नये साल में मज़दूर वर्ग के समक्ष प्रमुख चुनौतियाँ क्या हैं?
इन चुनौतियों का मुक़ाबला मज़दूर वर्ग कैसे कर सकता है?
सम्पादकीय अग्रलेख
इस सदी का एक और साल बीत गया। बिना तैयारी के लगाये गये लॉकडाउन, लचर स्वास्थ्य व्यवस्था तथा सरकार के ग़रीब-विरोधी रुख़ के चलते कोविड की दूसरी लहर में आम मेहनतकश जनता ने अकल्पनीय दुख-तकलीफ़ें झेलीं। लॉकडाउन के बाद सामान्य दौर में भी मज़दूरों के जीवन में कोई बेहतरी नहीं हुई है। असल में आर्थिक संकट से जूझती अर्थव्यवस्था में मज़दूरों को कोविड के बाद कम वेतन पर तथा अधिक वर्कलोड पर काम करने पर पूँजीपति वर्ग ने मजबूर किया है। लॉकडाउन व कोविड महामारी की आपदा को देश के धन्नासेठों ने अपने सरगना नरेन्द्र मोदी के निर्देश पर अच्छी तरह से “अवसर” में तब्दील किया है!
स्वतंत्रता के 75 साल पूरे होने पर भाजपा “अमृतकाल” का जश्न मना रही थी, जबकि देश के मेहनतकशों के लिए यह ‘मृतकाल’ साबित हो रहा है। इसी “अमृतकाल” में यानी 2021 में ही हर दिन 115 मज़दूरों ने आत्महत्या की है। पिछले 5 सालों में 6500 से अधिक मज़दूरों ने हादसों में जान गँवायी है। केवल 2021 ही नहीं भारत की आज़ादी के 75 सालों में मज़दूरों को नारकीय जीवन ही मिला है। ख़ास तौर पर 2014 के बाद से मज़दूरों की आत्महत्या और कार्यस्थल पर दुर्घटनाओं की संख्या बढ़ती जा रही है। मज़दूरों की आत्महत्या का कारण समूचे देश में छायी निराशा, बेकारी, निरुपायता और भुखमरी है। ऐसा नहीं है कि मज़दूर लड़ नहीं रहे हैं। देश में तमाम हिस्सों में स्वत:स्फूर्त रूप से मज़दूर अन्याय और शोषण के विरुद्ध आवाज़ भी उठा रहे हैं। लेकिन पूँजी और शासन-प्रशासन की एकजुट ताक़त के सामने मज़दूरों के बिखरे हुए प्रतिरोध और संघर्ष अधिकांश मामलों में बिखर जा रहे हैं और यदि अपवादस्वरूप उन्हें कहीं तात्कालिक सफलता मिल भी रही है तो वह तात्कालिक चरित्र की ही है। पूँजीपति ऐसे मामलों में हमला करने के अगले मौक़े की तलाश में रहते हैं और करते भी हैं।
यह निरुपायता और आन्दोलन का राजनीतिक संकट देश के मज़दूर आन्दोलन की बिखराव की स्थिति और एक ऐसे राजनीतिक नेतृत्व की अनुपस्थिति की वजह से है जिसके पास देशव्यापी मज़दूर आन्दोलन को एक ठोस दिशा देने की समझदारी और लाइन मौजूद हो। आज का प्रधान राजनीतिक कार्यभार ही यही है कि मज़दूर आन्दोलन के भीतर एक ऐसे राजनीतिक नेतृत्व को खड़ा किया जाये। बिना अपने राजनीतिक नेतृत्व और पार्टी के मज़दूर वर्ग कभी भी पूँजीपति वर्ग और उसकी राज्यसत्ता के हमलों का मुक़ाबला नहीं कर सकता है। लुब्बेलुबाब यह कि सर्वहारा वर्ग आज बँटा हुआ, विसंगठित और बिखरा हुआ है, जबकि पूँजीपति वर्ग अपने तमाम आन्तरिक झगड़ों और अन्तरविरोधों के बावजूद मज़दूरों और मेहनतकश जनता के विरुद्ध राजनीतिक तौर पर एकजुट है।
इस समय न सिर्फ़ हिन्दुस्तान में बल्कि पूरी दुनिया में यही स्थिति है। अमीरी और ग़रीबी की असमानता की खाई और गहराती जा रही है। देश के करोड़ों मेहनतकश हाड़तोड़ मेहनत के साथ अपनी रोज़ी-रोटी की जद्दोजहद में लगे हैं। ऐतिहासिक तौर पर मज़दूर वर्ग अभूतपूर्व विपर्यय और गतिरोध के अँधेरे में घिरा है जिससे बाहर निकलने का कोई बना-बनाया रास्ता उसके सामने नहीं मौजूद है। इस विपर्यय और गतिरोध और साथ ही जीवन के मुश्किल होते हालात की निराशा ही मज़दूरों की आत्महत्याओं की संख्या में झलकती है।
जहाँ मेहनतकशों के हिस्से में तकलीफ़ें, मौत, बीमारी, भूख और निराशा आयी है वहीं पूँजीपतियों ने अकूत धन-सम्पदा अर्जित की है। यह अकारण नहीं कि 2014 के बाद से मज़दूरों के जीवन-स्तर में गिरावट दर्ज हुई है। जिन ‘अच्छे दिनों’ और विकास का शोर मचाते हुए फ़ासीवादी मोदी सरकार सत्ता में आयी थी अब वह नोटबन्दी की चीख़ों, कोविड महामारी व अनियोजित व जनविरोधी तरीक़े से थोपे गये लॉकडाउन की ग़रीबों पर पड़ी मार में दब चुका है। अब भाजपा नग्न साम्प्रदायिकता, अन्धराष्ट्रवाद और जातिगत समीकरण के ज़रिए जनता को बाँटकर शासन कर रही है। यह अकारण नहीं कि गुजरात में भाजपा बहुमत से जीती है और उसे गुजरात में 2017-21 तक इलेक्टोरल बॉण्ड द्वारा स्वीकार करने वाले फ़ण्ड का 94 प्रतिशत हिस्सा मिला है। बीते साल चुनावी ट्रस्टों को कारपोरेट चन्दे से मिले 487 करोड़ रूपये में से अकेले 351.5 करोड़ रुपये भाजपा को मिले हैं। यह अन्य सभी पार्टियों को मिले कुल चन्दे से ढाई गुना अधिक है। पूँजीपति वर्ग द्वारा दिये गये इस अभूतपूर्व समर्थन की सूद समेत भरपाई भारतीय जनता पार्टी की मोदी सरकार ने की भी है। पिछले 5 सालों में मोदी सरकार ने कारपोरेट क़र्ज़े का दस लाख करोड़ से अधिक का बकाया माफ़ कर दिया है। आर्थिक संकट में जकड़ी अर्थव्यवस्था से उबरने के लिए पूँजीपतियों को जो “मज़बूत नेतृत्व” चाहिए था वह उन्हें मोदी-शाह सरकार के रूप में मिल गया है! काग़ज़ों पर मौजूद श्रम क़ानूनों के भी ख़ात्मे की ओर क़दम बढ़ाकर इस मायने में मोदी सरकार ने अपने आक़ाओं को प्रसन्न किया है।
एक सशक्त मज़दूर आन्दोलन के अभाव में मोदी सरकार मज़दूरों के सभी हक़-अधिकारों पर बुलडोज़र चला रही है। कोविड काल के पहले से मौजूद आर्थिक मन्दी कोविड काल में और भयंकर हुई और अब भी इससे उबरने का कोई रास्ता नहीं नज़र आ रहा है। उल्टे 2023 में एक भारी मन्दी दुनिया का इन्तज़ार कर रही है। अब इस बात को स्वयं पूँजीवादी व्यवस्था के दूरदर्शी पहरेदार व अर्थशास्त्री मान रहे हैं। आने वाले साल में आर्थिक मन्दी नयी आक्रामकता के साथ दुनिया को अपनी गिरफ़्त में लेने वाली है। ऐसे में यह उम्मीद की जा सकती है कि भारत समेत समूची दुनिया में पूँजीपति वर्ग और उसकी सरकारें मज़दूरों के हक़ों-हुक़ूक़ पर अपने हमलों को बढ़ायेगी। मुनाफ़े की गिरती औसत दर का संकट तात्कालिक तौर पर तभी दूर किया जा सकता है जबकि पूँजीपति वर्ग मज़दूर वर्ग की औसत मज़दूरी को घटाने के लिए उसके श्रम अधिकारों को छीने। इसलिए आने वाले साल में मज़दूर वर्ग को अपने बिखराव को दूर करना होगा, अपने एकजुट और सूझबझ वाले राजनीतिक नेतृत्व को तैयार करने की दिशा में आगे बढ़ना होगा और अपने वर्ग संघर्ष को नये सिरे से राजनीतिक तौर पर संगठित करना होगा।
दुनियाभर में संकट गहरा रहा है और रूस-यूक्रेन युद्ध में उलझी साम्राज्यवादी शक्तियाँ संकट से उबरने का कोई रास्ता नहीं देख पा रही हैं। वास्तव में, रूस-यूक्रेन युद्ध स्वयं गहराते संकट का ही परिणाम है। जब संकट गहराता है तो सभी साम्राज्यवादी देश व साम्राज्यवादी धुरियाँ लाभप्रद निवेश के घटते अवसरों, बाज़ारों, सस्ते कच्चे माल और सस्ती श्रमशक्ति तथा प्राकृतिक संसाधनों व ईंधन के सीमित स्रोतों पर क़ब्ज़ा करने के लिए आपस में पहले से भी ज़्यादा आक्रामक रूप में होड़ करती हैं। संकट के दौर में तीखी और हिंस्र होती इस होड़ का नतीजा ही हमारे सामने साम्राज्यवादी युद्धों के रूप में सामने आता है। जहाँ साम्राज्यवादी युद्ध तात्कालिक तौर पर आर्थिक संकट को बढ़ावा देते हैं, जैसे कि रूस-यूक्रेन युद्ध कर रहा है, वहीं वे उत्पादक शक्तियों का विनाश करके फिर से मुनाफ़ा देने वाले निवेश करने के नये अवसर भी पैदा करता है। इस रूप में युद्ध संकट का नतीजा भी होता है और संकट दूर करने का एक रास्ता भी।
लेकिन साथ ही युद्ध तमाम युद्धरत देशों के भीतर राजनीतिक संकट, सामाजिक-आर्थिक असुरक्षा और अनिश्चितता और व्यापक जनअसन्तोष को भी जन्म देता है। यदि कोई क्रान्तिकारी हिरावल सर्वहारा पार्टी मौजूद हो तो वह व्यापक मेहनतकश जनता के सामने युद्ध के असली साम्राज्यवादी चरित्र को जनता के समक्ष साफ़ कर उसे क्रान्तिकारी गृहयुद्ध में तब्दील कर सकती है, यानी, देश की मेहनतकश जनता को यह सच्चाई समझा सकती है कि उसकी दुश्मन किसी दूसरे देश की जनता नहीं बल्कि ख़ुद उसके अपने देश का पूँजीवादी शासक वर्ग है। लेकिन ऐसा न होने पर पूँजीपति वर्ग देश की जनता को अन्धराष्ट्रवाद में बहाने और अपने मुनाफ़े की ख़ातिर जनता के बेटे-बेटियों के ख़ून की क़ुर्बानी देने में कामयाब हो जाता है। यह समझना हम भारत के मेहतनकशों के लिए भी ज़रूरी है क्योंकि संकट से बाहर निकल पाने का कोई रास्ता नज़र न आने पर भारत का पूँजीपति वर्ग भी देश को युद्ध के विनाश में धकेलने का विकल्प अपने लिए खुला रखे हुए है, हालाँकि इसकी सम्भावना कम है। यही वजह है कि चीन और पाकिस्तान का हौव्वा खड़ा कर देश की जनता के भीतर अन्धराष्ट्रवाद की सिगड़ी जलाये रखने का यत्न मोदी सरकार और गोदी मीडिया लगातार कर रही है।
लेकिन फिर भी ज़्यादा सम्भावना इसी बात की है कि व्यापक जनअसन्तोष से निपटने के लिए मोदी सरकार और समूचा संघ परिवार देश को फिर से साम्प्रदायिक तनाव की लहर में बहाने का प्रयास करेगा ताकि बेरोज़गारी, महँगाई, महामारी से निपटने की नाकामी, अनियोजित लॉकडाउन थोपने से लेकर नोटबन्दी और जीएसटी के मोर्चे तक पर हुई नाकामी को छिपाने और उनसे ध्यान भटकाने का काम किया जा सके। इस साज़िश के कारगर साबित न होने पर देश का शासक वर्ग देश को युद्ध में धकेलने के विकल्प पर सोचने के लिए भी मजबूर हो सकता है।
हर बार चुनावों से पहले मोदी सरकार और संघ ने आम मेहनतकश जनता का ध्यान असल मुद्दों से भटकाने के लिए ‘बाँटो और राज करो’ की नीति अपनायी है और जनप्रतिरोध को कुचलने के लिए देश को दंगों की आग में झोंका है। 2024 के लोकसभा चुनाव और उसके पहले कर्नाटक और महाराष्ट्र चुनाव के लिए भी भाजपा-आरएसएस इस नये वर्ष में साम्प्रदायिकता की अंगीठी में देश को झोंकने का प्रयास कर सकती है।
आने वाले साल की चुनौतियाँ
मज़दूर वर्ग के समक्ष सबसे पहली चुनौती देश में मौजूद साम्प्रदायिकता की लहर है, जो कि और कुछ नहीं बल्कि हमारे देश समेत समूची पूँजीवादी दुनिया में मौजूद आर्थिक संकट का ही राजनीतिक परिणाम है। भाजपा और संघ के प्रचार तंत्र और गोदी मीडिया ने हिन्दू-मुस्लिम के नाम पर अभूतपूर्व नफ़रत फैलायी है। बीते साल ज्ञानवापी, कृष्णजन्मभूमि विवाद से लेकर तमाम शहरों में मन्दिर-मस्जिद मुद्दे पर लोगों को बाँटने का काम किया गया है। मदरसों की जाँच-पड़ताल से लेकर रामनवमी पर मुस्लिम मेहनतकश जनता की बस्तियों पर हमला करने का बहाना बनाकर भाजपा केरल से लेकर महाराष्ट्र, कर्नाटक तक में अपने साम्प्रदायिक फ़ासीवादी प्रचार को फैलाती रही है। श्रद्धा वॉकर हत्याकाण्ड पर ‘लव जिहाद’ की धुन्ध फैलाने का काम संघ की मशीनरी और भाजपा तथा मीडिया ने किया। महाराष्ट्र में पिछले एक महीने से संघी संगठन ‘लव जिहाद’ के मसले पर अभियान चलाने में जुटे हैं और शिन्दे-देवेन्द्र फडनविस सरकार ने ‘लव जिहाद’ के ख़िलाफ़ क़ानून लाने की बात भी की है और अन्तरजातीय शादियों की जाँच-पड़ताल करने को कहा है। हाल ही में एक टीवी सीरियल अभिनेत्री की मृत्यु को ‘लव जिहाद’ का मामला बनाकर पेश करने में गोदी मीडिया लगा हुआ है। भाजपा ने इन सभी ग़ैर-मुद्दों को बेहद योजनाबद्ध तरीक़े से आम मेहनतकश आबादी के जीवन का मुख्य मसला बनाने की कोशिश की है। दिल्ली नगर निगम चुनावों में भाजपा ने सीएए-एनआरसी आन्दोलन के बाद संघ द्वारा भड़काये गये दंगों का लाभ भी उठाया और साथ ही ‘लव जिहाद’ के नाम पर चल रहे फ़ासीवादी अल्पसंख्यक-विरोधी प्रचार का भी फ़ायदा लिया। गुजरात चुनाव में भाजपा की सफलता का बड़ा कारण यह साम्प्रदायिक प्रचार और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की बी टीम आम आदमी पार्टी द्वारा भाजपा-विरोधी वोटों को बाँटना था। एक धार्मिक कट्टरपन्थी व साम्प्रदायिक आम सहमति बनाकर अल्पसंख्यक आबादी को नक़ली दुश्मन के तौर पर पेश करना और फिर देश की सभी समस्याओं का ठीकरा उनके माथे फोड़ना फ़ासीवाद की चारित्रिक अभिलक्षणिकता होती है। कारपोरेट मीडिया, भाजपा आईटी सेल और सरकारी प्रचार तंत्र भी इस झूठे प्रचार को फैलाने में लगा रहता है।
फ़िल्म के माध्यम का इस्तेमाल फ़ासीवादी प्रचार के रूप में करने के मामले में जर्मनी के अपने नात्सी दादाओं-परदादाओं से भी भारत के हिन्दुत्व फ़ासीवादी सीख रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों में हिन्दुत्ववादी प्रचार को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर अंजाम देने वाली दर्जनों फ़िल्में बनी हैं। नात्सी जर्मनी में हिटलर के प्रचार मंत्री गोएबल्स ने भी जर्मन फ़िल्म उद्योग को एक सशक्त फ़ासीवादी प्रचार तंत्र में तब्दील कर दिया था। ठीक इसी लीक पर भाजपा और संघ बॉलीवुड का इस्तेमाल करने की परियोजना पर लगातार काम कर रहे हैं और इसके लिए संघी मानसिकता रखने वाले कलाकारों का इस्तेमाल कर रहे हैं और जो लोकप्रिय कलाकार संघी मानसिकता नहीं रखते, उन्हें सरकारी एजेंसियों द्वारा डरा-धमकाकर और उनकी रीढ़विहीनता का इस्तेमाल करके उन्हें संघी प्रचार का उपकरण बनने पर मजबूर कर रहे हैं। एक तरफ़ तो वे विवेक अग्निहोत्री-सरीखे टट्टुओं की फ़िल्मों को अपने प्रचार तंत्र की बदौलत चमकाते हैं तो दूसरी तरफ़ पूरे भारतीय फ़िल्म उद्योग पर संघ के एजेण्डे को प्रचारित करने का दबाव बनाया जाता है।
व्यापक मेहनतकश जनता को मोदी-शाह सरकार की इन साम्प्रदायिक रणनीतियों को समझने की आवश्यकता है। उन्हें यह समझ लेना होगा कि उनका दुश्मन किसी धर्म या जाति का मज़दूर व मेहनतकश नहीं है, बल्कि देश का शासक पूँजीपति वर्ग है, चाहे वह किसी भी धर्म या जाति से आता हो।
मज़दूर वर्ग को जिस दूसरी चुनौती का सामना करना है वह है शासक वर्ग द्वारा जातिगत आधार पर जनता को बाँटा जाना। जातिगत समीकरणों के आधार पर चुनावी जीत की आस लगाने वाली क्षेत्रीय पार्टियों को भाजपा इस खेल में मात दे रही है। भाजपा और आरएसएस सूक्ष्म स्तर पर सामाजिक संरचना की जाँच-परख कर सोशल इंजीनियरिंग कर जातिगत समीकरण बनाते हैं। उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनाव से पहले भी योगी सरकार इस दाँव को खेल रही है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा अन्य पिछड़ी जातियों को आरक्षण का फ़ैसला रद्द होने पर यूपी सरकार ने फ़िलहाल चुनाव ही टाल दिये! इस पहचान की राजनीति में भाजपा ने हर क्षेत्रीय पार्टी को अस्मिता के आधार पर की जाने वाली राजनीति में पछाड़ा है। वर्ग आधारित राजनीति और मज़दूर-मेहनतकशों की एकता के आधार पर ही इस चुनौती का सामना किया जा सकता है। यह भी ग़ौर करने वाली बात है कि जातिगत अस्मिता की राजनीति करने वाली तमाम चुनावबाज़ पूँजीवादी पार्टियाँ भी भाजपा के जातिवादी खेल के साथ मोर्चा बनाती हैं और अलग-अलग समय पर इनमें अम्बेडकरवादियों से लेकर पिछड़ी जातियों के शासक वर्ग की नुमाइन्दगी करने वाली तमाम पार्टियाँ शामिल रहती हैं। पिछले विधानसभा चुनावों में ही मायावती की बसपा ने उत्तर प्रदेश में भाजपा की जीत में कितनी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है, यह सभी ने देखा है। क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग को जाति की समूची राजनीति को ही सिरे से नकारना होगा और यह समझना होगा कि आज जाति व्यवस्था शासक वर्ग द्वारा उसे बाँटे रखने, उसे दबाये रखने, उसका उत्पीड़न करने और आपस में लूट के माल का बँटवारा करने के लिए एक उपकरण मात्र है। मेहनतकश वर्ग को अपने भीतर मौजूद जातिगत पूर्वाग्रहों को समाप्त करना होगा और यह काम भी वर्ग संघर्ष में साझा भागीदारी के आधार पर किया जा सकता है। उसे समझ लेना होगा कि समाज में आज एक ही बँटवारा उसके लिए मायने रखता है : वे जो दूसरों की मेहनत का फल लूटकर परजीवी के समान जीते हैं और वे जो अपनी मेहनत के बूते समूचे देश की हरेक ज़रूरत को पैदा कर रहे हैं, बना रहे हैं; यानी, पूँजीपति वर्ग और आम मेहनतकश जनता के बीच का बँटवारा।
अन्धराष्ट्रवाद की लहर का मुक़ाबला करना मज़दूर वर्ग के समक्ष तीसरी बड़ी चुनौती है। साम्प्रदायिकता और जातिवाद का नशा जब आम मेहनतकश जनता पर अधिक कारगर होता नहीं दिखायी देता है तो मोदी सरकार, भाजपा आईटी सेल, संघी काडर का ज़मीनी प्रचार और गोदी मीडिया का विराट प्रचारतंत्र अन्धराष्ट्रवाद की लहर को उभारने का प्रयास करते हैं। चीन और पाकिस्तान के विरुद्ध युद्ध का हौव्वा खड़ा किया जाता है और “राष्ट्रीय सुरक्षा” के नाम पर आम जनता के रोज़ी-रोटी, कपड़ा और मकान के मसले पीछे धकेल दिये जाते हैं। लेकिन सच तो यह है कि वास्तव में देश की जनता को ख़तरा चीन या पाकिस्तान से नहीं बल्कि देश की सरहदों के भीतर मौजूद हुक्मरानों से है। चीन की जनता और पाकिस्तान की जनता भी अपने ही हुक्मरानों और उनकी अमीरपरस्त नीतियों से त्रस्त है। इन सभी देशों के हुक्मरानों की अपनी साम्राज्यवादी और क्षेत्रीय चौधराहट की महत्वाकांक्षाएँ हैं जिसके वास्ते ये अपने-अपने देशों को युद्धोन्माद में धकेलते हैं। इसका इनको बोनस फ़ायदा यह होता है कि देश के भीतर जारी जनता के सभी प्रतिरोधों को, शोषण और उत्पीड़न के विरुद्ध चल रहे संघर्षों को पलभर में “राष्ट्रद्रोह” घोषित कर दिया जाता है। इस बार भी जब देश में आर्थिक और राजनीतिक संकट मण्डरा रहा है, तो मोदी-शाह इसी पुरानी तरकीब को लगाने की कोशिश कर सकती है। इससे पहले मोदी-शाह के फ़ासीवादी पूर्वज अटल बिहारी वाजपेयी ने भी कारगिल युद्ध के ज़रिए यही काम किया था।
2019 के लोकसभा चुनाव से पहले भी पुलवामा हमले के ज़रिए भाजपा ने ऐसी ही लहर पैदा की थी। देशभर में मोदी सरकार भयंकर असन्तोष और अलोकप्रियता की शिकार थी। इसी समय पुलवामा हमला होता है जिसके जवाब में सर्जिकल स्ट्राइक का दावा किया जाता है और देश में अन्धराष्ट्रवाद की लहर भड़काकर फिर से मोदी-शाह सत्ता का रास्ता साफ़ करते हैं। यह दीगर बात है इस समूचे मसले की कभी कोई समुचित जाँच तक नहीं करवायी गयी!
अन्धराष्ट्रवाद की लहर के ज़रिए आम मेहनतकश जनता को आणविकीकृत यानी अलग-थलग कर दिये गये नागरिकों के तौर पर पुनरुत्पादित किया जाता है और काग़ज़ पर बने एक नक़्शे और उसके झण्डे के प्रति प्रतिबद्धता की माँग कर एक वर्ग के सदस्य के तौर पर उनकी चेतना को भोथरा किया जाता है। भाजपा ने इस विचारधारा का मुक्कमल इस्तेमाल किया है, हालाँकि पूरी दुनिया के ही पूँजीवादी हुक्मरानों की यह आज़मूदा तरकीब रही है।
जब भी भाजपा व संघी गिरोह हमें “राष्ट्रवाद” और देशभक्ति की घुट्टी पिलाये तो यह याद कर लेना चाहिए कि ये वे लोग हैं जिन्होंने आज़ादी की लड़ाई के दौरान न सिर्फ़ उसमें भागीदारी नहीं की थी, बल्कि क्रान्तिकारियों और स्वतंत्रता-सेनानियों के विरुद्ध अंग्रेज़ों के पास जाकर मुख़बिरी की थी और अंग्रेज़ों के हमेशा नौकर बने रहने के वायदे के साथ माफ़ीनामे लिखे थे। हमें यह भूलना नहीं होगा कि सेना के नाम पर वोट माँगने वाली भाजपा ने सैनिकों के लिए ताबूतों की ख़रीद तक में भी घोटाला किया था। हमें भूलना न होगा कि हाल ही में भाजपा ने ही अर्द्धसैनिक बलों हेतु भर्ती में ‘अग्निपथ योजना’ को लागू किया यानी सैन्य सेवाओं का ठेकाकरण किया है। यानी, अब पूँजीपतियों के “राष्ट्र” की सेवा और भक्ति भी ठेके पर करना देश के ग़रीब किसानों और मज़दूरों के बेटे-बेटियों के लिए मजबूरी होगी! केन्द्र सरकार ने दिल्ली उच्च न्यायालय में यह भी स्वीकारा कि ‘अग्निवीर’ यानी ठेके पर भर्ती हुए ये सैनिक सिपाही के पद से कमतर होंगे। सैन्यबलों, अर्द्धसैन्यबलों और तमाम निम्न पदस्थ कर्मियों की बदहाल ज़िन्दगी बयान करती है कि सेना के भीतर वर्ग विभाजन है और निचले पायदान पर मौजूद सैनिकों की ज़िन्दगी बदतर है। इस सवाल पर भाजपा और संघ के प्रचार का भण्डाफोड़ करना इस नये साल में मज़दूरों का अहम कार्यभार है।
मोदी सरकार नवउदारीकरण और निजीकरण की आँधी चलाकर तथा जनसुविधाओं का ताना-बाना नष्ट कर मज़दूरों और आम मेहनतकश जनता को भुखमरी के स्तर पर ज़िन्दा रहने को मजबूर कर रही है। मज़दूर वर्ग के सामने यह चौथी बड़ी चुनौती है कि वह संगठित होकर संघर्ष करे, समूची मेहनतकश जनता को नेतृत्व दे और मोदी सरकार के इन नापाक मंसूबों को नाकाम करे। मोदी सरकार जनसुविधाओं का ताना-बाना ख़त्म कर जनता की सम्पत्ति को औने-पौने दामों पर बेच रही है। ज़िला अस्पतालों, स्कूलों से लेकर सभी पब्लिक सेक्टर कम्पनियों को बेचा जा रहा है और जनता को मिलने वाली हर जनसुविधा को माल में तब्दील कर पूँजीपतियों को जनता को निचोड़ने का मौक़ा दिया जा रहा है। ठेकाकरण और पक्की नौकरियों का ख़त्म होते जाना इसी का एक परिणाम है। बेरोज़गारी और कमरतोड़ महँगाई में जनता को गन्ने की तरह चूस जाने के बाद मोदी सरकार ने ग़रीब परिवारों को राशन की ख़ैरात बाँटना जारी रखा है। इस साल ही सरकार ने कुछ किलो मुफ़्त राशन एक साल के लिए बढ़ा दिया, क्योंकि कई राज्यों में चुनाव नज़दीक हैं। भुखमरी की रेखा पर ज़िन्दा रहने के लिए 80 करोड़ आबादी को नाममात्र का राशन दिया जा रहा है।
वहीं दूसरी ओर, मोदी सरकार ‘रेवड़ी संस्कृति’ पर बयान देकर जनसुविधाओं के बचे-खुचे ढाँचे को निशाना बना रही है। सुप्रीम कोर्ट ने भी इस मसले में मोदी सरकार की ज़ुबान बोली है। अपर्याप्त मात्रा में राशन देकर, कुछ झुग्गीवासियों को गिनती के पक्के मकान देकर, उज्ज्वला सरीखी योजनाओं के ज़रिए मोदी सरकार ख़ुद खै़रात बाँटकर जनता के बीच अपना जमकर प्रचार करती है। पहले ख़ुद ही मोदी सरकार मेहनतकश जनता के विचारणीय हिस्से को भयंकर ग़रीबी में धकेलती है और फिर ख़ुद ही उसे भुखमरी की रेखा पर ज़िन्दा रहने के लिए चन्द किलो अनाज देकर अपनी दरियादिली का शोर मचाती है। राजनीतिक चेतना की कमी के कारण कोविड काल में भयंकर ग़रीबी का सामना कर रही आम मेहनतकश जनता का एक हिस्सा भाजपा के प्रचार में बहा भी। आम मेहनतकश जनता के बीच क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग को इस सच्चाई का व्यापक प्रचार करना होगा कि हमारी माँग सम्मानजनक व पक्का रोज़गार है, न कि रोज़गार व अन्य अधिकार न दिये जाने की सूरत में, कुछ किलोग्राम राशन की ख़ैरात। हम समूची जनता के लिए पूर्ण खाद्य सुरक्षा की माँग पेश करते हैं और यह माँग करते हैं कि भारत के हर नागरिक को पर्याप्त पोषणयुक्त भोजन मुहैया कराना सरकार की ज़िम्मेदारी है। यह जनता का अधिकार है और सरकार यह देकर उस पर कोई अहसान नहीं करेगी। इस सार्वभौमिक खाद्य सुरक्षा के अधिकार के साथ हर नागरिक को सम्मानजनक और पक्का रोज़गार मुहैया कराना भी सरकार की ज़िम्मेदारी है। मेहनतकश जनता को यह समझना होगा कि पहले समाज के लिए सुई से लेकर जहाज़ तक हरेक चीज़ और हरेक आवश्यक सेवा का उत्पादन करके और फिर हज़ारों करोड़ रुपये अप्रत्यक्ष कर के रूप में देश के पूँजीपतियों और उनकी मैनेजिंग कमेटी का काम करने वाली राज्यसत्ता के अहलकारों को देकर जनता ने पहले ही इन सभी अधिकारों की क़ीमत चुका दी है। इसलिए सभी को भोजन, रोज़गार, आवास, चिकित्सा और राजकीय बीमा जनता का जन्मसिद्ध अधिकार है। समाज के सर्वाधिक ग़रीब हिस्से को चन्द किलो राशन देकर मोदी सरकार अपना पल्ला झाड़ने और जनता को बेवक़ूफ़ बनाने का काम कर रही है, इस बात को हम मेहनतकशों को समझ लेना चाहिए।
2014 के बाद से व्यवस्थित रूप में भाजपा सरकार द्वारा अपने राजनीतिक विरोधियों के ख़िलाफ़ सरकारी एजेंसियों का दुरुपयोग और दन्तहीन कचहरी तथा संवैधानिक संस्थाओं के दम पर अघोषित आपातकाल को लागू कर दिया है, हालाँकि इसके लिए भारत के कमज़ोर बुर्जुआ बहुदलीय संसदीय जनवाद के खोल को उतारकर फेंकने की कोई आवश्यकता नहीं थी, जैसा कि बीसवीं सदी में जर्मनी में नात्सी पार्टी ने और इटली में फ़ासीवादी पार्टी ने किया था। यह इक्कीसवीं सदी के फ़ासीवाद की एक चारित्रिक अभिलाक्षणिकता है कि वह बुर्जुआ जनवाद के खोल को नष्ट नहीं करता है क्योंकि आज के मरे-गिरे बुर्जुआ जनवाद के दौर में इसकी कोई ज़रूरत नहीं है। जनवादी स्पेस का यह क्षरण मज़दूर वर्ग के समक्ष पाँचवीं बड़ी चुनौती है। मोदी सरकार ने एक तरफ़ तो अपने चुनावी विरोधियों को पुलिस, सीबीआई और ईडी सरीखी एजेंसियों के ज़रिए फँसाया है तो दूसरी तरफ़ मज़दूर कार्यकर्ताओं और जनवादी अधिकार कार्यकर्ताओं को झूठे मामलों के तहत जेल में डालने का काम किया है। कांग्रेस से लेकर तमाम क्षेत्रीय पार्टियों के विधायकों को डराकर या ख़रीदकर भाजपा तमाम राज्यों में अपनी सरकारें बना रही है, ऐसे राज्यों में भी जहाँ वह चुनाव नहीं जीत पा रही है! सभी संवैधानिक संस्थाओं को अन्दर से खोखला कर भाजपा ने शक्तियों का फ़ासीवादी संकेन्द्रण किया है। राज्यसत्ता के निकायों के पोर-पोर में फ़ासीवादी तत्व प्रवेश कर चुके हैं। जनवादी अधिकारों पर हो रहे व्यापक हमलों के ख़िलाफ़ मज़दूर वर्ग को ही सड़क पर उतरना होगा क्योंकि पूँजीपति वर्ग के विरुद्ध सर्वहारा वर्ग के वर्ग संघर्ष को आगे बढ़ाने की सबसे उपयुक्त ज़मीन जनवाद होता है। इसलिए सर्वहारा वर्ग सबसे क्रान्तिकारी तरीक़े से जनवादी अधिकारों और स्पेस की भी हिफ़ाज़त करता है। हम मज़दूरों-मेहनतकशों को यह नहीं समझना चाहिए कि यदि देश के किसी भी हिस्से में किसी के जनवादी अधिकारों का फ़ासीवादी मोदी सरकार द्वारा हनन किया जाता है, तो वह हमारा मसला नहीं है। कहीं भी जनवादी अधिकारों को कुचला जाना क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग का मसला है और उसके सरोकार का विषय है क्योंकि पूँजीवादी व्यवस्था के मरणासन्न होते जाने के साथ, उसके अधिक से अधिक प्रतिक्रियावादी और ग़ैर-जनवादी होते जाने की क़ीमत अन्ततः मज़दूर वर्ग को ही चुकानी पड़ती है।
इस नये साल में हम मज़दूरों और मेहनतकशों को यह समझ लेना होगा कि हमारा सबसे बड़ा दुश्मन फ़ासीवाद है। बीसवीं सदी के शुरुआत की तरह बीसवीं सदी के आख़िरी वर्षों और इक्कीसवीं सदी में इसका उभार अचानक और तेज़ी से होने की बजाय एक लम्बी सुदीर्घ प्रक्रिया में हुआ है। 1925 में पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना; 1947 तक टुटपुँजिया वर्ग, पूँजीपति वर्ग और भूस्वामी वर्ग के बीच अपने आधार का विस्तार और अपने काडर ढाँचे का निर्माण और आज़ादी के आन्दोलन से ग़द्दारी; 1947 से 1950 के दशक के अन्त तक गाँधी की हत्या के बाद हाशिये पर जाने के बाद, लोहिया व अन्य समाजवादियों की मदद से फिर से मुख्यधारा में वापस आना; 1960 के दशक से 1980 के दशक तक देशभर में अपने काडर ढाँचे का विस्तार और राज्यसत्ता के निकायों में घुसपैठ को बढ़ाना; 1980 के दशक में भारतीय पूँजीवाद के गहराते संकट में टुटपुँजिया वर्गों की प्रतिक्रिया की लहर खड़ा करते हुए मन्दिर आन्दोलन की शुरुआत; 1990 के दशक में कई राज्यों में सरकार बनाना और फिर 1998 में पहली बार देश में सरकार बनाना; 2002 में गुजरात दंगों के साथ फ़ासीवादी लहर को नये स्तर पर ले जाना और मोदी का उभार; 2011 से 2014 तक अण्णा हज़ारे और केजरीवाल के इण्डिया अगेंस्ट करप्शन के ज़रिए कांग्रेस सरकार को कमज़ोर करना और फिर 2014 में नरेन्द्र मोदी का निर्णायक रूप में सत्ता में पहुँचना। ये भारत में फ़ासीवाद के अब तक के उभार के अहम चरण रहे। हम देख सकते हैं कि यह एक लम्बी चरणबद्ध प्रक्रिया में हुआ है, न कि हिटलर व मुसोलिनी के नेतृत्व में होने वाले फ़ासीवादी उभार के समान जो चन्द वर्षों में तेज़ी से सत्ता में पहुँचा और फिर उतनी ही तेज़ी से उसका पतन भी हो गया। अपने फ़ासीवादी पूर्वजों से भारत के हिन्दुत्व फ़ासीवादियों ने सबक़ लिया है। ये जब सत्ता में नहीं रहते हैं, तो भी ये शासक वर्ग के लिए मज़दूर आन्दोलन के विरुद्ध एक प्रतिक्रियावादी टुटपुँजिया उभार खड़ा करने में संलग्न रहते हैं। ये सत्ता में पहुँचने पर पूँजीवादी जनवाद को औपचारिक तौर पर भंग नहीं करते हैं, बल्कि उसके खोल को बरक़रार रखते हुए उसकी अन्तर्वस्तु को नष्ट कर देते हैं। राज्यसत्ता के समूचे ढाँचे में संघ परिवार के फ़ासीवादियों की लम्बी प्रक्रिया में हुई घुसपैठ उन्हें ऐसा करने में सक्षम बनाती है। इन बदलावों के कारण आज मज़दूर वर्ग को अपने इस सबसे ख़तरनाक दुश्मन यानी फ़ासीवाद के विरुद्ध संघर्ष की रणनीति को भी नये सिरे से सूत्रबद्ध करना होगा।
इस नये साल को हमें फ़ासीवाद से संघर्ष और मुक़ाबले का साल बनाना होगा : केवल यही विकल्प आज हमारे सामने है। फ़ासीवाद का उभार क्रान्तिकारी शक्तियों की निष्क्रियता के चलते ही हो रहा है। जैसा इटली में मज़दूर वर्ग के नेता अन्तोनियो ग्राम्शी ने कहा था, फ़ासीवाद मज़दूर वर्ग के निष्क्रिय होने का इन्तज़ार करता है और फिर उसपर आपदा की तरह टूट पड़ता है। आज का दौर मज़दूर वर्ग के लिए फ़ासीवादी आपदा का दौर है। अगर हम आज से ही ख़ुद को संगठित करने में नहीं लग जाते हैं, तो आने वाला साल भी ऐसा ही आपदा से भरा होने वाला है। आज फ़ासीवादी चुनौती के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए सबसे पहला कार्य एक अखिल भारतीय क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी का निर्माण है। देश में क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी खड़ी करने की यह पहल चल भी रही है और हम सभी मेहनतकश-मज़दूर साथियों से इस पहल में शामिल होने की अपील करते हैं। दूसरा अहम कार्यभार है एक देशव्यापी क्रान्तिकारी मज़दूर आन्दोलन का निर्माण करना जो उक्त पार्टी के नेतृत्व में ही हो सकता है। एक ऐसा आन्दोलन ही देशभर में मेहनतकश जनता के आर्थिक व राजनीतिक हितों के लिए संघर्ष के कार्यभार को पूरा कर सकता है। तीसरा कार्यभार है सिर्फ़ आर्थिक संघर्षों तक सीमित न रहते हुए, व्यापक निम्न-मध्यवर्गीय आबादी को जागृत, गोलबन्द और संगठित करना और आम मेहनतकश आबादी की बस्तियों को फ़ासीवादी शक्तियों के विरुद्ध संघर्ष का केन्द्र बनाना और वहाँ से संघी ताक़तों को खदेड़ना। चौथा अहम कार्यभार है, समूचे फ़ासीवादी मीडिया के झूठे प्रचार का मुक़ाबला करने के लिए एक जनता के क्रान्तिकारी वैकल्पिक मीडिया को खड़ा करना। जनता के अख़बारों, पत्र-पत्रिकाओं, संगीत, नाटक, फ़िल्मों व सोशल मीडिया में इन्क़लाबी दख़लन्दाज़ी के ज़रिए फ़ासीवादी प्रचार के वायरस के विरुद्ध कारगर वैक्सीन का इस्तेमाल करना : यानी जनता तक जनता का सच पहुँचाना और फ़ासीवादी मिथ्याप्रचार को बेनक़ाब करना। पाँचवाँ अहम कार्यभार है देश में जनवादी अधिकारों और स्पेस पर मोदी-शाह की फ़ासीवादी सरकार द्वारा किये जा रहे सभी हमलों का पुरज़ोर विरोध करना और उन्हें नाकाम करना। यह कार्यभार महज़ विश्वविद्यालय के बुद्धिजीवी और छात्र नहीं कर सकते हैं। जनवादी अधिकार केवल उनके लिए मायने नहीं रखते हैं, हमारे लिए भी मायने रखते हैं और जब तक क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग इनके ख़िलाफ़ एक व्यापक जनान्दोलन को नहीं खड़ा करता है, तब तक जनवादी अधिकारों की हिफ़ाज़त मुमकिन नहीं है।
आइए, इस नये साल को फ़ासीवाद-विरोधी पूँजीवाद-विरोधी नये क्रान्तिकारी जनसंघर्षों का वर्ष बनायें।
मज़दूर बिगुल, जनवरी 2023
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन