असम में डिटेंशन कैम्प के भीतर क्या-क्या होता है
– नितिन श्रीवास्तव (बीबीसी संवाददाता)
कल्पना कीजिए कि एक 35 फ़ुट x 25 फ़ुट के कमरे में क़रीब 35 आदमी सो रहे हों। सुबह पाँच बजे लगभग सभी को एक दहाड़ती हुई आवाज़ के साथ जगा दिया जाये। छह बजे तक इन सभी को कमरे में मौजूद एकमात्र टॉयलेट से फ़ारिग होकर चाय और बिस्कुट ले लेने होंगे। साढ़े छह बजे इन सभी लोगों को बाहर एक बड़े से आँगन में छोड़ दिया जायेगा, पूरा दिन काटने के लिए। अगर सुबह की चाय-बिस्कुट नहीं ले पाये तो फिर कुछ घण्टे बाद ही चावल मिलेगा, जिसके साथ दाल कितनी पकी मिलेगी ये सिर्फ़ क़यास की बात है। चार बजे तक रात का खाना भी ले लेना अनिवार्य सा है, सब्ज़ी-दाल और चावल। हफ़्ते में दो दिन उबले अण्डे मिलेंगे और एक दिन मीट परोसने की बात है।
रोज़ शाम साढ़े छह बजे इनकी दुनिया वापस उसी कमरे में सिमटा दी जायेगी। रात भर खाने का कोई दूसरा ज़रिया नहीं और ‘सही जुगाड़ वालों को’ टॉयलेट के दरवाज़े से थोड़ी दूर सोने को मिल सकता है।
लेकिन इस दुनिया को सिर्फ़ भीतर रहने वाले ही देख पाते हैं और बयान कर पाते हैं।
बाहर का नज़ारा
दोपहर के साढ़े ग्यारह बजे हैं और लोहे के एक बड़े गेट के बाहर क़रीब एक दर्जन लोग लाइन लगा चुके हैं। सभी को इन्तज़ार है गेट के उस पार की दुनिया से किसी अपने की शक्ल देखने का, उसकी सुध लेने का। सिर्फ़ पाँच से 10 मिनट मिलेंगे यह करने को और अगर आपके पास 100 रुपये ज़्यादा हैं तो 10 मिनट बढ़ भी सकते हैं।
बाहर गेट पर आपने मोबाइल भी निकाल लिया तो दो गार्ड पूछने दौड़ते हैं, “फोटू मत लेना, नहीं तो सज़ा हो सकती है।” लाइन में खड़े लोगों में एक मोहम्मद यूनुस भी हैं जो अपने पिता का हाल लेने आये हैं।
“मेरे बाप ने कोई क़त्ल या चोरी नहीं की है। उन्हें कोई सज़ा भी नहीं सुनायी गयी है। लेकिन पिछले कई महीनों से वे जेल के एक हिस्से में क़ैद हैं क्योंकि उन्हें विदेशी (बांग्लादेशी) बताया जा रहा है। अब आप मेरा फोटो मत लेना सर, नहीं तो मुझे भी विदेशी मान लिया जायेगा”, कहते हुए यूनुस की आँखें नम हो चुकी हैं।
सिलचर सेन्ट्रल जेल के भीतर ही एक डिटेंशन कैम्प है जिसमें 50 से ज़्यादा ऐसे लोग क़ैद हैं जिनकी भारतीय नागरिकता पर शक है।असम में पिछले 10 वर्षों से 6 डिटेंशेन कैम्प हैं और सरकार के मुताबिक़ क़रीब 1,000 लोग फ़िलहाल राज्य के डिटेंशेन कैम्पों में क़ैद हैं।ये कैम्प राज्य के सिलचर, ग्वालपाड़ा, कोकराझार, तेज़पुर, जोरहट और डिब्रूगढ़ ज़िलों में हैं।
ख़ास बात यह है कि ऐसे मामलों की सुनवाई विशेष रूप से बनी विदेशी ट्रिब्यूनल में ही शुरू हो सकती है।साल 2008 से अब तक क़रीब 90,000 लोगों की नागरिकता शक के घेरे में आ चुकी है।इनमें वो भी शामिल हैं जिनका नाम डी-वोटर यानी संदिग्ध वोटर श्रेणी में है।
किस बात की सज़ा?
ऐसे ही एक शख़्स अजित दास भी हैं जिनके ख़िलाफ़ विदेशी ट्रिब्यूनल से तीन महीने पहले वारंट जारी हुआ था।अजित एक पेशी में नहीं पहुँचे जिसके चलते उन्हें सिलचर जेल के भीतर बने डिटेंशन कैम्प में पहुँचा दिया गया।ढाई महीने बाद बेल पर रिहा होने वाले अजित ने अपना तजुर्बा बताया।
उन्होंने कहा, “डेढ़ महीने तक मर्डर, रेप और चीटिंग केस वाले क़ैदियों के साथ रखा गया। शिक़ायत करने पर उसी जेल के डिटेंशेन कैम्प में शिफ़्ट कर दिया। कैम्प में बीमार लोगों सा खाना मिलता था। जाते समय मेरा वज़न 60 किलो था। ढाई महीने रहने पर 5 किलो कम हो गया। बाहर आने पर चलने-फिरने में दिक़्क़त हो रही है। एक रूम में 50 लोगों को रखा जाता है, बाथरूम के सामने सोना पड़ता है”।
दशक भर पहले बने इन डिटेंशन कैम्पों की व्यवस्था पर सवाल पहले भी उठे हैं।चंद महीने पहले ही पूर्व प्रशासनिक अधिकारी और सामाजिक कार्यकर्ता हर्ष मंदर ने भी राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की उस कमिटी से इस्तीफ़ा दिया था जिसने असम जाकर इन डिटेंशन कैम्पों का जायज़ा लिया था।हर्ष मंदर का दावा है कि, “कमिटी के दो और नुमाइंदों के साथ मैंन जमा होने वाली रिपोर्ट के अलावा एक स्वतंत्र रिपोर्ट भी आयोग को सौंपी थी लेकिन उस पर कोई एक्शन नहीं लिया गया”।
विदेशी ट्रिब्यूनल
हालाँकि असम सरकार ने इस बात को कई बार दोहराया है कि, “डिटेंशन कैम्पों की तुलना जेलों से करना ग़लत है।”दक्षिणी असम के विशालकाय कछार प्रान्त के ज़िला उपायुक्त एस लक्ष्मनन ने सभी आरोपों पर बीबीसी से बात की।
उन्होंने कहा, “कुछ संदिग्ध वोटरों को सज़ा काट रहे क़ैदियों के साथ एक ही जेल में रहना पड़ रहा है क्योंकि जगह की कमी है। वैसे भी जेल एक रिफ़ार्म सेंटर होता है। जिनको किसी भी क़िस्म की तकलीफ़ या मेडिकल सहायता की ज़रूरत होती है, उन्हें हम सब कुछ निःशुल्क मुहैया कराते हैं। सरकारी स्टाफ़ की कमी को भी पूरा किया जा रहा है।”
इस बीच डिटेंशन कैम्पों में रह कर आये लोगों के दावे दिल दहलाने वाले हैं।क़रीब सात साल पहले सिलचर की रहने वाली सुचंद्रा गोस्वामी के घर विदेशी ट्रिब्यूनल का एक नोटिस पहुँचा था। विदेशी होने के शक का नोटिस जिस व्यक्ति के नाम पर था उससे सुचंद्रा का नाम ज़रा सा ही मिलता था तो परिवार ने नोटिस पर ध्यान नहीं दिया।लेकिन मई, 2015 की एक शाम स्थानीय पुलिस वाले सुचंद्रा को उनके घर से पूछताछ के लिए थाने ले गये और फिर वहाँ से डिटेंशन कैम्प।
सुचंद्रा गोस्वामी उस दिन को याद करके आज भी भावुक हो उठती हैं।उन्होंने कहा,” ग़लत नाम के चलते तीन दिन सेंट्रल जेल में रहना पड़ा। ऐसा तजुर्बा तो बुरा ही होगा। मुझ जैसी हाउसवाइफ़ को जेल में डाल दिया। डिटेंशेन कैम्प नाम की कोई चीज़ नहीं थी, मुझे दूसरे क़ैदियों के साथ डाल दिया। जेल में साफ़-सफ़ाई नहीं है ।बाथरूम इतने गन्दे कि पूछिए मत। समझ लीजिए खाना सिर्फ़ ज़िन्दा रहने के लिए मिलता है। कोई क़ैदी है तो क्या हुआ, उसका पानी-खाना तो ठीक होना चाहिए”।
डिटेंशन कैम्प के बाहर
सुचंद्रा के लिए ग़लतफ़हमी के वे तीन दिन तीस साल के बराबर हैं।डिटेंशन कैम्प में रह कर आये अधिकतर लोग बताते हैं कि वहाँ ज़्यादातर बुज़ुर्ग ही हैं।उनमें से कुछ ऐसे हैं जिनके विदेशी होने का प्रमाण भी मिल चुका है। लेकिन अमराघाट के रहने वाले और अपनी उम्र 100 से ऊपर बताने वाले चन्द्रधर दास जैसे भी हैं जिन्हें फ़िलहाल छोड़ दिया गया है अगली पेशी की तारीख़ तक।
हाइवे से सटे एक छोटे से दो कमरे वाली टीन की छत के नीचे चन्द्रधर दास ने अपनी दास्तान सुनायी। “जेल में दूसरे क़ैदियों को मेरी उम्र और वहाँ होने पर ताज्जुब था। क़ैदी ही मेरी मदद करते थे क्योंकि मैं बिना सहारे के चल नहीं सकता, उठ-बैठ नहीं सकता। मैंने ऐसा क्या गुनाह किया था कि इस उम्र में मुझे तीन महीने के लिए जेल में डाल दिया गया।अगर जेल जाना पड़ा तो दोबारा जाऊँगा लेकिन यह साबित करके रहूँगा कि मैं भारतीय ही हूँ।”
असम के डिटेंशन कैम्प इन दिनों ज़्यादा चर्चा में इसलिए हैं क्योंकि हाल ही में एनआरसी यानी राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर की अन्तिम लिस्ट जारी की गयी है। इस लिस्ट में उन लोगों का नाम है जिन्हें भारतीय नागरिक घोषित कर दिया गया है। हालाँकि करीब 40 लाख लोग ऐसे भी हैं जिनका नाम इस लिस्ट में नहीं आया है।
लोगों में इस बात को लेकर डर था कि आगे उनका क्या होगा, क्या उन्हें विदेश भेज दिया जायेगा या फिर कहीं विदेशी ट्रिब्यूनल में उनके ख़िलाफ़ मामला तो नहीं शुरू हो जायेगा।
हलाँकि सरकार ने इस बात को साफ़ किया है कि एनआरसी का डिटेंशन कैम्पों में रहने वालों से कोई लेना-देना नहीं है और जिनका नाम लिस्ट में नहीं आया है उन्हें और मौके दिये जायेंगे नागरिकता साबित करने के।
एनआरसी की वजह से मुश्किल में कई परिवार
लेकिन डिटेंशन कैम्पों के भीतर के हालात पर असम सरकार ने अभी तक ज़्यादा खुल कर बात नहीं की है।राज्य गृह मंत्रालय के एक वरिष्ठ अफ़सर ने बीबीसी से कहा, “हम लोग इस बात पर काम कर रहे हैं कि डिटेंशन कैम्पों को जेलों से अलग शिफ़्ट किया जाये। साथ ही हम लोग डिटेंशन कैम्पों के हालात सुधारने का पूरा प्रयास कर रहे हैं।”ये प्रयास’’ कब तक सच होने की शक्ल लेंगे यह कह पाना फ़िलहाल मुश्किल है।
लेकिन जिन लोगों को यहाँ रहना पड़ रहा है या जो लोग यहाँ रह चुके हैं, उनके लिए ये डिटेंशन कैम्प एक भयानक सपना है जिसे भुलाने में वे दिन-रात लगे रहते हैं।
मज़दूर बिगुल, फ़रवरी 2020
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