अमरीका, यूरोप और पूरी दुनिया में पैदा हुए नस्लीय, फासीवादी उभार का कारण

मुनीश मैन्दोला

अमरीका में ट्रम्प के सता में आने के बाद नस्लीय हिंसा की वारदातों में इज़ाफ़ा हुआ है। लेख लिखे जाने तक 3 भारतीयों पर गोली चलाई जा चुकी थी, जिनमें 2 जनों की मौत हो गयी। एक भारतीय महिला तृप्ती देसाई को भी वहाँ की मैट्रो में गालियाँ दी गयी और उनको अमरीका ख़ाली करके भारत जाने को कहा गया। इन सभी अलग-अलग घटनाओं में एक चीज़ समान है कि जिस भारतीय की मृत्यु हुई और तृप्ती देसाई आदि मोदी समर्थक रहे हैं और संघ और भाजपा के हिन्दुत्व के नफ़रत के ऐजेण्डे के प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थक रहे हैं! यानी कल तक जो दूसरों के घर को धर्म के नाम पर आग लगाने के समर्थक थे, अब उनके ख़ुद के घर आग पहुँच गयी है। यही वो रिश्ता है जो मोदी और ट्रम्प के समर्थकों को आपस में जोड़ता है। एक ओर भारत का खाया-अघाया मध्यवर्ग अपनी “स्वदेशी भारत माता” को लतियाकर ओल्ड ऐज होम में छोड़कर पहला मौक़ा मिलते ही विदेश जाकर डाॅलर-पाउण्ड कूटने की फि़राक़ में रहता है और ऐसा करते समय यह अपना स्वदेशप्रेम और राष्ट्रवाद रद्दी की टोकरी में डाल देता है व अपने देश में संघ-भाजपा की मुस्लिम अन्धविरोधी, दलित-विरोधी, मज़दूर-विरोधी, वाम-विरोधी और जनद्रोही हिन्दुत्ववादी राजनीति का जमकर समर्थन करता है। जब आस्ट्रेलिया से लेकर अमरीका में जमकर पैसा पीट रहे भारतीयों की हत्या होती है तो यही चोट्टा मध्यवर्ग जमकर शोर मचाता है पर अपने देश में संघी फासीवाद का जमकर समर्थन करता है। इसका एक उदाहरण संजय लीला भंसाली हैं जिन्होंने उन लेखकों के विरोध का मज़ाक़ उड़ाया था जो मोदी सरकारी के फासीवाद का विरोध कर रहे थे। उनको भी अपने धत्करमों का फल मिला जब करणी सेना ने उनको ठोक दिया। पुरानी कहावत है कि दूसरों के लिए गढ्ढा खोदने वाला अक्सर ख़ुद उसमें गिर जाता है। दोहरे चरित्र वाले भारतीय मध्यवर्ग पर यही बात लागू होती है। जब पहले मोदी भारत में और बाद में ट्रम्प अमरीका में सत्ता में आया था तो यही वर्ग उनको सर पर उठाये घूम रहा था और अब जब ट्रम्प, जो अपनी नीतियों में मोदी जैसा है, के नस्लीय नफ़रत से सरोबर समर्थकों ने इन डाॅलर-पाउण्ड कूटने वाले खाये-अघाये भारतीय मध्यवर्ग की पिटाई करना शुरू कर दिया तो अब इनको बुरा लग रहा है और वहाँ बन रहे हालात ने अब इनको भी अमरीका में वहाँ की जनता के अन्य हिस्सों की तरह ही सड़क पर उतरने को मजबूर कर दिया है।

जैसा पाखण्डी मध्यवर्ग है वैसे ही पाखण्डी इसके नेता हैं। एक ओर भाजपा नेता वैंकय्या नायडू ने अमरीका में हुई इन हत्याओं के विरोध में अपनी राजनीतिक सुविधा के लिए बयान दिया है पर दूसरी ओर ख़ुद अपने देश में सत्ता में रहते हुए तमाम संघी एक अघोषित भगवा इमरजंसी लगाये हुए हैं और जनता के प्रतिरोध को कुचलने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे। अख़लाक़ से लेकर गुरमेहर कौर तक इसके उदाहरण हैं। हमने हाल ही में देखा कि कैसे गुरमेहर कौर ने जब अपना वीडियो फेसबुक पर शेयर किया जिसमें युद्ध विरोधी व शान्ति के पक्ष में बात की गयी थी तब कैसे भाजपा के गुण्डों ने उसे बलात्कार की धमकी दी थी और सारे फ़र्ज़ी राष्ट्रवादी कैसे इस पर शोर मचाये हुए थे।

पर अमरीका और यूरोप और साथ ही लगभग पूरी दुनिया में पैदा हो रहे इस फासीवादी उभार का कारण क्या है? वैसे तो इसके कई कारण हैं पर इसका बुनियादी कारण है मुनाफ़़ा कमाकर धनी बनने की पूँजीवादी होड़। पूँजीपति वर्ग धनी बनने के लिए आम जनता के श्रम और प्रकृति के संसाधनों को लूटता है। इस प्रक्रिया में बड़ा पूँजीपति वर्ग कई अन्य छोटे पूँजीपतियों/मालिकों को तबाह करके उनके हिस्से के बाज़ार को क़ब्ज़ाकर उनको बाज़ार से बाहर फेंक देता है। जैसे कि रिलायंस के फ्रैश स्टोर ने कई छोटे दुकानदारों, रेहड़ीवालों को बाज़ार से खदेड़ दिया। और यही काम गाँव में होता है जैसे कि गाँव के धनी किसान अब गाँव के ग़रीब किसान को बाज़ार से बाहर खदेड़कर धनी हो रहे हैं। गाँव का धनी किसान अब कई जगह हैलीकॉप्टर में बैठकर शादी कर रहा है और जिन ग़रीब किसानों को वे बाज़ार से खदेड़ रहे हैं वे आत्महत्या कर रहे हैं। ग़रीब किसान की आत्महत्याओं का असली कारण यही है। इसके चलते शहर में बड़े पैमाने पर छोटे व्यापारी/छोटे मालिक तबाह होकर ख़स्ताहाल हो जाते हैं और गाँव के ग़रीब छोटे मालिक किसान बर्बाद हो जाते हैं। पूँजीवादी होड़ में बर्बाद होते यही वो छोटे व्यापारी/छोटे मालिकों और छोटे किसान मालिकों के तबक़े हैं जो अपनी बर्बादी व तबाही के असली कारण को नहीं समझते व फासीवाद के पैदा होने का आधार बनते हैं। साथ ही पूँजीवाद शहर व देहात के सभी बेरोज़गार लोगों को रोज़गार नहीं देता और बेरोज़गारों की रिज़र्व आर्मी बनाकर रखता है ताकि बेरोज़गारों की फ़ौज को दिखाकर वह अपने मज़दूरों/कर्मचारियों से सस्ते में काम करवा सके। इसी के साथ पूँजीपति वर्ग देश में लगातार महँगाई नाम का टैक्स लगाता है ताकि उसका मुनाफ़़ा बिना कुछ किये बढ़ता रहे। बेरोज़गारी व महँगाई की मार देश के मज़दूर वर्ग, बर्बाद होते छोटे किसान व निम्न मध्यवर्ग पर सबसे ज़्यादा पड़ती है और ये वर्ग भी अपनी बर्बादी व तबाही के असली कारण को नहीं समझते व किसी क्रान्तिकारी विकल्प के अभाव में फासीवाद के पक्ष में लुढ़क जाते हैं। अलबत्ता इन वर्गों को फासीवादी सत्ता में आकर कुछ नहीं देते उल्टा फासीवाद इन्हीं वर्गों का सबसे ज़्यादा नुक़सान करता है।

अगर वैश्वि‍क पटल और देश के स्तर पर ऐसा कोई क्रान्तिकारी विकल्प ना हो तो बर्बाद होते लोगों को तब प्रतिक्रान्तिकारी शक्तियाँ बरगलाती हैं कि ‘फ़लाने धर्म या फ़लानी जाति या फ़लाने नस्ल या फ़लाने राष्ट्र के लोगों के कारण तुम तबाह हो रहे हो’। मसलन संघ-भाजपा हिन्दुओं को कहते हैं कि ‘तुम्हारा रोज़गा़र मुसलमान खा रहे हैं क्योंकि वे ज़्यादा बच्चे पैदा कर रहे हैं’ व यही बात अमरीकी ट्रम्प कहता कि ‘अमरीकियों के रोज़गा़र बाहर के देशों के लोग खा रहे हैं’! और एक क्रान्तिकारी विकल्प और अपनी बर्बादी की वैज्ञानिक समझदारी के अभाव में पूँजीवादी होड़/कम्पटीशन में बर्बाद ये तबक़े फासीवाद का साथ देते हैं। इस तरह फासीवादी दल धार्मिक/जातीय/नस्लीय/राष्ट्रीय घृणा फैलाकर आम जनता की/श्रमिकों की एकता को तोड़कर उनको आपस में लड़ा देते हैं बजाय समूचे पूँजीपति वर्ग के ि‍ख़लाफ़ लड़ाने के जो कि उनकी बर्बादी की असली जड़ है और इस तरह वे किसी भी देश के बड़े पूँजीपति वर्ग के वर्गीय हितों को साधते हैं।

इसलिए आज इस फासीवादी उभार को रोकने के लिए ज़रूरी है कि भगत सिंह के आदर्शों पर चलने वाली एक ऐसी क्रान्तिकारी पार्टी बनायी जाये तो समूचे पूँजीवाद का एक क्रान्तिकारी विकल्प दे और जनता के अलग-अलग हिस्सों को समझाये कि तुम्हारे साझा दुश्मन देश व दुनिया के सारे पूँजीपति मालिक हैं और इनके ि‍ख़लाफ़ एक कठोर, दृढ़, अनम्य और निर्मम वर्गयुद्ध लड़कर ही तुम अपने तमाम हक़-हुकूक हासिल कर सकते हो।

यही अमरीका में बसे भारतीय मध्यवर्ग व अन्य देशों के लोगों को भी करना होगा। सबसे पहले उनको फासीवाद की एक वैज्ञानिक बुनियादी समझदारी बनानी होगी। उनको ये समझना होगा कि अगर वे अपने मूल देश में संघ-भाजपा या किसी अन्य शेड या रंग के (मसलन इस्लामिक चरमपन्थ या अन्य कि़स्म के चरमपन्थ) पार्टी के फासीवाद के पक्ष में खड़े होंगे तो विदेश में उनकी कुटाई और हत्या उसकी तार्किक परिणति होगी। इसलिए उनको तमाम कि़स्म के देशी-विदेशी रंगभेद, नस्लीय उत्पीड़न, जातीय उत्पीड़न या कह लें कि पूँजीवादी शोषण और दमन के तमाम अलग-अलग रूपों का सबके साथ मिलजुलकर विरोध करना होगा वो चाहे उनके अपने मूल देश में हो या उस देश में जहाँ वे रह रहे हैं। इसी के साथ ये भी ज़रूरी है कि अमरीका में अमरीकी समाज व जनता के साथ मिलजुल कन्धे से कन्धा लड़ाकर वहाँ के प्रगतिशील जनान्दोलनों में शिरकत की जाये। जब अमरीका के अश्वेत या चिकानो, या लैटिन मूल की आबादी या वहाँ का मज़दूर वर्ग का कोई हिस्सा या औरतों के अधिकारों की हिमायत करने वाले संगठन जब वहाँ जनता के अधिकारों के लिए सड़क पर आते हैं तो उनका साथ दिया जाये। साथ ही तमाम कि़स्म के देशी-विदेशी फासीवादी प्रचार का समाज में हर जगह मुँहतोड़ जवाब दिया जाये। इस तरह आम मेहनतकश जनता से जुड़कर ही फासीवाद का सफलतापूर्वक मुक़ाबला किया जा सकता है।

मज़दूर बिगुल, मार्च 2017


 

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