भण्डारा में 10 नवजात शिशुओं की मौत की ज़िम्मेदार पूँजीवादी व्यवस्था है
– अविनाश
भण्डारा में 10 नवजात शिशुओं की मौत की घटना हर संवेदनशील व्यक्ति को अन्दर तक झकझोर कर रख सकती है। किसी भी व्यक्ति के अन्दर उन माओं की चीख़ों- चीत्कारों को सुनकर ज़रूर छटपटाहट पैदा होगी। अगर ऐसा नहीं है, तो शायद आप भी इस मुनाफ़ा केन्द्रित व्यवस्था के अन्दर गिद्ध व नरभक्षी जमात में शामिल हो चुके हैं। भण्डारा ज़िला अस्पताल के SNCU (Sick Neonatal Care Unit) में आग लगने की वजह से 10 नवजात शिशुओं की मौत हो गयी। इन शिशुओं की उम्र 7 दिन से 3 महीने के बीच थी। जिनमें से 3 शिशुओं की मौत आग में बुरी तरह से झुलस जाने से हुई , वही 7 शिशुओं की मौत आग का धुआँ साँसों में जाने से हुई। आग की घटना रात के 1:30 बजे घटी थी। मगर इसकी ख़बर 2 बजे मिली। जिसके चलते 17 शिशुओं के वार्ड में 7 शिशुओं को ही बचाया जा सका, बाक़ी 10 शिशुओं को जान गँवानी पड़ी। मगर यह महज़ लापरवाही की घटना नहीं है।
यह हादसा नहीं, हत्या है!
भण्डारा ज़िला अस्पताल SNCU (Sick Neonatal Care Unit) को 2015 में बिना किसी आग के सुरक्षा इन्तज़ामात के खोला गया था। जिसका उद्घाटन तब हुआ था, जब भाजपा की सरकार मौजूद थी। वहीं मौजूदा शिवसेना-कांग्रेस-एनसीपी की सरकार में भी आग से सुरक्षा के इन्तज़ाम के लिए 1.52 करोड़ रुपये का प्रस्ताव पिछले 7 महीने से मंज़ूर नहीं किया गया था। सिविल सर्जन द्वारा 2 बार नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ फ़ायर सेफ़्टी इंजीनियरिंग को सुरक्षा इन्तज़ामात के लिए लिखा गया था, मगर सरकार के कान में जूँ तक नहीं रेंगी। आज तमाम चुनावबाज़ पार्टियों के नेता मगरमच्छ के आँसू बहाने का काम कर रहे हैं। पर यह घटना पूरी तरह से सरकार की अनदेखी का नतीजा है।
अस्पतालों में सुरक्षा इन्तज़ाम को देखें तो तस्वीर और स्पष्ट हो जाती है। नेशनल एक्रीडिटेशन बोर्ड फ़ॉर हॉस्पिटल्स एण्ड हेल्थकेयर प्रोवाइडर्स (NABH) के अनुसार अस्पताल में आग से सुरक्षा इन्तज़ामात के लिए आग बुझाने का यंत्र, पानी छिड़काव, स्वचालित फ़ायर अलार्म आदि का होना एक ज़रूरी शर्त है। मगर भण्डारा अस्पताल में इसके हिसाब से इन्तज़ाम नहीं किये गये थे। वहीं NABH द्वारा पिछले 2 साल से कोई मॉक ड्रिल भी नहीं किया गया है। भण्डारा अस्पताल डॉक्टर और नर्सें की कमी से जूझ रहा है। राज्य सरकार की गाइडलाइन के अनुसार SNCU में 16 बेड्स पर 3 नर्स होनी चाहिए। मगर भण्डारा ज़िला अस्पताल में 36 नर्स की ख़ाली जगह पर सिर्फ़ 28 नर्स ही भर्ती हुई थीं। घटना की रात को भी 17 बेड पर सिर्फ़ 2 नर्स मौजूद थी। एक आँकड़े के अनुसार जनवरी 2010 से दिसम्बर 2019 तक 33 अस्पतालों में इसी तरह आग की घटना देखनो को मिली है। पूरे भारत में स्वास्थ्य की बात करें तो 130 करोड़ की आबादी में सिर्फ़ 10 लाख रजिस्टर्ड डॉक्टर मौजूद हैं। 10,189 लोगों पर एक सरकारी अस्पताल का डॉक्टर मौजूद है। एक सरकारी अस्पताल का बेड 2046 लोगों पर मौजूद है। 90,043 लोगों पर एक सरकारी अस्पताल है। ऐसे में एक तरफ़ वैसे ही सरकारी अस्पताल और डॉक्टर की कमी है, जो मौजूद है उनकी भी बेहद ख़स्ता हालत है। ऐसे में मुनाफ़े कमाने की होड़ में आम आबादी की ज़िन्दगी से खेलने का काम किया जा रहा है।
ऐसे में यह समझने की ज़रूरत है कि यह घटना कोई अपवाद नहीं है। सरकार के ग़ैर-ज़िम्मेदाराना रवैये के कारण पिछले कुछ वर्षों में देश भर के सरकारी अस्पतालों में सैकड़ों नागरिकों और बच्चों को अपनी जान गँवानी पड़ी है। पिछले छह महीनों में देश में इस तरह की यह तीसरी घटना है। नवम्बर 2020 में, गुजरात के राजकोट में एक अस्पताल में आग लगने से कोरोनरी हृदय रोग के पाँच रोगियों की मौत हो गयी। इसी तरह की घटना अगस्त 2020 में अहमदाबाद के एक अस्पताल में हुई थी जिसमें आठ कोरोना पीड़ितों की मृत्यु हो गयी थी। अगस्त 2017 में, गोरखपुर के एक सरकारी अस्पताल में छह दिनों में 64 बच्चों की मौत हो गयी। सरकार ने उन वितरकों के बिलों का भुगतान नहीं किया जिनसे सरकार कई महीनों से अस्पताल के लिए ऑक्सीजन ले रही थी। इसलिए वितरक ने अस्पताल में ऑक्सीजन की आपूर्ति बन्द कर दी। सरकार द्वारा बिलों का भुगतान न करने के कारण 64 बच्चों की जान चली गयी। जून 2019 में, बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर में मेनिन्जाइटिस से 116 बच्चों की मौत हो गयी, क्योंकि सरकार इस प्रकोप को रोकने के लिए तैयार नहीं थी। इन सभी घटनाओं के लिए केवल सरकार की लापरवाही ज़िम्मेदार है। इसलिए, ये घटनाएँ दुर्घटनाएँ नहीं हैं। इन मामलों में होने वाली मौतें दुर्घटनाएँ नहीं हैं बल्कि पूँजीवादी व्यवस्था द्वारा की गयी हत्याएँ हैं।
हाल ही में 1 फ़रवरी को वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने स्वास्थ्य के बजट में 137% वृद्धि की बात कही है। ‘प्रधानमंत्री स्वस्थ भारत अभियान’ की घोषणा की गयी है। मगर इतिहास बताता है कि इन तमाम ढकोसलों के बीच ही गोरखपुर में ऑक्सीजन सिलिण्डर की कमी से 64 बच्चों की मौत हो गयी थी व दिमाग़ी बुखार से सैकड़ों बच्चे मर गये थे। इन घटनाओं के बाद ही सरकार इसी तरह कभी 400 बेड के मल्टी स्पेशलिटी हॉस्पिटल की बात करती है तो कभी कड़ी कार्यवाई का आश्वासन देती है। मगर यह महज़ खोखले वायदे ही साबित होते हैं। कोरोना काल में जब लोग मर रहे थे, तब भी थाली-ताली का ख़ूब शोर दिख रहा था। ऐसे में आज ज़रूरी है कि सम्पूर्ण स्वास्थ्य प्रणाली का राष्ट्रीयकरण कर सभी के लिए मुफ़्त, गुणवत्तापूर्ण और सुरक्षित स्वास्थ्य व्यवस्था के अधिकार के लिए संघर्ष तेज़ करने का काम हाथ में लिया जाये।
मज़दूर बिगुल, फ़रवरी 2021
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