बिहार में सियासी उलटफेर कोई आश्चर्य की बात नहीं – ‘तू नंगा तो तू नंगा, मौक़ा मिले तो सब चंगा’ – यही है पूँजीवादी लोकतंत्र की असली हक़ीक़त
केवल बदला है लुटेरों का आपसी समीकरण, मज़दूर-मेहनतकश व आम जनता का शोषण पूर्ववत
जारी है और यह फ़ासीवाद की निर्णायक हार भी नहीं
आशीष
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भाजपा के साथ गठबन्धन तोड़कर जीतन राम मांझी की पार्टी ‘हम’ के साथ तथा लालू की पार्टी ‘आरजेडी नीत महागठबन्धन’ (आरजेडी, कांग्रेस, सीपीआई, सीपीआईएम और सीपीआई माले लिबरेशन) के साथ मिलकर नयी सरकार बनायी है। नयी सरकार के अस्तित्व में आने के बाद उदारपन्थी-वामपन्थी ख़ेमा अत्यधिक उत्साहित हो रहा है। कोई इस बदलाव को जनता के हित में एक ज़बर्दस्त बदलाव के रूप में व्याख्यायित कर रहा है तो कोई इसे फ़ासीवादी ताक़तों के ह्रास के रूप में! बिहार में भाजपा का सत्ता से बाहर हो जाना महज़ लुटेरों के बीच के आपसी समीकरणों का बदलाव ही है। पूँजीवादी व्यवस्था में किसी भी बुर्जुआ पार्टी या गठबन्धन की सरकार बने, सभी सरकारें पूँजीपति वर्ग की प्रबन्धन कमेटी की भूमिका निभाती हैं। पूँजीवादी व्यवस्था में निरन्तर गलाकाटू प्रतिस्पर्धा चलती रहती है। ख़ुद पूँजीपति वर्ग के भी विभिन्न धड़ों के बीच आपस में प्रतिस्पर्धा चलती रहती है कभी एक ख़ेमा हावी होता है तो कभी दूसरा तो कभी तीसरा कोई अन्य ख़ेमा। सभी बुर्जुआ राजनीतिक पार्टियाँ किसी न किसी धड़े का प्रतिनिधित्व करती हैं तथा सभी सरकारें आमतौर पर समस्त पूँजीपति वर्ग के दूरगामी हितों का प्रतिनिधित्व करती हैं। अभी बिहार में जो सियासी खींचतान हुआ इससे न तो जनता के किसी भी हिस्से के हालात में कोई बदलाव आयेगा और न ही इससे अपनेआप में फ़ासीवादी ताक़तों की किसी भी रूप में पराजय होने जा रही है! नयी सरकार बनने के बाद पिछले दिनों शिक्षक पात्रता परीक्षा में उत्तीर्ण आन्दोलनरत छात्रों के ऊपर जिस बर्बरता के साथ बिहार पुलिस ने लाठियों की बौछार की उससे वर्तमान सरकार की तथाकथित जनपक्षधरता खुलकर सामने आ गयी है। अभी भी छाती पीट-पीटकर ‘संविधान बचाओ लोकतंत्र बचाओ’, ‘कमण्डल की राजनीति पर मण्डल की राजनीति की विजय’, ‘लोहिया-जेपी समाजवादी ख़ेमे की एकता’ आदि जैसी तमाम बातें करने वाले कई लोग हैं, ऐसे लोगों की तमन्ना निश्चित ही पुनः निराशा के दलदल में डूब जायेगी!
सत्ता की महत्वाकांक्षा में मोदी-शाह की जोड़ी अलग-अलग राज्यों में करिश्मा करती रही है! चुनावी हार के बावजूद केन्द्रीय एजेंसियों, ईडी आदि का भय दिखाकर या पद-पैसे के प्रलोभन के ज़रिए करिश्माई ढंग से कई राज्यों में सरकार क़ायम करने में भाजपा सफल रही है। बिहार में यह करिश्मा नहीं हो सका जिसका दुख सत्ता चले जाने के बाद भाजपा नेताओं की छटपटाहट में खुलकर सामने दिखाई दे रहा है। बिहार में सरकार पलटने के बाद अब भाजपा को अचानक से नैतिकता, जनमत का अपमान, लोकतंत्र, धोखा, छल आदि शब्दों की याद आ रही है! अवसरवादिता के मामले में भी भाजपा को जदयू कड़ी टक्कर दे रही है। बुर्जुआ राजनीति के पटल पर गिरगिट से भी तेज़ रंग बदलने में माहिर जदयू नेता नीतीश कुमार का कभी कोई जोड़ नहीं है! इनके विरोधी इन्हें कभी कुर्सी कुमार तो कभी पल्टू राम की संज्ञा देते हैं। नीतीश कुमार ने कभी कहा था “मिट्टी में मिल जाऊँगा लेकिन दोबारा भाजपा के साथ नहीं जाऊँगा।” अभी हाल ही में नीतीश कुमार ने फिर से यह बात दुहरायी है और कहा है कि 2017 में भाजपा के साथ जाना उनकी मूर्खता थी। इतने ईमानदार नीतीश कुमार इसलिए बन बैठे हैं क्योंकि मोदी-शाह की जोड़ी उनका और उनके चुनावबाज़ दल का अस्तित्व ही समाप्त करने में लग गये थे। लेकिन सत्ता में बने रहने के लिए नीतीश कुमार ने किसी से हाथ मिलाने में संकोच नहीं किया। पहले भाजपा को छोड़कर राजद के साथ और फिर राजद को छोड़कर अवसर मिला फिर भाजपा से गले मिल लिया। अब फिर भाजपा की “प्रताड़ना” के कारण फिर से अपने धुर विरोधी से जा मिले। कुर्सी क़ायम रहे, कोई पतित बोले या पल्टीमार क्या फ़र्क़ पड़ता है! भाजपा के केन्द्रीय मंत्री अपने तत्कालीन सहयोगी जदयू के विधायकों को कथित तौर पर 6 करोड़ रूपये और मंत्री पद देने की बात कर रहे थे। यह बात जदयू को कैसे हज़म हो सकती थी। सत्ता और पूँजी की ताक़त के बावजूद बिहार में अकेले सरकार बनाने की भाजपा की मंशा विफल रही।
वर्तमान राजनीतिक नौटंकी का सबसे अप्रत्याशित नफ़ा लालू की पार्टी राजद को हुआ है। ‘नीतीश कुमार के पेट में दाँत हैं’, ‘नीतीश कुमार पल्टू राम है’ आदि जुमले का इस्तेमाल करने वाली पार्टी राजद के नेताओं ने सत्ता की सेज की ख़ातिर सारे पुराने गिले-शिकवों को भुला दिया है। लेकिन वे लोग इस बात को भूल रहे हैं कि जंगलराज के लिए कुख्यात इस पार्टी के शासनकाल को भी जनता ने देखा है। बिहार में जो सियासी उठापटक हुआ उसका एक महत्वपूर्ण कारक पूँजीपति वर्ग के बीच की आपसी प्रतिस्पर्धा है। भाजपा जहाँ देश के बड़े पूँजीपति वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है वहीं बिहार में जदयू और राजद स्थानीय धनी किसान-कुलकों, बड़े ठेकेदार बिल्डर व व्यापारी और मँझोले पूँजीपति वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाली क्षेत्रीय पार्टियाँ हैं। वहीं कांग्रेस भी, जो कभी देश में सबसे शक्तिशाली पूँजीवादी पार्टी थी और एक दौर में जिसे भारतीय बुर्जुआ वर्ग के व्यापक हिस्से का सहयोग और समर्थन प्राप्त था, बिहार के वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में सत्ता की भागीदार बनकर एक नयी संजीवनी तलाशने के प्रयास में जुटी हुई है।
इस पूरे प्रकरण में तथाकथित वामपन्थी पार्टियों की हालत थाली के बैंगन जैसी हो गयी है। यह पार्टियाँ बुर्जुआ राज्य के ही अंग के रूप में काम करती हैं। हम सभी जानते हैं कि भाकपा-माकपा के वाम मोर्चे की सरकारों ने किसी भी पूँजीवादी पार्टी के ही समान तत्परता के साथ पूँजीपति वर्ग की सेवा की और अधिक बर्बरता के साथ जनता के आन्दोलनों का दमन किया। बंगाल में नन्दीग्राम-सिंगूर की घटना इनके कुकर्मों की प्रातिनिधिक उदाहरण है। बिहार में इनके नेता अजीत सरकार की हत्या के मामले में भूतपूर्व राजद नेता पप्पू यादव की भूमिका सन्दिग्ध थी। सत्ता की मलाई के लिए उसी राजद के साथ गठबन्धन क़ायम करने में सीपीआईएम के नेताओं ने पलभर की भी देरी नहीं की। देश स्तर पर आज मज़दूर आन्दोलन से ग़द्दारी तथा मालिकों-सरकारों के साथ गलबहियाँ करने में माकपा की ट्रेड यूनियन फ़ेडरेशन सीटू की भूमिका बेहद अहम है। तथाकथित वामपन्थी पार्टियों में से बिहार में सबसे ज़्यादा सीटें हासिल करने वाली भाकपा (माले) लिबरेशन सबसे घाघ और घुटी क़िस्म की संशोधनवादी पार्टी है। यह पार्टी हरी घास में हरे साँप के समान है। अपने निष्क्रिय उग्रपरिवर्तनवादी तेवर और लफ़्फ़ाज़ी के कारण इनका अवसरवादी और संशोधनवादी चरित्र समझ पाने में अक्सर कई लोग चकमा खा जाते हैं। अतीत में अपने नेता चन्दू की हत्या को लेकर राजद के साथ आर-पार की लड़ाई लड़ने की बात करने वाली यह पार्टी सत्ता में हिस्सेदारी के लिए लालू की पार्टी की पिछलग्गू बन गयी थी और अपने इस घिनौने अवसरवाद को छुपाने के लिए यह इस गठबन्धन को यह कह कर सही ठहराते हैं कि आज बुर्जुआ संविधान और लोकतंत्र को बचाने के लिए और फ़ासीवादी ताक़तों को हराने के लिए यह क़दम ज़रूरी था! और आज जब नीतीश कुमार के साथ राजद के गठबन्धन की सरकार बन चुकी है तो यह इसे भी फ़ासीवाद की पराजय के रूप में स्थापित कर रहे हैं और इसका सचिव दीपांकर भट्टाचार्य नीतीश कुमार के दरवाज़े पर गुलदस्ता लेकर खड़ा है! एक तरफ़ लिबरेशन के सचिव दीपांकर भट्टाचार्य यह कहते हैं कि ‘जनता को लामबन्द करना उनकी पहली प्राथमिकता है और पार्टी अभी कैबिनेट में शामिल नहीं होगी और दूसरी तरफ़ वे सरकार में हिस्सेदारी करने के रास्ते भी यह कह कर खुले रखते हैं कि ‘फ़िलहाल वे कैबिनेट में शामिल नहीं होंगे लेकिन शामिल होने में कोई वैचारिक बाधा नहीं है व भविष्य में हम इसकी समीक्षा कर सकते हैं!’ वाह! यह है इनका असली रंग जो कि यह अपने नक़ली क्रान्तिकारी जुमलों के पीछे छुपा लेते हैं! भाकपा माले (लिबरेशन) की विचारधारात्मक बेईमानी की पोल तो काफ़ी पहले ही खुल चुकी थी। अभी हाल ही में इस पार्टी की केन्द्रीय कमेटी सदस्या कविता कृष्णन के बयान से साफ़ तौर पर यह ज़ाहिर हो गया कि ये लोग वैचारिक ग़द्दारी की गटरगंगा में आकण्ठ डूब चुके हैं। इस नेत्री ने मज़दूरों के महान नेता स्टालिन को तानाशाह बताते हुए सोवियत समाजवाद जैसे महान प्रयोग पर बुर्जुआ कुत्साप्रचारक की शैली में घिनौना हमला किया। अब यह माले लिबरेशन को छोड़कर अस्मितावादी उदार बुर्जुआ नारीवादी चिन्तक बनने की दिशा में आगे बढ़कर भाकपा माले (लिबरेशन) को भी ठेंगा दिखा गयी हैं।
बिहार के राजनीतिक खींचतान से फ़ासीवादी शक्तियों का कोई गुणात्मक ह्रास नहीं होने जा रहा है। चुनावों में हार से या सत्ता से बाहर हो जाने से फ़ासिस्टों के ऊपर ज़्यादा से ज़्यादा तात्कालिक प्रभाव ही पड़ता है। फ़ासीवाद को चुनावों के ज़रिए नहीं परास्त किया जा सकता है। फ़ासीवाद टुटपुँजिया वर्ग का एक ऐसा प्रतिक्रियावादी आन्दोलन होता है, जो नंगे रूप में सेवा यह बड़े पूँजीपति वर्ग की करता है। भाजपा चाहे सत्ता में रहे या न रहे, यह प्रतिक्रियावादी फ़ासीवादी आन्दोलन ज़मीनी स्तर पर मौजूद है। इसके लिए मेहनतकश जनता की चट्टानी एकजुटता स्थापित कर इन्हें सड़कों पर जवाब देना होगा, इनके ख़िलाफ़ क्रान्तिकारी जनान्दोलनों को खड़ा करना होगा, संगठित होकर फ़ासीवाद-विरोधी प्रचार आन्दोलनों को जनता के बीच ले जाना होगा, इनकी जड़ों पर सीधा प्रहार करना होगा। लेकिन इस क्षेत्र में ये नक़ली लाल झण्डे वाली पार्टियाँ कुछ भी नहीं करतीं और न ही कुछ कर सकती हैं। ये बस अपनी अवसरवादिता छुपाने के लिए फ़ासीवाद को बहाना बनाकर गठबन्धन सरकार का समर्थन कर रही हैं!
विडम्बना तो यह है कि क्रान्तिकारी वाम शिविर में भी ऐसे लोग हैं जो यह मानते हैं कि यदि भाजपा को चुनाव में सत्ता से हटा दिया तो फ़ासीवाद का ख़तरा टल जायेगा। ऐसा होना सम्भव नहीं है। हाँ, यह ज़रूर है कि इन चुनावों को ऐसे मंच के तौर पर प्रयोग किया जाये, जहाँ प्रतिक्रियावादी फ़ासीवादी शक्तियों की वास्तविकता को जनता के समक्ष नंगा किया जाये। लेकिन यह भी तभी सम्भव है, जब क्रान्तिकारी शक्तियाँ अपने बल पर चुनाव में मेहनतकश जनता के स्वतंत्र क्रान्तिकारी पक्ष का प्रतिनिधित्व करते हुए रणकौशलात्मक भागीदारी करें न कि किसी खुले तौर पर फ़ासीवादी पूँजीवादी या अन्य पूँजीवादी दल का पिछलग्गू बनकर या उससे मोर्चा बनाकर।
मज़दूर बिगुल, सितम्बर 2022