सरकार के दावों की पोल खोलता मनरेगा का केन्द्रीय बजट
– प्रवीन, हरियाणा
किसी भी देश की पूँजीवादी व्यवस्था अपने देश के मज़दूरों को गुमराह करने के लिए तमाम तरह के हथियार इस्तेमाल करती रहती है। उन हथियारों में से एक हथियार आँकड़ों की हेरा-फेरी का भी होता है। ऐसा ही कुछ इस बार भारत के केन्द्रीय बजट में देखने को मिला है। वैसे तो पूरा बजट ही आँकड़ों की हेरा-फेरी से भरा हुआ है। लेकिन यहाँ हम पूरे बजट पर चर्चा करने की बजाय सिर्फ़ मनरेगा के इर्द-गिर्द ही बात करेंगे। कोरोना महामारी को अवसर में बदलने में भाजपा सरकार ने कोई कसर नहीं छोड़ी। वैसे तो कोरोना काल के दौर ने इस पूरी पूँजीवादी व्यवस्था की सच्चाई को एकदम नंगा कर दिया है, लेकिन फिर भी दूसरे पूँजीवादी देशों के मुक़ाबले आज भारत की मोदी सरकार कहीं ज़्यादा नंगी नज़र आ रही है। पिछले दिनों तालाबन्दी के दौर में जहाँ मोदी सरकार को कोरोना जैसी महामारी से लड़ने के लिए स्वास्थ्य की सुविधाओं को बढ़ाना था वहीं तब वह ताली और थाली बजाने के नाम पर जनता में अन्धविश्वास फैलाने में लगी हुई थी। जो सरकार ऐसे नाज़ुक दौर में भी अपने देश के प्रवासी मज़दूरों को सही सलामत उनके घर तक न पहुँचा सके तो साफ़ तौर पर समझा जा सकता है कि वह मेहनतकश जनता के प्रति कितनी हितैषी है।
कोरोना महामारी का सबसे ज़्यादा असर अगर किसी पर पड़ा है तो वो इस देश की मज़दूर आबादी है। इस दौरान मज़दूरों की जो दुर्गति हुई है इसका अन्दाज़ा शायद सरकार अपने पूरे कार्यकाल में कभी भी नहीं लगा पायेगी। कोरोना के शुरुआती दौर में लॉकडाउन होने के बाद शहरी मज़दूरों की एक बहुत बड़ी आबादी गाँव की तरफ़ पलायन कर रही थी। हज़ारों किलोमीटर पैदल चलकर मज़दूर अपने गाँव-देहात में पहुँच रहे थे। इस दौरान पता नहीं पैदल चलते-चलते कितने मज़दूरों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। न जाने कितनों को थक-हारने के बाद रेल की पटरियों पर अपनी रात गुज़ारनी पड़ी और कितनों को रेल ने कुचल दिया। अगर आज कोई वह दृश्य याद भी कर ले तो रूह काँप उठे।
लॉकडाउन से लेकर धीरे-धीरे होने वाले अनलॉक का अनुभव हमें बहुत कुछ बताता है। हर रोज़ अपना हाड़-मांस गलाकर पेट भरने वाले मज़दूरों को गाँव में भी किसी न किसी काम की ज़रूरत तो थी। बिना काम किये उनका वहाँ भी पेट भरने वाला नहीं था। अब गाँव में उन्होंने काम की तलाश में मनरेगा के जॉब कार्ड बनवाने शुरू किये। इस दौरान पढ़े-लिखे नौजवान भी पीछे नहीं रहे। अब बेरोज़गारी की मार ऐसी पड़ी कि एमए-बीए किये नौजवान भी मनरेगा की लाइन में खड़े हो गये। गाँव में अब उनका सहारा केवल मनरेगा ही बन सकती थी। मनरेगा में सीमित बजट होने के कारण पहले ही हर किसी को काम मिलना सम्भव नहीं था, तो भला अब हर किसी को काम कैसे मिल पाता। वैसे भी इस विभाग पर पहले से ही बजट की कमी के साथ-साथ धाँधली का आरोप लगता रहता है। अब गाँव में मज़दूरों की संख्या बढ़ने से मनरेगा पर भार बढ़ना लाज़िमी था। वित्त वर्ष 2020-2021 में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन ने बजट में मनरेगा के लिए 61,500 करोड़ रुपये आवण्टित किये थे। लेकिन अब गाँव में मज़दूरों की संख्या बढ़ने से सरकार पर एक दबाव था। इस दबाव के चलते केन्द्र सरकार ने मनरेगा के लिए 40,000 करोड़ रुपये के अतिरिक्त बजट का ऐलान किया। अब मनरेगा का बजट सरकार की नज़रों में काफ़ी बढ़ चुका था। लेकिन सच्चाई यह है कि मज़दूरों की संख्या के हिसाब से देखा जाये तो ये बजट भी मनरेगा के लिए बिल्कुल पर्याप्त नहीं माना जा सकता।
सरकारी आँकड़ों के हिसाब से ही देखें तो वर्ष 2020 में पहली छमाही के दौरान ही मनरेगा पर 64,000 करोड़ रुपये ख़र्च हो चुके थे। यानी जो सरकार ने अतिरिक्त बजट से पहले बजट दिया था उससे भी ज़्यादा तो मनरेगा में 6 महीने में ही ख़र्च हो चुका। अगले साल के बजट पर आने से पहले हम थोड़ा और पिछले बजट को आँकड़ों की रौशनी में परखते हैं। एक सर्वे के अनुसार पिछले साल अक्टूबर अन्त तक मनरेगा का क़रीब 91 फ़ीसदी बजट ख़र्च हो चुका था। लेकिन 91 फ़ीसदी बजट ख़र्च होने के बाद भी लगभग 2 फ़ीसदी परिवारों को ही 100 दिन का काम मिल पाया। यानी साल 2020-21 में इस योजना के तहत बेशक 6.26 करोड़ परिवारों को काम दिया गया, लेकिन 100 दिन का काम 13,53,994 (2.16 प्रतिशत) परिवारों को ही मिल पाया है। यानी एक साल में 100 दिन के काम की गारण्टी देने वाली सरकार उसका आधा भी नहीं दे पा रही। इन सभी आँकड़ों से यह साफ़-साफ़ ज़ाहिर होता है कि अतिरिक्त बजट मिलने के बाद भी कुल बजट मनरेगा के लिए पर्याप्त नहीं है।
अब अगर हम 2021-2022 के बजट की बात करें तो इस बार सरकार ने मनरेगा को सिर्फ़ 73,000 करोड़ रुपये ही आवण्टित किये हैं। जो पिछली बार के कुल बजट की तुलना में 34 फ़ीसदी की गिरावट मानी जा सकती है। पिछले आँकड़ों को देखते हुए कहा जा सकता है कि यह बजट मनरेगा के लिए कहीं से भी उचित नहीं है। बिकाऊ मीडिया इस बजट को भी पूरा बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर रहा है ताकि सरकार की सभी कमियों को छुपाया जा सके। लेकिन मीडिया चाहे कितना भी ज़ोर क्यों न लगा ले हक़ीक़त सामने आ ही जाती है।
मनरेगा में 100 दिन के काम की गारण्टी सरकार देती है लेकिन वह अपनी ज़ुबान पर कहीं भी खरी नहीं उतरती। आँकड़ों के हिसाब से मनरेगा में काम की औसत लगभग 35 से 40 दिन के बीच भी बड़ी मुश्किल से पड़ती है। देखा जाये तो सरकार को मनरेगा में मज़दूरों को पूरे साल काम देना चाहिए लेकिन यहाँ सरकार अपने हिसाब से तय दिनों के अनुसार भी नहीं दे पा रही। मनरेगा विभाग में बेरोज़गारी भत्ते का प्रावधान भी किया गया है। यानी अगर किसी मज़दूर को 15 दिन तक काम न मिले तो वह अपने लिए बेरोज़गारी भत्ते की अपील डाल सकता है। लेकिन हमारे देश का दुर्भाग्य यह है कि लोगों की राजनीतिक चेतना के अभाव और सरकार की तमाम कमियों के कारण (जो सरकार ख़ुद भी कभी दूर नहीं करना चाहती) हमारे देश की जनता को उनके अधिकारों का पता ही नहीं चल पाता।
अगर कोई मज़दूर ग़लती से बेरोज़गारी भत्ते की बात भी कर देता है तो मनरेगा विभाग के अधिकारी भी बेरोज़गारी भत्ते के बारे में मज़दूरों को विस्तार से बताने की बजाय उनको गुमराह करने का काम ही करते हैं। मनरेगा के तहत मज़दूरों को जहाँ भी काम मिलता है वहाँ छाया और पानी की व्यवस्था सरकार को करनी होती है। अब तक देखा यही गया है कि मनरेगा मज़दूरों के लिए सरकार ने आज तक ऐसी कोई व्यवस्था की ही नहीं। उल्टा मज़दूरों को ही अपने लिए छाया और पानी का इन्तज़ाम करना पड़ता है। इन सब बातों से एक बात साफ़ हो जाती है कि सरकार चाह कर भी यह सब करना नहीं चाहती। वह सिर्फ़ मनरेगा के नाम पर रस्म अदायगी ही करती है। वह बजट के नाम व बाक़ी सारी चीज़ों के नाम मज़दूरों को चन्द टुकड़े बाँटकर, उनका जाति-धर्म व चुनाव जैसी सभी जगह सिर्फ़ इस्तेमाल करना चाहती है। इसलिए मज़दूरों को आज से ही यह समझने की ज़रूरत है कि उनकी सत्ता से यह लड़ाई लम्बी है। जो सिर्फ़ विचार व एकजुटता के दम पर ही जीती जा सकती है। इसलिए हमें क्रान्तिकारी मनरेगा मज़दूर यूनियन की तरफ़ से सरकार के सामने निम्नलिखित माँगें पेश करनी चाहिए –
1. मनरेगा मज़दूरों के लिए पूरे साल काम की व्यवस्था करो, दिहाड़ी 770 रुपये करो।
2. काम के दौरान छाया और पानी की व्यवस्था सुचारू रूप से की जाये।
3. भगतसिंह राष्ट्रीय रोज़गार गारण्टी क़ानून बनाओ।
4. रोज़गार न दे पाने की सूरत में 10,000 रुपये बेरोज़गारी भत्ता दो।
5. मज़दूर विरोधी चार लेबर कोड वापस लो।
6. सरकारी उपक्रमों का निजीकरण करना बन्द करो।
7. आवश्यक वस्तु अधिनियम-1955 में बदलाव रद्द किया जाये।
मज़दूर बिगुल, मार्च 2021
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