कार्ल लीब्कनेख़्त और रोज़ा लग्ज़म्बर्ग की शहादत की 100वीं बरसी
वे हमारे नेताओं की हत्या कर सकते हैं पर उनके विचारों को कभी नहीं मिटा सकते!
आज से 100 साल पहले, 15 जनवरी 1919 को मज़दूर वर्ग के दो महान नेताओं कार्ल लीब्कनेख़्त और रोज़ा लग्ज़म्बर्ग की पूँजीपतियों और उनके दलालों ने कायराना तरीक़े से हत्या कर दी थी। उस वक़्त दोनों की उम्र महज़ 47 वर्ष थी।
कार्ल लीब्कनेख़्त और रोज़ा लग्ज़म्बर्ग जर्मनी के मज़दूर आन्दोलन के अग्रणी नेताओं में से थे। जर्मन सामाजिक-जनवादी पार्टी (एसपीडी) द्वारा मज़दूर वर्ग से ग़द्दारी करके प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान साम्राज्यवादी सत्ता का साथ देने के विरुद्ध 1915 में वे एसपीडी से अलग हो गये और स्पार्टाकस लीग का गठन किया। युद्ध-विरोधी प्रचार और आन्दोलन के कारण दोनों को गिरफ़्तार करके जेल में डाल दिया गया। युद्ध के अन्तिम दिनों में 1918 में वे जेल से रिहा हुए। 9 नवम्बर 1918 को लीब्कनेख़्त ने बर्लिन में ‘’स्वतंत्र समाजवादी गणराज्य’’ की घोषणा की। स्पार्टाकस लीग के अख़बार ‘द रेड फ़्लैग’ के ज़रिए कार्ल और रोज़ा ने सभी राजनीतिक बन्दियों को रिहा करने की माँग उठायी। उसी महीने युद्ध से तबाह मज़दूर वर्ग ने जर्मनी में विद्रोह कर दिया जिसे नवम्बर क्रान्ति भी कहा जाता है।
29-31 दिसम्बर 1918 को स्पार्टाकस लीग, स्वतंत्र समाजवादियों और इंटरनेशनल कम्युनिस्ट्स ऑफ़ जर्मनी (आईकेडी) की संयुक्त कॉन्फ्रेंस हुई जिसके बाद कार्ल लीब्कनेख़्त और रोज़ा लग्ज़म्बर्ग के नेतृत्व में जर्मनी की कम्युनिस्ट पार्टी (केपीडी) का गठन हुआ। नये साल के पहले दिन रोज़ा लग्ज़म्बर्ग ने घोषणा की, ‘’आज हम हमेशा के लिए पूँजीवाद को नष्ट करने के काम में संजीदगी से जुट सकते हैं। बल्कि इससे भी ज़्यादा; आज हम न केवल इस काम को पूरा करने की स्थिति में हैं, न केवल इसे पूरा करना सर्वहारा वर्ग के प्रति हमारा फ़र्ज़ है, बल्कि हम जो समाधान पेश कर रहे हैं, वही मानवता को तबाही से बचाने का एकमात्र रास्ता है।’’
जनवरी में ही मज़दूरों, सैनिकों और नाविकों के ज़बर्दस्त जनउभार के रूप में विद्रोह की दूसरी लहर फूट पड़ी। हालाँकि रोज़ा और कार्ल की नज़र में यह पूरी तैयारी के बिना समय से पहले ही हो गया था, लेकिन उन्होंने इसका समर्थन किया। युद्ध के बाद क़ैसर विल्हेल्म के गद्दी छोड़ने के उपरान्त सत्ता में आयी एसपीडी की सरकार ने घनघोर दक्षिणपंथियों के प्रभाव वाले अर्द्धसैनिक बल ‘फ्राईकॉर्प’ को विद्रोह को कुचल देने का आदेश दिया। लग्ज़म्बर्ग और लीब्कनेख़्त भूमिगत हो गये थे लेकिन 15 जनवरी को उनका पता लग गया। फ्राइकॉर्प के अफ़सरों ने बिना किसी वारंट के रोज़ा लग्ज़म्बर्ग और कार्ल लीब्कनेख़्त को गिरफ़्तार किया और किसी अदालत में पेश किये बिना उनकी हत्या कर दी। रोज़ा को मारकर उनकी लाश बर्लिन की एक नहर में फेंक दी गयी जो महीनों बाद मिली और पहचानी गयी। लीब्कनेख़्त को टियरगार्टेन पार्क के जंगल में ले जाकर गोली मार दी गयी। उनकी हत्या के बाद भी जर्मनी के अनेक शहरों और प्रान्तों में मज़दूरों के विद्रोह और उग्र आन्दोलन जारी रहे, और अनेक जगहों पर अस्थायी ‘’सोवियत गणराज्य’’ स्थापित किये गये। लेकिन सामाजिक-जनवादियों की अगुवाई में संगठित प्रतिक्रान्ति ने मई 1919 तक विद्रोह को बर्बरतापूर्वक कुचल दिया। यह प्रतिक्रान्ति 15 वर्षों बाद तब पूरी हुई जब हिटलर की अगुवाई में नात्सियों ने सत्ता पर क़ब्ज़ा कर लिया।
महान कम्युनिस्ट नेत्री और सिद्धान्तकार रोज़ा ने दूसरे इण्टरनेशनल के काउत्स्कीपंथी संशोधनवादियों और अन्ध-राष्ट्रवादियों के विरुद्ध जमकर सैद्धान्तिक-राजनीतिक संघर्ष किया और मार्क्सवाद की क्रान्तिकारी अन्तर्वस्तु की हिफ़ाज़त की। साम्राज्यवाद की सैद्धान्तिक समझ बनाने में उनसे कुछ चूकें हुईं और बोल्शेविक पार्टी-सिद्धान्तों और सर्वहारा सत्ता की संरचना और कार्य-प्रणाली पर भी लेनिन से उनके कुछ मतभेद थे (जिनमें से अधिकांश बाद में सुलझ चुके थे और रोज़ा अपनी गलती समझ चुकी थीं), लेकिन रोज़ा अपनी सैद्धांतिक चूकों के बावजूद, अपने युग की एक महान कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी नेत्री थीं। उनकी महानता को रेखांकित करते हुए, उन्हें श्रद्धांजलि देते समय रूसी क्रान्ति के नेता लेनिन ने कहा था, ‘’गरुड़ कभी-कभी आँगन की मुर्गी से भी नीचे उड़ सकता है, पर आँगन की मुर्गी कभी गरुड़ की ऊँचाई पर नहीं उड़ सकती। रोज़ा लग्ज़म्बर्ग ने कई ग़लतियाँ कीं…(अपनी गिरफ़्तारी के दौरान, 1918 तक, हालाँकि 1918 के अन्त में जेल से निकलने और 1919 के शुरू में उन्होंने अपनी ग़लतियों को समझा और उन्हें ठीक कर लिया था), लेकिन इन सभी ग़लतियों के बावजूद वह गरुड़ के समान थीं और गरुड़ ही रहेंगी। पूरी दुनिया में समाजवादियों की भावी पीढ़ियों के दिलों में वह ज़िन्दा रहेंगी और उनकी सम्पूर्ण कृतियाँ उन सभी के लिए उपयोगी रहेंगी।।’’
महान जर्मन कवि और नाटककार बर्टोल्ट ब्रेष्ट ने रोज़ा लग्ज़म्बर्ग को याद करते हुए लिखा था:
और अब लाल रोज़ा हमारे बीच नहीं रही
वह कहाँ सोई है, कोई नहीं जानता
उसने ग़रीबों को बताया था जीवन का सच
और इसलिए अमीरों ने मिटा दिया उसका वजूद
मज़दूर वर्ग के लाखों प्रतिनिधियों की तरह कार्ल और रोज़ा के शरीर को पूँजी की दुनिया के मालिकों ने ख़त्म कर दिया लेकिन उनके विचारों को वे कभी ख़त्म नहीं कर पायेंगे, उनकी याद को वे मज़दूर वर्ग के विशाल हृदय से कभी मिटा नहीं सकेंगे। जर्मनी में हर साल हज़ारों लोग 15 जनवरी को अपने इन महान नेताओं की याद में सड़कों पर निकलते हैं। उनकी शहादत की सौवीं बरसी पर दुनिया भर के कम्युनिस्टों ने उन्हें याद किया और पूँजीवाद-साम्राज्यवाद को हमेशा के लिए दफ़नाने का संकल्प लिया।
मज़दूर बिगुल, जनवरी 2019
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