्प्रदायिक झड़पें या दंगे हुए जिनमें 284 मौतें हुई। इसके बाद नम्बर आता है मध्य-प्रदेश का जहाँ 2000-08 के बीच 801 साम्प्रदायिक वारदातें हुई और 115 मौतें। अगर 2005-09 का अन्तराल लें तो यह प्रदेश दूसरे स्थान पर आता है जब यहाँ 648 घटनाएं हुईं। एक बात और, अक्सर दंगों को हिन्दू-मुस्लिम दंगे या साम्प्रदायिक झड़पों का नाम दिया जाता है लेकिन मरने वालों की बड़ी संख्या मुसलमानों की रहती है। गुजरात दंगों में मरने वालों में भी, सरकारी सूचनाओं के अनुसार, 75 प्रतिशत से ज्यादा मुस्लिम थे, जबकि गैर-सरकारी सूचनाओं के अनुसार यह आँकड़ा 90 प्रतिशत से ज्यादा का है। तथ्य बताते हैं कि आम तौर पर ये हिन्दू-मुस्लिम दंगे या झड़पें उकसाई जाती हैं या फिर मुसलमानों पर योजनाबद्ध हमले और कत्लेआम होते हैं।
इसके अलावा उड़ीसा में 2007-08 में ईसाई विरोधी दंगे हुए जिनमें संघ परिवार के संगठन विश्व हिन्दू परिषद ने मुख्य भूमिका निभाई। सबसे भयंकर दंगे कन्धमाल जिले में हुए। यहाँ 210 गांवों के 4600 घर जला दिए गए, 40 मौतें हुई, 18000 लोग जख्मी हुए, 50,000 को अपनी जगह से उजड़ना पड़ा और 252 चर्च तथा 13 शिक्षा संस्थान आग के सुपुर्द कर दिए गए। पता नहीं कितने बलात्कार हुए और बहुत से यतीमखाने जलाने की घटनाएं हुईं। उल्लेखनीय है कि इन दंगों के समय भाजपा, बीजू जनता दल के साथ राज्य की गठजोड़ सरकार का हिस्सा थी। भाजपा का एक विधायक इन दंगों को भड़काने में शामिल था। शर्मनाक बात यह है कि मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने भाजपा और संघ के दूसरे फ़ासीवादी संगठनों की इन दंगों में भूमिका पर आलोचना का एक शब्द भी मुंह से नहीं निकाला। जब चुनाव नजदीक आए तो पटनायक ने भाजपा से समझौता तोड़ कर दंगों के कारण ‘प्रदेश की हुई राष्ट्रीय स्तर पर बदनामी’ और ‘संघ की घटिया भूमिका’ का राग अलापना शुरू कर दिया।
इसी तरह कर्नाटक में अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा की वारदातें लगातार हो रही हैं जिसके पीछे संघ और इससे जुड़े संगठनों का ही हाथ है। इस प्रदेश ने 2009 में मैसूर में मुस्लिम विरोधी वारदातें, और 2008 में मंगलोर, उडपी, शिमोगा आदि शहरों में चर्च और पादरियों पर लगातार हुए हमले देखे हैं। इस प्रदेश में भी संघ पिछले चालीस साल से सक्रिय है, बेशक इसका परिणाम अभी मुंबई 1992 या गुजरात 2002 जैसा दिखाई नहीं दिया पर इसकी पूरी संभावना है। इसके लिए पूरी कोशिश संघ और इससे जुड़े फ़ासीवादी गिरोह लगातार कर रहे हैं। ऐसी ही कोशिश ‘श्रीराम सेने’ नाम के हिन्दू फ़ासीवादी गिरोह ने 1 जनवरी, 2012 को सिंधागी नाम के कस्बे में की। श्रीराम सेने के कारकुनों ने तहसीलदार दफ़्तर पर आधी रात को पाकिस्तान का झंडा लगा दिया और इसका इल्जाम स्थानीय मुसलमान आबादी के सिर मढ़ दिया और इलाके में मुसलमान विरोधी प्रचार शुरू कर माहौल को साम्प्रदायिक बनाने की कोशिशें की। छह दिन बाद जब इस गिरोह के छह लोग दबोचे गए तो सभी हिन्दू फ़ासीवादी संगठनों ने उनके बचाव के लिए चीखना शुरू कर दिया। यह भी सामने आया कि इन्हीं छह लोगों ने घटना के अगले दिन ‘दोषियों को पकड़ने’ में देरी के विरोध में रोष प्रदर्शन आयोजित किये थे।
संघ का प्रसार उसके परंपरागत खेमों से बाहर होने के संकेत भी आने शुरू हो गए हैं। राजस्थान में संघ ने पैर पसारे हैं। उदयपुर तथा जोधपुर के नजदीक एक गांव बालेसिर में साम्प्रदायिक वारदातें हो चुकी हैं। सन 2011 में भरतपुर जिले में हुए गोपालगंज हत्याकांड ने संघ के द्वारा इस राज्य में बुने जाल को सामने ला दिया है। पहले तो प्रदेश की कांग्रेस सरकार ने इस घटना पर पर्दा डालने की कोशिश की, मगर बाद में जब जांच रिपोर्टों ने इस हत्याकांड में संघ से जुड़े स्थानीय गुर्जर भूमिपतियों की भूमिका, सरकारी मशीनरी तथा पुलिस के साथ इसके संबंधों को नंगा किया तो दिखावे के लिए प्रशासनिक अधिकारियों के तबादले शुरू कर दिए गए। गोपालगंज में एक कब्रिस्तान की जमीन का विवाद है जिसके बारे में कई बार अदालती फैसला मुस्लिम समुदाय के हक में हो चुका है मगर गुर्जर भूमिपति इस फैसले को मानने से इनकार करते हैं। 14 सितंबर 2011 को जब इस संबंध में दोनों पक्षों में बातचीत हो रही थी तो संघ, विहिप, बजरंग दल और गुर्जर भूमिपतियों के गुंडों ने मुस्लिम मुहल्लों में छीना-झपटी, और आगजनी शुरू कर दी। दोपहर के समय जब इलाके के लोग मस्जिद में नमाज के लिए इकठ्ठे हुए तो उन लोगों ने पुलिस के साथ मिलकर मस्जिद से बाहर निकलने वाले रास्तों पर पुलिस के वाहन खड़े कर हमला बोल दिया। लाठियों और गोलीयों से हुए इस हमले में 20 लोग मारे गए। गोलियों के निशान मिटाने के लिए मरे हुए लोगों की टांगें और बाजू काट दिए गए और लाशों के साथ कुछ लोगों को जिंदा जला दिया गया। उत्तराखंड में भी तराई का इलाका जो बाबरी मस्जिद को तोड़े जाने के बाद भी शांत रहा था, अब साम्प्रदायिक दंगों की लपेट में आ चुका है। 2011 में शहीद अशफाकउल्ला का बुत तोड़ने पर रुद्रपुर शहर में दंगे भड़क उठे।
दंगों के लिए माहौल बनाना और फिर उसको अंजाम देना, सिर्फ यही नहीं है जो संघी फ़ासीवाद करता है। दुनिया भर के हर फ़ासीवादी की तरह, यह भी अपने खिलाफ बोलने वाले कलाकारों, बुद्धिजीवियों और लेखकों के ऊपर हमले, धमकियाँ और यहाँ तक की कत्ल की वारदातों को भी अंजाम देता है। मध्य प्रदेश के उज्जैन शहर में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के गुंडों द्वारा प्रो. सभरवाल का कत्ल, नामी चित्रकार एम. एफ. हुसैन पर लगातार हमले, कश्मीर मसले पर होने वाले सेमिनारों आदि में लगातार गुंडागर्दी और इस मसले पर संघ के विरूद्ध बोलने वालों पर हमले जिनमें पिछले साल वकील शांति भूषण पर हुआ हमला, इसके कुछ उदाहरण हैं। शिक्षा संस्थानों का भगवाकरण और भारत के इतिहास और संस्कृति की ‘संघी कहानी’ के खिलाफ जाने वाली किताबों को पाठ्यक्रम से बाहर करवाना, जलाना जैसी घटनाएँ अक्सर होती रहती हैं। रोहिंटन मिस्त्री के नावेल को मुंबई युनीवर्सिटी के पाठ्यक्रम से और रामानुजन के रामायण के बारे में लिखे लेख को दिल्ली युनिवर्सिटी के पाठ्यक्रम से हटाने का मसला इसका उदाहरण है। 1970 के दशक में भी इसी तरह संघी दबाव के कारण जनता पार्टी सरकार ने इतिहासकार रामशरण शर्मा की किताब “एंशिएंट इंडिया” को पाठ्यक्रम से बाहर कर दिया था।
इसके अलावा पिछले दशक में संघ की आतंकवादी हरकतों में भी इज़ाफ़ा हुआ है। महात्मा गाँधी के क़त्ल को छोड़ कर आजादी के बाद संघ ने इस क्षेत्र में ज्यादा कुछ नहीं किया था। पर बीते कुछ सालों में कई ‘रहस्यमयी’ धमाकों के पेंच जब खुलने लगे तो संघ का आतंकवादी नेटवर्क और हथियारबंद संगठनों का तानाबाना सामने आया। 2003 और 2004 में महाराष्ट्र के मराठवाड़ा इलाके के तीन शहरों जालना, पूर्णा और परभणी में मस्जिदों में बम धमाके हुए और परभणी की एक मस्जिद के बाहर मोटरसाइकिल सवार हमलावरों ने नमाज के लिए आए लोगों पर अंधाधुन्ध गोलीबारी की।
परभणी में हुई इस वारदात के बाद तो पूरे मराठवाड़ा में हिंसा फैल गयी थी। ये धमाके ‘रहस्यमयी’ बने रहे। फिर 2006 में मराठवाड़ा इलाके के एक और शहर नांदेड़ के एक घर में धमाका हुआ और अगले साल इसी शहर की एक बेकरी में धमाका हुआ। इसके बाद 18 फरवरी, 2007 को समझौता एक्सप्रेस बम धमाका हुआ जिसमें 68 लोगों की मौत हो गयी और 2008 में महाराष्ट्र के मालेगांव में मस्जिद के आगे धमाका हुआ। जब नांदेड़ धमाके की तफ़्तीश हुई तो पता चला कि धमाके वाला घर संघ से जुड़े एक व्यक्ति का है और मारे गए दोनों लोग बजरंग दल के कार्यकर्ता थे। जख्मी हुए चार व्यक्ति भी संघ के ही सदस्य थे। बेकरी धमाके में मारे गए दो आदमी भी बजरंग दल के सदस्य निकले। असल में इन दोनों जगहों पर संघी टोले बम बना रहे थे जिनका प्रयोग नांदेड़ शहर में मुसलमानों पर हमले के लिए और दंगा भड़काने के लिए होना था। इसी टोली ने जालना, पूर्णा और परभणी में बम धमाके किये थे। इसी तरह जब पोल खुलनी शुरू हुई तो मालेगांव धमाके और समझौता एक्सप्रेस में धमाकों के पीछे भी संघी फ़ासीवाद का हाथ सामने आया। संत असीमानंद, साध्वी प्रज्ञा ठाकुर और फौज के लेफ़्टीनेंट कर्नल पुरोहित तक इसके तार जा जुड़े। सब कुछ सामने आने पर संघ, इसके अन्य फ़ासीवादी गिरोहों और इसके संसदीय मुखौटे भाजपा ने खूब हल्ला मचाया, इससे मुकरने की कोशिश भी की और पकड़े गए संघी कारकुनों को बेकसूर एवं देशभक्त बताना शुरू कर दिया।
आम लोगों के खिलाफ फ़ासीवादी जंग जारी रहती है, बस तरीके बदलते हैं
भाजपा और संघ के तीन मुख्य मुद्दे हैं – राममंदिर, संविधान की धारा 370 को खत्म करना और देश में एक जैसा नागरिक कोड लागू करना। 2004 के लोकसभा चुनावों में ये तीनों मुद्दे फुस्स होने के कारण संघ ने इनको कुछ समय के लिए पीछे धकेला और लामबंदी के दूसरे सामाजिक और सांस्कृतिक रंगत वाले तौर तरीके आजमाने शुरू किए। इनमें पहला काम जो संघ कर रहा है वह है गौ रक्षा के लिए कानून बनाने की मुहिम चलाना और इस मसले पर हिन्दू और मुसलमानों तथा अन्य धर्मों को मानने वालों के बीच ध्रुवीकरण को तीखा करना। दूसरा क्षेत्र जहाँ संघ पूरे जोर से काम कर रहा है वह है शिक्षा को साम्प्रदायिक रंग देना। जिन प्रदेशों में भाजपा की सरकारें हैं वहाँ तो ये काम सरकारें कर ही रही हैं। तीसरा काम लोगों के ज्वलंत मुद्दों को ढाल बनाकर अपना आधार बनाना और भ्रष्टाचार विरोधी ‘अन्ना मुहिम’ को समर्थन देना। आडवाणी की भ्रष्टाचार के खिलाफ ‘रथ यात्रा’ इसी योजना का हिस्सा थी।
1925 में अपनी स्थापना के बाद से ही, संघ ने ‘गौ रक्षा समितियों’ का एक व्यापक नेटवर्क खड़ा किया है, खास तौर पर उत्तर भारत में। इनका काम कहने को तो गौशाला चलाने का है पर अपने जन्म से ही ये समितियाँ दंगे भड़काने और साम्प्रदायिक तनाव पैदा करने में शामिल रही हैं। “गौ हिंदुओं के लिए पवित्र है”, “मुसलमान हिंदुओं को नीचा दिखाने के लिए गोमांस खाते हैं।” इस तरह की बेसिरपैर, बेबुनियाद बातों को दोहराना इन समितियों का मुख्य काम रहा है। मध्य प्रदेश में शिवराज चौहान के राज्य में इसको ही “पवित्र गौ” और भोपाल की मस्जिदें, ताज-उल मस्जिद और और जामा मस्जिद के बीच मुकाबला बनाकर पेश किया जाता रहा है। 1950 से ही गौ रक्षा का मुद्दा भाजपा के मुख्य एजेण्डे पर रहा है, तब इसका नाम जनसंघ था। बेशक भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व ने आजकल कट्टर हिन्दुवादी मुखौटे को उतारकर नरम हिन्दुवादी मुखौटा पहना हुआ है लेकिन प्रादेशिक स्तर पर हिन्दू फ़ासीवादी मुखौटा पूरी कुशलता के साथ अपना काम किये जा रहा है। इसको ध्यान में रखते हुए मध्यप्रदेश सरकार ने गौ रक्षा के लिए कानून को और भी सख्त बनाने के लिए बिल पास किया जिसके तहत अब गौ हत्या पर सात साल की कैद की सजा का प्रावधान किया गया है। ना सिर्फ इतना ही, गोमांस खाना भी पूरी तरह से प्रतिबंधित कर दिया गया है। गिरफ़्तारी के अधिकार हैड कांस्टेबल रैंक के पुलिस कर्मी को दे दिए गए हैं, यहाँ तक कि गोमांस खाने के शक के आधार पर ही किसी को भी गिरफ़्तार किया जा सकता है। इस कानून को पास करने से पहले विश्व हिन्दू परिषद ने पूरे मध्यप्रदेश में हस्ताक्षर अभियान चलाया। प्रदेश की शिवराज चौहान सरकार ने भारी धनराशि सरकारी तौर पर गोशालाओं को बनाने के लिए जारी की। याद रहे मध्यप्रदेश पूरी दुनिया में भयंकर गरीबी और भुखमरी से सबसे ज्यादा प्रभावित क्षेत्रों में शुमार है। भाजपा सरकार वाले अन्य प्रदेशों जैसे गुजरात, कर्नाटक, उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ में भी ऐसे ही कानून बनाए गए हैं।
शिक्षा का भगवाकरण भी उच्च स्तर पर जारी है । जब भी भाजपा सत्ता में आई, उन राज्यों में पाठ्य-पुस्तकों को बदलने का काम शुरू हो गया। केन्द्र में सरकार रहने के समय भी भाजपा के मंत्री मुरली मनोहर जोशी ने प्राइमरी, सेकेंडरी और उच्च स्तर पर पाठ्यक्रम को ज्यादा भारतीय, ज्यादा कौमी और ज्यादा आध्यात्मिक बनाने की कोशिशें कीं लेकिन इसमें उनको सफलता नहीं मिली। लेकिन भाजपा की प्रादेशिक सरकारें इसमें कोई ढील नहीं दे रही हैं।
गुजरात में नौवीं कक्षा को पढ़ाया जाता है कि “देश के लिए सबसे बड़ी मुसीबत अल्पसंख्यक समुदाय है”। इसके बाद “अनुसूचित जातियाँ और कबीले, स्मगलिंग, भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी” आते हैं। इस पाठ के अनुसार मुसलमान और पारसी विदेशी हैं। सेकेंडरी लेवल पर नरेंद्र मोदी की जीवनी पढ़ाने की सिफारिश की जाती है। मध्य प्रदेश और कर्नाटक की भाजपाई सरकारों ने स्कूलों में गीता की पढ़ाई अनिवार्य करने की कोशिश की, जो फिलहाल विरोध के कारण खटाई में पड़ गयी है। उत्तराखण्ड की भाजपा सरकार ने नया क्षेत्र खोजा है – यहाँ पर आज-कल संस्कृत को उच्च महत्व देने का काम जारी है।
सरकारों का इस्तेमाल शिक्षा ढाँचें के भगवाकरण में करने के अलावा, शिक्षा क्षेत्र में संघ की एक बड़ी मशीनरी ‘विद्या भारती’ काम करती है। ‘विद्या भारती’ की स्थापना 1977 में की गयी। अब पूरे भारत में इसके 28000 स्कूल चलते हैं। इनमें 32,50,000 विद्यार्थी पढ़ते है। इन स्कूलों के लिए पाठ्य पुस्तकें ‘विद्या भारती संस्थान’ छपवाता है जिनको 1996 में ही राष्ट्रीय शैक्षणिक अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण परिषद (एन.सी.ई.आर.टी.) ‘धार्मिक कट्टरपंथ और संकीर्णता’ को बढ़ावा देने वाली किताबें कह चुकी है। भारत के इतिहास के सबंध में तरह-तरह के मनगढ़ंत झूठ विद्यार्थियों को पढ़ाए जाते हैं जैसे – 1528-1914 ईस्वी के अंतराल में राम जन्मभूमि पर 77 हमले हुए और 3-5 लाख श्रद्धालुओं ने पवित्र स्थान की रक्षा के लिए जान दे दी। 2 नवंबर 1990 का दिन भारत के इतिहास का ‘काला दिन’ है क्योंकि उस दिन हिंदुओं को बाबरी मस्जिद तोड़ने से रोक दिया गया था, इत्यादि। इसके अलावा संघ अशिक्षा खत्म करने के नाम पर ‘एकल विद्यालय’ अर्थात एक अध्यापक वाले स्कूल चलाता है। यहाँ संघी फ़ासीवादी विचारधारा का प्रचार खुलेआम किया जाता है। संघ के इस शिक्षा ढाँचे को फंड दिलाने के लिए पश्चिमी देशों में संघ के संगठनों की शाखाएं हैं जो सीधे अपने नाम या ‘इंडिया डेवेलपमेंट एंड रिलीफ फंड’ जैसे ग्रुपों के नाम से लाखों डालर जुटाती हैं। मध्य प्रदेश ,छत्तीसगढ़, और झारखण्ड आदि प्रदेशों में ‘एकल विद्यालयों’ को सरकार अनुदान देती है जबकि इसका नियंत्रण संघ के हाथों में है।
विश्व हिन्दू परिषद पूरे भारत में ‘शुद्धि मेले’ आयोजित करता है जहाँ लोगों को हिन्दू धर्म धारण करवाया जाता है या दूसरा धर्म धारण कर चुके लोगों को ‘वापस’ बुलाया जाता है। भाजपा सरकार वाले प्रदेशों में तरह-तरह के धार्मिक आज़ादी के कानून लाये जा रहे हैं जो भारत में नागरिकों के किसी भी धर्म को मानने और प्रचार करने के बुनियादी संवैधानिक हक के ही खिलाफ हैं। तरह-तरह के तरीकों से अलग-अलग धर्मों और जातियों के लोगों को अलग-अलग इलाकों में रहने के लिए मजबूर किया जाता है । जैसे अहमदाबाद में मुसलमान शहर के कुछ खास इलाकों में केंद्रित हो गए जो नाजी जर्मनी में यहूदियों के इलाके ‘घेट्टो’ की याद ताजा कर देते हैं। दूसरी ओर, ‘सेवा भारती’ जैसे संघी संस्थान हैं जो ‘समाज कल्याण’ के मुखौटे तले फ़ासीवादी प्रचार को आगे बढ़ाते हैं। ऐसा ही ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ है जो आदिवासियों में ‘समाज कल्याण’ का काम करती है। कुल मिलाकर संघ के 30 से अधिक अलग-अलग संगठन हैं जो देश के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग तबकों और धर्मों के बीच काम करते हैं।
इसके अलावा संघ नागपुर में ‘भोंसला मिलेट्री स्कूल’ चलाता है जिसका कई बम धमाकों में नाम आ चुका है। 2012 के फरवरी महीने में संघ ने इस स्कूल के 75 साल पूरे होने पर जश्न मनाया जिसके मुख्य भाषण के दौरान संघ के मोहन भागवत ने ब्रिटिश राज्य को आज के भारत से अच्छा बताकर संघ की ब्रिटेन भक्ति का सबूत दिया और साथ ही कहा की ‘विद्यार्थियों’ को आम शिक्षा के साथ मिलेट्री ट्रेनिंग देना ज़रूरी है क्योंकि ‘देश को ख़तरा’ है। याद रहे कि इस स्कूल की स्थापना 1937 में संघ के सदस्य और हिन्दू महासभा के नेता डॉ. मुंजे ने की थी, इसकी नींव का पत्थर उस समय के बम्बई प्रदेश के अंग्रेज गवर्नर सिर रोजर लुमले ने रखा था। इस स्कूल को डॉ. मुंजे द्वारा ही स्थापित केन्द्रीय हिन्दू मिलेट्री शिक्षा कमेटी चलाती है। 65 एकड़ में फैले इस स्कूल के कैम्पस को ‘रामभूमि’ कहा जाता है और आम शिक्षा के साथ-साथ ‘पर्सनैलिटी डेवेलपमेंट कोर्स’, मिलेट्री ड्रिल्स, गोली चलाने और हथियारों की शिक्षा दी जाती है। यहाँ तक कि तोपखाने चलाने का प्रदर्शन भी किया जाता है। इस स्कूल के पढ़े हुए कई ‘विद्यार्थी’ भारतीय फौज के ऊंचे ओहदों पर पहुंचे हैं। 75 साला जश्न के मौके पर यह ऐलान किया गया कि मध्य प्रदेश, गुजरात और उत्तराखण्ड में ऐसे और स्कूल खोले जाएंगे।
नांदेड़ धमाकों की तफ़्तीश में सामने आया कि उस टोली का रिंग-लीडर हिमांशु पांसे और उसका साथी केशव वाघ इसी मिलेट्री स्कूल में 15 दिनों का कैम्प करके गए थे और पुणे में इन्होंने पाइप-बम बनाने का प्रशिक्षण लिया था। पुणे के एक सेवामुक्त नौसेना अफसर एस. आर. भाटे का नाम भी इसी जाँच के दौरान सामने आया जो कि 1996 से संघ के साथ जुडा हुआ है। उसने माना कि उसको एक स्थानीय बजरंग दल नेता ने अपने कारकुनों को ‘जिलेटीन स्टिक’ का प्रयोग सिखाने के लिए कहा था। इसके लिए पहले उसने एक स्थानीय कैंप लगाया। मालेगांव धमाके के तार भी इसी स्कूल से जुड़ते हैं। और ऐसा ही फ़ासीवादी संगठन ‘अभिनव भारत’ के मामले में सामने आया है। लेफ़्टिनेंट कर्नल श्रीकांत पुरोहित के मालेगांव धमाकों के ‘मास्टरमाइंड’ होने के तथ्य सामने आने के अलावा यह भी राज खुला कि इस स्कूल के प्रिंसिपल कर्नल एस.एस. रायकर और एक क्लर्क भी इस मामले से और ‘अभिनव भारत’ के साथ जुड़े हुए हैं। अखबारों में इस बात का खुलासा होने के बाद इन्होंने बिना कोई कारण बताए इस्तीफा दे दिया। जब्त हुई ऑडियो टेपों में श्रीकांत पुरोहित यह कहता है – “स्कूलों के साथ संघ का नाम नहीं आना चाहिए और अलग से ‘बसटियन गार्ड’ के नाम से काम किया जाए।” सच के पूरी तरह सामने आ जाने के बावजूद न तो इन दक्षिणपंथी फ़ासीवादी संगठनों के खिलाफ कोई कार्रवाई हुई है और न ही संघ के मिलेट्री स्कूल के खिलाफ, बेशक देश भर में जनहित में काम करने वाले कार्यकर्ता लगातार मिलेट्री प्रशिक्षण के इन स्कूलों को बंद करवाने के लिए आवाज उठा रहे हैं।
साम्प्रदायिकता और फ़ासीवाद महज वोट बटोरने वाली राजनीति नहीं, पूँजीवादी ढाँचे में इसकी भूमिका कहीं बड़ी और ख़तरनाक होती है
अक्सर साम्प्रदायिकता और फ़ासीवाद को इन अर्थों में लिया जाता है-
इस साल
दंगा बहुत बड़ा था
ख़ूब हुई खून की बारिश
अगले साल अच्छी होगी
फसल मतदान की—
यह बात अपने आप में सही है, मगर यहीं तक रुक जाना साम्प्रदायिकता और फ़ासीवाद की जोड़ी की भूमिका को बहुत छोटा कर देखना होगा। इसकी भूमिका पूँजीवादी ढांचे के अंदर कहीं बड़ी है। फ़ासीवाद पूँजीवादी ढांचे के अंदर ‘खूंटे से बंधे कुत्ते’ की तरह होता है जिसकी जंजीर पूँजीपति वर्ग के हाथों में रहती है। पूँजीवादी ढांचे के अंदर इसकी मौजूदगी लगातार बनी रहती है। जैसे ही पूँजीपति वर्ग के लिए सत्ता के दूसरे रूपों जैसे संसदीय जनवाद के द्वारा लोगों पर अपना नियंत्रण रखना और पूँजीवादी लूट को जारी रखना असंभव हो जाता है उसी समय फ़ासीवाद का क्रूर खंजर वक्त के अँधेरे कोनों से निकल के सामाजिक रंगमंच पर आ प्रकट होता है और अपने आकाओं, वित्तीय पूँजी की सेवा में मेहनतकश लोगों पर टूट पड़ता है।
पूँजीवाद के विकास के साथ सामाजिक दौलत कुछ हाथों में केंद्रित होती जाती है और मजदूरों, किसानों और निम्न-मध्यवर्ग की बड़ी आबादी की हालत बद से बदतर होती चली जाती है। फिर जैसे ही पूँजीवाद के ‘बूम’ का समय (जो आजकल पूँजीवादी ढांचे के लिए बीती बात हो गयी है, अब तो मंदी से थोड़ी राहत को ‘अच्छा वक्त आ गया है’ कहकर बुर्जुआजी खुद को सान्त्वना दे लेती है) खत्म होता है, मजदूरों, किसानों और निम्न-मध्यवर्ग की हालत और तेजी से खराब होती है। परिणामस्वरूप एक तरफ जहाँ मजदूरों की बड़े पैमाने पर छंटनी होती है और उनमें बेरोजगारी तथा भुखमरी फैलती है, वहीं मध्यवर्ग को भी अपना अंत समय नजदीक दिखाई देने लगता है। उसके छोटे मोटे कारोबार बंद होने, नौकरी जाने और महंगाई के बढ़ने के कारण उसके लिए भयंकर तबाही आती है और यह वर्ग छटपटाता है। लोगों के भीतर सामाजिक ढांचे के खिलाफ गुस्सा, बेचैनी और बगावत की भावना फैलने लगती है। ऐसे समय में अगर लोगों को सही अगुवाई मिलती है तो क्रान्ति की संभावना भी पैदा होती है। यही वह समय होता है जब राज्य करने वाले वर्ग के लिए परम्परागत तरीकों से लोगों पर हुकूमत करना संभव नहीं रहता और उसके पास फ़ासीवाद के पैरों में गिरने के अलावा और कोई चारा नहीं रहता क्योंकि जहाँ एक तरफ फ़ासीवाद वित्तीय पूँजी का पक्का सेवक होता है, वहीं उसका समाज के अलग-अलग तबकों में व्यापक आधार भी होता है, खास तौर पर मध्यवर्ग और किसानों में और कुछ हद तक मजदूरों में भी। फ़ासीवाद एक लहर की तरह आगे बढ़ता है। फ़ासीवाद पूँजीवादी लूट और इसकी मुनाफे की अंधी हवस से जन्मे हुए संकट के कारण पैदा हुई बेरोजगारी, और भुखमरी के लिए समाज के किसी एक तबके को, जो आम तौर पर नस्ली या धार्मिक अल्पसंख्यक होता है, को समस्याओं का असली कारण बनाकर पेश करता है, लोगों में इनके खिलाफ पूरी ताक़त से हमला करने के लिए प्रचार करता है और उदाहरण पेश करने के लिए कुछ वारदातों को अंजाम देता है। ये लोगों को संकट से राहत के लिए चमत्कारी तरीके सुझाता है जिसमें लोगों को बहुत कुछ करने की ज़रूरत नहीं होती और ऐसे ही तरीके मध्यवर्ग और किसानों को सब से ज्यादा भाते हैं। देश के पुराने समय की महानता का , खास धर्म, नस्ल या जाति के संसार के सर्वोत्तम मनुष्य होने का, पड़ोसी मुल्कों से देश की सुरक्षा को ख़तरे का, युद्ध का गुणगान, देश भक्ति का तीखा और लगातार तेज प्रचार फ़ासीवाद का मुख्य हथियार होता है। फ़ासीवाद के रावण की तरह दस सिर होते हैं और लोगों को अपने असली एजेंडे के बारे में कुछ भी समझ न आने देने के लिए हर मुंह से अलग-अलग राग अलापना उसका आम तरीका होता है। विरोधियों को अपने भाड़े के गुंडों द्वारा ठिकाने लगाना हर फ़ासीवादी पार्टी और उसके संगठनों के मुख्य लक्षणों में से एक है, अक्सर ऐसे हमले मध्यवर्गीय निराश, बेरोजगार नौजवानों को बहुत बहादुरी भरे कारनामे दिखाई देते हैं और वो फ़ासीवादी गुंडा गिरोहों के रंगरूट बनते हैं। फ़ासीवाद लगातार यह कूक-पुकार लगाता है ‘देखो काम तो हम करते हैं बाकी सब मीटिंगे करते हैं, बयान देते हैं और देश को, धर्म को नुकसान पहुँचाने की साजिशें करते हैं और दूसरे देशों के इशारों पर नाचते हैं’। फ़ासीवाद खुद को संकट से निजात दिलाने वाली एक ताक़त बनाकर पेश करता है और अपने हक में व्यापक जनमत बना लेता है जिसमें पूँजीपतियों के कब्जे वाला मीडिया, अखबार, टीवी, और अब इंटरनेट भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। ऐसे समय में अगर कोई लोकहित वाली राजनीतिक धारा मौजूद नहीं है, कमजोर है या भ्रष्ट होकर रास्ते से भटक चुकी है तो फासीवाद आसानी से लोगों को अपनी जकड में ले लेता है, और फिर शुरू होता है जुल्म और मौत का तांडव। सत्ता हासिल करने से पहले मुख्य निशाना अल्पसंख्यक समुदाय बनते हैं, और जैसे ही फ़ासीवादी सत्ता संभालते हैं अपने असली रूप में आ जाते हैं। अब इनके निशाने पर किसान और मध्यवर्ग समेत दबे-कुचले मेहनतकश तबके और पूँजीवादी लूट, दमन का विरोध करने वाली ट्रेड यूनियनें और राजनीतिक नेता, बुद्धिजीवी लेखक और कलाकार होते हैं। फ़ासीवाद वित्तीय पूँजी की सेवा करते हुए पूँजीवाद का विरोध करने वाली हर आवाज, हर साँस का गला दबाने के लिए गुंडा टोलियों, राज्य की फौज, पुलिस का इस्तेमाल करता है और देश का कोना-कोना इंसानी खून से रंग देता है। बेशक तब फ़ासीवाद का सामाजिक आधार बनने वाले मध्यवर्ग और दूसरे तबकों को असली खेल समझ में आता है लेकिन तबतक बहुत देर हो चुकी होती है, अब उनके पास खुद फ़ासीवादी कुत्तों की खुराक बनने या घरों में छुप कर पूजा-पाठ करने और दरवाज़े-खिड़कियों के सुराखों के बीच से गलियों में चलती कत्लो-गारत देखने के अलावा कोई चारा नहीं होता।
फ़ासीवाद के उभार के ऐतिहासिक कारक
पूँजीवादी ढांचे का संकट फ़ासीवाद के उभार और उसके सत्ता में आने के लिए ज़रूरी शर्त तो है ही, पर कुछ ऐतिहासिक कारक हैं जो किसी खास देश में ऐसा होने में अहम भूमिका अदा करते हैं। पहला है, पूँजीवादी विकास और जमीन्दारी उन्मूलन किसी क्रान्ति का परिणाम न होकर एक ऊपर से थोपे गए क्रमबद्ध चरणों का परिणाम होता है जिसके कारण बुर्जुआजी द्वारा समाज के अंदर जनवादी मूल्य-मान्यताओं को फैलाते हुए सामन्ती मानसिकता और धर्म का दबदबा तोड़ने का जो ऐतिहासिक कार्य करना होता है वो नहीं हो पाता। इस कारण पूँजीवाद आपनी बीमारियाँ लेकर आता है। वही पुरानी सामन्ती बीमारियाँ समाज में बनी रहती हैं जिसके चलते फ़ासीवादी विचारों के तेजी से जड़ जमाने की जमीन तैयार होती है। दूसरा है, पूँजीवाद का तेज विकास जो समाज में ध्रुवीकरण की प्रक्रिया को बहुत तेज कर देता है, एक मध्यवर्ग जो किसी भी तरह की जनवादी चेतना से विहीन होता है, तेजी के साथ पैदा होता है और उसी तेजी के साथ बर्बाद होता है। किसानी में यही हाल होता है, छोटे और मध्यम किसान वर्ग किसी क्रान्ति के जरिए नहीं, बल्कि बुर्जुआजी के अपने हित में किये गए भूमि सुधारों के कारण कुछ जमीन के टुकड़े हासिल करते हैं पर पूँजीवाद का विकास उससे यह टुकड़ा छीन लेता है और उसको सड़क पर आने या मजदूरी करने के लिए मजबूर कर देता है। ऐसे में किसान अपने पुराने ‘सुनहरे युग’ कि कल्पना करता है, बेशक ऐसा युग कभी नहीं था। इतना ज़रूर था कि वो कभी सुखी, कभी दुखी रहकर अपने परिवार का पेट पाल लेता था। इसके साथ ऐसे देशों में सामन्ती भूमिपतियों या सामन्ती भूमिपतियों से पूँजीवादी भूमिपति बने बड़े जमींदारों का एक तबका समाज में मौजूद होता है जो हद दर्जे का पश्चगामी और जनवाद तथा क्रान्ति का विरोधी होता है। ये भूमिपति औद्योगिक तथा वित्तीय पूँजी के साथ अपने विरोधों के बावजूद फ़ासीवाद को वित्तीय मदद और गुंडों की टोलियाँ उपलब्ध करवाते हैं और बड़े पूँजीपति वर्ग के साथ ही फ़ासीवाद का जबरदस्त आधार बनते हैं।
तीसरा है, किसी भी क्रन्तिकारी ताक़त का मौजूद न होना या फिर कमजोर होना जो ऐसे समय में प्रचार-प्रोपेगंडा करते हुए संकट के असली कारणों और उसके निदान के बारे में लोगों के बीच जाती हैं, समाज के उन वर्गों को जो क्रान्ति की ताक़तें होती हैं लामबंद और संगठित करती हैं तथा ढुलमुल तबकों को प्रभावहीन करते हुए पूँजीवाद को पलटने के किये आगे बढ़ती हैं। चौथा है, संशोधनवादी पार्टियों की मेहनतकशों के साथ गद्दारी और लोगों को क्रान्ति के लिए तैयार करने की बजाय उनकी तनख्वाहों, उजरतों में चवन्नी-अट्ठन्नी की बढ़ोतरी करवाने की लड़ाई लड़ते रहना। इतिहास इस बात का गवाह है कि दुनिया के जिस देश में फ़ासीवाद का उभार हुआ है और ये सत्ता पर काबिज हुआ है वहाँ के संशोधनवादियों की ऐसी नीतियों का फासीवादियों ने फायदा उठाया और उनको आम लोगों से अलग कर दिया, यहाँ तक कि उनको लोगों की नज़रों में देश का दुश्मन साबित कर दिया। यही सब कुछ भारत में भी हो रहा है। भारत के भाकपा, माकपा और लिबरेशन ब्रांड के “कम्युनिस्ट” यही कुछ कर रहे हैं। लोगों में काम के नाम पर ये सरकारी कर्मचारियों के लिए तनख्वाह कमीशन की सिफारिशों को लागू करवाने, मजदूर इलाकों में फैक्ट्री मालिकों के लिए दलाली करने, हर साल-छमाही के बाद देश स्तरीय हड़ताल का ‘स्टेज-शो’ करने, साम्प्रदायिकता विरोध के नाम पर काँग्रेस तथा अन्य बुर्जुआ पार्टियों से मिलकर ‘साझा मोर्चा’ बनाने और कभी-कभी काँग्रेस से दूर होकर ‘तीसरा मोर्चा’ बनाने का नाटक करने और बुर्जुआ राजनीति की तरह घटिया संसदीय जोड़-तोड़ करके वोटों का जुगाड-पानी करने के सिवा कुछ नहीं करते। आम लोगों को शिक्षित करने, राजनीतिक चेतना देने और इस काम के लिए प्रचार करने का काम न तो इन्होंने किया है और न ही भविष्य में इसकी कोई संभावना है क्योंकि अब ये क्रान्ति से उतना ही दूर हैं जितना गंदे पानी में उगी हुई ‘जलकुंभी’ से खुशबू।
हमें समझ लेना चाहिए कि फ़ासीवाद का मुकाबला इंडिया गेट पर या शहर के किसी खास चौक पर दो चार मोमबत्तियाँ जलाकर, “मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना” जैसे उपदेशों से, साल-दो साल बाद सेमिनार, गोष्ठी, मुशायरा करके, तनख्वाहों-उजरतों में बढ़ोतरी की लड़ाईयाँ लड़कर नहीं होगा और न ही फ़ासीवादी दानव ‘इसको गुस्सा न करें’, ‘इसको मत ही छेड़ो’ जैसी बिल्ली को देख कर कबूतर के आँख बंद कर लेने जैसी डरपोक किस्म की सुरक्षात्मक हरकतों से पीछे हटने वाला है क्योंकि फ़ासीवादी गुंडे जब दस्तक देंगे तो वह नहीं सुनने वाले कि ‘हम ने तो कभी आप के विरुद्ध कुछ नहीं कहा’, हाँ वो ऐसी कायरता पे हँसेगे ज़रूर। फ़ासीवाद के मुकाबले के लिए इसके उभार के कारणों को समझते हुए लोगों में लगातार, घना और तीखा प्रचार करना होगा। फ़ासीवादियों के इतिहास और वर्तमान से संबंधित हर झूठ को नंगा करना होगा और साथ ही पूँजीवाद के आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक ढांचे के तार-तार को उधेड़ कर लोगों के सामने इसे नंगा करना होगा। फ़ासीवाद के असल एजेंडे के बारे में लोगों का भ्रम तोड़ना होगा और उन्हें इसके बौद्धिक और सांस्कृतिक हमले का मुकाबला करने के लिए ज़रूरी ज्ञान और चेतना से लैस करना पड़ेगा। इस के लिए लगातार पर्चे, पैम्फ्लेट बाँटना, सेमिनार, गोष्ठियों, सभाओं का आयोजन करना, इतिहास और वर्तमान से संबंधित फ़ासीवादी झूठों को बेनकाब करते लेखों को लोगों की भाषा में उन तक पहुँचाना, नाटक, फिल्मों और गीत-संगीत के जरिए लोगों को फ़ासीवाद के कारनामों से रूबरू करवाना होगा। ऐसा समाज के हर तबके में जाकर करना होगा। लोगों की आर्थिक और राजनीतिक लड़ाई की अगुवाई और सुधार कामों से फ़ासीवादियों को बाहर करना होगा तथा लोगों को फ़ासीवाद के खिलाफ सड़कों पर होने वाली लड़ाई के लिए तैयार करना होगा। समाज के नौजवानों, बुद्धिजीवियों, कलाकारों, लेखकों को इस ऐतिहासिक जिम्मेदारी को समझते हुए लोगों के बीच जाना, उन के साथ एक होने की हिम्मत करनी पड़ेगी। साथ ही यह समझ लेना भी ज़रूरी है कि मजदूर वर्ग की शक्तिशाली एकता के बगैर फ़ासीवाद का प्रभावशाली तरीके से मुकाबला करना संभव नहीं है, इसलिए मजदूर वर्ग को सचेत करना तथा इसकी एकता कायम करना फ़ासीवाद के खिलाफ लड़ाई में फैसलाकुन भूमिका निभाएगा। अगर समाज को आगे ले जाने वाली ताक़तें सही समय तक अपनी ताक़त जुटा लेती हैं, सही रणनीति तैयार कर लेती हैं तो फ़ासीवाद के लिए आगे बढ़ना इतना आसान भी नहीं होगा और उसकी हार की संभावनाएं बढ़ जाएँगी, नहीं तो वही होगा जिसकी चेतावनी हिटलर के जमाने में जर्मनी के एक पादरी पास्टर निमोलर ने दी थी-
पहले वे यहूदियों के लिए आए
मैं कुछ नहीं बोला
क्योंकि मैं यहूदी नहीं था
फिर वे ट्रेडयूनियन वालों के लिए आए
मैं कुछ नहीं बोला
क्योंकि मैं ट्रेड यूनियन में नहीं था
फिर वे कम्युनिस्टों के लिए आए
मैं कुछ नहीं बोला
क्योंकि मैं कम्युनिस्ट नही था
फिर वे मेरे लिए आए
और तब तक कोई नहीं बचा था
जो मेरे लिए बोलता…….
वे फिर आ रहे हैं। फ़ासीवादी सक्रिय हैं।
* फ़ासीवाद- एक राजनीतिक रुझान जो पूँजीवाद के व्यापक संकट के समय में पूँजीवादी देशों में उभरा और जिसने साम्राज्यवादी बुर्जुआजी की सब से पिछलग्गू और हमलावर शक्तियों के हित प्रकट किये। सत्ता में आया फ़ासीवाद इन ताक़तों की एक खुल्लमखुल्ला आतंकी तानाशाही होता है। फ़ासीवाद की विशेषता हद दर्जे का अन्धराष्ट्रवाद, नस्लवाद और कम्युनिज्म विरोध होता है। जनवाद की तबाही, सामाजिक दंभ का विशाल पैमाने पर प्रदर्शन और नागरिकों के जनतांत्रिक तथा निजी जीवन पर अत्यंत सख्त नियंत्रण होता है। फ़ासीवाद की विदेश नीति प्रसार और हमलावर जंगों की नीति होती है। पहली फ़ासीवादी हुकूमत 1922 में इटली में आई थी। फ़ासीवादी 1933 में जर्मनी में और 1939 में स्पेन में सत्ता में आए। हमारे देश में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इस रुझान का प्रतिनिधित्व करता है।
मज़दूर बिगुल, अक्टूबर 2013
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