फ़ासिस्टों के “रामराज्य” में स्त्रियों के विरुद्ध बढ़ते बर्बर अपराध
एकजुट और निरन्तर संघर्ष ही रास्ता है!

पिछले दिनों देश के गृहमंत्री अमित शाह उत्तर प्रदेश में क़ानून-व्यवस्था की तारीफ़ में बोल गये कि यहाँ आधी रात को कोई महिला गहने पहनकर निकल सकती है और उसे कुछ नहीं होगा! लेकिन कोई अन्धभक्त भी शायद ही इस जुमले को सही मानेगा। सच तो यह है कि उत्तर प्रदेश में हत्याओं और बर्बर यौन हिंसा सहित तमाम तरह के अपराध बेरोकटोक जारी हैं। केवल पिछले चन्द हफ़्तों के भीतर उत्तर प्रदेश में और देश के कई राज्यों में स्त्रियों के विरुद्ध बर्बर अपराधों की जैसे बाढ़ आ गयी, मगर गृहमंत्री से लेकर संसद में ड्रामे करने वाली भाजपा की महिला सांसद शान्त हैं।
ऐसी घटनाएँ हर नागरिक के लिए चिन्ता और ग़ुस्से का सबब है, मगर यह तो होना ही था। जब सत्ता में ऐसे लोग बैठे हों जिनकी सोच स्त्रियों को पैरों की जूती समझने की हो, जिनकी पार्टी और संसदीय दल बलात्कार के आरोपियों से भरे हुए हों, जिनके मंत्री और विधायक एक बच्ची के बलात्कारियों के पक्ष में तिरंगा लेकर जुलूस निकालते हों, जिनके मुख्यमंत्री के मंच से मुस्लिम महिलाओं को क़ब्र से निकालकर बलात्कार करने का आह्वान किया जाता हो, हर बलात्कारी बाबा जिनके नेताओं के अगल-बग़ल दिखायी देता हो, और जिनकी विचारधारा में बलात्कार को विरोधी पर विजय के हथियार के रूप में महिमामण्डित किया जाता हो, तो आप स्त्रियों के लिए बराबरी, सम्मान और न्याय की उम्मीद कैसे कर सकते हैं?
देश में लगातार बढ़ते स्त्री विरोधी घिनौने अपराधों से ज़ाहिर है कि 16 दिसम्बर 2012 के बाद हुए आन्दोलनों और देशव्यापी ग़ुस्से की लहर के बावजूद ज़मीनी हालात में कोई अन्तर नहीं आया है। बल्कि 2014 में “बहुत हुआ स्त्री पर वार” के नारे के साथ सत्ता में आने वाली भाजपा के शासन में हालात बद से बदतर होते गये हैं।
ऐसे में, बलात्कारियों को सख़्त से सख़्त सज़ा दिलाने और पीड़ितों को इन्साफ़ दिलाने के लिए सड़कों पर उतरने के साथ ही हमें इस सवाल पर भी सोचना ही होगा कि स्त्रियों और बच्चियों पर बर्बर हमलों और बलात्कार की घटनाएँ इस क़दर क्यों बढ़ती जा रही हैं और इनके लिए कौन-सी ताक़तें ज़िम्मेदार हैं! हमें सोचना ही होगा कि क्या बलात्कार या फिर कोई भी स्त्री-विरोधी अपराध महज़ क़ानून-व्यवस्था या सुरक्षा का मसला है? स्त्रियों के ख़िलाफ़ इतनी बड़ी तादाद में अपराध होते ही क्यों हैं? बात-बात पर महान भारतीय संस्कृति की दुहाई देने वाले हमारे समाज में स्त्रियों के विरुद्ध इतने ग़लीज़ क़िस्म की नफ़रत पैदा कहाँ से होती है?
इसका जवाब कठिन नहीं है। एक ओर जब देश के तमाम इन्साफ़पसन्द और संवेदनशील युवा, स्त्रियाँ और नागरिक ऐसे अपराधों के विरुद्ध सड़कों पर उतरते हैं, तभी रूढ़ियों, कूपमण्डूकता, अन्धविश्वास, साम्प्रदायिक कट्टरपन्थ और कठमुल्लापन के ठेकेदार पूरी नंगई और बेशरमी के साथ औरतों के बारे में अपनी घृणास्पद सोच की उल्टी करना शुरू कर देते हैं। और देश की तमाम पूँजीवादी पार्टियों के नेता-मंत्री से लेकर नौकरशाह और पुलिस अफ़सर तक इनके सुर में सुर मिलाना शुरू कर देते हैं। जिस देश में बलात्कार के मामले पर प्राथमिकी दर्ज कराने गयी लड़की के साथ पुलिसवाले दोबारा सामूहिक बलात्कार करते हैं, वहाँ आप कैसे इन्साफ़ की उम्मीद कर सकते हैं? जहाँ गिरफ़्तार राजनीतिक महिला कार्यकर्ताओं को यौन यातना देने वाले पुलिसवाले को सरकार वीरता पुरस्कार से सम्मानित करती है, वहाँ किस तरह का न्याय हो सकता है?
स्त्रियों पर हमला करने वाले आदमख़ोर भेड़ियों की तरह बेख़ौफ़ घूमते रहते हैं। हिफ़ाज़त के लिए बनी संस्थाएँ ही स्त्रियों की सबसे बड़ी दुश्मन बन चुकी हैं। बलात्कार के 74 प्रतिशत आरोपी बेदाग़ छूट जाते हैं। अख़बारों और टीवी चैनलों में बलात्कार की ख़बरें चटख़ारेदार माल की तरह परोसी जाती हैं। बलात्कार की हर चर्चित घटना के बाद सरकार से लेकर सभी विपक्षी चुनावी पार्टियाँ घड़ियाली आँसू बहाती हैं। लेकिन हर चुनावी पार्टी में बलात्कार, भ्रष्टाचार, हत्या आदि के आरोपी भरे हुए हैं। एसोसिएशन फ़ॉर डेमोक्रेटिक रिफ़ॉर्म्स की रिपोर्ट के अनुसार वर्तमान लोकसभा में क़रीब 43 प्रतिशत सांसदों के विरुद्ध स्त्री-विरोधी अपराधों सहित तमाम तरह के आपराधिक आरोप हैं। इनमें सबसे बड़ी संख्या भाजपा के सांसदों की है जिनमें से 30 प्रतिशत के विरुद्ध बलात्कार, हत्या, अपहरण जैसे गम्भीर स्त्री-विरोधी अपराधों के आरोप हैं। भाजपा ही वह पार्टी है जिसके नेता खुलकर बलात्कारियों का बचाव करते हैं या उनके पक्ष में सड़कों पर उतर आते हैं!
पिछले दो दशकों से जारी आर्थिक नीतियों ने ‘खाओ-पियो ऐश-करो’ की संस्कृति में लिप्त एक नवधनाढ्य वर्ग पैदा किया है जिसे लगता है पैसे के बूते पर वह सबकुछ ख़रीद सकता है। पूँजीवादी लोभ-लालच और हिंस्र भोगवाद की संस्कृति ने स्त्रियों को एक ‘माल’ बना डाला है, और पैसे के नशे में अन्धे इस वर्ग के भीतर उसी ‘माल’ के उपभोग की उन्मादी हवस भर दी है। इन्हीं लुटेरी नीतियों ने समाज के हाशियों पर पलता हुआ एक आवारा, लम्पट, पतित वर्ग भी पैदा किया है जो पूँजीवादी अमानवीकरण की सभी हदों को पार कर चुका है। इस सबको निरन्तर खाद-पानी देती है हमारे समाज के पोर-पोर में समायी पितृसत्तात्मक मानसिकता, जो स्त्रियों को भोग की वस्तु और बच्चा पैदा करने का यंत्र मानती है, और हर वक़्त, हर पल स्त्री-विरोधी मानसिकता को जन्म देती है।
इसलिए सख़्त क़ानून बनाने और कुछ प्रशासनिक क़दम उठाने जैसी पैबन्दसाज़ियों से समस्या हल नहीं होने वाली। इन तात्कालिक माँगों के साथ ही हमें स्त्री-विरोधी नफ़रत और मानसिक बीमारियों को पैदा करने वाली पूँजीवादी संस्कृति के विरुद्ध भी लड़ना होगा। उस पूरे सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक ढाँचे को ही उखाड़ फेंकने की लम्बी लड़ाई शुरू करनी होगी, जिसमें इन्सान को भी एक माल बना दिया गया है, और औरत को महज़ जिस्म में तब्दील कर दिया गया है जिसे कोई भी नोच-खसोट सकता है! स्त्रियों को अपनी सुरक्षा और सम्मान के लिए ख़ुद लड़ना भी सीखना होगा।
सिर्फ़ अपना ग़ुस्सा, अपनी नफ़रत और अपनी भड़ास निकाल लेने से कुछ नहीं होगा। यह सिलसिला यहीं रुक नहीं जाना चाहिए। स्त्री की ग़ुलामी के सभी रूपों, स्त्री उत्पीड़न के सभी रूपों के ख़िलाफ़ और उन्हें पैदा करने वाले सामाजिक ढाँचे को तोड़ डालने के लिए अपने संघर्ष को हमें संगठित करना होगा। हर घटना के बाद होने वाले क्रोध के विस्फोट को संगठित विरोध के एक निरन्तर प्रवाह में बदलना ही होगा।

मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2021


 

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