सिकुड़ती अर्थव्यवस्था, बढ़ती असमानता
जीना है तो लड़ना होगा!

– सम्पादकीय

पिछले साल मार्च में शुरू हुए लॉकडाउन और उसके बाद के महीनों में देश के करोड़ों लोगों का रोज़गार छिन गया। बहुत बड़ी आबादी दो वक़्त की रोटी के लिए भी मुहताज हो गयी। बेरोज़गारी, भूख और अभाव का यह सिलसिला लगातार जारी है। बेलगाम बढ़ती महँगाई ग़रीबों की थाली को और भी ख़ाली करती जा रही है। दूसरी ओर, देश के सबसे बड़े अमीरों की दौलत में बेहिसाब बढ़ोत्तरी हो रही है। महामारी के दौरान मुकेश अम्बानी ने हर घण्टे जितनी कमाई की, उतने पैसे कमाने के लिए एक अकुशल मज़दूर को 10,000 साल तक काम करना पड़ेगा! इतना ही नहीं, देश के ऊपर के 100 अरबपतियों की दौलत में पिछले एक साल के दौरान 14 लाख करोड़ रुपये का इज़ाफ़ा हुआ है।
यह स्थिति कोई अपवाद नहीं है। पूँजीवाद का नियम है। महामारी के पहले भी असमानता तेज़ी से बढ़ रही थी; सिर्फ़ अपने देश में ही नहीं, पूरी दुनिया में। महामारी और उसके पहले से जारी मोदी सरकार की नीतियों ने इसकी रफ़्तार को बढ़ा दिया है। आने वाला समय देश के मेहनतकशों के लिए और भी मुश्किलें लेकर आने वाला है। सरकार और उसके भोंपू चाहे जितनी ग़ुलाबी तस्वीर पेश करने की कोशिश करें, आँकड़े बता रहे हैं कि अर्थव्यवस्था तेज़ी से सिकुड़ रही है। उद्योग अपनी क्षमता से कम उत्पादन कर रहे हैं, नये उद्योग लग नहीं रहे हैं, खेती पहले से संकट में है। ऐसे में रोज़गार बढ़ना बेहद मुश्किल है। जो रोज़गार हैं वहाँ भी मज़दूरी घट रही है और अनिश्चितता बढ़ रही है। कम्पनियाँ अपने मुनाफ़े को बनाये रखने के लिए मज़दूरी और वेतन में तरह-तरह से कटौती कर रही हैं। आने वाले दौर में इसे बढ़ते ही जाना है।
अभी से हालत यह है कि आम लोग पहले से भी कम खा रहे हैं। खाने-पीने, दवा-इलाज, बच्चों की पढ़ाई, हर चीज़ में कटौती कर रहे हैं। ज़्यादातर ग़रीबों के पास तो कोई बचत होती ही नहीं, जिनके पास थोड़ी बहुत बचत है, वे जीने के लिए उसे भी ख़र्च कर रहे हैं। जिनके पास कुछ बेचने को है वे एक-एक करके अपनी चीज़ें बेचकर गुज़ारा कर रहे हैं। जिनके पास बेचने के लिए सिर्फ़ अपनी मेहनत और हुनर है, वे उसे पहले से कम दाम पर बेचने को मजबूर हैं। मोदी सरकार के लाये चार लेबर कोड मालिकों के लिए मज़दूरों के शोषण को आसान बनाने के साथ ही इसके विरुद्ध लड़ना पहले से भी मुश्किल बना देंगे। अपनी मज़दूरी बढ़वाना तो दूर, वास्तविक मज़दूरी को बनाये रखना भी कठिन हो जायेगा।
ऐसे में देश की आम मेहनतकश जनता के सब्र का प्याला छलकने लगा है, मगर जनता की गाढ़ी कमाई से बड़े पूँजीपतियों को तरह-तरह के तोहफ़े लुटाये जा रहे हैं। कहीं से कोई विरोध न हो, इसलिए जनता को दबाने, कुचलने, उसका मुँह बन्द करने, मूल मुद्दों से बहकाने और आपस में बाँटने के तमाम हथकण्डे अपनाये जा रहे हैं। यही वजह है कि कॉरपोरेट मीडिया के चारण-भाट “अर्थव्यवस्था के करवट लेने” का झूठ परोसने के लिए धमाल मचाये हुए हैं। मध्यवर्ग का ऊपरी मलाईमार तबक़ा भी इस ‘’विकास’’ की नशीली धुन पर थिरक रहा है। मध्यवर्ग के जिस हिस्से पर अर्थव्यवस्था के जिस संकट की मार पड़ रही है, उसके भी एक बड़े हिस्से को मन्दिर, राष्ट्रवाद और मुस्लिम विरोध की ख़ुराकें देकर शान्त रखने में संघ गिरोह का प्रचार तंत्र अभी कामयाब है।
मगर असलियत क्या है? करीब एक दशक पहले 2012 में घरेलू बचत का हिस्सा सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 24 प्रतिशत था जो 2018 में ही घट कर 17 प्रतिशत हो गया था। यानी कि लोगों की कमाई नहीं बढ़ी और वे बचत से खर्चा चलाने लगे। अब यह स्थिति कहीं बदतर हो चुकी है। खाद्यान्न मुद्रास्फीति की दर लगातार दो अंकों में बनी हुई है। पिछले अक्टूबर में यह 11 प्रतिशत पहुँच गयी थी, दिसम्बर में कुछ कम हुई तो भी 9.4 प्रतिशत रही। वास्तविक महँगाई इससे कहीं ज़्यादा है। ख़ासकर जीवन की बुनियादी चीज़ों की महँगाई। पेट्रोल, डीज़ल और गैस के अन्धाधुन्ध बढ़ते दामों का चौतरफ़ा असर आने वाले दिनों में ग़रीबों की झुकी हुई कमर पर और भी बोझ डालने वाला है।
पिछली तिमाही में भारत की जीडीपी सिकुड़ कर 134 लाख करोड़ की हो गई थी। अनुमान है कि नये वित्त वर्ष में यह 149.2 लाख करोड़ की होगी। 2019-20 में भारत की जीडीपी 145.7 लाख करोड़ की थी। यानी कुल मिलाकर दो साल पहले की स्थिति में वापस आयेगी। अब अनेक बड़े अर्थशास्त्री मान रहे हैं कि आने वाले कई सालों तक जीडीपी 5 प्रतिशत से नीचे ही रहेगी। यानी निवेश कम होगा, उत्पादन कम होगा और लोगों को नौकरियाँ कम मिलेंगी। मज़दूरी और वेतन में और कटौतियाँ होंगी।
बैंकों की हालत पहले से ख़राब है। बैंकों के दिये बड़े कर्ज़े तो डूबे हुए ही थे, हाउसिंग से लेकर तमाम दूसरी तरह के कर्ज़ वापस आने की रफ़्तार भी बहुत धीमी हो गई है। बैंकों के कर्ज़ का भारी हिस्सा एनपीए हो चुका है, यानी उस पर ब्याज भी वापस नहीं आ रहा है। मोदी सरकार आने के बाद से बैंक 6,60,000 करोड़ रुपये बट्टे खाते में डाल चुके हैं। इस स्थिति में सुधार की अभी दूर-दूर तक कोई सम्भावना नहीं है। इसकी भरपाई के लिए सरकार बैंकों को पैकेज देगी, वह भी लोगों को और निचोड़कर ही वसूला जायेगा। रिज़र्व बैंक ने पहली मार्च को कहा कि बड़े उद्योग बैंक से कर्ज़ उठा नहीं रहे हैं और उद्योगों के संकट के कारण बैंक भी उन्हें कर्ज़ देने में हिचकिचा रहे हैं। इसके साथ ही होम लोन में भी गिरावट आयी है यानी लोग घर बनवाने या ख़रीदने के लिए कर्ज़ कम ले रहे हैं। इसका सीधा असर स्टील, सीमेंट और निर्माण उद्योग जैसे सेक्टरों पर पड़ेगा।
अर्थव्यवस्था के सिकुड़ने से अमीरों के ऐशो-आराम में कमी नहीं आयेगी, पर इसका सीधा असर ग़रीबों और मेहनतकशों पर पड़ेगा। उनके श्रम की लूट और बढ़ जायेगी।
सेंटर फ़ॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी (सीएमआईई) के अनुसार पिछले साल की तीसरी तिमाही में भारत की सबसे बड़ी 1897 कम्पनियों ने 1.33 लाख करोड़ रुपये का मुनाफ़ा कमाया, जो किसी भी तिमाही का सबसे अधिक मुनाफ़ा था। महामारी और लॉकडाउन में कम्पनियों की आमदनी घटने के बावजूद यह चमत्कार कैसे हुआ? यह इसलिए हुआ क्योंकि बड़ी कम्पनियों ने अपना ख़र्च घटा दिया। ख़र्च कैसे कम किया? उन्होंने बड़े पैमाने पर मज़दूरों-कर्मचारियों की छँटनी की या उन्हें कम वेतन वाले कॉन्ट्रैक्ट पर रख लिया।
वैसे ये सभी कम्पनियाँ पिछले 6 साल से मुनाफ़ा कमा रही थीं। जून 2020 की तिमाही में उनका मुनाफ़ा 44.1 हज़ार करोड़ था और मार्च 2020 की तिमाही में 32 हज़ार करोड़ का। पिछली चार तिमाहियों में इन कम्पनियों का औसत मुनाफ़ा दर 50.2 हज़ार करोड़ था। इनके मुनाफ़े की दर ज़रूर नीचे जा रही थी जिसके लिए पूँजीपति लगातार होहल्ला कर रहे थे और सरकार पर तरह-तरह का दबाव बना रहे थे। लेकिन मज़दूरों को ज़्यादा से ज़्यादा निचोड़कर उनका कुल मुनाफ़ा बढ़ ही रहा था। मोदी सरकार इसमें उनकी हर तरह से मदद कर रही थी।
अर्थव्यवस्था के संकट और सुस्ती की क़ीमत तो इन कम्पनियों के मज़दूर और आम लोग ही चुका रहे थे। बेरोज़गारी, मज़दूरी में कटौती, कल्याणकारी योजनाओं पर सरकारी ख़र्च में कमी के रूप में, और सबसे बढ़कर परिवार की बुनियादी ज़रूरतों पर ख़र्च में कटौती के रूप में।
और यह हालत सिर्फ़ भारत में ही नहीं है। स्विस बैंक यूबीएस के मुताबिक, पिछले वर्ष अप्रैल से जुलाई के बीच, जब महामारी से दुनिया तबाह थी, तो विश्व के खरबपतियों की दौलत 27.5 प्रतिशत बढ़कर रिकॉर्डतोड़ 10.2 ट्रिलियन डॉलर हो गयी। यूबीएस और वैश्विक अकाउंटिंग फ़र्म प्राइसवॉटरहाउस कूपर्स की एक रिपोर्ट के अनुसार, इसी अवधि में भारत के खरबपतियों की दौलत 35 प्रतिशत बढ़कर 423 बिलियन डॉलर पहुँच गयी।
इसमें कुछ भी हैरानी की बात नहीं है। पूँजीवाद के तहत हर मानवीय त्रासदी, हर आपदा मुट्ठीभर थैलीशाहों और उनके लग्गुओं-भग्गुओं की लूट को और बढ़ाने का एक मौक़ा बन जाती है। पूँजीपतियों को सिर्फ़ और सिर्फ़ मुनाफ़ा बटोरने से मतलब होता है।
नरेन्द्र मोदी पूँजीपतियों और प्राइवेट सेक्टर का गुणगान करते नहीं थकते हैं। लालकिले से लेकर धनपतियों की सभा तक में वह उन्हें “वेल्थ क्रिएटर” (सम्पदा पैदा करने वाले) बताते हैं और कहते हैं उनकी उद्यमिता और “रचनात्मकता” से सबको फ़ायदा होता है। ख़ैर, अपने मालिकों की शान में कसीदे पढ़ना चाकरों के लिए नयी बात नहीं है। लेकिन असलियत यह है कि वे सिर्फ़़ लुटेरे हैं और देश के लोगों की मेहनत और देश के संसाधनों को लूटकर अपनी तिजोरियाँ भरना ही उनका काम है।
इसी का नतीजा है कि देश में ग़रीबों, बेरोज़गारों, बेघर लोगों की तादाद लगातार बढ़ती ही गयी है। देश की लगभग 46 करोड़ मज़दूर आबादी में से 93 प्रतिशत, या 43 करोड़ मज़दूर असंगठित क्षेत्र में धकेल दिये गये हैं, जहाँ वे बिना किसी क़ानूनी सुरक्षा के ग़ुलामों जैसी परिस्थितियों में काम करने के लिए मजबूर हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार 45 करोड़ भारतीय ग़रीबी रेखा के नीचे जी रहे हैं, जिसका अर्थ है कि वे भुखमरी की कगार पर बस किसी तरह ज़िन्दा हैं। अनुमान लगाया जा रहा हैकि कोरोना काल की नीतियों के कारण आने वाले वर्षों में लगभग चालीस करोड़ और आबादी खिसककर ग़रीबों की जमात में जा सकती है।
ऑक्सफ़ैम की रिपोर्ट के अनुसार पिछले वर्ष देश में पैदा हुई कुल सम्पदा का 73 प्रतिशत देश के सबसे अमीर एक प्रतिशत लोगों की मुट्ठी में चला गया। इस छोटे-से समूह की सम्पत्ति में पिछले चन्द वर्षों के दौरान 20.9 लाख करोड़ रुपये की बढ़ोत्तरी हुई जो 2017 के केन्द्रीय बजट में ख़र्च के कुल अनुमान के लगभग बराबर है। दूसरी ओर, देश के 67 करोड़ नागरिकों, यानी सबसे ग़रीब आधी आबादी की सम्पदा सिर्फ़ एक प्रतिशत बढ़ी। एक तरफ़ ग़रीबी लगातार बढ़ रही है, दूसरी ओर, उद्योगपतियों, राज नेताओं, ऊँचे सरकारी अधिकारियों, ठेकेदारों आदि की छोटी-सी आबादी के पास पैसों का पहाड़ लगातार ऊँचा होता जा रहा है। आम जनता की बढ़ती तबाही के बीच इस परजीवी जमात की ऐयाशियाँ बढ़ती जा रही हैं। महामारी के दौर में इस परजीवी जमात ने भी तमाम तरीकों से अपनी दौलत में इज़ाफ़ा किया।
समाज के एक छोर पर पूँजी संचय और दूसरे छोर पर ‘’ग़रीबी संचय’’ पूँजीवादी उत्पादन प्रक्रिया का लाज़िमी नतीजा है। अधिक से अधिक मुनाफ़ा कमाने की हवस और दूसरों के मुकाबले बाज़ार में टिके रहने का दबाव पूँजीपतियों को लगातार अपना पूँजी संचय बढ़ाते जाने के लिए बाध्य करता है। पूँजीपति जितना अधिक शोषण करता है संचित पूँजी उतनी ही ज़्यादा होती है और यह संचित पूँजी शोषण के नये-नये साधनों के ज़रिये मज़दूरों का शोषण और बढ़ाती जाती है। नयी-नयी मशीनें मज़दूरों को धकियाकर काम से बाहर कर देती हैं। इसके अलावा, उत्पादन तकनीकों के लगातार विकास से स्त्रियाँ और बच्चे भी भाड़े के मज़दूरों में शामिल हो जाते हैं। साथ ही देहाती क्षेत्रों में पूँजी की घुसपैठ भारी संख्या में ग़रीब व मँझोले किसानों का भी लगातार कंगालीकरण करती जाती है और वे आजीविका कमाने के लिए शहरों की ओर उमड़ पड़ते हैं। यह पूँजीवादी उत्पादन प्रक्रिया का न टाला जा सकने वाला नतीजा है जिसके कारण आज दुनिया के पैमाने पर बेरोज़गारी बढ़ रही है। यह किसी की इच्छा से रुक नहीं सकती।
इसी तरह जब तक पूँजीवादी व्यवस्था मौजूद है तब तक दुनिया के पैमाने पर बढ़ती ग़रीबी को रोकना भी किसी की इच्छा के वश में नहीं है। मज़दूर अपनी श्रमशक्ति ख़र्च कर जो नया मूल्य पैदा करता है उसका अधिकाधिक हिस्सा पूँजीपति हड़पता जाता है और मज़दूरों की मज़दूरी का हिस्सा कम होता जाता है। राष्ट्रीय आय के वितरण में असमानता लगातार बढ़ते जाने का यह बुनियादी कारण है। इसके साथ ही लगातार बढ़ती बेरोज़गारी, मुद्रास्फीति के कारण वास्तविक आमदनी में कमी और ख़राब जीवन दशाओं के कारण मज़दूर वर्ग पूर्ण दरिद्रीकरण की अवस्था में पहुँच जाता है। पूँजीवादी समाज में मज़दूरों के पूर्ण दरिद्रीकरण की इस प्रक्रिया की चर्चा करते हुए मज़दूर वर्ग के शिक्षक और महान नेता लेनिन ने लिखा था, ‘’मज़दूरों का पूर्ण दरिद्रीकरण हो जाता है। यानी, वे ग़रीब से ग़रीबतर होते जाते हैं, उनका जीवन और दुखपूर्ण हो जाता है, उनका भोजन बदतर होता जाता है और पेट कम भर पाता है और उन्हें तलघरों और छोटी कोठरियों में रेवड़ों की तरह रहना पड़ता है।’’
पूँजीवादी उत्पादन की इसी प्रक्रिया यानी पूँजीपतियों की मुनाफ़े और पूँजी संचय की अन्धी हवस का ही नतीजा आज हमारे देश में देखने को मिल रहा है। सकल घरेलू उत्पाद की लगातार बढ़ती वृद्धि दर लेकिन आम मेहनतकश जनता की बढ़ती दरिद्रता – ये दो विरोधी सच्चाइयाँ एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। भूमण्डलीकरण के इस दौर में राष्ट्रीय आय में पूँजीपति वर्ग और उसके लग्गुओं-भग्गुओं का हिस्सा लगातार बढ़ता गया है और मेहनतकशों का घटता गया है। केन्द्र और राज्य की सभी सरकारें आज देशी-विदेशी पूँजीपतियों को मेहनतकशों के शोषण की मनमानी छूट देने के साथ ही करों में भी बेतहाशा छूटें देकर उनकी तिजोरियाँ भरने के मौक़े दे रही हैं।
मेहनतकश जनता को यह समझना होगा कि उनकी बदहाली का बुनियादी कारण महज़ किसी सरकार का निकम्मापन नहीं वरन देश की मौजूदा पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली है। ये सारी सरकारें पूँजीपति वर्ग की मैनेजिंग कमेटी के तौर पर काम करती हैं जिसका एक ही मक़सद है – अपने आकाओं के मुनाफ़े को सुरक्षित रखना और लगातार बढ़ाते जाना, चाहे इसके लिए जनता को कितना भी निचोड़ना पड़े। पूँजीपतियों के लगातार बढ़ते मुनाफ़े या मुट्ठीभर ऊपरी धनी तबक़े की ख़ुशहाली का कारण मज़दूरों का दिनोंदिन बढ़ता शोषण है। किसी मज़दूर के लिए यह समझना कठिन नहीं कि अपनी श्रमशक्ति का उपयोग करके वह केवल उतना मूल्य नहीं पैदा करता जितना मज़दूरी के रूप में उसे मिलता है। वह तो उसके द्वारा पैदा किये गये मूल्य का एक छोटा हिस्सा ही होता है। बाकी हिस्सा पूँजीपति हड़प कर जाता है जिसे न केवल वह अपनी विलासिता पर ख़र्च करता है बल्कि पूँजी संचय कर और अधिक मुनाफ़ा कमाता जाता है और मज़दूर दरिद्र से दरिद्रतर होता जाता है। मज़दूर के गुज़ारे के लिए ज़रूरी वस्तुओं की क़ीमतों में बढ़ोत्तरी की तुलना में उसकी वास्तविक आय में बढ़ोत्तरी इतनी कम होती है कि उसे और उसके परिवार को आधे पेट सोने पर मजबूर होना पड़ता है। लेकिन सरकार सहित सारे पूँजीवादी अर्थशास्त्री और समूचा पूँजीवादी मीडिया इस बुनियादी सच्चाई पर पर्दा डालने के लिए आँकड़ों के फ़र्ज़ीवाड़े के साथ ही माँग और पूर्ति की व्यवस्था के असन्तुलन को महँगाई के लिए ज़िम्मेदार ठहराते हैं। मनमोहन सरकार के वित्तमन्त्री चिदम्बरम का यह बयान कौन भूल सकता है जिसमें उन्होंने कहा था कि महँगाई इसलिए बढ़ रही है क्योंकि लोग अब ज़्यादा खाने लगे हैं।
मगर यह झाँसापट्टी सदा-सर्वदा चलती ही रहेगी, ऐसा मानने वाले भारी भुलावे में जी रहे हैं। उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों से देश के भीतर अमीरी-ग़रीबी की जो खाई लगातार चौड़ी होती जा रही है, वह देश की समूची पूँजीवादी व्यवस्था को अन्त के और क़रीब लाती जा रही है। पूँजीवादी व्यवस्था के इसी संकट ने भारत सहित दुनिया भर में फासिस्ट शक्तियों को मज़बूती दी है। तमाम शिकायतों के बावजूद देश के बड़े पूँजीपति इसीलिए मोदी सरकार के पीछे खड़े हैं। मगर फासीवाद पूँजीवाद को उसके विनाश से नहीं बचा सकता, बल्कि जनता पर बरपा होने वाले कहर को और भी बढ़ाकर संकट को और तीखा कर देता है। आज जितने बड़े पैमाने पर देश में औद्योगिक सर्वहारा वर्ग औद्योगिक महानगरों में इकट्ठा होता जा रहा है, वह ख़ुद पूँजीवादी व्यवस्था के लिए मौत का साजो-सामान बन रहा है। देश को आर्थिक महाशक्ति बनाने के नाम पर मेहनतकश अवाम के अन्धाधुन्ध शोषण के दम पर समृद्धि की जो मीनारें खड़ी हो रही हैं, उनके चारों ओर बारूद इकट्ठा होता जा रहा है। पूँजीवादी व्यवस्था के अन्तर्गत इसे रोकने का कोई उपाय नहीं है। ‘’पूँजी संचय की प्रक्रिया न केवल पूँजीवाद के विनाश की परिस्थितियों, यानी सामाजिक आधार पर बड़े पैमाने के उत्पादन को तैयार करती है बल्कि पूँजीवाद की क़ब्र खोदने वाले को – सर्वहारा को भी जन्म देती है।’’ पूँजी संचय की प्रक्रिया की इस ऐतिहासिक परिणति की ओर इशारा करते हुए मज़दूरों के शिक्षक और नेता कार्ल मार्क्स ने पूरे विश्वास के साथ घोषणा की थी : ‘’यह बम फटने वाला है, पूँजीवादी निजी स्वामित्व की घण्टी बजने वाली है। स्वत्वहरण करने वाले का स्वत्वहरण कर लिया जायेगा।’’
‘’स्वत्वहरण करने वालों का स्वत्वहरण’’ करना मज़दूर वर्ग का ऐतिहासिक मिशन है। पूँजीपति वर्ग और उसे अपना ज़मीर बेच चुके बुद्धिजीवियों द्वारा बोले जाने वाले तमाम झूठों में से एक यह है कि पूँजीपति मज़दूर को पालता है। इसके उल्टे सच यह है कि मज़दूर अपनी श्रमशक्ति से नया मूल्य पैदा कर पूँजीपतियों का न केवल पेट पालता है बल्कि उसकी पूँजी भी बढ़ाता है। साफ़ है कि पूँजीपति वर्ग और उसके तमाम लग्गू-भग्गू मज़दूरों की देह पर चिपकी ख़ून चूसने वाली जोंकों के समान हैं। इन जोंकों से छुटकारा पाना मज़दूर वर्ग का नैतिक कर्तव्य है। मज़दूर वर्ग के हरावलों को व्यापक मज़दूर आबादी के बीच जाकर उन्हें इस नैतिक कर्तव्य को निभाने के लिए तैयार करना होगा।

मज़दूर बिगुल, मार्च 2021


 

‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्‍यता लें!

 

वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये

पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये

आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये

   
ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीऑर्डर के लिए पताः मज़दूर बिगुल, द्वारा जनचेतना, डी-68, निरालानगर, लखनऊ-226020 बैंक खाते का विवरणः Mazdoor Bigul खाता संख्याः 0762002109003787, IFSC: PUNB0185400 पंजाब नेशनल बैंक, निशातगंज शाखा, लखनऊ

आर्थिक सहयोग भी करें!

 
प्रिय पाठको, आपको बताने की ज़रूरत नहीं है कि ‘मज़दूर बिगुल’ लगातार आर्थिक समस्या के बीच ही निकालना होता है और इसे जारी रखने के लिए हमें आपके सहयोग की ज़रूरत है। अगर आपको इस अख़बार का प्रकाशन ज़रूरी लगता है तो हम आपसे अपील करेंगे कि आप नीचे दिये गए बटन पर क्लिक करके सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग भी करें।
   
 

Lenin 1बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।

मज़दूरों के महान नेता लेनिन

Related Images:

Comments

comments