मारुति के मज़दूर आन्दोलन से उठे सवाल
सत्यम
मारुति सुज़ुकी के मानेसर, गुड़गाँव स्थित कारख़ाने में पिछले वर्ष जून से लेकर अक्टूबर तक तीन चक्रों में चले मज़दूरों के आन्दोलन से बहुत-से ऐसे सवाल उठे हैं जिन पर आज देश के मज़दूर आन्दोलन को गम्भीरता से सोचने की ज़रूरत है।
मारुति के मज़दूरों ने आन्दोलन के दौरान जुझारूपन और एकजुटता का परिचय दिया लेकिन वे एक संकुचित दायरे से निकलकर अपनी लड़ाई को व्यापक बनाने और इसे सुनियोजित तथा सुसंगठित ढंग से संचालित कर पाने में विफल रहे। महीनों चले इस आन्दोलन में बहुत कुछ हासिल कर पाने की सम्भावना थी जो नहीं हो सका। भले ही आज यूनियन को मान्यता मिल गयी है और आने वाले महीने में स्थायी मज़दूरों के वेतनमान में बढ़ोत्तरी की सम्भावना है, लेकिन मज़दूरों का संघर्ष केवल इन्हीं बातों के लिए नहीं था। कहने को तो यूनियन गुड़गाँव प्लाण्ट में भी है, अगर ऐसी ही एक यूनियन मिल भी जाये तो क्या है? 1200 कैज़ुअल मज़दूर इस यूनियन का हिस्सा नहीं होंगे। यूनियन के गठन की प्रक्रिया जिस ढंग से चली है, उससे नहीं लगता कि इसमें ट्रेड यूनियन जनवाद के बुनियादी उसूलों का भी पालन किया जायेगा। श्रम क़ानूनों का सीधे-सीधे उल्लंघन करते हुए मैनेजमेण्ट ने यह दबाव डाला कि यूनियन किसी भी तरह की राजनीति से सम्बद्ध नहीं होगी, और आन्दोलन के तीनों दौरों में बारी-बारी से एटक, एचएमएस और सीटू के गन्दे खेल को देखकर बिदके हुए मज़दूरों ने भी इसे स्वीकार कर लिया।
उलटाव के इस दौर में पीछे हटने के बाद आज मज़दूर वर्ग ज़्यादातर नौकरी बचाने की, और कहीं-कहीं ट्रेड यूनियन अधिकारों की हिफ़ाज़त की जो लड़ाइयाँ लड़ रहा है, वे चाहे मरियल हों या जुझारू, ज़्यादातर उनका नेतृत्व उन्हीं घुटे-घुटाये अर्थवादियों, ट्रेड यूनियन नौकरशाहों और संशोधनवादी पार्टियों के खुर्राटों के हाथ में रहता है और वे आन्दोलन के उन्हीं रूपों का इस्तेमाल करते हैं, जो मूलत: उन्नीसवीं शताब्दी के ट्रेड यूनियन संघर्षों के दौरान पैदा हुए थे। आज, ऐसे कुछ संघर्ष जीते जायें या हारे जायें, बुनियादी सवाल अपनी जगह पर ज्यों का त्यों मौजूद है। ट्रेड यूनियन अधिकारों की कटौती, छँटनी-नौकरियों के ठेकाकरण-दिहाड़ीकरण-अस्थायीकरण और काम के घण्टों की मनमानी बढ़ोत्तरी की अन्धाधुन्ध प्रक्रिया के इस दौर में यहाँ-वहाँ, इस या उस कारख़ाने में मज़दूर संघर्षों का भड़कते रहना लाज़िमी है। ज़्यादातर इनका नेतृत्व उन्हीं बेईमान ट्रेडयूनियनवादियों के हाथों में होता है या बाद में आ जाता है और ज़्यादातर ये संघर्ष हार के नतीजे तक ही पहुँचते हैं।
विशेष स्थितियों में, जैसेकि मारुति में, मज़दूरों को यदि किसी हद तक आंशिक सफलता मिलती भी है तो वह अस्थायी होती है और ऐसी सफलता कोई नज़ीर नहीं बन सकती, क्योंकि मूल प्रश्न अपनी जगह पर ज्यों का त्यों बना रहता है। बुनियादी सवाल यह है कि मज़दूर हितों पर हमले का चरित्र देशव्यापी है, मज़दूर-विरोधी नीतियों पर सभी पूँजीपतियों की आम सहमति है और सरकार चाहे जिस बुर्जुआ पार्टी या गठबंधन की हो, राज्यसत्ता इन नीतियों को हर क़ीमत पर लागू करना चाहती है। यानी लड़ाई बुनियादी तौर पर राजनीतिक है, इसलिए इसे पूरी हुकूमत और समूचे पूँजीपति वर्ग के खिलाफ केन्द्रित करने का, संघर्षों के कारखाना-केन्द्रित चरित्र को तोड़कर उन्हें इलाक़ाई पैमाने पर, और फिर अन्तत: पूरे देश के पैमाने पर, पूरी मज़दूर आबादी के बीच ले जाने का सवाल ही आज का केन्द्रीय प्रश्न हो सकता है।
आन्दोलन ख़त्म होने के बाद मारुति सुज़ुकी का प्रबन्धन थोड़ा पीछे हटकर मज़दूरों को जो थोड़ी सुविधाएँ दे रहा है, उसका मूल कारण यह है कि उसे आन्दोलन के कारण हुए नुक़सान की भरपाई करनी है और विश्वव्यापी मन्दी के दौर में होड़ में पिछड़ जाने की आशंका से बचना है। हाल के वर्षों में, ऐसे ही संघर्षों में जमकर लड़ने के बाद कई जगह अन्तत: मज़दूरों को पीछे ही हटना पड़ा। आगे भी, मज़दूरों को कहीं उतनी भी सफलता की सम्भावना बहुत कम है, जितनी मारुति के मज़दूरों को मिली।
इस पूरे आन्दोलन के दौरान जहाँ केन्द्रीय यूनियनों ने लगातार अपने समझौतापरस्त चरित्र और मरियलपने का परिचय दिया वहीं दूसरी ओर क्रान्तिकारी वाम धारा से जुड़े संगठन और बुद्धिजीवी इस आन्दोलन का महिमामण्डन करने और मज़दूरों की ”स्वत:स्फूर्तता की पूजा” करने में जुटे रहे।
बिगुल मज़दूर दस्ता जून में हुई हड़ताल के समय से ही लगातार मारुति के मजदूरों से अपील करता रहा कि इस लड़ाई को व्यापक बनाकर ही इसे दमदार तरीक़े से लड़ा जा सकता है। हम उनके नेतृत्व के साथियों और आम मजदूरों से बार-बार मिलकर बात करते रहे और तीन लिखित पत्र देकर भी कहा कि यह महज़ मारुति के मैनेजमेंट के चन्द भ्रष्ट अधिकारियों या स्थानीय श्रम विभाग की मिलीभगत का मामला नहीं है। उनकी लड़ाई सुज़ुकी कम्पनी, हरियाणा सरकार और नवउदारीकरण के दौर की नीतियों से है। पूरी दुनिया में जापानी कम्पनियाँ अपनी फ़ासिस्ट क़िस्म की मैनेजमेंट की तकनीकों और मज़दूरों को दबाने के लिए किसी भी हद तक जाने के लिए कुख्यात हैं। हरियाणा को विदेशी निवेश के लिए आकर्षक बनाने में जुटी राज्य सरकार अपना घोर मज़दूर-विरोधी चेहरा लगातार दिखाती रही है, चाहे वह 2006 में होण्डा के मज़दूरों के बर्बर दमन का मामला हो या फिर उसके बाद से गुड़गाँव में हुए आन्दोलनों के दमन का मामला हो। केंद्र सरकार जिन आर्थिक नीतियों को धड़ल्ले से लागू कर रही है वे मज़दूरों को बुरी तरह निचोड़े बिना लागू हो ही नहीं सकतीं। यह भी नहीं भूलना होगा कि आज पूरी दुनिया में मज़दूरों को मिली सुविधाओं में कटौती और यूनियन के अधिकारों को छीनने की लहर चल रही है। इसलिए इस हमले का मुक़ाबला मज़दूरों की व्यापक एकजुटता और योजनाबद्ध संघर्ष के दम पर ही किया जा सकता है।
हम मारुति के साथियों के सामने यह सुझाव रखते रहे कि उन्हें जल्द से जल्द अपने आन्दोलन का एक ठोस कार्यक्रम तय करना चाहिए और मानेसर-गुड़गाँव पट्टी के लाखों मज़दूरों को इससे जोड़ने के लिए उनका आह्वान करना चाहिए। हमने आन्दोलन को चरणबद्ध ढंग से चलाने के लिए कुछ ठोस सुझाव भी उनके सामने रखे थे। हमारा सुझाव था कि मारुति सुज़ुकी के मजदूरों की अगुवाई में एक व्यापक मज़दूर सत्याग्रह की शुरुआत की जाये। इसे पूरे गुड़गाँव-मानेसर-धारूहेड़ा-बावल-भिवाड़ी क्षेत्र में मैनेजमेंट और प्रशासन की बढ़ती तानाशाही, गुण्डागर्दी, यूनियन के अधिकारों के हनन, लेबर डिपार्टमेंट के भ्रष्टाचार और मज़दूरों के शोषण के ख़िलाफ़ व्यापक संघर्ष का रूप दिया जाये। इलाक़े की सभी यूनियनों को एम.एस.ई.यू. की ओर से औपचारिक पत्र देने के साथ-साथ मज़दूरों की टोलियाँ बनाकर पूरे क्षेत्र के कारख़ाना गेटों और मज़दूरों के रिहायशी इलाक़ों में जमकर प्रचार किया जाये। हज़ारों की संख्या में पर्चे और पोस्टर निकाले जायें। अगले चरण में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के मज़दूरों के नाम इस सत्याग्रह में शामिल होने की अपील जारी की जाये। देश में आटोमोबाइल सेक्टर में काम करने वाले सभी मज़दूरों का आह्वान किया जाये कि हर जगह ऐसी ही भयंकर उत्पीड़क परिस्थितियों में काम करने वाले मज़दूर एक होकर इस आवाज़ में अपनी आवाज़ मिलायें। साथ ही दुनियाभर में आटोमोबाइल उद्योग की तमाम यूनियनों से भी साथ देने की अपील की जाये। हमने मारुति के साथियों को बताया कि उनके समर्थन में मानेसर-गुड़गाँव में हज़ारों की संख्या में पर्चे बाँटते और सभाएँ करते हुए हमारा अनुभव यह रहा है कि व्यापक मज़दूर आबादी उनके आन्दोलन का समर्थन करती है मगर इस मौन समर्थन को संघर्ष की एक प्रबल शक्ति में तब्दील करने के लिए सक्रिय प्रयासों और संघर्ष के योजनाबद्ध कार्यक्रम की ज़रूरत है।
मारुति के आन्दोलन में उठे मुद्दे गुड़गाँव के सभी मज़दूरों के साझा मुद्दे थे – लगभग हर कारख़ाने में अमानवीय वर्कलोड, जबरन ओवरटाइम, वेतन से कटौती, ठेकेदारी, यूनियन अधिकारों का हनन और लगभग ग़ुलामी जैसे माहौल में काम कराने से मज़दूर त्रस्त हैं और समय-समय पर इन माँगों को लेकर लड़ते रहे हैं। बुनियादी श्रम क़ानूनों का भी पालन कहीं नहीं होता। इन माँगों पर अगर मारुति के मज़दूरों की ओर से गुडगाँव, मानेसर, धारूहेड़ा, बावल बेल्ट के लाखों मज़दूरों का आह्वान किया जाता तो एक व्यापक जन-गोलबन्दी की जा सकती थी। आन्दोलन को समर्थन दे रही केन्द्रीय यूनियनों की तो जुझारू संघर्ष की नीयत ही नहीं थी और न अब उनमें ऐसा करने का माद्दा रह गया है। वे अपने पार्टी मुखपत्रों और ट्रेड यूनियन बुलेटिनों में मारुति के मज़दूरों की हालत के बारे में बस लम्बे-चौड़े लेख लिखते रहे और उनकी स्थानीय इकाइयों के लोग नेतृत्व हथियाने की आपसी होड़ा-होड़ी में लगे रहे। मगर मारुति की यूनियन के नेतृत्व ने भी न तो स्थिति की गम्भीरता को समझा और न ही संघर्ष को ढंग से लड़ने के महत्व को। हालाँकि आम मज़दूर बिगुल की बातों का समर्थन करते थे मगर पूरे आन्दोलन के दौरान सारे फ़ैसले नेतृत्व की एक छोटी-सी जमात के हाथों में केन्द्रित रहे और आम मज़दूरों की इसमें भागीदारी नहीं के बराबर होती थी। ज़्यादा प्रयास किये बिना ही दूसरे कारख़ानों के मजदूरों से उन्हें जैसा समर्थन बीच-बीच में मिलता रहा उसने साबित किया कि अगर ठीक से अपनी बात व्यापक मज़दूर आबादी तक पहुँचायी जाती तो इसे एक ज़बर्दस्त मज़दूर सत्याग्रह का रूप दिया जा सकता था। मगर ऐसा नहीं हो सका।
केन्द्रीय यूनियनों के नेता तो बिगुल मज़दूर दस्ता की बातों से चिढ़े हुए थे और उसके विरुद्ध यूनियन नेतृत्व को भड़काने और कुत्साप्रचार का कोई मौक़ा नहीं छोड़ते थे। लेकिन क्रान्तिकारी वाम धारा के कई संगठन भी ख़ासे नाराज़ थे। ये लोग कुछ-कुछ उस तरह का आचरण कर रहे थे जिसके बारे में गाँव में कहावत है कि ”सावन में सियार का जन्म हुआ और भादों में आयी बाढ़ को देखकर बोला कि बाप रे, ऐसी बाढ़ तो कभी देखी ही नहीं थी!” उन्हें इस आन्दोलन में कोई कमी ही नज़र नहीं आ रही थी और बिगुल की आलोचना और सुझाव आन्दोलन को कमज़ोर बनाने वाले लग रहे थे। आन्दोलन के बारे में लिखे एक लेख में इस बिरादरी के एक सज्जन तो यहाँ तक चले गये कि कह दिया कि बिगुल वाले मज़दूरों को अपने नेताओं के विरुद्ध भड़काने की कोशिश कर रहे थे। वैसे तो यह सरासर बकवास है (हमने जो किया उसकी पीछे चर्चा हो चुकी है) लेकिन अगर ऐसा होता भी तो बाद के घटनाक्रम ने साबित कर दिया कि जिस नेतृत्व को ये लोग आसमान पर चढ़ा रहे थे, वह कैसा साबित हुआ। पूरी की पूरी नेतृत्वकारी जमात लाखों रुपये लेकर कम्पनी ही छोड़ गयी।
बहरहाल, यहाँ हम इस मुद्दे से और मारुति के स्थायी मज़दूरों जैसे मज़दूरों के संस्तर के बारे में व्यापक परिप्रेक्ष्य में कुछ और बातें रखना चाहते हैं और कुछ समस्याओं को रेखांकित करना चाहते हैं। यह सही है कि होण्डा और मारुति जैसे उन्नत तकनोलॉजी वाले आधुनिक कारखानों के मज़दूरों को भी आज पूँजीवादी संकट की मार झेलनी पड़ रही है। उनकी सुविधाओं और अधिकारों में कटौती भी जारी है और इन सवालों पर यहाँ-वहाँ वे जुझारू ढंग से लड़ते भी हैं। लेकिन सच्चाई का दूसरा पहलू यह भी है कि उनके औद्योगिक क्षेत्र में और ख़ुद उन्हीं के कारख़ानों में जो दिहाड़ी, कैज़ुअल, ठेका और अप्रेण्टिस मज़दूर उनकी लगभग तिहाई-चौथाई पगार पर खटते हैं, उन्हें ये लोग अपने से काफ़ी नीचे मानते हैं। और एक मायने में इसका एक आर्थिक आधार भी है। इन कम्पनियों के स्थायी मज़दूर, तमाम शोषण के बावजूद, पगार और जीवन स्तर की दृष्टि से समाज के मध्यम-मध्य वर्ग और निम्न-मध्य वर्ग के स्तर का जीवन बिता लेते हैं। अपनी पिछड़ी वर्ग चेतना के चलते वे उजरती मज़दूरों की अन्य निम्नतर श्रेणियों की बहुसंख्यक आबादी, उनकी समस्याओं व संघर्षों से अपने को ऊपर समझते हैं और दूर रखते हैं। आज हालत यह है कि आधुनिक कारखानों में भी क्रमश: ज़्यादा से ज़्यादा काम दिहाड़ी, ठेका व पीस रेट पर हो रहे हैं। सभी मज़दूरों में इन ”असंगठित” मज़दूरों का हिस्सा 93 प्रतिशत तक हो चुका है। मारुति जैसे कारख़ानों में काम करने वाले कैज़ुअल मज़दूरों में से तो ज़्यादातर शिक्षित युवा हैं जिनमें आई.टी.आई. के प्रशिक्षित भी शामिल हैं। इन्हें न तो अकुशल कहा जा सकता है, न ही पिछड़ी चेतना का। भारत के इन नये सर्वहाराओं के बीच बुर्जुआ और संशोधनवादी पार्टियों की जमी-जमायी ट्रेड यूनियन दुकानदारियों की पैठ नहीं के बराबर है। आज छँटनी, वेतन जाम और सुविधाओं की कटौती की मार इन बेहतर सुविधा प्राप्त मज़दूरों पर भी हो रही है। लेकिन जब यह अपने ऊपर हो रहे हमलों के ख़िलाफ़ लड़ता है तो उसके कारख़ाने के दिहाड़ी और ठेका मज़दूर तक उसकी लड़ाई से अलग-थलग रहते हैं। मारुति के आन्दोलन के दौरान स्थायी और कैज़ुअल मज़दूरों की एकता की बातें तो बहुत हुईं लेकिन ज़मीनी सच्चाई यही थी कि स्थायी मज़दूर कैज़ुअल मज़दूरों को अपने से दूर ही रखते थे जबकि कैज़ुअल मजदूरों ने भारी नुक़सान उठाकर भी आन्दोलन में सबसे अधिक ज़िम्मेदारी से हिस्सेदारी की।
हमारा यह कहना नहीं है कि होण्डा, मारुति या सार्वजनिक क्षेत्र के कारख़ानों के स्थायी मज़दूरों में क्रान्तिकारी सम्भावना एकदम नहीं रह गयी है। लेकिन हम यह ज़रूर कहना चाहते हैं कि सापेक्षत: बेहतर जीवन स्थिति ने इनकी सर्वहारा चेतना में सबसे अधिक मध्यवर्गीय प्रदूषण पैदा किया है। बहुसंख्यक अस्थायी-दिहाड़ी-ठेका मज़दूरों से इन्होंने अपने को काट लिया है। इनके भीतर अर्थवाद का प्रभाव सर्वाधिक है और इस नाते परम्परागत ट्रेड यूनियनों का इनके बीच ही आधार है। यह सही है कि अपनी नौकरी और अधिकारों पर आये संकट के ख़िलाफ़ ये स्थायी मज़दूर यहाँ-वहाँ जुझारू लड़ाइयाँ लड़ रहे हैं और यह स्वाभाविक है। पर उनका यह जुझारूपन भी अर्थवाद की सीमाओं से आगे नहीं जाता। आर्थिक लड़ाई से आगे की बात या व्यापक आम मज़दूर आबादी के निचले संस्तरों से जुड़ने की बात वे नहीं सोचते और फिलहाल ऐसा प्रचार उन्हें बहुत रुचता भी नहीं। आने वाले दिनों में हालात मज़दूर आबादी के इस हिस्से को भी काफ़ी सबक़ ख़ुद ही सिखा देंगे। तब तक, नौकरी और हक़ों की हिफ़ाज़त के लिए उठ खड़े होने वाले संघर्षों को यथाशक्ति अपना सहयोग-समर्थन देना क्रान्तिकारी शक्तियों का कर्तव्य है, लेकिन हमें इस वस्तुगत सच्चाई को समझना होगा कि इन कारख़ाना-केन्द्रित संघर्षों की सफलता की सम्भावनाएँ अब ज़्यादा से ज़्यादा कम होती जा रही हैं। दूसरे, इनकी स्पष्ट सीमाएँ हैं। ये कुल औद्योगिक सर्वहारा आबादी के एक ऐसे छोटे से हिस्से की लड़ाइयाँ हैं, जो तुलनात्मक रूप से बेहतर जीवन-स्थिति वाला है।
क्रान्तिकारी शक्तियों को अपना मुख्य ध्यान और मुख्य ताक़त अस्थायी, दिहाड़ी, ठेका मज़दूरों की उस बहुसंख्यक आबादी पर लगाना होगा जो प्राय: युवा और उन्नत सांस्कृतिक चेतना से लैस होने के बावजूद निकृष्टतम कोटि के उजरती ग़ुलामों की ज़िन्दगी बसर कर रहे हैं। इन्हें इलाक़ाई पैमाने पर ही संगठित किया जा सकता है, क्योंकि ये किसी एक कारख़ाने में लगातार काम नहीं करते होते। इन्हें आजीविका के अधिकार, भोजन-वस्त्र-आवास- शिक्षा-स्वास्थ्य जैसे बुनियादी नागरिक अधिकारों, ठेका प्रथा की समाप्ति, काम के घण्टों, छुट्टियों के प्रावधान, ओवरटाइम के डबल रेट से भुगतान आदि माँगों पर पूरे पूँजीपति वर्ग और उसकी हुकूमत के ख़िलाफ़ लामबन्द करने की प्रक्रिया काफ़ी लम्बी होगी, पर यहाँ मज़दूरों की पेशागत संकुचित प्रवृत्ति और अर्थवाद का शिकार होने का ख़तरा नहीं होगा। यदि सर्वहारा आबादी के इस बहुलांश को नई लाइन पर संगठित करने का काम थोड़ा भी आगे बढ़ सका तो, आसपास की व्यापक मज़दूर आबादी के एकजुट जुझारू समर्थन व भागीदारी के चलते, मारुति जैसे संघर्षों की जीत की भी ज़्यादा मुकम्मल गारण्टी होगी और तभी मज़दूरों के इस बेहतर जीवन-स्थिति वाले तबक़े की चेतना के क्रान्तिकारीकरण की सम्भावना भी अधिक मज़बूत हो सकेगी। और तभी इन मज़दूरों को अर्थवादी- ट्रेडयूनियनवादी धन्धेबाज़ों की गिरफ्त से भी मुक्त किया जा सकेगा। तब तक, अपनी स्वाभाविक गति से, ऐसे मुद्दे लगातार उठते रहेंगे और हड़तालें होती रहेंगी। हमारे सोचने का रणनीतिक एजेण्डा यह है कि ऐसे संघर्ष किस प्रकार प्रभावी ढंग से लड़े और जीते जा सकेंगे, मज़दूर आबादी के व्यापक हिस्से तथा अधिक रैडिकल चेतना एवं सम्भावना वाले मज़दूरों को संगठित करने का रास्ता क्या होगा, ताक़त के हिसाब से और अपनी शक्तियों की तैनाती के हिसाब से हरावल की भूमिका निभाने के लिए संकल्पबद्ध किसी क्रान्तिकारी ग्रुप की प्राथमिकताएँ क्या होनी चाहिए, और पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली में बदलावों के मद्देनज़र लड़ाई के तौर-तरीक़ों में आज किन अहम बदलावों की जरूरत है!
[stextbox id=”black”]…जो कोई भी मज़दूर आन्दोलन की स्वयंस्फूर्ति की पूजा करता है, जो कोई भी ”सचेतन तत्व” की भूमिका को, सामाजिक-जनवाद (मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी राजनीति — सं.) की भूमिका को कम करके आँकता है, वह चाहे ऐसा करना चाहता हो या न चाहता हो, पर असल में वह मज़दूरों पर बुर्जुआ विचारधारा के असर को मज़बूत करता है।
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