अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में धुर-दक्षिणपंथी डोनाल्ड ट्रम्प की अन्तरविरोधों से भरी जीत के राजनीतिक मायने

विवेक

बीते 7 नवम्बर को जब अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के नतीजे सामने आए और ट्रम्प विजेता घोषित हुआ, तब 2016 की उसकी पिछली जीत की तरह यह उतना अप्रत्याशित नहीं था।  7 नवम्बर को जब चुनाव परिणाम घोषित हुए तो, इन सारी अटकलों पर विराम लग गया कि इन चुनावों में क़रीबी मुक़ाबला होगा। ट्रम्प ने यह चुनाव एकतरफ़ा ही जीता। अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में डोनाल्ड ट्रम्प की जीत से पश्चिम का उदारवादी पूँजीवादी तबका आश्चर्यचकित व कुछ दुखी ज़रूर है। पश्चिमी उदारवादी अकादमिशियनों और बुर्जुआ राजनीतिक विश्लेषकों के एक हिस्से के लिए यह प्रश्न बना हुआ है कि जब अमेरिकी अर्थव्यवस्था में “बाइडेनॉमिक्स” (अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन की आर्थिक नीतियों के लिए दिया गया नाम) के कारण शेयर बाज़ार में वृद्धि देख रही है और बेरोज़गारी दर तथा महँगाई दर में कमी आई है, तब क्यों डेमोक्रेटिक पार्टी सत्ता में वापसी नहीं कर पायी? ऐसे विश्लेषक ट्रम्प की जीत और इन अन्तरविरोधों के कारणों को सतही परिघटनाओं जैसे ट्रम्प का ख़र्चीला प्रचार अभियान, डेमोक्रेटिक पार्टी के ढीले रवैये आदि में देखते हैं। ऐसे विश्लेषक जो अस्मितावादी चिन्तन से प्रभावित है, वे इस बात से अचम्भित है कि आख़िर काले व अन्य एथनिक अल्पसंख्यक मतदाताओं के बीच ट्रम्प का मत प्रतिशत कैसे बढ़ा? वर्ग विश्लेषण के अभाव में वे इन सवालों के उत्तर नहीं ढूँढ पा रहे हैं। इस लेख में हम ट्रम्प की जीत के कारणों की पड़ताल वर्ग विश्लेषण के मार्क्सवादी उपकरण के ज़रिये करने का प्रयास करेंगे। 

डेमोक्रेटिक पार्टी का घटता जनाधार

राष्ट्रपति चुनाव की प्रक्रिया में ही दिखने लगा था कि उदारवादियों की चहेती डेमोक्रेटिक पार्टी अपनी पकड़ खो रही थी। राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के लिए भी ऊहापोह की स्थिति बनी रही और अन्त  में कमला हैरिस को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया गया। लेकिन, प्रचार के शुरुआती चरणों में लगे झटकों से उबरकर जनता को रिझाने के लिए अपनी तथाकथित उपलब्धियों को खूब प्रचारित किया। डेमोक्रेटिक पार्टी इस बात का बार-बार प्रचार करती रही कि उसके कार्यकाल में कोरोना काल के बाद जो मुश्किल परिस्थितियाँ उत्पन्न हुई थी, उन पर सफलतापूर्वक काबू पाया गया। इसमें कोई दो राय नहीं थी कि, कोरोना काल के बाद के दौर में अमेरिकी अर्थव्यवस्था 2008 के मन्दी के बाद के सबसे बड़े संकट वाले दौर से गुजर रही थी। जो बाइडेन ने इसी समय राष्ट्रपति का पद सँभाला, जब महँगाई व बेरोज़गारी लगतार बढ़ रही थी। वर्ष 2022 के जून माह में अमेरिका में महँगाई दर 9 फीसदी को पार कर चुकी थी। वर्ष 2020 के अप्रैल माह में क़रीब 2 करोड़ लोगों के रोजगार छिन गए थे। इस समय बेरोज़गारी दर 13 फ़ीसदी तक पहुँच चुकी थी। इन समस्याओं से निपटने के लिए अमेरिका रेस्क्यू प्लान के जरिये क़रीब 1.9 ट्रिलियन डॉलर ख़र्च किए गए। इसके कारण 2024 आते आते, महँगाई दर 3 फीसदी और बेरोज़गारी दर 4 फीसदी रह गयी। अमेरिका के स्टॉक मार्केट की हालत भी तेज़ी से सुधरी, बड़े निवेशकों का मुनाफ़ा भी बढ़ा। यह दीगर बात है, कि 1.9 ट्रिलियन डॉलर के पैकेज की राशि अमेरिकी साम्राज्यवाद द्वारा दुनिया भर के देशों से निचोड़े गए अधिशेष के कारण सम्भव हो पायी थी और यह रिकवरी भी दीर्घकालिक मन्दीं में एक छोटा-सा दौर था जब राज्यपोषित वित्तीय सहायता और सट्टेबाज़ी से कुछ देर के लिए कुछ राहत मिली थी।

इस बचाव योजना (बाइडेनोमिक्स!) की कुछ हद तक सफलता के बावजूद भी खाद्यान्नों की कीमत का संकट बना रहा। बाइडेन के कार्यकाल के शुरू होने के बाद से अब तक खाद्यान्न की कीमतों में क़रीब 22 फीसदी तक इज़ाफ़ा हुआ है। खाद्यान्न की बढ़ी हुई कीमतों का असर अन्य ज़रूरी सेवाओं पर भी पड़ा है। जिस स्तर से खाद्यान्नों की कीमत बढ़ी है, उसके सापेक्ष में औसत अमेरिकी के वेतन की वृद्धि कम ही रही  है। परिणामस्वरूप, अमेरिका में कॉस्ट ऑफ लिविंग (जीवन जीने का औसत ख़र्च) इस हद तक बढ़ गयी है कि अमेरिकी निम्न मध्यमवर्गीय और मध्यमवर्गीय परिवारों के लिए मुश्किल भरे हालात पैदा हो गए है। जिसके कारण निम्नमध्यम वर्गीय आबादी के बीच डेमोक्रेटिक पार्टी की साख कम हुई। यानी जो आर्थिक सुधार होता दिखा था, वह केवल अमेरिका के बड़े वित्तीय पूँजीपतियों के लिए था और वह भी दिखावटी ज्यादा था और उत्पादक अर्थव्यवस्था  में कम।

ट्रम्प की वापसी के कारण

बुर्जुआ राजनीतिक विश्लेषकों द्वारा ट्रम्प के राष्ट्रपति चुनाव के लिए दोबारा उम्मीदवार बनने की सम्भावना 2020 में उसके कार्यकाल के ख़त्म होने के बाद से कम ही बतायी जा रही थी। ट्रम्प पर विभिन्न अपराधिक मामले चल रहे थे, कुछ में तो उस पर आरोप सिद्ध हो चुके थे।  उसका पिछला कार्यकाल भी विवादों से भरा हुआ था। अपने पिछले कार्यकाल में ट्रम्प अपने मुस्लिम-विरोधी, नस्लभेदी एवं आप्रवासन-विरोधी एजेण्डा  के कारण सुर्खियों में रहा, इससे अमेरिकी आबादी के एक हिस्से में उसकी लोकप्रियता पर भी असर पड़ा। साथ ही, अमेरिका के कानूनी प्रवासी, जो वहां की आबादी का एक बड़ा हिस्‍सा हैं, वो भी इस प्रवासी-विरोधी एजेण्डे  से नाख़ुश थे। अमेरिका के पूँजीपति वर्ग के बीच भी ट्रम्प की छवि ऐसा राजनेता की थी, जो काफी अस्थिर है और जिसे नियन्त्रित कर पाना आसान नहीं है। इसके अलावा, अमेरिकी पूँजीपति वर्ग के साम्राज्यवादी हितों की रणनीतिक सोच के दायरे में ट्रम्प उनके लिए सबसे उपयुक्त  उम्मीदवार नहीं था। अपने बड़बोलेपन के कारण अमेरिका की शहरी आबादी के एक हिस्से के बीच ट्रम्प की छवि गम्भीर राजनेता की नहीं थी। वहाँ के टीवी चैनलों और अखबारों में वह हँसी का पात्र बन चुका था, जिसका एक कारण यह भी है कि अमेरिकी मीडिया व मनोरंजन उद्योग के बड़े हिस्से  पर डेमोक्रैटिक पार्टी के क़रीबियों का कब्ज़ा है। 

ट्रम्प अपने पूर्ववर्ती रिपब्लिकन नेताओं जैसे रोनाल्ड रीगन व जॉर्ज बुश सरीखा दक्षिणपंथी नेता नहीं है। वह रिपब्लिकन पार्टी के धुर-दक्षिणपंथी धड़े की नुमाइन्दगी करता है, पर वह मूलत: व्यवहारवादी धुर-दक्षिणपंथी है। यानी सीधे अर्थों में वह किसी तरह के सिद्धान्त या उसूल से बँधने की बजाय कार्रवाई पर ज़ोर देता है तथा ज़रूरत पड़ने पर किसी भी पद्धति का इस्तेमाल भी करता है। यह दीगर बात यह है कि यह स्वयं भी एक सिद्धान्त है, जिसका पूँजीवादी चरित्र ही है। सम्भवत: यही कारण है कि इस बार के चुनावों में उसने ज़रूरत पड़ने पर अमेरिकी एथनिक व नस्ली अल्पसंख्यकों (जैसे ब्लैक व लातिनी आबादी) को लुभाने का भी प्रयास किया और काफ़ी हद तक इसमें कामयाब भी रहा। उसने अपना सामाजिक आधार श्वेत टुटपुँजिया वर्ग व मज़दूर वर्ग के एक अच्छे-ख़ासे हिस्से के बीच बनाया है। अमेरिकी वोटरों का यह हिस्सा ब्लैक, लातिनी व हिस्पैनिक लोगों और प्रवासियों से पूँजीवादी विचारधारा व राजनीति के प्रभाव के कारण उतनी ही नफ़रत करता है, जितना कि वह अमेरिका के कुलीन अभिजात वर्ग से करता है। इन टुटपुँजिया और मज़दूर वर्ग की आबादी का एक ठीक-ठाक हिस्सा मध्य-पश्चिम (मिड वेस्ट) और पूर्वोत्तर (नॉर्थइस्ट) के इलिनॉय, इण्डियाना, मिशिगन, ओहायो, पेंसिल्वेनिया और विस्कॉन्सिन जैसे राज्यों से आता है जो आज से चार-पाँच दशक पूर्व तक अमेरिका के औद्योगिक उत्पादन केन्द्र थे, लेकिन सस्ते श्रम के दोहन से ज़्यादा मुनाफ़ा कमाने की लोभ में अमेरिकी पूँजीपतियों ने अपनी उत्पादन इकाइयाँ दक्षिण अमेरिका, अफ्रीका व एशिया के देशों में स्थापित कीं, जिसकी वजह से इन राज्यों में उत्पादन का कार्य कम हो गया, फैक्ट्रियाँ बन्द  हो गयीं और उनमें लगे मज़दूर बेरोज़गार और बर्बाद हो गये। इन राज्यों को रस्ट बेल्ट (ज़ंग लगी हुई पट्टी) कहा जाता है।

आज हालात यह कि 1997 के बाद से वैश्विक स्तर पर मैन्युफेक्चरिंग यानी औद्योगिक उत्पादन में अमेरिका की हिस्सेदारी 25% से गिरकर 17% हो गयी है और यह आँकड़ा भी प्रश्नों  के दायरे में है। मैन्युफेक्चरिंग में लगे श्रमिकों की संख्या 1979 में 1.95 करोड़ से घटकर 2023 में मात्र 1.3 करोड़ हो गयी है। रिपब्लिकन पार्टी ने पिछले कुछ सालों में इसी आबादी के बीच अपना आधार बनाया था, जिसने अपने रोज़गार व सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा को खोया था, लेकिन इसके असली कारणों को नहीं समझती थी। यानी वह यह नहीं समझती थी कि इन समस्याओं का कारण पूँजीपतियों की मुनाफ़ाखोरी है, न कि आप्रवासी आबादी। लेकिन ट्रम्प इस क्षेत्र की आबादी को यह विश्वास दिलाने में इस बार सफल रहा कि उनकी बेरोज़गारी और बर्बादी का कारण आप्रवासी हैं। उसने अमेरिका के ग्रामीण इलाकों विशेषकर दक्षिण के राज्यों में भी प्रचार का यही ढर्रा अपनाया। ट्रम्प इन पिछड़े इलाकों में टुटपुँजिया वर्ग, पूँजीवादी फार्मरों और गोरे मज़दूर वर्ग के एक हिस्से का विश्वास जीतने में सफल रहा। उसने लोगों को यह विश्वास दिला दिया कि अगर उसे राष्ट्रपति बना दिया जाये, तो वह इस आप्रवासी आबादी से निपटने की कठोर नीतियाँ बनाएगा और उनको रोज़गार के अवसर देगा। इसका नतीजा हुआ कि रस्ट बेल्ट के राज्यों जैसे विस्कॉन्सिन और ओहियो तथा दक्षिण के राज्यों जैसे  टेक्सास और लुईसियाना में उसे जीत मिली।

ट्रम्प ने पिछली हार से सबक लेते हुए अपने चुनाव प्रचार के दौरान दक्षिणपंथी लोकलुभावन जुमलेबाज़ी के ज़रिये न सिर्फ़ पुराने वोट बैंक को सुदृढ़ किया बल्कि बड़े शातिराना तरीके़ से व्यवहारवादी रुख़ अपनाते हुए काली व लातिनी (दक्षिणी अमेरिका से आये हुए लोग) आबादी के बीच भी उसने थोड़ी ही सही लेकिन पकड़ बनायी। ऐसा उसने कमला हैरिस को अभिजात कुलीन वर्ग के प्रतिनिधि के तौर पर और खुद को अमेरिका के टुटपुँजिया वर्ग के सच्चे प्रतिनिधि के तौर पर स्थापित करके किया।

मतदान के रुझानों को देखकर इस बात को समझा जा सकता है। विभिन्न सूत्रों से आई रिपोर्टों के मुताबिक 2024 में 16 प्रतिशत काले मतदाताओं ने ट्रम्प का समर्थन किया, जो 2020 की तुलना में 8 प्रतिशत से अधिक है। वहीं क़रीब 83 प्रतिशत काले मतदाताओं ने कमला हैरिस का समर्थन किया, जो 2020 की तुलना में क़रीब 9 प्रतिशत कम है। डेमोक्रेटिक पार्टी ने लातिनी मतदाताओं के बीच भी अपनी पकड़ खो दी, 2024 में हैरिस को लातिनी मतदाताओं से क़रीब 56 प्रतिशत वोट मिले जो 2020 की तुलना में 7 प्रतिशत कम थे। दूसरी ओर, लातिनी मतदाताओं से पिछली बार की तुलना में ट्रम्प को 7 प्रतिशत ज़्यादा वोट मिले। काले व अन्य अल्पसंख्यक एथनिक समुदायों से मिलने वाले वोट प्रतिशत में हुए इज़ाफे़ का ही नतीजा था कि ज़्यादातर स्विंग स्टेट्स में रिपब्लिकन पार्टी जीत पायी। अमेरिका के ऐसे राज्य जहाँ न तो रिपब्लिकन पार्टी और न ही डेमोक्रेटिक पार्टी का वर्चस्व है, उन्हें स्विंग स्टेट्स कहा जाता है। अमेरिका में चुनावों का फैसला इन्हीं स्विंग स्टेट्स पर निर्भर करता है। यहाँ, जॉर्जिया राज्य का उदाहरण लिया जा सकता है, जहाँ बड़ी संख्या में काले मतदाता  हैं।  ट्रम्प को 2020 की तुलना में इन मतदाताओं से ज़्यादा वोट मिले हैं, जिससे वह इस राज्य में इस बार जीत पाया।

इसके अतिरिक्त फिलिस्तीन पर ज़ायनवादी इज़रायल द्वारा किए जा रहे नरसंहार पर बाइडेन प्रशासन ने खुलेआम न सिर्फ़ सहमति दी, बल्कि इज़रायल को आर्थिक व सैन्य  सहायता भी दी और पूरी दुनिया में अपने नरसंहारक चरित्र के कारण अकेले पड़े इज़रायल को हर तरह से बचाने और समर्थन देने का काम किया। कमला हैरिस ने उप-राष्ट्रपति रहते हुए इज़रायल के सेटलर उपनिवेशवादी राज्य द्वारा फिलिस्तीानियों के बर्बरतम नरसंहार को सही ठहराया। इससे अरब-अमेरिकी आबादी और प्रगतिशील युद्ध-विरोधी अमेरिकी आबादी डेमोक्रेटिक पार्टी से नाराज़ हो गयी। इन मतदाताओं ने या तो चुनावों से ही दूरी बना ली या फिर डेमोक्रेटिक पार्टी को वोट नहीं किया। नतीजतन, एक अच्छा-ख़ासा हिस्सा जो पारम्परिक तौर पर डेमोक्रेटिक पार्टी का समर्थक रहा था, उससे दूर हो गया और ट्रम्प के खेमे तक में चला गया।

बड़े पूँजीपतियों के अच्छे-ख़ासे हिस्से ने जताया ट्रम्प पर भरोसा

ट्रम्प को इस बार अमेरिका के बड़े पूँजीपतियों का पहले के मुक़ाबले भरपूर समर्थन मिला। यह 2016 व 2020 में  उसके राष्ट्रपति पद के लिए दावेदारी के समय मिले समर्थन से ज़्यादा था। ख़ुद दुनिया का सबसे बड़ा रईस इलॉन मस्क ट्रम्प की दावेदारी के समर्थन में था और न सिर्फ़ उसने ट्रम्प के अभियान को ज़बरदस्त फण्डिंग दी बल्कि ख़ुद भी ट्रम्प के साथ चुनाव प्रचार में शामिल रहा। बड़े पूँजीपतियों के एक हिस्से के द्वारा ट्रम्प को समर्थन देने का एक मुख्य कारण बाइडेन के शासन काल में टैक्स सुधार का मसला भी था। जिससे अमेरिका का बड़ा पूँजीपति वर्ग एक हद तक नाख़ुश था। चुनाव प्रचार के दौरान डेमोक्रेटिक पार्टी व कमला हैरिस द्वारा इन टैक्स सुधारों को जारी रखने की घोषणाएँ की गयी थीं। अपने चुनाव प्रचार के दौरान कमला हैरिस ने कॉर्पोरेट टैक्स 28 फीसदी तक बढ़ाने का वायदा किया था। हालाँकि, यह वायदा अमेरिकी मध्यवर्ग को रिझाने का देर से किया गया प्रयास था और पहले भी डेमोक्रेटिक पार्टी ऐसे वायदों से मुकरती रही है, पर इसने अमेरिकी कॉर्पोरेट पूँजीपतियों के कान खड़े कर दिये थे। क्योंकि ट्रम्प ने 4 वर्षों के अपने शासनकाल में अमेरिकी पूँजीपतियों को सापेक्षिक तौर पर ज़्यादा टैक्स रियायतें दी थीं, हालाँकि वैश्विक टकरावों से अमेरिका को पीछे लेने की ट्रम्प की नीति अमेरिका साम्राज्यवादी पूँजीपति वर्ग को नहीं भाती है। दुनिया भर में युद्ध और हथियारों का निर्यात, कमज़ोर और खोखले हो चुके अमेरिकी आर्थिक वर्चस्व को क़ायम रखने के लिए ज़रूरी है। ट्रम्प की नीति इस मायने में अमेरिकी साम्राज्यवादियों के मन में कुछ संशय पैदा करती रही है।

इसके अतिरिक्त बाइडेन प्रशासन ने जनता के दबाव में अलास्का के बड़े भूभाग में कच्चे तेल के लिए होने वाली ड्रिलिंग पर रोक लगा दी थी। ऐसा अमेरिका में पर्यावरण के सवाल पर हो रहे जनता के आन्दोलनों के दबाव में किया गया। बाइडेन प्रशासन के इस फैसले से तेल की निकासी और इससे सम्बन्धित उद्योगों में निवेश करने वाले पूँजीपति खुश नहीं थे। उनकी नज़रों में बाइडेन व डेमोक्रेटिक पार्टी की छवि कमज़ोर प्रशासक की थी, उन्हें अब एक ऐसे चेहरे की तलाश थी, जो जनता के ऐसे आन्दोलनों पर सख़्ती दिखा सके और पूँजीपतियों के पक्ष में नीतियाँ बनाने में हिचके नहीं। ट्रम्प इस काम के लिए बिल्कुल सही व्यक्ति है, इसलिए शुरुआती हिचकिचाहट के बावजूद अमेरिका के पूँजीपतियों के एक बड़े हिस्से ने ट्रम्प को समर्थन दिया। ट्रम्प के प्रचार अभियान को फ़ण्डिंग देने वाले एक धनपशु नेल्सन पेल्ट्ज़ ने अन्य पूँजीपतियों को सम्बोधित करते हुए कहा था कि वह (ट्रम्प) एक भयानक इंसान है, लेकिन हमारा देश एक बुरी स्थिति में है, और हम जो बाइडेन को बर्दाश्त नहीं कर सकते। हम सभी को उसे (ट्रम्प को) अपना समर्थन देना होगा। स्पष्टत: अमेरिका के बुर्जुआ वर्ग ने यह समझ लिया था कि आज के समय में कौनसा दल व नेता उसके हितों की सच्ची नुमाइन्दगी कर सकता है।

और अन्त में…

अमेरिका में सम्पन्न हुआ यह चुनाव मूलत: दक्षिणपंथी लोकरंजकतावादी राजनीति और उदारवादी लोकरंजकतावादी राजनीति के बीच का चुनाव था। ट्रम्प जहाँ दक्षिणपंथी लोकरंजकतावादी राजनीति के एक संस्करण की नुमाइन्दगी कर रहा था, तो वही दूसरी ओर कमला हैरिस अर्ध-कल्याणकारी राज्य सरीखी व्यवस्था की पैरोकारी करने वाली उदारवादी लोकरंजकतावादी राजनीति की। इनकी साम्राज्यववादी नीतियों में महज़ परिमाणात्मक अन्तर है और इस समय अमेरिकी पूँजीपति वर्ग के लिए यह मामूली अन्तर उतना महत्वपूर्ण नहीं था, जितने घरेलू आर्थिक नीतियों के मसले। ज़ाहिर है, इन दो विकल्पों में से वही विकल्प चुन के आ सकता था, जिसे अमेरिका का पूँजीपति वर्ग फिलहाल अपने दूरगामी हितों की पूर्ति के लिए फिट माने। अमेरिका की जनता के लिए कई विकल्पों के बीच से एक के चुनाव से ज़्यादा यह विकल्पहीनता का चुनाव था। चूँकि अमेरिका में ऐसी किसी तरह की क्रान्तिकारी शक्ति नहीं है, जो वहाँ की जनता के सामने इस पूँजीवादी व्यवस्था का विकल्प पेश कर सके और उन्हें इसके खिलाफ़ संघर्ष के लिए एकजुट कर सके। ऐसी विकल्पहीनता की स्थिति में बुर्जुआ राजनीति के ऐसे भाँति-भाँति के संस्करण उभर कर सामने आते रहते हैं। 

ट्रम्प के अमेरिका की सत्ता में वापस क़ाबिज़ होने के प्रभाव घरेलू ही नहीं बल्कि वैश्विक स्तर पर दिखायी देंगे। अपने चुनावी भाषणों में उसने कहा था कि वह अमेरिका में संरक्षणवाद की नीतियाँ लागू करते हुए, विदेशी आयातों पर टैक्स बढ़ायेगा। अपने मुस्लिम-विरोधी, नस्लवादी व आप्रवासन विरोधी रुख़ से वह अमेरिकी जनता में आपसी अलगाव को बढ़ावा देगा। हालाँकि, कई मामलों में वह अपनी पूर्ववर्ती सरकारों की नीतियों का ही अनुसरण करेगा, जैसे मध्य-पूर्व में अमेरिकी शह पर इज़रायल द्वारा किए जा नरसंहार को ट्रम्प समर्थन देना जारी रखेगा। वैश्विक स्तर पर अमेरिकी साम्राज्यवादी हितों की रक्षा के लिए अपने से पूर्ववर्ती सरकारों से ज़्यादा कठोर क़दम उठाने के संकेत उसने पहले ही दे दिये हैं। पर्यावरण के मसले पर ट्रम्प के बेतुके विचार जगज़ाहिर हैं। उसके अनुसार जलवायु परिवर्तन की बात ही फ़र्जी है। उसने पहले ऐलान कर दिया था कि सत्ता में आते ही संयुक्त राज्य अमेरिका जलवायु परिवर्तन के मसले पर हुए पेरिस समझौते में अमेरिका की भागीदारी समाप्त कर देगा। सम्भव है कि वह अमेरिका की सामरिक शक्ति को बढ़ाने के लिए नाभिकीय हथियारों के निर्माण की होड़ को तेज़ कर दे।

ट्रम्प की सत्ता में वापसी के प्रभाव से भारत भी अछूता नहीं रहेगा। भारत में सत्ता पर क़ाबिज़ फ़ासीवादी शक्तियाँ धुर-दक्षिणपंथी ट्रम्प को अपना ज़्यादा बेहतर साझेदार समझती है। निकट भविष्य में सम्भव है कि भारत की फ़ासीवादी सरकार, धुर-दक्षिणपंथी ट्रम्प से सामरिक सन्धियाँ करे।

इसमें कोई सन्देह नहीं है कि आसन्न भविष्य उथल-पुथल से भरा हुआ होगा। मध्य-पूर्व व यूरोप में पैदा हो रहे युद्ध जैसे हालात विश्व के अन्य हिस्सों में भी पनप सकते है। आज मंदीग्रस्त अमेरिकी पूँजीवाद के सामने युद्ध के जरिये उत्पादक शक्तियों का विनाश कर, पूँजी के लिए मुनाफ़े की सम्भावनाएँ तलाशने के अलावा कोई चारा नहीं है। हालाँकि, इस मामले में ट्रम्प  की नीति कम से कम अभी डेमोक्रेटिक पार्टी से कम तीव्र है। लेकिन जैसे-जैसे समय बीतेगा ट्रम्प  भी इसी दिशा में जायेगा। लेकिन इसी उथल-पुथल के दौर में क्रान्तिकारी सम्भावनाएँ भी पनपेंगी और बर्बरता के भयंकर दौर भी। ऐसे दौर में मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी शक्तियों को सघन और व्यापक प्रयास करने होंगे । अपनी तैयारी को तेज़ी से मज़बूत करना होगा।

 

मज़दूर बिगुल, नवम्‍बर 2024


 

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