सोवियत संघ में सांस्कृतिक प्रगति – एक जायज़ा 

 मानव 

(पहली किश्त)

सोवियत संघ के बारे में आज मज़दूरों को, और अन्य लोगों को, कम ही जानकारी है। विज्ञान या इतिहास के विद्यार्थियों ने तो शायद सोवियत संघ के बारे पढ़ा होगा लेकिन इसकी प्राप्तियों के बारे में आम वाकफ़ीयत कम ही है। या फिर जानकारी यदि है भी तो एक सीमित क्षेत्र तक है, मसलन विज्ञान के विद्यार्थियों ने अन्तरिक्ष में जाने वाले पहले इंसान यूरी गागरिन, अन्तरिक्ष में जाने वाली कुतिया लायका के बारे में सुन रखा होगा या फिर इतिहास के विद्यार्थियों ने सोवियत संघ की तरफ़ से हिटलर की फ़ासीवादी सेना को दी क़रारी हार के बारे में पढ़ा होगा, ऐसी लड़ाई कि जिसकी कोई दूसरी मिसाल पूरे विश्व के इतिहास में नहीं मिलती। या फिर सोवियत संघ की भौतिक प्रगति, इसके उद्योगीकरण, पाँच -साला योजनाओं के बारे में भी कुछ लोगों को जानकारी होगी कि वह कैसे मिसाली प्राप्तियाँ थीं। लेकिन इस सब भौतिक प्रगति के अलावा सोवियत सरकार की तरफ़ से अपने नागरिकों की मानसिक प्रगति के लिए, उनके सौन्दर्य-बोध को विकसित करने के लिए क्या-क्या किया गया और क्या प्राप्तियाँ रहीं, इसके बारे में जानकारी का अभाव है। जिन साथियों ने डायसन कार्टर की किताब ‘पाप और विज्ञान’ पढ़ी होगी उनको इसकी झलक ज़रूर मिली होगी। हमारे पास इस समय एक किताब मौजूद है, जिसका नाम है ‘सोवियत संघ में संस्कृतिक प्रगति – सांख्यिकीय विवरण’। इसमें उन्होंने उन सोवियत संस्थायों के आँकड़े इकठ्ठा किये हैं जो कि सरकार ने अपने नागरिकों के लिए क़ायम कीं या जिनका उन्होंने विस्तार किया। इसमें सोवियत संघ में स्थापित की गयी प्रोद्योगिक संस्थायों, मज़दूर क्लबों, पुस्तकालयों, संग्रहालयों, सिनेमाघरों, नाटकघरों आदि के आँकड़े हैं। हम जानते हैं कि किसी भी समाज की मानसिक प्रगति का, वहाँ के नागरिकों के सौन्दर्य-बोध का अन्दाज़ा वहाँ मौजूद संस्कृति के ऐसे केन्द्रों से लगाया जा सकता है। इन आँकड़ों के द्वारा हम सोवियत संघ की इसी प्रगति को देखने की कोशिश करेंगे और जहाँ तक सम्भव हो सका अपने देश के हालातों के साथ भी तुलना करने का प्रयास करेंगे। ये आँकड़े सोवियत संघ में क्रान्तिकारी दौर तक ही  सीमित हैं – यानी 1917 में हुई अक्टूबर क्रान्ति से लेकर 1953 में कॉमरेड स्तालिन की मौत होने तक। ग़ौरतलब है कि सोवियत संघ में ख्रुश्चेव धड़े के सत्ता पर काबिज़ होने के साथ ही सोवियत संघ में पूँजीवाद की पुनर्स्थापना का काम शुरू हो गया था। यह सही है कि इन संस्थाओं का निर्माण इसके बाद भी कुछ हद तक होता रहा क्योंकि पूरा सामाजिक प्रबन्ध राज्यसत्ता तबदीली के साथ ही रातों -रात नहीं बदल जाता बल्कि उसे समय लगता है, इसी तरह ख्रुश्चेव की पूँजीवादी नीतियों के बुरे प्रभाव सोवियत समाज और संस्कृति के इन केन्द्रों पर पड़ने में भी कुछ समय लगा। परन्तु यह सब यहाँ हमारी दिलचस्पी का विषय नहीं है।

आइए पहले बात करते हैं पुस्तकालयों की।

सोवियत संघ में सब प्रकार के पुस्तकालयों (समेत सरकारी पुस्तकालय, वैज्ञानिक और खोज- कार्यों के स्वायत्त पुस्तकालय, उच्च -शिक्षा संस्थाओं, स्कूलों और शिशु- ग्रहों के पुस्तकालय, अस्पतालों, खेल क्लबों के पुस्तकालय आदि शामिल थे) की संख्या 1935 में 1,15,542 थी जिनके पास कुल किताबों की संख्या 29,88,95,000 थी। 1954 तक यह संख्या बढ़कर 3,88,127 पुस्तकालयों तक हो गयी जिनके पास अब कुल किताबों की संख्या 1,17,07,72,000 थी, यानी कुल किताबों की संख्या 117 करोड़ से ऊपर थी। अब बात करते हैं सिर्फ़़ सरकारी पुस्तकालयों की। 1935 में कुल 1,15,542 पुस्तकालयों में से 50,870 सरकारी पुस्तकालय थे जबकि 1954 में 3,88,127 पुस्तकालयों में से सरकारी पुस्तकालयों की संख्या 1,40,125 थी। यदि इसकी 1917 की अक्टूबर क्रान्ति से पहले के समय के साथ तुलना करनी हो तो 1914 में कुल सरकारी पुस्तकालय 13,876 थे जिनमें किताबों की संख्या 94,42,000 थी। यानी, 1954 में सरकारी पुस्तकालयों की संख्या में 10 गुणा से भी ज़्यादा वृद्धि हुई। यहाँ एक और बात ग़ौर करने लायक है – 1939 में जब दूसरा वैश्विक युद्ध शुरू होता है तब सोवियत संघ में कुल सरकारी पुस्तकालयों की संख्या 77,775 थी जो 1941 में (नाजियों के हमले से बिल्कुल पहले) बढ़कर 95,401 हो गयी। इसके बाद 1946 तक आते-आते (यानी दूसरे वैश्विक युद्ध के अन्त तक) इस संख्या में एक बड़ी गिरावट नज़र आती है और यह 47,440 सरकारी पुस्तकालयों तक ही रह जाती है। मौजूद किताब में तो इसके कारण का कोई ज़िक्र नहीं किया गया लेकिन यह मानने का पूरा कारण है कि फ़ासीवादी नाज़ियों ने सोवियत संघ की तरफ़ अपने हमले के दौरान पुस्तकालयों को भी नहीं बख़्शा और इनको तबाह करते गये। फ़ासीवादियों की वैसे भी ज्ञान-विज्ञान विरोधी जो सोच होती है इसके बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका है और असंख्य सबूत हैं। लेकिन सोवियत सरकार ने भी अपने लोगों की मेहनत के साथ इस बड़े नुक़सान की एक हद तक भरपाई युद्ध  के बाद के पाँच सालों के दौरान ही कर ली थी जब 1950 में सरकारी पुस्तकालयों की संख्या 1941 के आँकड़े को पार करके 1,10,306 हो गयी थी। ये सभी पुस्तकालय सरकारी पुस्तकालयों, साँझे -फ़ार्मों के पुस्तकालयों, ट्रेड-यूनियन संस्थाओं के पुस्तकालयों और विभिन्न विभागों के पुस्तकालयों के रूप में उनके अनुपात और ज़रूरत के मुताबिक़ बाँटी गयी थीं जिनमें उनकी ज़रूरत के मुताबिक़ सम्बन्धित साहित्य (सामाजिक या राजनीतिक, प्राकृतिक विज्ञानों या खेती या तकनीकी विज्ञान से सम्बन्धित, या फिर आम साहित्य और बच्चों का साहित्य) मुहैया करवाया जाता था। साथ ही, दिलचस्प बात यह है कि इस तरह नहीं था कि ये पुस्तकालय अकेले रूस में ही केन्द्रित थे, बल्कि भौगोलिक क्षेत्र और आबादी के लिहाज़ से ये सोवियत संघ के सभी हिस्सों, समेत कम विकसित हिस्सों (जैसे कि एशियाई क्षेत्र जिसमें अज़रबाईजान, तुर्कमेनिस्तान, उज़्बेकिस्तान, किरगिज़स्तान जैसे देश आते थे) में भी अनुपात के मुताबिक़ बाँटे गये थे। एक और दिलचस्प आँकड़ा इन पुस्तकालयों के प्रयोग से सम्बन्धित है। कार्य सूची के मुताबिक़ साल 1955 में अकेले सरकारी पुस्तकालयों में पढ़ने वाले व्यक्तियों की संख्या 3,97,36,000 थी। हमने ऊपर देखा है कि 1954 में सोवियत संघ में मौजूद कुल पुस्तकालयों में से सरकारी पुस्तकालयों की संख्या 40% से कम थी। बाक़ी अन्य प्रकार के पुस्तकालय थे (जो निजी नहीं, बल्कि ये भी सरकारी ही थे बस इनका कंट्रोल सीधे सरकार की बजाय सम्बन्धित संस्थाएँ करती थीं)। सोवियत संघ की आबादी साल 1959 की जनगणना के मुताबिक़ 20 करोड़ के लगभग थी। सो, कुल पुस्तकालयों का 40% से कम होते हुए भी इन पुस्तकालयों में पाठकों की संख्या तक़रीबन 4 करोड़ के नज़दीक थी। बाक़ी पुस्तकालयों के पाठकों की संख्या मिला ली जाये तो हमें जिज्ञासु सोवियत मानसों की मनोवृत्ति का अन्दाज़ा हो जाता है कि सोवियत लोग पढ़ने-लिखने को कितना अहमियत देते थे।

इन आँकड़ों को अब थोड़ा भारत की स्थिति के साथ तुलना करके देखते हैं। भारत में सरकारी तौर पर तो पुस्तकालयों की कुल संख्या और उनमें से सरकारी पुस्तकालयों की संख्या का कोई आधिकारिक रिकार्ड ही नहीं है (यह भी सरकार की इस मामले में ग़ैर-संजीदगी को ही दिखता है) लेकिन अलग-अलग स्रोत इसकी संख्या 50,000 से 70,000 सरकारी पुस्तकालय बताते हैं। इन पुस्तकालयों के भीतरी हालात क्या हैं, इनके रजिस्टरों/कार्य-सूचियों के मुताबिक़ यहाँ पढ़ने आने वाले कितने लोग हैं, त्रासदी ही यह है कि यह सब आँकड़े हमें भारत के बारे में नहीं मिलते। लेकिन यदि हम भारत में कुल सरकारी पुस्तकालयों की संख्या 70,000 भी मानें तो भी सोवियत संघ से (1959 की जनगणना के मुताबिक़) 6 गुना ज़्यादा आबादी होने के बावजूद भी भारत में सरकारी पुस्तकालयों की संख्या वहाँ के मुकाबले (सोवियत संघ के 1955 के आँकड़े मुताबिक़) आधी ही है। भारत में इन पुस्तकालयों की बाँट भी बहुत असमान है – जैसे कि भारत में 20 करोड़ की आबादी वाले राज्य यूपी में कुल 75 सरकारी पुस्तकालय ही हैं जबकि 7 करोड़ से कम आबादी वाले तामिलनाडु में सरकारी पुस्तकालयों की संख्या 4,000 से ऊपर है। इसी तरह सरकारी ख़र्च के हिसाब से भी देखें तो यूपी में सरकार पुस्तकालयों पर सिर्फ़़ 22 करोड़ ख़र्चती है, उसमें से भी 20 करोड़ सिर्फ़़ तनख्वाहें और रख-रखाव पर जाता है जबकि नयी किताबों के लिए सिर्फ़़ 2 करोड़ ही बचता है। इसी तरह भारत के दक्षिणी और उत्तर-पूर्वी क्षेत्र में पुस्तकालयों का घनत्व ज़्यादा है। राष्ट्रीय पुस्तकालय मिशन के सलाहकार के.के. बैनर्जी की रिपोर्ट के मुताबिक़ उत्तरी भारत में पुस्तकालयों की संख्या काफ़ी कम है। मिसाल के तौर पर पंजाब में कुल 580 पुस्तकालय बताये जाते हैं, जबकि आबादी के लिहाज़ से कहीं छोटे राज्य नागालैण्ड में इसकी अपेक्षा ज़्यादा पुस्तकालय हैं। इसी तरह, दिल्ली और इसके  साथ के इलाक़ों की आबादी करोड़ों में है लेकिन यहाँ सिर्फ़़ 229 पुस्तकालय हैं। उत्तरी भारत के अन्य राज्यों की हालत तो और भी ख़राब है। आबादी के लिहाज़ से तक़रीबन पंजाब के बराबर पड़ते हरियाणा में सिर्फ़़ 50 पुस्तकालय हैं, जम्मू-कश्मीर में भी 60 पुस्तकालय ही हैं। भारत में सरकारों की यह बेरुखी इसी तथ्य से ही ज़ाहिर हो जाती है कि भारत में सरकार सरकारी पुस्तकालयों पर प्रति व्यक्ति सिर्फ़़ 7 पैसे ही ख़र्च कर रही है! (स्रोत – के.के. बैनर्जी की ही रिपोर्ट)। इस सरकारी बेरुखी के चलते ही पंजाब में भी पुस्तकालयों का ढाँचा ख़स्ता ही है। यदि पंजाब की शैक्षिक संस्थाओं के पुस्तकालयों की बात करें तो इस समय पंजाब के 48 सरकारी कॉलेजों और 14 ज़िला पुस्तकालयों में पचास लाख से अधिक किताबें पड़ी हैं। इन सरकारी कॉलेजों और ज़िला पुस्तकालयों और पंजाब के एक केन्द्रीय पुस्तकालय में कुल 96 नियुक्तियाँ हैं जिनमें से 74 इस समय ख़ाली पड़ी हैं और सिर्फ़़ 22 के साथ काम चलाया जा रहा है!

ऊपर दिये गये सभी आँकड़ों का सार क्या है? क्यों एक ऐसा देश जहाँ क्रान्ति से पहले हालत भारत जैसी ही थी, जहाँ  60% से ज़्यादा लोग अनपढ़ थे वह सिर्फ़़ 36 सालों में सांस्कृतिक लिहाज़ से (इस मामले में ख़ास किताबों की संस्कृति) इतना आगे निकल जाता है कि भारत अपने 70 सालों के ‘आज़ादी’ के सफ़र के बाद भी उसके आगे बेहद बौना नज़र आता है? और यह सब वह क्रान्ति-पश्चात चले तीन वर्षों के गृह-युद्ध को सहते हुए, सत्ता से उतारे शोषक वर्गों की ओर से पैदा की जा रही अन्दरूनी गड़बड़ियों के चलते और नाज़ी फ़ासीवादियों के ख़िलाफ़ चले महान युद्ध का नुक़सान उठाते हुए हासिल किया जिस युद्ध में कि सोवियत संघ की आर्थिकता का बड़ा हिस्सा तबाह और बरबाद हो गया था, 2 करोड़ से ज़्यादा नौजवानों को लामिसाली कुर्बानियाँ देनी पड़ीं थीं। लेकिन फिर भी सोवियत संघ ने यह सब हासिल किया। कैसे? क्योंकि उस वक़्त के सोवियत संघ और भारत में एक बुनियादी फ़र्क था और वह है कि सोवियत संघ समाजवादी रास्ते पर आगे बढ़ा (स्तालिन की मृत्यु तक) और भारत अब तक पूँजीवादी रास्ते पर चलता आया है। समाजवाद में मुख्य मक़सद ही लोगों के जीवन- स्तर को ऊँचा उठाने के साथ-साथ उनके सौन्दर्यात्मक जीवन को भी ऊँचा उठाना होता है जबकि पूँजीवादी प्रबन्ध में प्रगति एक बेहद सीमित वर्ग, पूँजीपति वर्ग की ही होती है। समाजवाद में लोगों को रोज़गार की चिन्ता न होने के कारण और हर एक को काम मिलने के चलते वहाँ न तो फ़ालतू का तनाव होता है और न ही ओवरटाइम लगा घर चलाने का फ़िक्र। बल्कि लोगों के पास अतिरिक्त समय होता है सांस्कृतिक गतिविधियों में हिस्सा लेने का जबकि पूँजीवादी प्रबन्ध में ग़रीबी, बेरोज़गारी, ओवरटाइम की तलवार हर समय सिर पर लटकी रहती है और मज़दूरों के पास इतना वक़्त ही नहीं होता कि पढ़ने- लिखने की रुचियाँ विकसित कर सकें और जिनके पास थोड़ा वक़्त हो भी तो सरकार उन तक भी ज्ञान नहीं पहुँचाना चाहती क्योंकि यदि आम मज़दूर पढ़ेंगे -लिखेंगे, अपने इतिहास के बारे में, अपनी भाषा के बारे में, दूसरे देशों के इतिहास और वहाँ के लोगों के संघर्षों के बारे में जानेंगे तो भारतीय शासकों के लिए समस्या खड़ी हो जायेगी। उनकी सत्ता के लिए ख़तरा पैदा हो जायेगा। इसीलिए भारतीय शासक कभी नहीं चाहते कि उनकी सत्ता डोले, इसीलिए वह भारतीय लोगों को नासमझी में ही रखना चाहते हैं जिससे अपनी लूट को चलता रख सकें। जनपक्षीय ताक़तों को, क्रान्तिकारी ताक़तों को सरकारों की इस सोच को सरेआम नंगा करना चाहिए और जहाँ तक सम्भव हो सके वैकल्पिक मीडिया का, पुस्तकालयों का मॉडल खड़ा करना चाहिए जिससे मज़दूरों में अच्छे साहित्य के प्रति उत्साह पैदा किया जा सके और उनको ग़लत रास्ते पर चलने से, शासकों के झूठे प्रचार से भ्रमित होने से बचाया जा सके।

मज़दूर बिगुल, फ़रवरी 2018


 

‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्‍यता लें!

 

वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये

पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये

आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये

   
ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीऑर्डर के लिए पताः मज़दूर बिगुल, द्वारा जनचेतना, डी-68, निरालानगर, लखनऊ-226020 बैंक खाते का विवरणः Mazdoor Bigul खाता संख्याः 0762002109003787, IFSC: PUNB0185400 पंजाब नेशनल बैंक, निशातगंज शाखा, लखनऊ

आर्थिक सहयोग भी करें!

 
प्रिय पाठको, आपको बताने की ज़रूरत नहीं है कि ‘मज़दूर बिगुल’ लगातार आर्थिक समस्या के बीच ही निकालना होता है और इसे जारी रखने के लिए हमें आपके सहयोग की ज़रूरत है। अगर आपको इस अख़बार का प्रकाशन ज़रूरी लगता है तो हम आपसे अपील करेंगे कि आप नीचे दिये गए बटन पर क्लिक करके सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग भी करें।
   
 

Lenin 1बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।

मज़दूरों के महान नेता लेनिन

Related Images:

Comments

comments