कोरोना महामारी और लॉकडाउन
ज़िम्मेदार कौन है? क़ीमत कौन चुका रहा है?
– सम्पादकीय
दुनिया कोरोना महामारी से जूझ रही है। ये शब्द लिखे जाने तक 2,33,000 से ज़्यादा मौतें हो चुकी हैं, जिनमें से करीब 1200 मौतें भारत में हुई हैं। दुनिया में अब तक कुल 32.6 लाख लोग इससे संक्रमित हो चुके हैं, जिनमें से 10.01 लाख ठीक हो गये हैं। भारत में कुल संक्रमित लोगों की संख्या अब तक 35 हज़ार पार कर चुकी है, जिनमें से 8,889 लोग ठीक हुए हैं। कोरोना संक्रमण के महामारी में तब्दील होने के कारण दुनिया के अधिकांश देशों में पूर्ण या आंशिक लॉकडाउन घोषित किया गया है। आर्थिक गतिविधियाँ काफी हद तक रुक गयी हैं। अमेरिका 1930 की महामन्दी के बाद सबसे गहरी आर्थिक मन्दी के सामने खड़ा है, जर्मनी द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद सबसे गम्भीर आर्थिक संकट की कगार पर है, चीन भी पूँजीवादी पुनर्स्थापना के बाद से वृद्धि दर के मामले में सबसे बुरी आर्थिक हालत में पहुँच रहा है। भारत की हालत और भी खस्ता है और उसकी वृद्धि दर तो 2 प्रतिशत के भी नीचे जाने की सम्भावना पैदा हो चुकी है, जिसका अर्थ होगा आने वाले समय में अभूतपूर्व बेरोज़गारी। दुनिया भर के पूँजीवादी शासक वर्ग इस अभूतपूर्व संकट का ठीकरा कोरोना महामारी के सिर फोड़ रहे हैं, जबकि सच्चाई यह है कि पूँजीवादी दुनिया पहले ही मुनाफ़े की घटती दर के पूँजीवादी संकट के भँवर में फँसी हुई थी। निश्चित तौर पर, कोरोना महामारी ने इस संकट को और अधिक गहरा और असमाधेय बनाने में एक महत्वपूर्ण तात्कालिक भूमिका निभायी है।
कोरोना महामारी के बारे में हमारे देश की फासीवादी मोदी सरकार और साथ ही दुनिया के दूसरे पूँजीवादी मुल्कों की सरकारें जनता को बता रही हैं कि कोरोना संक्रमण पर उनका कोई नियंत्रण नहीं था। यह उनकी ग़लती नहीं थी। यह तो पशु जगत से आया नया वायरस है और इसमें सरकारें कुछ नहीं कर सकती हैं।
क्या यह सच है? नहीं! ढाँचागत तौर पर भी तमाम नये वायरल संक्रमणों के लगातार बढ़ते जाने के लिए कुदरत और मेहनत की अन्धी लूट ज़िम्मेदार है। इस लूट के पीछे पूँजीपतियों का, यानी मालिकों, ठेकेदारों, व्यापारियों की मुनाफ़े की अन्धी हवस खड़ी है। इसलिए सबसे पहले तो यह समझना चाहिए कि पिछले 30 वर्षों में वायरल संक्रमणों की बारम्बारता बढ़ने के पीछे संकटग्रस्त पूँजीवाद की मानवद्रोही मुनाफ़ाखोरी और उससे संचालित विकास का वह मॉडल है, जिसके केन्द्र में इंसान नहीं है, समाज नहीं है, बल्कि मुट्ठी भर धन्नासेठों की तिजोरियाँ भरना है।
दूसरी बात यह है कि जब भी मनुष्य प्रकृति के साथ सम्बन्ध स्थापित करता है, उत्पादन करता है, सन्धान करता है तो पशु जगत व आम तौर पर प्रकृति से कुछ वायरस मनुष्यों में आते ही हैं। आज वह प्रक्रिया पूँजीपति वर्ग की नवउदारवादी नीतियों के कारण बढ़ गयी है, लेकिन ऐसा मानव समाज की शुरुआत से ही होता रहा है। जब मनुष्यों के पास उन्नत चिकित्सा विज्ञान नहीं था, तो कई वायरस संक्रमणों को महामारी बनने से रोकना सम्भव नहीं था। यूरोप में मध्य युग में प्लेग की महामारी (ब्लैक डेथ) से लेकर 1918-19 के स्पैनिश फ्लू महामारी तक, मनुष्यता ने ऐसी महामारियाँ देखी हैं, जिन्होंने लाखों नहीं बल्कि करोड़ों की संख्या में लोगों की जान ले ली। इसी प्रक्रिया में इन वायरसों को मानव शरीर ने जान लिया और उनके प्रतिरोध की प्रणाली विकसित कर ली, यानी इन वायरसों की एण्टी-बॉडी विकसित कर ली, क्योंकि मानव शरीर भी सीखता है और जब पूरी की पूरी आबादी का 70 से 80 फ़ीसदी हिस्सा किसी वायरस से संक्रमित होकर ठीक होता है, तो मानव शरीर उस वायरस के प्रति प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर लेता है।
उन्नीसवीं सदी के बाद से मनुष्यता ने बड़े पैमाने पर अनेक वैक्सीन भी विकसित किये, जिन्होंने कई वायरसों के प्रति मानव शरीर को इम्यून बना दिया। इक्कीसवीं सदी में विज्ञान और तकनोलॉजी इतने उन्नत हो चुके हैं कि किसी भी वायरल संक्रमण को महामारी बनने से रोका जा सकता है। लेकिन चूँकि पूँजीवादी दुनिया में विज्ञान और तकनोलॉजी भी पूँजी की सेवा में लगा दिये जाते हैं, इसलिए उनका मकसद भी बस मुनाफ़े की दर को बढ़ाना रह जाता है, न कि मनुष्यता और समाज की बेहतरी। नतीजतन, एक ओर पूँजीवादी मुनाफ़ाखोरी से वायरल संक्रमणों की बारम्बारता बढ़ती जा रही है, वहीं इन वायरल संक्रमणों को महामारी बनने से नहीं रोका जा पा रहा है, क्योंकि पूँजीपति वर्ग की यह प्राथमिकता ही नहीं है। वह अपनी मुनाफ़े की हवस में अन्धा है। उसे तुरत मुनाफ़ा चाहिए, वरना उसका प्रतिस्पर्द्धी उसे निगल जायेगा। आपसी होड़ पर टिकी अराजकतापूर्ण पूँजीवादी व्यवस्था में आन्तरिक तौर पर यह क्षमता ही नहीं है कि वह ऐसे वायरल संक्रमणों को रोक सके, उन्हें कम कर सके या उन्हें महामारी में तब्दील होने से रोक सके। कोरोना संक्रमण भी एक महामारी में तब्दील हुआ है, तो यह कोई प्राकृतिक विपदा नहीं थी जिसे रोका नहीं जा सकता था। निश्चित तौर पर इसे रोका जा सकता था। लेकिन पूँजीपति वर्ग और उसकी राज्यसत्ता के लिए यह न तो ज़रूरी था और न ही सम्भव, हालांकि अब उस महामारी की कीमत अभूतपूर्व संकट के रूप में वह खुद भी चुकाएगा और उसका बोझ मेहनतकश जनता पर डालकर उससे भी अधिक से अधिक कीमत वसूलेगा। यह कोई राजनीतिक नारेबाज़ी नहीं है, बल्कि सच है। थोड़ा करीबी से समझते हैं।
वायरल संक्रमण कैसे पैदा होते हैं? वे मनुष्यों में कैसे पहुँचते हैं? वे महामारी कैसे बनते हैं? पिछले चार दशकों में वायरल संक्रमणों व महामारियों की बारम्बारता क्यों बढ़ रही है?
जब मनुष्य जिन्दा रहने के अपने संघर्ष में प्रकृति के साथ रिश्ता बनाता है, तो उस प्रक्रिया में कई वायरस जो कि पशु जगत व आम तौर पर प्रकृति में मौजूद होते हैं, मनुष्यों के शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। हो सकता है कि उन पशुओं में ये वायरस किसी रोग का कारण न बनें, लेकिन मनुष्यों के शरीर में ये अस्वस्थता का कारण बन जाते हैं। इसलिए इतनी बात तय है कि जब इंसान अपने जीवन के उत्पादन व पुनरुत्पादन के लिए प्रकृति से सम्बन्ध बनायेगा (और वह बनायेगा ही क्योंकि उत्पादन के लिए दो प्रमुख चीज़ें ही ज़रूरी होती हैं: प्राकृतिक सामग्री और श्रम), तो स्वत:स्फूर्त प्रक्रिया में वायरस प्रकृति से मानव शरीर में भी आयेंगे। यह स्वाभाविक है। सारे वायरस बीमारी का कारण या जानलेवा भी नहीं होते हैं, जिनके साथ इंसान सामान्य जीवन जीता रहता है। लेकिन कुछ वायरस मानव शरीर के लिए रोग का कारण बनते हैं और कई बार मौत का कारण भी बन सकते हैं। लेकिन इतना साफ है कि किसी भी व्यवस्था के मातहत, प्रकृति से मनुष्यों के बीच वायरल संक्रमण होंगे। समाजवादी चीन में भी 1957 और फिर 1967 में वायरल संक्रमण फैले थे और उन्होंने कुछ क्षेत्रों में महामारी का रूप भी ले लिया था। चीन की समाजवादी सरकार ने 1967 में मेनिंजाइटिस की महामारी को रोकने के लिए प्रभावित प्रान्तों में सार्वजनिक सभाओं, जुटानों आदि पर रोक लगा दी थी। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि इसके साथ चीन में बेहद सक्रियता से समाजवादी सरकार ने मरीज़ों की पहचान, उन्हें अलग करने और उनका उपचार करने का काम किया था जिससे कि जल्द ही महामारी पर काबू पा लिया गया था। इसलिए स्पष्ट है कि समाजवादी व्यवस्था में भी वायरल संक्रमण होंगे। सवाल यह है कि इन्हें महामारी बनने से कैसे रोका जा सकता है।
वायरस संक्रमण अपने आप में महामारी नहीं होते। वे बचाव व नियंत्रण के सही क़दम सही वक़्त पर न उठाने के कारण महामारी बन जाते हैं। कोरोना महामारी के सन्दर्भ में यह बात स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है।
लेकिन उससे पहले हम इस बात को समझ लें कि पिछले तीन से चार दशकों में दुनिया भर में वायरल संक्रमण और उनसे पैदा होने वाली महामारियाँ बढ़ी क्यों हैं? निश्चित तौर पर प्रकृति के साथ मनुष्य के सम्बन्ध-सहकार की प्रक्रिया में पशु जगत से वायरल संक्रमण हर सूरत में आयेंगे। लेकिन सीधा-सा गणित है कि अगर पूँजीवादी मुनाफ़े की अन्धी हवस में दुनिया की तमाम कम्पनियाँ जंगलों को नष्ट करती जायेंगी, तमाम प्रजातियों के घरों को समाप्त करती जायेंगी, प्रकृति की जैव-विविधता को समाप्त करती जायेंगी, तो इंसानों का प्रकृति के साथ यह सम्बन्ध एक विनाशकारी रूप ले लेगा। यदि तमाम जीव-जन्तुओं के प्राकृतिक वास स्थल तबाह होंगे, तो मानव समाज से उनका सम्पर्क इतना बढ़ेगा, जिससे वायरसों के मनुष्यों के संक्रमित होने की सम्भावना काफ़ी बढ़ जायेगी।
विश्व पूँजीवादी व्यवस्था 1970 के दशक से एक संकट से जूझ रही है : यह संकट है मुनाफ़े की गिरती दर का संकट। इसका कारण यह है कि आपसी प्रतिस्पर्द्धा में और साथ ही मज़दूरों के साथ वर्ग संघर्ष के कारण उत्पादन में मशीनीकरण बढ़ता जाता है। पूँजीवादी समाज में पूँजीपति वर्ग इस बात के लिए मजबूर होता है कि वह मज़दूर की उत्पादकता को बढ़ाये, अपने माल की लागत को घटाये, उसकी कीमत को कम करे ताकि अपने प्रतिस्पर्द्धी पूँजीपति को बाज़ार में हरा सके। इसी होड़ के कारण समूची पूँजीवादी उत्पादन पद्धति में मशीनीकरण बढ़ता जाता है। लेकिन हम जानते हैं कि नया मूल्य मज़दूर के श्रम से पैदा होता है। अगर सम्पूर्ण पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था के स्तर पर उत्पादन में मज़दूर के जीवित श्रम की भूमिका घटेगी और मशीनों की भूमिका बढ़ेगी, तो कुल नया पैदा होने वाला मूल्य घटेगा और इसलिए मुनाफ़े की दर भी घटेगी। यही वजह है कि पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में मुनाफ़े की दर में गिरने की एक दीर्घकालिक रुझान होती है। बहरहाल, इस घटते मुनाफ़े को बढ़ाने के लिए एक ओर पूँजीपति मज़दूर वर्ग की उत्पादकता को बढ़ाकर नये सृजित मूल्य में मज़दूरी के हिस्से को सापेक्षिक रूप से घटाता है और मुनाफ़े को बढ़ाता है, मज़दूर के काम के घण्टे को बढ़ाकर अपना मुनाफ़ा बढ़ाता है, वास्तविक मज़दूरी को घटाकर अपना मुनाफ़ा बढ़ाता है, लेकिन साथ ही वह प्रकृति की लूट को भी बढ़ाकर लाभप्रद निवेश के अवसर पैदा करता है और साथ ही प्राकृतिक संसाधनों का निजीकरण कर उन्हें भी माल में तब्दील करता है और अपनी पूँजी बढ़ाता है।
1970 के दशक के पहले भी पूँजीपति वर्ग प्रकृति की इस प्रकार तबाही करता था, लेकिन 1970 के संकट के बाद यह प्रक्रिया अभूतपूर्व रूप से तेज़ और बेलगाम हुई है। आप स्वयं सोचें कि पूँजीपतियों की इसी हवस के कारण पिछले 30 वर्षों में ही सैकड़ों प्रजातियाँ लुप्त हो गयी हैं, हज़ारों प्रजातियाँ लुप्त होने की कगार पर पहुँच गयी हैं और इसी प्रक्रिया में वायरसों के मानव आबादी में “जम्प” करने की प्रक्रिया भी तेज़ड हो गयी गयी है। यही वजह है कि पिछले 4 दशकों में वायरल संक्रमणों की बारम्बारता और रफ़्तार भी बढ़ी है और उनके महामारियों के तब्दील होने की रफ़्तार भी।
अब दो शब्दों में यह भी समझ लें कि कोई वायरल संक्रमण महामारी में कैसे तब्दील होता है। वैज्ञानिक क्रान्ति के पहले और मध्ययुग में तो चिकित्सा विज्ञान के पास ही वह ज्ञान व उपकरण मौजूद नहीं थे, जिनसे कि वायरल संक्रमण आरम्भ होते ही उस पर नियंत्रण किया जा सके। आम तौर पर, 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध और विशेष तौर पर 20वीं सदी में नियंत्रण की रणनीतियाँ व्यवस्थित तौर पर अस्तित्व में आयीं। ये रणनीतियाँ क्या हैं? वायरल संक्रमण के पहले मामलों के सामने आने के साथ ही यदि संक्रमित व्यक्तियों की, उनसे सम्पर्क में आने वाले सभी व्यक्तियों की, उनके द्वारा यात्रा किये गये स्थानों पर मौजूद समस्त लोगों की जाँच की जाये, पहचान की जाये, उन्हें अलग किया जाये (क्वारंटाइन किया जाये) और उनका इलाज किया जाये, तो वायरल संक्रमण को महामारी बनने से पहले ही रोका जा सकता है। यदि कोई वायरस बेहद संक्रामक है और बहुत तेज़ी से फैलता है, तो आक्रामक तरीके से परीक्षण, पहचान और उपचार के साथ-साथ अस्थायी तौर पर लॉकडाउन करना, या कम-से-कम आंशिक लॉकडाउन करना भी अनिवार्य हो जाता है। माओ के नेतृत्व में समाजवादी चीन में भी मेनिंजाइटिस महामारी के प्रसार को रोकने के लिए कुछ क्षेत्रों में आंशिक लॉकडाउन जैसी नीति लागू की गयी थी, जिसमें सभी जन सभाओं, सांस्कृतिक, कलात्मक, व्यापारिक आदि गतिविधियों को रोक दिया गया था और जनता को तथाकथित “सामाजिक दूरी”, वस्तुत: शारीरिक दूरी बनाये रखने की हिदायत दी गयी थी। इसके लिए बाकायदा एक सर्कुलर जारी किया गया था। यदि सही वक़्त पर ये क़दम उठाये जाते हैं तो फिर किसी वायरल संक्रमण को फैलकर महामारी में तब्दील होने से रोका जा सकता है। लुब्बेलुबाब यह कि कोई वायरल संक्रमण अपने आप में महामारी नहीं होता, बल्कि वह सही क़दम न उठाये जाने पर महामारी बन जाता है।
ज़ाहिर है कि ये क़दम उठाने के अपने खर्च होते हैं। पूँजीवादी व्यवस्था में कौन-सा पूँजीपति इन पर निवेश करेगा? कौन टेस्टिंग किट निशुल्क बनाने में निवेश करेगा? कौन उन लाखों मेडिकल कर्मचारियों को वेतन देगा वह भी बिना किसी मुनाफ़े के, जो कि इस संक्रमण की रोकथाम के लिए परीक्षण, पहचान व उपचार कर रहे होंगे? कौन पूरे देश के पैमाने पर निशुल्क उपचार, क्वारंटाइनिंग की व्यवस्था करेगा? यदि लॉकडाउन अनिवार्य बन जाता है तो कौन सा पूँजीपति बन्दी के दौरान भी मज़दूरों को वेतन देना चाहेगा? पूँजीवादी राज्यसत्ता भला क्यों गोदामों के दरवाज़े जनता के लिए खोलेगी, क्योंकि इससे अनाज की कीमत गिरेगी और खेती के क्षेत्र के पूँजीपति, व्यापारी और बिचौलिये तबाह हो जाएंगे? नतीजतन, न तो व्यापक पैमाने पर जाँच, पहचान व इलाज हो पाता है, न ही व्यापक पैमाने पर क्वारंटाइनिंग की व्यवस्था हो पाती है, न ही इलाज की और न ही ग़रीब आबादी को लॉकडाउन के दौरान समस्त आवश्यक वस्तुएँ व सुविधाएँ मिल पाती हैं। इस प्रकार एक संक्रमण को पूँजीवाद अपनी मुनाफ़े की हवस के चलते महामारी में तब्दील कर देता है। पूरी दुनिया में कुछेक देशों के अपवाद को छोड़ दें, तो आम तौर पर कोरोना महामारी के मामले में भी यही हुआ है।
यानी, एक ओर ज़्यादा बारम्बारता से वायरल संक्रमण होने के लिए भी ढाँचागत तौर पर पूँजीवादी व्यवस्था ज़िम्मेदार है, और वहीं वायरल संक्रमणों को महामारी में तब्दील होने से न रोक पाने की लिए भी पूँजीवादी व्यवस्था और पूँजीपति वर्ग की यही मुनाफ़े की अन्धी हवस है।
भारत में कोरोना संकट के लिए कौन ज़िम्मेदार है?
हम शुरू में ही बता देते हैं कि इसके लिए नरेन्द्र मोदी की फासीवादी सरकार ज़िम्मेदार है। आइये समझते हैं कि मोदी सरकार कैसे ज़िम्मेदार है।
30 जनवरी को भारत में कोरोना संक्रमण का पहला मामला सामने आया। उसी दिन विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कोरोना को “पूरी दुनिया के लिए स्वास्थ्य की एक चिन्ताजनक समस्या” करार दिया। भारत सरकार समेत दुनिया की कई सरकारों को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने लिखित चेतावनियाँ भी भेजीं कि तत्काल अन्तरराष्ट्रीय यात्रियों व पर्यटकों की एयरपोर्ट पर ही जाँच व क्वारंटाइनिंग करें, जहाँ कहीं भी पहला मामला सामने आया हो, उसमें संक्रमित व्यक्ति से सम्पर्क में आये सभी लोगों की जाँच व क्वारंटाइनिंग करें, व्यापक पैमाने पर परीक्षण, पहचान व उपचार की तत्काल शुरुआत करें। लेकिन भारत सरकार ने इनमें से कुछ भी नहीं किया। उल्टे इसी दौरान बड़े-बड़े जलसों में हज़ारों की संख्या में लोगों को जुटाया गया। ट्रम्प के स्वागत से लेकर मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान के शपथ समारोह और भाजपाई नेताओं की पतनशील पार्टियों तक बड़े-बड़े जुटान होते रहे। तब्लीगी जमात के दिल्ली कार्यक्रम के लिए भी अमित शाह की दिल्ली पुलिस ने सबकुछ जानते हुए इजाज़त दी, ताकि बाद में कोरोना संक्रमण के लिए मुसलमानों को ज़िम्मेदार ठहराया जा सके। मोदी सरकार कुछ भी करने में नाकाम क्यों रही? इसकी कई वजहें हैं : (1) मोदी-शाह सरकार एनआरसी व सीएए पर चल रहे प्रदर्शनों का दमन करने में लगी हुई थी; (2) मध्यप्रदेश के विधायकों को खरीदने तोड़ने और डराने-धमकाने आदि के लिए भाजपा पैसे जुटाने में लगी हुई थी ताकि कमलनाथ की सरकार को गिराया जा सके; (3) ट्रम्प के स्वागत के लिए ‘नमस्ते ट्रम्प ’कार्यक्रम के लिए मोदी सरकार जी-जान से लगी थी, क्योंकि उस पर कई व्यापारिक समझौते निर्भर थे जो भारत के पूँजीपति वर्ग के लिए मौजूदा संकट के दौर में ज़रूरी थे। अब पता चल रहा है कि यह कार्यक्रम, जिस पर सैकड़ों करोड़ रुपये बहा दिये गये, कोरोना के अहमदाबाद और गुजरात में अन्य राज्यों से ज़्यादा फैलने के लिए मुख्य रूप से ज़िम्मेदार था; (4) इसी बीच मोदी सरकार पूँजीपतियों के लिए निजीकरण की आँधी चलाने में भी व्यस्त थी; (5) मज़दूरों के हक़ों को छीनने के लिए यूनीफ़ॉर्म लेबर कोड पर भी इसी समय मोदी सरकार का काम जारी था; (6) दिल्ली में दंगे करवाने में भी मोदी-शाह सरकार और संघ परिवार जी-जान से इसी समय लगे हुए थे; और (7) जनता का पैसा चोरी करके भागने वाले मोदी के यारों जैसे कि मेहुल चौकसी, आदि का कर्ज़ा माफ़ करवाने की योजनाएँ भी इसी समय बन रही थीं।
यानी कि भारत के बड़े पूँजीपति वर्ग ने जिस काम के लिए फासीवादी मोदी को सत्ता में बिठाया, मोदी उन कामों को करने में व्यस्त थे। नतीजतन, कोरोना संक्रमण को महामारी बनने से रोकने के लिए मोदी सरकार ने कोई तैयारी नहीं की, कोई क़दम नहीं उठाये। और जब मामला हाथ से निकल गया और कोरोना संक्रमण के मामलों में तेज़ी से बढ़ोत्तरी होने लगी, तो आनन-फानन में लॉकडाउन देश की जनता पर थोप दिया गया। यह सच है कि लॉकडाउन थोपने के अलावा कोई रास्ता तात्कालिक तौर पर नहीं था लेकिन यह भी सच है कि लॉकडाउन अपने आप में समस्या का समाधान नहीं कर सकता, बल्कि वह केवल कुछ वक़्त देता है जिसमें कि वायरस के फैलने की दर को कम किया जाये, जिससे कि स्वास्थ्य सेवाओं पर अतिरेकपूर्ण दबाव न पड़े, जिसमें कि आक्रामक तरीके से जाँच, पहचान, क्वारंटाइनिंग व इलाज के ज़रिये संक्रमण को समाप्त किया जाये। इसके बिना लॉकडाउन का अर्थ केवल संक्रमण के फैलने की गति को कुछ समय के लिए कम करना मात्र होता है। जैसे ही लॉकडाउन हटेगा वैसे ही संक्रमण पहले से दोगुनी गति से फैलेगा। इसलिए थोड़ी बात इस पर भी कर ली जानी चाहिएा कि लॉकडाउन के विषय में मज़दूर वर्ग का स्टैण्ड क्या होना चाहिए।
क्या लॉकडाउन ज़रूरी है?
प्रकृति के विषय में कुछ वैज्ञानिक सच्चाइयाँ होती हैं, जो कि समाजवाद आने पर भी नहीं बदलेंगी। पूँजीवादी व्यवस्था में प्रकाश की जितनी रफ़्तार होती है, समाजवादी व्यवस्था में भी प्रकाश की उतनी ही रफ़्तार होती है। वैज्ञानिकों के बहुमत की राय इस मामले में स्पष्ट है। पहली बात तो यह है कि यदि शुरू से ही ऊपर बताये गये कदमों को नहीं उठाया गया तो फिर संक्रमण महामारी में तब्दील हो जाता है और एक मंजिल के बाद पूर्ण या आंशिक लॉकडाउन बाध्यता बन जाती है, साथ ही शारीरिक दूरी बनाना भी एक अनिवार्यता बन जाती है। लॉकडाउन का अपने आप में विरोध या समर्थन मूर्खतापूर्ण बात है। यदि संक्रमण महामारी में तब्दील हो चुका है, या तीसरे चरण में प्रवेश कर चुका है या करने वाला है, तो फिर लॉकडाउन करना एक ज़रूरत बन जाता है। लेकिन लॉकडाउन के साथ-साथ यदि आक्रामक रणनीति के साथ जाँच, पहचान व इलाज नहीं होता तो लॉकडाउन उल्टा असर करेगा।
भारत में यही हो रहा है। पर्याप्त संख्या में जाँच ही नहीं हो रही है और न ही क्वारंटाइनिंग व उपचार की कोई व्यापक सरकारी व्यवस्था की गयी है। ऊपर से संक्रमित लोगों व मरने वालों की सही संख्या तक नहीं बताई जा रही है। आज की सही रणनीति यह होती कि सरकार व्यापक पैमाने पर जाँच, पहचान व इलाज करती और फिर क्रमिक प्रक्रिया में लॉकडाउन को हटाती। लेकिन मोदी सरकार के हाथ-पाँव फूल गये हैं, उसे कुछ समझ में नहीं आ रहा है कि करना क्या है और वह बस लॉकडाउन करके बैठ गयी है, जो अपने आप में कतई नाकाफी है, बल्कि नुकसानदेह है। इसके अलावा लॉकडाउन के दौरान व्यापक प्रवासी मज़दूर आबादी, ग़रीब आबादी, रोज़ कमाने-खाने वाली आबादी के लिए खाद्यान्न राशनिंग, नकद वितरण, स्वास्थ्य व सफाई की उचित व्यवस्था मुहैया कराने के लिए मोदी सरकार ने कोई काम नहीं किया। नतीजतन, लॉकडाउन अपने आप में मज़दूर वर्ग के लिए एक अभूतपूर्व त्रासदी बन गया। लेकिन इससे यह नतीजा नहीं निकलता है कि यदि लॉकडाउन को सही तैयारी और योजना के साथ और उसके साथ उठाये जाने वाले सारे कदमों के साथ लागू किया जाता, तो संक्रमण के इस चरण में वह एक सही क़दम होता। लेकिन ऐसा नहीं हुआ, जिसकी कीमत देश के मेहनतकश-मज़दूर चुका रहे हैं।
भारत में भी ऐसे कुछ तथाकथित “मार्क्सवादी” हैं, जो बिना वैज्ञानिक तथ्यों की जाँच-पड़ताल किये, कुछ अखबारी कतरनें और इण्टरनेट पर विकीपीडिया आदि पढ़कर यह सिद्धान्त दे रहे हैं कि किसी भी सूरत में किसी भी प्रकार का लॉकडाउन ग़लत है और इससे बीमारी पर नियंत्रण नहीं पाया जा सकता है। वे इस बात की वकालत कर रहे हैं कि संक्रमण को ज्यों का त्यों छोड़ दिया जाये, जो पहले से ही मौत की कगार पर हैं, जैसे कि बुजुर्ग या बेहद बीमार लोग, वे ही इससे मरेंगे और इसी प्रक्रिया में “हर्ड इम्यूनिटी” विकसित हो जायेगी। हर्ड इम्यूनिटी वह अवस्था होती है, जिसमें कि मनुष्यों के शरीर में वायरस से लडने वाली प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो जाती है। यह दो प्रकार से हो सकता है: या तो पूरे समाज का 70-80 फ़ीसदी हिस्सा संक्रमित होकर ठीक हो जाये, या फिर वैक्सीन के ज़रिये लोगों के शरीर में प्रतिरोधक क्षमता पैदा कर दी जाये। लेकिन पहले रास्ते का प्रयोग करने का ख़तरा यह है कि व्यापक पैमाने पर मौतें होंगी, और जैसा कि एंगेल्स ने बताया था कि जब भी महामारियाँ फैलती हैं, तो सबसे ज़्यादा मज़दूर वर्ग अपनी जान देकर उसकी कीमत अदा करता है।
हमारे इन मूर्ख “मार्क्सवादियों” ने शुरू में यह कहा कि कोरोनावायरस कुछ नहीं है, यह फ़ार्मास्युटिकल कम्पनियों की साज़िश है; जब इस पर उनकी काफी खिल्ली उड़ गयी तो उन्होंने धीरे से यह कहना शुरू कर दिया कि यह कोई ख़ास बीमारी नहीं बस मौसमी फ्लू जैसा है; फिर इस पर भी फ़जीहत हो गयी तो यह कहना शुरू कर दिया कि जो मौतें हो रही हैं, वह तो उनकी हैं, जो पहले ही कब्र में पाँव लटकाकर बैठे बूढ़े व बेहद बीमार लोग हैं; और साथ में यह कहने लगे कि लोग दरअसल कोरोना से नहीं बल्कि बुढ़ापे व अन्य बीमारियों से मर रहे हैं! सच्चाई यह है कि मानवता ने अब तक जितनी भी महामारियाँ देखीं हैं, उन सभी में सबसे कमज़ोर लोग ही ज़्यादा मरते हैं, सबसे अरक्षित लोग ही ज़्यादा मरते हैं: जैसे कि बुज़ुर्ग लोग, बच्चे, बेहद बीमार लोग या प्रतिरोधक क्षमता की गम्भीर कमी वाले लोग। यूरोप में ‘काली मौत’, ब्यूबॉनिक प्लेग, स्पैनिश फ्लू आदि सभी में सबसे अरक्षित लोग ही मरे थे। कौन-सी महामारी ने सबसे स्वस्थ लोगों की जान ली है? सभी महामारियों ने बूढ़े, बीमारों, नवजातों, व कम प्रतिरोधक क्षमता से लैस लोगों की ही सबसे ज़्यादा जानें लीं। तो क्या इसका मतलब यह है कि उनकी जान इन महामारियों ने नहीं ली? क्या इसका अर्थ यह है कि वे तो बूढ़े ही थे, या बेहद बीमार ही थे, या कम प्रतिरोधक क्षमता रखते थे, इसलिए उन्हें तो मरना ही था? जब कम जानकारी के आधार पर “मार्क्सवादी” नतीजों पर पहुँचने के लिए उछलने लगते हैं, तो वे ऐसे ही अमानवीय नतीजों पर पहुँचते हैं।
ऐसे ही लोग पूँजीपति वर्ग के विचारों से प्रेरित कुछ ऐसे डॉक्टरों व वैज्ञानिकों की राय का हवाला दे रहे हैं, जो पूँजीपति वर्ग के ही समान यह कह रहे हैं कि लॉकडाउन से आर्थिक संकट गहराता जा रहा है, मुनाफ़ा मारा जा रहा है, बेरोज़गारी बढ़ रही है, इत्यादि। इसके आधार पर हमारे ये अधकचरे “मार्क्सवादी” लॉकडाउन का निरपेक्ष विरोध कर रहे हैं। यह मज़दूर वर्ग की अवस्थिति नहीं है, बल्कि पूँजीपति वर्ग की अवस्थिति है जो कि लाखों मेहनतकशों की जान की बलि चढ़ाकर “हर्ड इम्यूनिटी” विकसित होने देने का रास्ता चुनना चाहता है ताकि मुनाफ़े की मशीनरी को तुरन्त चालू किया जा सके।
इस बारे में मज़दूर वर्ग की सही अवस्थिति क्या हो? पहला सवाल यह है कि लॉकडाउन ज़रूरी क्यों बना? क्यों कि मोदी सरकार ने सही समय पर सही क़दम नहीं उठाये। दूसरा सवाल यह है कि भारत में लॉकडाउन कामयाब क्यों नहीं होगा? क्योंकि अपने आप में लॉकडाउन समस्या का समाधान नहीं है, बल्कि यह केवल संक्रमण की रफ्तार को अस्थायी रूप से कम करके यह मौका देता है कि सही क़दम उठाये जा सकें और स्वास्थ्य व्यवस्था अत्यधिक दबाव से चरमरा न जाये। तीसरा सवाल यह है कि लॉकडाउन के समय देश के 70 फ़ीसदी मेहनतकश लोगों के लिए सभी आवश्यक वस्तुओं व सेवाओं के वितरण की पूरी व्यवस्था यदि पहले ही नहीं की गयी, तो लॉकडाउन मज़दूरों-मेहनतकशों के लिए कहर बनकर बरपा होगा। चौथा सवाल यह है कि क्या यदि इन सभी पूर्वशर्तों को पूरा करके लॉकडाउन लागू किया जाता है, तो क्या उसका फ़ायदा होगा? यदि संक्रमण तीसरे चरण में पहुँच चुका है और महामारी का रूप ले चुका है, तो बेशक होगा। यही वैज्ञानिकों के बहुमत की राय है और इसके पीछे स्पष्ट और ठोस तथ्य और तर्क मौजूद हैं। पाँचवा प्रश्न, यदि किन्हीं भी वजहों से अन्य आवश्यक कदमों के साथ लॉकडाउन करना अनिवार्य हो गया है, तो क्या उसे नहीं लागू करने के नुकसान होंगे? जी हाँ! महामारी के चरण में पहुँचने के बाद कुछ अन्य कारकों के आधार पर लॉकडाउन करना अधिकांशत: एक अनिवार्य क़दम बन जाता है, बशर्ते कि लॉकडाउन आपको जो वक़्त दे रहा है, उसमें आप वे अन्य सभी कार्रवाइयाँ करें, जो की जानी चाहिए, यानी, व्यापक पैमाने पर जाँच, पहचान, क्वारंटाइनिंग, व उपचार।
ऐसी स्थिति में मज़दूर वर्ग की सही माँग क्या होनी चाहिए?
यदि किन्हीं वजहों से लॉकडाउन अनिवार्य बन जाता है (अन्य सभी अनिवार्य क़दमों के साथ) तो फिर क्या मज़दूर वर्ग बिना सोचे-समझे लॉकडाउन को समाप्त करने की माँग कर सकता है? नहीं! इस मामले में मज़दूर वर्ग भी उन्नततम वैज्ञानिक खोजों, बहसों और रायों का अध्ययन करता है, उनकी जाँच करता है और जो सर्वाधिक तथ्यपुष्ट व तर्कपुष्ट राय होती है, उसे अपने कार्यक्रम व माँगें तय करने का आधार बनाता है। इन आधारों पर बात करें तो यदि लॉकडाउन अनिवार्य हो जाये, जो कि आज अधिकांश देशों में हो गया है, तो मज़दूर वर्ग को क्या माँग करनी चाहिए? हमें ये माँगें करनी चाहिए :
1) लॉकडाउन के दौरान सरकार व्यापक पैमाने पर निशुल्क व समान जाँच, पहचान, क्वारंटाइनिंग व इलाज की राजकीय व्यवस्था करे। इसके लिए स्वास्थ्य व्यवस्था का राष्ट्रीकरण किया जाये, बड़े पैमाने पर पूँजीपति वर्ग व अतिधनाढ्य वर्ग पर विशेष टैक्स लगाये जायें।
2) इसके ज़रिये लॉकडाउन को चरणबद्ध प्रक्रिया में हटाने की स्थिति तैयार की जाये व सामान्य सामाजिक जीवन बहाल किया जाये।
3) लॉकडाउन के दौरान पूरे देश में एपीएल/बीपीएल/राशन कार्ड के झंझट में पड़े बग़ैर समस्त मेहनतकश आबादी को निशुल्क खाद्यान्न राशन देने की व्यवस्था की जाये व इसके लिए एफ़सीआई के गोदामों में पड़े 7.4 करोड़ मीट्रिक टन अनाज व सभी निजी गोदामों में पड़े अनाज का इस्तेमाल किया जाये। साथ में ठेका, दिहाड़ी व कैज़ुअल मज़दूरों कम-से-कम 15,000 रुपये का मासिक गुज़ारा भत्ता नकद दिया जाये।
4) अनिवार्य सेवाओं में काम करने वाले समस्त कर्मचारियों को, चाहे वे मेडिकल कर्मचारी हों या स्वास्थ्य कर्मचारी या अनिवार्य वस्तुओं व सेवाओं के उत्पादन व वितरण में लगे कर्मचारी, पूर्ण सुरक्षा उपकरण मुहैया कराए जायें, उन्हें विशेष भत्ता दिया जाये और उन्हें स्वच्छ कार्यस्थल, आवास, पीने का पानी मुहैया कराया जाए। इन सभी कार्यस्थलों की नियमित सफाई व विसंक्रमीकरण किया जाये।
5) मज़दूर व मेहनतकश भी अपनी सुरक्षा के लिए शारीरिक दूरी बनाए रख पायें, इसके लिए उन्हें सघन बस्तियों की झुग्गियों से निकालकर अच्छे, साफ, हवादार घर मुहैया कराये जायें। इसके लिए देशभर में खाली पड़े निजी व सार्वजनिक आवास संसाधनों का राष्ट्रीकरण कर ग़रीब मज़दूर, मेहनतकश व बेघर आबादी को उसमें बसाया जाये। शारीरिक दूरी व स्वास्थ्य सुरक्षा पर जितना अमीरज़ादों का हक़ है, उतना ही मज़दूरों का भी हक़ है।
6) समस्त निजी व सार्वजनिक क्षेत्र के मज़दूरों व कर्मचारियों को वैतनिक अवकाश दिया जाये और सभी छोटे-बड़े मालिकों को इसके लिए बाध्य किया जाये। वेतन न देने वाले मालिकों को जेल भेजा जाये।
7) सभी मेहनतकश परिवारों के बच्चों के पोषण के लिए अपरिहार्य वस्तुएँ जैसे कि दूध, अण्डे, आदि का उनके बीच निशुल्क वितरण किया जाये।
8) प्रवासी मज़दूरों को सुरक्षित तरीके से उनके घर पहुँचाने का इन्तज़ाम किया जाये।
9) मेहनतकश वर्ग के समस्त किरायेदारों का किराया लॉकडाउन खत्म होने तक माफ़ किया जाये।
10) यदि माता-पिता को बच्चों की देखभाल के लिए घर पर रहना अनिवार्य हो जाये, तो उन्हें पूर्ण वेतन मुहैया कराया जाना चाहिए।
इसलिए पूँजीपतियों और ट्रम्प जैसे धुर दक्षिणपंथियों के सुर में सुर मिलाते हुए कोरोना को षड़यन्त्र बताने, या उसे कम करके आँकने, या बिना सोचे-समझे लॉकडाउन को समाप्त कर “हर्ड इम्यूनिटी” विकसित होने देने के रास्ते की वकालत करने के बजाय, संजीदा मार्क्सवादी-लेनिनवादियों को लेनिन के शब्दों में ठोस परिस्थितियों का ठोस विश्लेषण करना चाहिए और उसके आधार पर अपनी माँगें निर्धारित करनी चाहिए। आज महामारी की जो स्थिति है, उसमें मज़दूर वर्ग को भी स्वास्थ्य और सुरक्षा, भोजन, और साफ-सुथरे आवास, पीने के पानी और सैनीटेशन के वे सारे हक़ माँगने चाहिए, जो कि अमीरज़ादों को मुहैया हैं। आज के समय में हमारी चिन्ता यह नहीं होनी चाहिए कि आर्थिक संकट लॉकडाउन से गहरा जायेगा, तो आगे क्या होगा। महामारी ने वर्ग संघर्ष को रोका या बर्खास्त नहीं किया है, बल्कि उसे और तीखा बना दिया है। मज़दूर वर्ग अपने वर्गीय नज़रिये से आज के समय में हर वह माँग उठायेगा जो उसे आम तौर पर भी बहुत पहले मिल जानी चाहिए थी, लेकिन आज यह अभूतपूर्व रूप से स्पष्ट तौर पर दिख रहा है, कि वे माँगें हम मज़दूरों का जन्मसिद्ध अधिकार हैं।
पूँजीपति ही समृद्धि पैदा करते हैं, यह कहने वाला कहने वाला मोदी अब यह नहीं बता पा रहे हैं कि काम रुक जाने पर, मज़दूरों के श्रम न कर पाने पर, समृद्धि का पैदा होना क्यों रुक गया है? यदि अम्बानी, अडानी, मोदी, चौकसी, टाटा, बिड़ला, जिन्दल समृद्धि पैदा करते हैं, तो अभी भी वे जाकर पैदा क्यों नहीं कर लेते? इसलिए क्योंकि मज़दूरों के श्रम से ही मूल्य पैदा होता है, और श्रम और प्रकृति से ही समृद्धि पैदा होती है, हालाँकि केवल श्रम ही इसमें सक्रिय भूमिका निभाता है। इसलिए पूँजीपतियों के मुनाफ़े, उनकी जमा पूँजी, उनकी धन-दौलत का स्रोत मज़दूरों का श्रम है। यदि वह रुक जाता है तो पूँजीपतियों का पूँजी संचय और समृद्धि भी रुक जाती है। आज अपनी संचित धन-दौलत के बूते पूँजीपति और अमीरज़ादे अपने लिए शारीरिक दूरी, बेहतर चिकित्सा आदि जैसी हर सुविधा पा सकते हैं। लेकिन इस संचित धन-दौलत को पैदा करने वाले मज़दूरों के पास न तो शारीरिक दूरी बनाये रख पाने का विशेषाधिकार है, न भोजन, न चिकित्सा, न आवास, न अपने घर जाने का अधिकार। ऐसे में, हम इन सबकी माँग करेंगे क्योंकि ये सब हमारे बुनियादी हक़ हैं। महामारी के इस दौर में मज़दूर वर्ग का माँगपत्रक इन चिन्ताओं के आधार पर तय होगा, न कि पूँजीपति वर्ग की चिन्ताओं के आधार पर।
इसलिए अगर पूँजीपति वर्ग लॉकडाउन का इस्तेमाल अपने राजनीतिक नियंत्रण और तानाशाहाना रवैये को बढ़ाने में करता है, तो मज़दूर वर्ग उसका विरोध भी करेगा। लेकिन इसके लिए सभी ज़रूरी क़दमों के साथ किये गये लॉकडाउन का विरोध करना अनिवार्य नहीं है। बल्कि वह सभी जनवादी हकों के लिए लड़ते हुए, सरकार की गैर-जनवादी साजिशों के ख़िलाफ़ लड़ते हुए वे सारी माँगें उठायेगा जो कि महामारी और लॉकडाउन के समय उसका बुनियादी हक हैं।
आज यदि दुनिया भर में पूँजीवादी सरकारें लॉकडाउन का इस्तेमाल हर चीज़ में राज्यसत्ता के दखल को बढ़ाने, तानाशाहाना नियंत्रण को बढ़ाने और जनता के जनवादी हक़ों को छीनने के लिए कर रही हैं, तो इसमें कोई ताज्जुब की बात नहीं है। आप और क्या उम्मीद करेंगे एक वर्ग समाज में वर्गीय राज्यसत्ता से? लेकिन हमारा कार्यभार इस आधार पर लॉकडाउन का बिना शर्त विरोध करना या बिना शर्त समर्थन करना नहीं है। हम शासक वर्ग की इन सभी चालों की मुख़ालफ़त भी करेंगे और साथ में बाशर्त और अपनी मज़दूर-वर्गीय माँगों के साथ लॉकडाउन की हिमायत भी करेंगे, यदि लॉकडाउन अनिवार्य बन गया है। यह न तो लॉकडाउन का बिना शर्त समर्थन है और न ही बिना शर्त विरोध बल्कि सर्वहारा वर्ग के हितों और वैज्ञानिक तथ्यों व तर्कों के मद्देनज़र बनायी गयी एक सन्तुलित अवस्थिति व माँगपत्रक है।
अन्त में…
लुब्बेलुबाब यह कि यदि फासीवादी मोदी सरकार ने सही समय पर सही क़दम उठाये होते, तो लॉकडाउन या कम-से-कम पूर्ण लॉकडाउन की स्थिति से बचा जा सकता था। दूसरी बात, जब लॉकडाउन की स्थिति पैदा हो ही गयी, तो मोदी सरकार ने बिना किसी योजना या तैयारी के तानाशाहाना तरीके से लॉकडाउन को थोप दिया जिसकी सबसे ज़्यादा कीमत ग़रीब मेहनतकश व मज़दूर आबादी को चुकानी पड़ी है। तीसरी बात, आज के समय में मज़दूर वर्ग अपने लिए लॉकडाउन के दौरान उन सभी हक़ों को माँगेगा, जो कि उसे अपने स्वास्थ्य, आजीविका, व इंसानी जीवन के लिए चाहिए, जैसे कि वैतनिक अवकाश, निशुल्क खाद्यान्न राशनिंग, नकद गुजारा भत्ता, साफ आवास व पीने का पानी, सैनीटेशन, इत्यादि। यानी वे सारी चीज़ें जो कि लॉकडाउन की प्रतिकूल परिस्थितियों में पूँजीपति वर्ग व खाते-पीते वर्गों को अपनी संचित पूँजी के कारण मिले हुए हैं, क्योंकि यह संचित पूँजी मज़दूरों का वस्तुकृत व भण्डारित श्रम ही है।
हमें ऐसे अधपढ़े या अनपढ़ “मार्क्सवादियों” से सावधान रहना चाहिए जो किसी भी विषय की गहराई से जाँच किये बगैर इण्टरनेट पर विकीपीडिया आदि से कुछ उड़न्त-पड़न्त पढ़ लेते हैं और फिर न सिर्फ अपनी जगहंसाई करवाते हैं, बल्कि कम्युनिस्टों के नाम पर भी बट्टा लगाते हैं। ऐसे ही लोग ये बातें कर रहे हैं कि कोरोना महामारी कुछ नहीं एक षड्यंत्र है, लॉकडाउन भी एक षड्यंत्र है, लॉकडाउन हटा लिया जाये तो जो बूढ़े-बीमार अपनी गति से वैसे भी मरने वाले थे, वे ही मरेंगे, और बाकी लोगों को बदले में “हर्ड इम्यूनिटी” मिल जाएगी! अव्वलन तो तथ्य यह है कि महामारियों की सबसे बड़ी कीमत हमेशा मज़दूर वर्ग चुकाता है। आज भी यदि स्थिति को भगवान भरोसे छोड़ दिया जाये, तो अन्तत: वे लोग ही सबसे ज़्यादा मरेंगे जो सघन बस्तियों और झुग्गियों में रहते हैं, न कि अमीरज़ादों के घरों के बूढ़े-बीमार। ऐसे “मार्क्सवादी” जैसे अमानवीय नतीजों पर पहुँच रहे हैं, उन्हें समझा जा सकता है। इनसे मज़दूर वर्ग को सावधान रहना चाहिए।
हमें आज के दौर में भी वर्ग संघर्ष के वर्गीय नज़रिये से मज़दूर वर्ग के हितों की ठोस पड़ताल करनी चाहिए, उनके आधार पर ठोस माँगें तय करनी चाहिए और उन माँगों के लिए ठोस संघर्षों में उतरना चाहिए।
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