1 मई, अन्तर्राष्ट्रीय मज़दूर दिवस ज़िन्दाबाद! मई दिवस के शहीद अमर रहें!
दुनिया के मज़दूरो, एक हो!
यह घोषणा करने का दिन, कि हम भी हैं इंसान!
घृणित दासता किसी रूप में नहीं हमें स्वीकार!!
साथियो! दुनिया भर में पहली मई का दिन मज़दूर दिवस के रूप में मनाया जाता है। मज़दूर वर्ग का अपना शानदार इतिहास रहा है। आप फैक्टरी में काम करते हों, लेबर चौक पर खड़े होते हों और दिहाड़ी-बेलदारी करते हों, होटल में काम करते हों, प्रिण्टिंग मशीन चलाते हों, बोझा ढोते हों, खेतों-खलिहानों में खटते हों, दफ़्तर में कागज़ी काम करते हों या फ़िर किसी भी रूप में मानसिक या शारीरिक तौर पर मेहनत का काम करते हों; आपके लिए मई दिवस का इतिहास खास मायने रखता है। इस दुनिया में एक तरफ़ कमेरों का वर्ग है जिसकी मेहनत के दम पर सारी चमक-दमक कायम है लेकिन मेहनतकशों की ज़िन्दगी तबाह-बर्बाद है। 12-12 घण्टे काम करके भी गुजारा नहीं, बच्चों के लिए अच्छे दवा-इलाज़, शिक्षा-रोज़गार तक का प्रबन्ध नहीं हो पाता! दूसरी तरफ़ लुटेरों का वर्ग है जो बिना कुछ किये भी केवल लूट के दम पर दुनिया की दौलत पर कब्ज़ा करके बैठा है। मालिक वर्ग कम से कम मज़दूरी देकर ज़्यादा से ज़्यादा मेहनतकशों की श्रम शक्ति को निचोड़ डालना चाहता है और मज़दूर भी शोषण के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाते रहे हैं। पूँजी और श्रम के बीच ऐसा ही एक संघर्ष 132 साल पहले अमेरिका के शिकागो शहर में लड़ा गया था।
आज दुनिया भर में ‘काम के घण्टे 8’ का कानून संवैधानिक तौर पर दर्ज है। मज़दूर वर्ग के पूर्वजों ने अपने खून की कीमत देकर इस अधिकार को हासिल किया था। मज़दूर वर्ग दुनिया भर में जिस लाल झण्डे को 1 मई के दिन जोश-ओ-ख़रोश के साथ लहराता है, उस लाल झण्डे का रंग भी मज़दूरों के बहाये गये रक्त का प्रतीक है। आपको ज्ञात होना चाहिए कि पहले मज़दूरों के लिए कोई श्रम क़ानून नहीं होते थे। 12-12, 14-14 और यही नहीं 16-16 घण्टे तक काम लिया जाता था। दुनिया भर में नवोदित मज़दूर वर्ग ने छिटपुट और स्वतःस्फूर्त ढंग से इस लूट और अन्धेरगर्दी के ख़िलाफ़ आवाज़ उठायी किन्तु संगठित ढंग से पहले-पहल अमेरिका के शिकागो शहर के मज़दूरों ने ‘आठ घण्टे काम, आठ घण्टे मनोरंजन और आठ घण्टे आराम’ का नारा बुलन्द किया। ऐसा करके मज़दूरों ने अपने इंसान होने के हक़ के लिए संघर्ष का बिगुल फूँक दिया। आठ घण्टे कार्यदिवस की माँग केवल आर्थिक माँग नहीं थी बल्कि एक राजनीतिक माँग थी जिसे उठाकर पूरी लुटेरी व्यवस्था पर मज़दूर वर्ग ने सवाल खड़ा किया। हमारे देश में भी 1862 में काम के घण्टे से सम्बन्धित माँग के लिए मज़दूरों ने अपनी आवाज़ उठायी थी लेकिन 1886 में अमेरिका के श्रमिकों ने आठ घण्टे कार्यदिवस की माँग उठाकर इसके समर्थन में बड़े पैमाने पर आन्दोलन को संगठित किया।
1 मई 1886 को अमेरिका के लाखों मज़दूरों ने आठ घण्टे कार्यदिवस की माँग के लिए एक साथ हड़ताल करने का फैसला किया। हड़ताल में क़रीब 11,000 फैक्ट्रियों के कम से कम 3 लाख 80 हज़ार मज़दूर शामिल हुए। शहर के मुख्य मार्ग ‘मिशिगन अवेन्यु’ पर मज़दूर नेता अल्बर्ट पार्संस के नेतृत्व में शानदार जुलूस निकाला गया। मज़दूरों को संगठित होता देख डरे हुए मालिक-पूँजीपतियों ने भी प्रतिक्रिया स्वरूप मज़दूर वर्ग पर बार-बार हमले किये। ख़रीदे गये भाड़े के टट्टू अख़बार, पुलिस और गुण्डे मज़दूरों पर हमले के लिए लगा दिये गये। मज़दूरों के जुझारू आन्दोलन को तोड़ने के लिए मालिकों ने नीच से नीच षड्यन्त्र रचे। हड़ताल तोड़ने के लिए पुलिस के संरक्षण में तीन सौ गद्दार मज़दूरों को लाया गया। जब हड़ताली मज़दूरों ने इस गद्दारी के ख़िलाफ़ मीटिंग शुरू की तो निहत्थे मज़दूरों पर गोलियाँ चलायी गयीं। इस हमले में चार मज़दूर मारे गये और कई घायल हुए। अगले कई दिन तक मज़दूरों के ऊपर हमले जारी रहे। इस बर्बर पुलिस दमन के ख़िलाफ़ 4 मई को शहर के मुख्य बाज़ार ‘हे मार्केट स्क्वायड’ में जनसभा का आयोजन किया गया। सभा के अन्त में पूँजीपतियों के इशारों पर षड्यन्त्र के तहत पुलिस ने बम फिंकवा दिया और लोगों को तीतर-बीतर कर दिया। इसके बाद उल्टा दोष भी मज़दूरों पर ही मढ़ दिया गया और शान्तिपूर्ण सभा के ऊपर पुलिस ने अन्धाधुन्ध गोलियाँ और लाठियाँ बरसा दी। इस घटना में छः मज़दूर मारे गये और 200 से ज्यादा घायल हुए। घटना के दौरान मज़दूरों के रक्त से लाल हुआ कपड़ा ही मेहनतकश वर्ग का झंडा बना। बम काण्ड में मज़दूर नेताओं को फँसाकर जेल में बन्द कर दिया गया। आठ मज़दूर नेताओं को इस घटना का दोषी करार दे दिया गया। मज़दूर वर्ग के इन महान पूर्वजों के नाम थे अल्बर्ट पर्सन्स, आगस्टस स्पाईस, जार्ज एंजेल, अडोल्फ़ फिशर, सैमुएल फील्डेन, माइकल शवाब, लुईस लिंग्ग और ऑस्कर नीबे। इनमें से सिर्फ़ सामुएल फिल्डेन ही 4 मई को वारदात के समय घटनास्थल पर मौजूद था बाकी तो वहाँ पर थे भी नहीं! 20 अगस्त 1887 को इस मुकदमे का फैसला सुनाया गया जिसमें ऑस्कर नीबे के अलावा सभी मज़दूर नेताओं को फाँसी की सज़ा सुनायी गयी।
मज़दूर नेता स्पाइस ने अदालत में कहा था, “अगर तुम सोचते हो कि हमें फाँसी पर लटका कर तुम मज़दूर आन्दोलन को… ग़रीबी और बदहाली में कमर तोड़ मेहनत करने वाले लाखों लोगों के आन्दोलन को कुचल डालोगे, अगर यही तुम्हारी राय है – तो ख़ुशी से हमें फाँसी दे दो। पर याद रखो … आज तुम एक चिंगारी को कुचल रहे हो, यहाँ-वहाँ, तुम्हारे पीछे, तुम्हारे सामने, हर ओर लपटें भड़क उठेंगी। यह जंगल की आग है। तुम इसे कभी भी बुझा नहीं पाओगे।” 11 नवम्बर, 1887 को पार्सन्स, स्पाईस, एंजेल और फिशर को कूक काउंटी की जेल में फाँसी दे दी गयी। फाँसी के तख्ते से स्पाइस ने चीख़ कर कहा, “एक समय आयेगा जब हमारी ख़ामोशी उन आवाज़ों से ज़्यादा ताकतवर होगी जिन्हें तुम आज दबा रहे हो।” 13 नवम्बर को मज़दूर नेताओं की अन्तिम यात्रा में पाँच लाख से भी ज़्यादा लोग शामिल हुए तथा अपने नायकों को आखिरी सलामी दी। 1 मई से शुरू हुआ मज़दूर वर्ग का संगठित संघर्ष यहीं पर नहीं रुका बल्कि इसके बाद दुनिया भर में ‘काम के घण्टे आठ करो’ का नारा गूँज उठा। हारकर पूँजीपति वर्ग को काम के घण्टे आठ के अधिकार को कानूनी मान्यता देकर स्वीकारना पड़ा और मज़दूर वर्ग के नायकों का बलिदान रंग लाया। तब से लेकर अब तक 131 साल बीत चुके हैं, इस दौरान मज़दूर वर्ग ने अनगिनत संघर्षों और कुर्बानियों के कीर्तिमान स्थापित किये। रूस, चीन से लेकर दुनिया के बहुत बड़े हिस्से में मज़दूरी की व्यवस्था पूँजीवाद का नाश करके मज़दूरों के ध्येय समाजवाद को कायम किया। ग़रीबी-भुखमरी-बेरोज़गारी जैसी समस्याओं पर समाजवादी प्रयोगों के दौरान मारक चोट की। किन्तु मज़दूर वर्ग के पहले प्रयोग असफल हो गये, कारण मज़दूर वर्ग की पार्टियों में संशोधनवाद के रूप में पूँजीवाद ने घुसपैठ कर ली। मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी विचारधारा पर अर्थवाद, संसदवाद और संशोधनवाद के घुन और दीमक लग गये। पूँजी की ताकत श्रम की ताकत पर फ़िर से हावी हो गयी और एक-एक करके तमाम श्रम कानूनों को मज़दूर वर्ग से छीना जाने लगा। लेकिन यह स्थिति सदा कायम रहने वाली नहीं है। अतीत के अनुभवों से सीखकर मज़दूर वर्ग फ़िर से उठेगा। पूँजीवाद भी अपने शुरुआती दिनों में सामन्तों के साथ बहुत सी पराजयों के बाद ही विजित हुआ था। फ़िर मज़दूर वर्ग तो शोषण के सभी रूपों के खात्मे के लिए लड़ रहा है। यदि हमें शुरुआती दौर में असफलता भी मिली है तो इसमें निराशा-हताशा की कोई बात नहीं होनी चाहिए। आज पूँजीवादी व्यवस्था खुद असमाधेय संकट का शिकार है। आज पूँजीवाद भुखमरी, बेरोज़गारी, युद्ध, बीमारी, बेरोज़गारी, सांस्कृतिक पतनशीलता, फ़ासीवाद और पर्यावरणीय विनाश के अलावा कुछ नहीं दे सकता। मज़दूर वर्ग को संशोधनवाद, संसदवाद और अर्थवाद से छुटकारा पाना होगा और अपने अन्दर पैठे दलालों और गद्दारों को पहचानना होगा। अतीत की मज़दूर क्रान्तियों का आलोचनात्मक ढंग से अध्ययन करना होगा। मज़दूर वर्ग का अतीत जितना शानदार रहा है भविष्य उससे भी उज्जवल होगा! चुनौतियों का सामना करते हुए फ़िर से मज़दूर वर्ग उठेगा और इस बार की उसकी जीत फैसलाकुन जीत होगी!
भारत पर इस समय फ़ासीवादी शिकंजा कसता जा रहा है। फ़ासीवादी बड़ी पूँजी की सेवा करते हैं तथा मज़दूर वर्ग समेत तमाम गरीबों को जाति-धर्म-क्षेत्र के नाम पर आपस में भिड़ा देते हैं। मोदी सरकार एक ओर तो आज मज़दूरों के रहे-सहे श्रम कानूनों को ख़त्म करती जा रही है तथा दूसरी ओर जाति-धर्म के झगड़े-दंगे फैलाने वालों को शह दे रही है। हर तरफ़ वायदा ख़िलाफ़ी, झूठ, जुमलेबाजी का बोलबाला है। इतिहास गवाह है कि फ़ासीवाद को संगठित मज़दूर वर्ग ही परास्त कर सकता है। जाति-मजहब की दीवारों को गिराकर हमें अपने साझे संघर्ष के लिए एकजुट होना होगा।
साथियो! हमारे संघर्ष दो क़दमों पर चलेंगे। आर्थिक संघर्ष; जिनमें काम के घण्टे, ईएसआई, ईपीएफ़, न्यूनतम मज़दूरी, सुरक्षा के समुचित इन्तजाम, बोनस, वेतन-भत्ते, रोज़गार इत्यादि से जुड़ी माँगों के लिए हमें आन्दोलन संगठित करने होंगे। देश-दुनिया के कौने-कौने में मज़दूर वर्ग अपने आर्थिक संघर्ष लड़ भी रहा है किन्तु अधिकतर जगह पर नेतृत्व समझौतापरस्त है। मज़दूर आन्दोलन में आज अर्थवाद करने वाले और 20-30 परसेंट की दलाली खाने वाले हावी हैं। इनसे पीछा छुड़ाकर स्वतन्त्र नेतृत्व विकसित करना आर्थिक संघर्षों की जीत की भी पहली शर्त है। मज़दूर वर्ग का असल संघर्ष उसका राजनीतिक संघर्ष है जो एक शोषणविहीन-समतामूलक समाज व्यवस्था के लिए होने वाला संघर्ष है जिसमें एक इंसान के द्वारा दूसरे इंसान का शोषण न हो सके। मज़दूर वर्ग पूँजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंककर तथा समाजवादी व्यवस्था कायम करके ही ऐसा कर सकता है। जब तक पूँजीवाद रहेगा तब तक होने वाले आर्थिक संघर्ष तो साँस लेने के समान हैं किन्तु असल लड़ाई शोषण के हर रूप के खात्मे के लिए होनी चाहिए। मई दिवस का सच्चा सन्देश यही है कि हम अपने शानदार अतीत से प्रेरणा लेकर भविष्य की दिशा का सन्धान करें। मई दिवस के शहीदों को भी हमारी यही सच्ची श्रृद्धांजलि हो सकती है!
जारीकर्त्ता :- बिगुल मज़दूर दस्ता
वेबसाइट : www.mazdoorbigul.net,
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सम्पर्क – दिल्ली:- 9873358124, हरियाणा:- गुडगाँव: 8660792320, रोहतक: 8010156365,
जीन्द – 9991908690, कैथल – 8685030984,
जारी तिथि : 29 अप्रैल, 2018
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन