रैनबैक्सी मामला कम गुणवत्ता वाली और नकली दवाओं के कारोबार की एक छोटी-सी झलक है!
डा. अमृत
भारत की दो दवा कम्पनियाँ बीते दिनों में मीडिया में चर्चा का विषय बनी रहीं। सर्वप्रथम भारतीय मूल की किन्तु अब जापानी कम्पनी के प्रबन्ध तले चल रही कम्पनी ‘रैनबैक्सी’ तब चर्चा में आई जब इस कम्पनी को कई करोड़ अमेरिकी डॉलरों का जुर्माना हुआ और इसके कामकाज पर कई सवाल उठे। इसके पश्चात एक अन्य बड़ी भारतीय कम्पनी ‘वोकहार्ड’ का मामला खड़ा हो गया। इस कम्पनी के एक प्लांट को अमेरिकी दवा कण्ट्रोल एजेंसी एफ.डी.ए. की तरफ से चेतावनी मिली और साथ ही ब्रिटेन की तरफ से इस कम्पनी के 16 उत्पादों पर गुणवत्ता की कमी को लेकर अपने देश में प्रतिबन्ध लगाने का मामला भी गरमाया रहा। इन मामलों के प्रकाश में आने पर जहाँ सरकार एवं कुछ अन्य पक्षों ने कुछ सरगर्मी दिखलाई है, वहीं इसने भारत और समस्त दुनिया में होते दवाओं के कारोबार में कम गुणवत्ता वाली और नकली दवाओं के मसले को भी छेड़ा है। कम गुणवत्ता वाली (सब-स्टैण्डर्ड) दवाएँ वह होती हैं जिनमें दवा की मात्र निर्धारित मात्रा से कम होती है अथवा उनका रासायनिक सूत्रीकरण इस प्रकार का होता है कि उसकी शरीर के भीतर कार्य करने की क्षमता कम हो जाती है। दूसरी ओर नकली दवाएँ वह होती हैं जिनमें गोलियाँ, कैप्सूल अथवा टीकों में वास्तव में दवाई होती ही नहीं, दवाई की जगह चाक-पाउडर, पानी या महँगी दवाई के स्थान पर सस्ती दवाई का पाउडर मिला दिया जाता है। इसके अलावा समाप्त अवधि वाली (एक्सपायर्ड) दवाओं को पुनः पैक करने का धन्धा भी होता है।
‘रैनबैक्सी’, पहले भारतीय मूल के पूँजीपतियों के स्वामित्व वाली कम्पनी थी और 2008 में इस कम्पनी को जापानी फार्मा कम्पनी ‘दायची सैंक्यो’ ने खरीद लिया था। यह दुनिया की बड़ी दवा कम्पनियों में से एक है और हर वर्ष अरबों रुपये की दवाओं की बिक्री करती है। इसकी दवाओं के खरीदारों में अफ्रीका, लातिन अमेरिका के पिछड़े देशों से लेकर अमेरिका जैसे विकसित मुल्क तक सम्मिलित है। जिस मुद्दे के कारण रैनबैक्सी पिछले दिनों चर्चा में रही, वह था घटिया गुणवत्ता की दवाएँ बेचने का मामला। यह मामला 2005 में तब सामने आया जब रैनबैक्सी में काम करते हुए एक इंजीनियर ने गोपनीय रूप में कई देशों के अधिकारियों को रैनबैक्सी द्वारा की जा रही घपलेबाज़ी के सम्बन्ध में ई-मेल के माध्यम से सूचित किया। अमेरिकी दवा कण्ट्रोल एजेंसी ने इस सूचना के आधार पर छानबीन शुरू की तो बड़ा घोटाला सामने आया। रैनबैक्सी द्वारा अपनी दवाइयों की गुणवत्ता और उत्तमता दिखाने का लिए नकली टेस्ट, नकली रिकार्ड और कागज़ात पेश किये जाते थे और इनके आधार पर अपनी दवाओं को बेचने के अधिकार हासिल किये जाते थे। 2008 में रैनबैक्सी पर मुकदमे की शुरुआत हुई और अब जाकर इस कम्पनी को 50 करोड़ डॉलर का जुर्माना हुआ है जो कि किसी जेनेरिक दवाएँ बनाने वाली कम्पनी को अब तक का सबसे बड़ा जुर्माना है। देखने में प्रतीत होता है कि आखिर इंसाफ हुआ! मगर अन्दर की कहानी कहीं अधिक पेचीदा है।
जाली टेस्ट करने और जाली रिकार्ड पेश करने के पीछे असल में मुनाफे की अन्धी दौड़ है जिसमें जीतने के लिए पूँजीपति किसी भी हद तक जा सकता है, कानून और मानवता मुनाफे के समक्ष कहीं नहीं टिकते। अमेरिका में किसी दवाई का जेनेरिक उत्पाद बेचने के लिए उस दवाई का पेटेंट रखने वाली कम्पनी को अमेरिकी दवा कंट्रोल एजेंसी की शर्तें पूरी करना अनिवार्य है, और जो कम्पनी सबसे पहले यह कर दिखाती है उसको अमेरिकी दवा बाज़ार में पहले छह महीने तक अपना जेनेरिक उत्पाद बेचने का एकाधिकार मिल जाता है। जेनेरिक उत्पाद का एकाधिकार होने के कारण कम्पनियाँ अपने उत्पाद की कीमत अक्सर पेटेंट ब्रांड की कीमत से थोड़ा ही कम यानी कीमत का 80 प्रतिशत तक रखकर मोटा मुनाफा कमाती हैं। छह महीने का एकाधिकार हासिल करने के लिए कम्पनियों में अन्धी दौड़ लगी रहती है क्योंकि छह महीने का समय बीतने के बाद जब दूसरी कम्पनियों के उत्पाद मंडी में पहुँच जाते हैं तो जेनेरिक उत्पादों की कीमत पेटेंट ब्रांड की कीमत का 5-10 प्रतिशत रह जाती है, नतीजतन मुनाफा भी हो कम जाता है। रैनबैक्सी छह महीने का एकाधिकार हासिल करने में ‘स्पेशलिस्ट’ हो गयी थी और उसने यह ‘विशेषज्ञता’ हासिल की अपनी कम गुणवत्ता की दवाओं को नकली टेस्ट और नकली रिकार्डों के द्वारा उत्तम गुणवत्ता की दवाओं के तौर पर पेश करके। केवल एक दवाई के लिए छह महीने का एकाधिकार हासिल करके रैनबैक्सी 50 करोड़ अमरीकी डॉलर से ज़्यादा की कमाई कर लेती है, और यह केवल अमेरिकी मण्डी में बिक्री करके ही। अमेरिका में अनुमति मिलने के आधार पर उसने अन्य देशों में कितनी कमाई की होगी, यह अलग है। पूरे सबूत सामने आने पर रैनबैक्सी ने घपलेबाज़ी कबूल कर ली और 50 करोड़ डॉलर जुर्माना अदा करना स्वीकार किया, किन्तु इससे रैनबैक्सी को कोई विशेष फर्क नहीं पड़ेगा चूंकि वह इससे कई गुना अधिक की कमाई पहले ही कर चुकी है। दूसरी बात, इस निर्णय में रैनबैक्सी के किसी भी मालिक अथवा प्रबन्धक को अपराधी या ज़िम्मेदार नहीं ठहराया गया और उनके खि़लाफ़ कोई भी कार्रवाई नहीं हुई है, जैसे यह धूर्तता कम्पनी की मशीनों ने की हो! ऊपर से सितम यह कि अमरीकी दवा एजेंसी रैनबैक्सी की जाँच-पड़ताल भी करती रही और इस दौरान रैनबैक्सी को उसके उत्पादों की बिक्री के अधिकार भी प्रदान करती रही! भारत सरकार इससे भी आगे है! रैनबैक्सी के खिलाफ जाँच शुरू करने की बजाय सरकार कम्पनी के बचाव में उतर आयी है और सरकार के मंत्री सीना ठोक कर बयान दे रहे हैं कि रैनबैक्सी की दवाएँ और भारत में बनने वाली सम्पूर्ण दवाएँ श्रेष्ठ गुणवता की हैं। असल में सरकार को कम्पनियों के मुनाफे की ज़्यादा फिक्र है और आम लोगों की कम। रैनबैक्सी मामला सामने आने पर भारतीय कम्पनियों के उत्पाद संदिग्धता के दायरे में आने से इनकी माँग घटने का ख़तरा है, इसलिए कम्पनियों के ‘बिज़नेस’ को किसी सम्भावित नुकसान से बचाने के लिए भारत सरकार यह घटिया खेल खेल रही है।
रैनबैक्सी का मामला कोई इक्का दुक्का मामला नहीं है। यह तो “जो पकड़ा गया, वह चोर अन्य दूध धुले” वाली बात है, यदि कोई गम्भीर जाँच-पड़ताल आरम्भ की जाये तो और बहुत कुछ सामने आने की सम्भावना है। गत एक वर्ष की कुछ घटनाएँ ही इस मानवता विरोधी कारोबार की सीमा बता देती हैं। अफ्रीकी देश नाईजीरिया इस महाद्वीप के अन्दर दवाओं की सबसे बड़ी मण्डी के तौर पर उभरा है। इसी वर्ष जून के महीने “मेड इन इंडिया” के ठप्पे वाली एंटीबायोटिक दवाओं की एक खेप वहाँ के अधिकारियों ने ज़ब्त की जिसमे “दवाई” थी ही नहीं। इसी तरह पिछले साल भी मलेरिया के इलाज में इस्तेमाल होने वाली दवाओं की बड़ी खेप की जिसमे “दवाई” थी ही नहीं, नाईजीरिया में स्पीकरों में पैक कर तस्करी होती हुई पकड़ी गयी थी जिस पर भी “मेड इन इंडिया” का ठप्पा लगा हुआ था। सर्वेक्षणों के अनुसार भारत में भी मलेरिया के इलाज में इस्तेमाल होने वाली दवाओं में 7 प्रतिशत से ऊपर नकली हैं। गत वर्ष, श्रीलंका ने भी भारत से दवाएँ प्राप्त करने पर कुछ प्रतिबन्ध लगाये हैं क्योंकि कई खेपों में ऐसी दवाएँ पकड़ी गयीं जिनमे “दवाई” थी ही नहीं। ऐसा नहीं है कि कम गुणवत्ता वाली और नकली दवाओं का मामला भारत तक ही सीमित है। वर्ष 2012 में, लाहौर (पाकिस्तान) में हृदय रोगों की राष्ट्रीय संस्था में नकली दवाओं का मामला उस समय प्रकाश में आया जब वहां इलाज करवा रहे 100 से अधिक मरीजों की अचानक मृत्यु हो गयी। जाँच में सामने आया कि इस संस्था में इलाज के लिए इस्तेमाल होने वाली कुछ दवाएँ नकली हैं और कुछ दवाओं में पत्ते के ऊपर लिखी दवा की जगह कुछ और ही दवाएं हैं। गत 3.4 वर्ष के भीतर अमेरिका, ब्रिटेन, चीन एवं अन्य अफ्रीकी देश जैसे तंजानिया में कम गुणवत्ता की या नकली दवाओं के मामले तथा इन दवाओं के कारण लोगों की मृत्यु के विभिन्न मामले समक्ष आये हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार दुनिया भर में घटिया या नकली दवाओं का कारोबार 2010 में 75 अरब अमेरिकी डॉलर था जो 2005 के मुकाबले दोगुना था। कुछ अन्य स्रोतों के अनुसार, यह कारोबार अब 200 अरब डॉलर सालाना तक पहुँच चुका है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार दुनिया भर में कुल बिक रही दवाओं का 10 प्रतिशत से अधिक नकली या घटिया दवाओं का है, विकासशील देशों में चूँकि दवाओं की गुणवत्ता नियंत्रण हेतु प्रशासनिक और कानूनी प्रबन्ध या तो है ही नहीं या बहुत ही कमज़ोर होते हैं (भारत भी इन्ही देशों में आता है), यह बढ़कर 25 प्रतिशत तक पहुँच जाता है और बहुत ही पिछड़े हुए देशों में जिनमे अफ्रीकी देश शामिल हैं, यह हिस्सा भयानक हद तक बढ़कर 50 प्रतिशत तक पहुँच जाता है। भारत में हुए विभिन्न सर्वेक्षणों के अनुसार 12.25 प्रतिशत दवाइयाँ या तो नकली हैं या कम गुणवत्ता वाली हैं। मगर भारत के सरकारी आंकड़े देखिये!! भारत की दवा नियंत्रण संस्था के अनुसार नकली दवाओं का प्रतिशत मात्र 0.4 प्रतिशत है, आश्चर्य की बात यह है कि अमेरिका और यूरोप भी अपने देशों में नकली दवाओं का हिस्सा 1 प्रतिशत से अधिक मानते हैं। वास्तव में भारतीय सरकार अपने पूँजीपतियों की “रैपुटेशन” खराब नहीं होने देना चाहती,
अब इस “बिज़नेस” की मानवीय कीमत भी देखते हैं ताकि समस्या की गम्भीरता और अधिक साफ हो सके। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार हर साल 2,00,000 मौतें नकली या घटिया दवाओं के कारण होती हैं। इस आँकड़े में केवल मलेरिया और टी.बी. रोगों से पीड़ित उन मरीजों की मौतें ही शामिल हैं जिनकी मौत का कारण नकली या घटिया दवाएँ माना जा सकता है। मगर एक अध्ययन ने दिखाया है कि यह आँकड़ा भी ऐसी मौतों को बहुत कम करके देखता है। इस अध्ययन के लेखकों ने दिखाया है कि अकेले मलेरिया और टी.बी. के मामले में ही नकली या घटिया दवाओं के कारण होने वाली मृत्यु की संख्या 7,00,000 है और भी दुःख की बात यह है कि दुनिया भर में मलेरिया के कारण हर साल कुल 10 लाख लोगों की मृत्यु होती है जिसमें से 4.5 लाख घटिया या कम गुणवत्ता वाली दवाओं के कारण होती है। इस आंकडे़ से ही अन्दाज़ा लगाया जा सकता है कि अगर सब रोगों के लिए मौत का आँकड़ा लिया जाये तो नकली या घटिया दवाओं के कारण मरने वालों की संख्या कितनी हो सकती है।
नकली या घटिया दवाओं के कारण होने वाली मृत्यु के कई कारण गिनाये जा सकते हैं। सर्वप्रथम तो मरने वालों को दवाई के नाम पर “दवाई” मिली ही नहीं होती क्योंकि जो गोली या कैप्सूल वह खा रहे होते हैं उसमे दवाई होती ही नहीं। दूसरी बात, गोली या कैप्सूल में दवाई की मात्रा पत्ते पर उल्लिखित मात्र से बेहद कम होती है नतीजतन वह दवाई रोग को ठीक करने में कारगर नहीं रहती। तीसरा, पत्ते पर उल्लिखित दवाई की बजाये अन्य दवाई होने के कारण जो बुरे प्रभाव सामने आते हैं, वह भी मृत्यु की वजह बनते हैं। चौथा कारण भी एक विशेष कारण है चूंकि यह निकट भविष्य में मानवजाति तथा चिकित्सा विज्ञान के समक्ष एक बड़ी चुनौती बन सकता है, विशेषतया बैक्टीरिया आदि के कारण होने वाले संक्रामक रोगों के मामले में। बैक्टीरिया निरन्तर किसी दवाई के सम्पर्क में आने के कारण उस दवाई के खिलाफ सुरक्षा कवच विकसित कर लेते हैं और समय के साथ वह दवाई उस बैक्टीरिया को मारने या काबू करने में असमर्थ हो जाती है। यह वाकया तब अधिक तीव्रता से घटित होता है जब दवाई की निश्चित मात्र से कम मात्र इस्तेमाल की जाती है। वास्तव में कम मात्र में एंटीबायोटिक दवाओं का इस्तेमाल इन दवाओं के नाकाम होने के मुख्य कारणों में से है। घटिया दवाओं का एक बड़ा हिस्सा इस प्रक्रार का होता है जिसमे दवा तो सही होती है किन्तु उसकी मात्रा तय किये पैमाने से बेहद कम होती है। अतः इस प्रकार की दवाई बैक्टीरिया आदि पर असर करने में नाकाम रहती है, किन्तु बैक्टीरिया आदि जीवाणुओं के द्वारा सुरक्षा कवच विकसित करने हेतु अधिक अनुकूल वातावरण पैदा करती है। फिर जब इस प्रकार के बैक्टीरिया आदि का संक्रमण किसी मनुष्य को प्रभावित करता है तो उस पर पहले प्रभावी ढंग से काम करती दवाएँ भी निष्प्रभावी हो जाती हैं।
अक्सर यह कहा जाता है कि इस कारोबार को रोकने के लिए सख़्त क़ानून नहीं हैं, इसलिए तीसरी दुनिया के देशों में नकली दवाओं का कारोबार विकसित देशों से अधिक फल-फूल रहा है। यह बात सही है कि सख़्त क़ानूनों की बहुत सारे देशों ख़ासकर अफ्रीकी मुल्कों में कमी है पर क़ानूनों का हाल हम भारत में रोज़ देखते हैं। कुछ लोगों और बुद्धिजीवियों का ख़्याल है कि कड़े क़ानून बने और लागू हों तो इस कारोबार को रोका जा सकता है, आखिर अमेरिका, ब्रिटेन और अन्य विकसित यूरोपीय देशों में भी यह धन्धा उतने ही बड़े स्तर पर नहीं फैला है जितना हमारे देशों में फैला हुआ है और इसका कारण वह “कड़ा क़ानून” समझते हैं। पर यह एकदम कल्पित और “दूर के ढोल सुहाने” वाली बात है और साथ ही यह विकसित देशों और तीसरी दुनिया के देशों के ऐतिहासिक विकास में अन्तर और मौजूदा संसार पूंजीवादी ढाँचे के भीतर उनकी स्थिति की तरफ से आँखें मूँद के सोचना है। विदेशी और देशी पूंजी के गठजोड़ की लूट के शिकार इन देशों में कठोर क़ानून बनने भी मुश्किल है, और अगर बन भी जाते हैं तो ऐसे क़ानूनों का लागू होना मुश्किल ही नहीं, लगभग ना-मुमकिन है। अमेरिका जैसे विकसित देशों में भी क़ानून और नियामक संस्थाएं कितना प्रभावी काम करती हैं, यह रैनबैक्सी मामले ने ही स्पष्ट कर दिया है।
फिर यह कहा जाता है कि जनता में जागरूकता का अभाव है। यह बात भी ऐसे ही है, चाहे जितनी भी जानकारी किसी के पास हो, नकली या घटिया दवाओं का कारोबार इतनी “विकसित तकनीक” के साथ होता है कि बेहद जानकार व्यक्ति ही नकली दवाओं को पकड़ सकता है, और बहुत हद तक तो यह प्रयोगशाला में परीक्षण के द्वारा ही सम्भव हो सकता है। कुछ कम्पनियों ने “होलोग्राम” बनाकर अपनी दवाओं की पहचान अलग करने का प्रयास किया मगर “व्यवसायियों” ने होलोग्राम बना लिये। दवाओं के पत्ते बनाना तो खैर कोई बड़ा मुद्दा है नहीं। दूसरी बात, यदि आम लोगों में जानकारी का अभाव है तो इसका अर्थ यह नहीं कि उनको लूटा जाये, उनके साथ जालसाज़ी की जाये। यह सब केवल निजी सम्पत्ति और मुनाफे की बुनियाद पर आधारित ढाँचे में ही सोचा जा सकता है। अन्य कुछ लोगों का मानना है कि दवाओं की माँग अधिक है और ब्रांडेड दवाओं की कीमत अधिक है जिस कारण लोग सस्ती दवाओं की तलाश में घटिया और नकली दवाओं के चक्कर में आ जाते हैं। यह बात ठीक है, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि ब्रांडेड दवाओं वाले लूटते नहीं है, लूटते दोनों ही हैं, और दूसरा यह प्रश्न भी पूछा जाना चाहिए कि दवाओं के दाम इतने अधिक होते ही क्यों हैं? यह भी कहा जाता है कि सरकारी सप्लाई न होने के कारण लोगों को बाहर से दवाई खरीदनी पड़ती है जिस कारण वह नकली और घटिया दवाओं के जाल में फँस जाते हैं। किन्तु एक बार फिर यह सवाल गोल कर दिया जाता है कि सरकारी सप्लाई क्यों नहीं है? कुछ अन्य लोगों के कहना है कि नकली दवाई बनाने के लिए बड़े कारखाने या स्थान की आवश्यकता नहीं होती, लागत भी कम होती है और मुनाफा घना होता है, अत: नकली और घटिया दवाओं का कारोबार बढ़ता-फूलता है। एक और बड़ा ही दिलचस्प कारण यह है कि नकली और घटिया दवाओं के बढ़ने-फूलने के पीछे। अक्सर बहुत से रोग ऐसे होते हैं जिनको शरीर के रोग-विरोधी सुरक्षा ढाँचे ने स्वयं ही ठीक कर लेना होता है और दवाओं की आवश्यकता नहीं पड़ती। इसके अलावा आम वायरल बुखार में जीवाणुनाशक दवाओं की आवश्यकता नहीं होती। ऐसे मामलों में कम गुणवत्ता वाली या नकली दवाएं बगैर किसी हानि के दी जा सकती है क्योंकि उनकी वैसे ही कोई आवश्यकता नहीं होती और कमाई भी अच्छी करवा देती हैं। यह सब बातें अपनी जगह ठीक हैं, किन्तु इनकी बुनियाद क्या है? इस सवाल पर आकर सब मैगजीन, अखबार, मौन धारण कर लेते हैं क्योंकि इसके बाद उँगली पूँजीवादी आर्थिक ढाँचे पर उठती है और सम्पूर्ण विश्लेषण का हल्कापन तथा खोखलापन सामने आ जाता है।
सरकार इस कारोबार को रोकने का कोई प्रयत्न करेगी, इसकी कोई भी उम्मीद किसी होशमन्द व्यक्ति को शायद ही हो। भारत में 3200 दवा निरीक्षकों (इंस्पेक्टरों) की आवश्यकता है जबकि मौजूदा समय में केवल 846 दवा निरीक्षक हैं। जो हैं भी उनमे से कितने पूर्ण ईमानदारी से अपना काम करते होंगे, भारत की मौजूदा परिस्थितियों में फैले भ्रष्टाचार के जाल को देखते हुए समझा ही जा सकता है। आँकड़ों को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करना, समस्या को घटाकर पेश करना और जब बिलकुल ही मामला बिगड़ता हुआ प्रतीत हो (जैसे रैनबक्सी मामला) तो खुले आम कम्पनियों की पक्ष लेना, यही है जो सरकार कर सकती है। जन पक्षधर संगठनों द्वारा इस कारोबार का सच जनता तक लेकर जाना, तथा इसका हर तरीके से विरोध करना लाजमी है किन्तु जिस तबके की तरफ से इस कारोबार की सच्चाई का पर्दाफाश और विरोध सर्वप्रथम होना चाहिए वह है डॉक्टरों का तबका, किन्तु यह तबका धूर्त मौन धारण किये बैठा है। डॉक्टरों के लिए यह केवल आम लोगों की जिन्दगियों से खिलवाड़ का ही मसला नहीं है (निस्सन्देह यह सबसे महत्वपूर्ण है) उनके लिए तो यह विज्ञान की सुरक्षा का मामला भी है चूंकि जैसा कि हमने ऊपर जिक्र किया है, नकली और घटिया दवाओं से चिकित्सा विज्ञान की हासिल की गई उपलब्धियों के मिटटी में मिल जाने का खतरा खड़ा हो गया है । दूसरी बात, यह विज्ञान के प्रति समर्पण और सच्चाई की बात है, विज्ञान से जुड़ा कोई भी व्यक्ति विज्ञान के नाम पर आम लोगों से खिलवाड़ कैसे बर्दाश्त कर सकता है? किन्तु अफसोस इस बात का है कि जिस विज्ञान पर आश्रित रहकर यह डॉक्टर तबका अपने महल खड़े करता है, लम्बी लक्जरी गाड़ियों में घूमता है, उसकी रक्षा हेतु कुछ करना तो दूर बहुत हद तक वह इस काले कारोबार में हिस्सेदार बने हुए हैं। अधिकतर डॉक्टरों के लिए तो यह एक धन्धा, एक व्यापार है और इस व्यापार से जुटायी हुई दौलत से वह कई अन्य “व्यापार” चला चुके हैं। सम्भावना भी यही है कि यह तबका कुछ करेगा भी नहीं, और आज के ऐतिहासिक मुकाम पर आकर विज्ञान की रक्षा की जिम्मेदारी भी श्रमिक वर्ग ही उठाएगा। हाँ, इस डॉक्टर तबके में से कुछ प्रबुद्ध, संवेदनशील आत्मा वाले लोग अवश्य इस कार्य हेतु आगे आयेंगे।
मज़दूर बिगुल, सितम्बर 2013
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