ऑटोमोबाइल सेक्टर में एक और आन्दोलन चढ़ा दलाल केन्द्रीय ट्रेड यूनियन संघों और अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी संगठनों की कुत्सित ग़द्दारी और मौक़ापरस्ती की भेंट
शिवानी
बिगुल के जनवरी 2017 माह के अंक में गुडगाँव स्थित ऑटोमोबाइल सेक्टर की सबसे बड़ी कम्पनियों में से एक हीरो मोटोकॉर्प से निकाले गये ठेका मज़दूरों के आन्दोलन के विषय में एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी। यह रिपोर्ट आन्दोलन के शर्मनाक तरीक़े से ख़त्म होने से पहले लिखी गयी थी और इसलिए इस आन्दोलन का एक राजनीतिक समीक्षा-समाहार उस रिपोर्ट में अनुपस्थित था। लेकिन हीरो के मज़दूरों के संघर्ष का समाहार कई कारणों से अनिवार्य है। ऐसा नहीं है कि हीरो में चला संघर्ष ऑटोमोबाइल सेक्टर में चल रहा कोई इकलौता संघर्ष है। इस समीक्षा के लिखे जाने के वक़्त भी धारूहेड़ा, हरियाणा में ऑटोमोबाइल इण्डस्ट्री की सबसे बड़ी वेण्डर कम्पनियों में से एक, ओमैक्स ऑटो, के मज़दूरों का संघर्ष जारी है। और हीरो के आन्दोलन के पहले भी श्रीराम पिस्टन, बेल्सोनिका, अस्ति, होण्डा आदि के आन्दोलन भी इस सेक्टर में संगठित हुए। इन सभी आन्दोलनों में जहाँ एक तरफ़ मालिक-प्रबन्धन-श्रम कार्यालय-सरकार का मज़दूर-विरोधी चेहरा एकदम स्पष्ट तौर पर दिखलाई पड़ता है, वहीं दूसरी तरफ़ तथाकथित मज़दूर पक्षधर ताक़तों का भी असली चरित्र सामने आता है।
अपने समाहार में हम इस दूसरे पक्ष पर अपनी बात केन्द्रित करेंगे। हीरो के संघर्ष में जितनी बेशर्मी और नंगेपन के साथ केन्द्रीय ट्रेड यूनियन संघों, विशेष तौर पर फासीवादी ट्रेड यूनियन संघ भारतीय मज़दूर संघ (बीएमएस) के दलाली और पूँजीपरस्ती वाले चरित्र को और साथ ही अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी ‘क्रान्तिकारी-इन्क़लाबी कामरेडों’ की इन ग़द्दार ट्रेड यूनियन संघों के साथ नापाक गठजोड़ बनाने और इनकी गोद में बैठने के इनके पुराने अवसरवादी चरित्र को उजागर किया है, उतना हाल में हुए किसी और संघर्ष में शायद ही दिखा हो। किस तरीक़े से ये केन्द्रीय ट्रेड यूनियन संघ प्रबन्धन और श्रम कार्यालय के साथ मिलकर मज़दूर पक्ष को क़ानूनी लड़ाई के गोल चक्कर में घुमाती रहती हैं और किस तरह ये ‘क्रान्तिकारी-इन्क़लाबी कामरेड’, जो कि ‘मज़दूर सहयोग केन्द्र’ और ‘इन्क़लाबी मज़दूर केन्द्र’ के नाम से काम करते हैं, इन मज़दूर-विरोधी ताक़तों से गलबहियाँ करते हुए आन्दोलनों को बिखराव और निराशा की तरफ़ ले जाते हैं, इसका अगर कोई सबसे ज्वलन्त और ताज़ा उदाहरण आपको कहीं देखना है तो वह हीरो के ठेका मज़दूरों के आन्दोलन में देखने को मिलेगा। इसी कारण से इस अंक में हीरो आन्दोलन की एक विस्तृत आलोचना पेश की जा रही है।
हीरो के मज़दूरों के आन्दोलन की शुरुआत तब हुई जब हीरो प्रबन्धन ने नोटबन्दी के बहाने लगभग 1000 ठेका मज़दूरों को काम से बाहर कर दिया। वैसे तो ऑटोमोबाइल सेक्टर में ठेका मज़दूरों की छँटनी एक आम परिघटना है लेकिन हीरो कम्पनी इसमें भी सबसे आगे है। 6 महीने काम पर रखकर मज़दूरों को बाहर कर देना हीरो प्रबन्धन की आम नीति है। लेकिन इस बार जब मज़दूरों को काम से बाहर किया जा रहा था तो नोटबन्दी को वजह बताया गया। दूसरे, इस बार न सिर्फ़ 6 महीने के लिए रखे गये मज़दूरों को बाहर किया जा रहा था, बल्कि ऐसे ठेका मज़दूरों को भी निकला जा रहा था जो 9-10 साल तक कम्पनी में काम कर चुके थे। ये सभी मज़दूर कम्पनी की मुख्य उत्पादन लाइन पर स्थाई मज़दूरों के समान ऑपरेटर का काम कर रहे थे। वेतन देने से लेकर ड्यूटी लगाने का काम मुख्य तौर पर कम्पनी प्रबन्धन करता था। लेकिन जब कम्पनी ने मज़दूरों को बाहर का रास्ता दिखाया तो सारा ज़िम्मा ठेका कम्पनियों पर डाल दिया। असल में आज पूरे गुडगाँव-मानेसर-धारूहेड़ा-बावल के औद्योगिक बेल्ट की ऑटोमोबाइल सेक्टर की कम्पनियों में मुख्य उत्पादन लाइन पर इस तरह लाखों ठेका मज़दूरों को बेहद कम मज़दूरी पर खटाया जा रहा है जो श्रम क़ानूनों की नज़र में सरासर गै़र-क़ानूनी है। लेकिन प्रबन्धन-प्रशासन-सरकार का गठजोड़ सरेआम सभी श्रम-क़ानूनों का उल्लंघन करता है।
लेकिन जब इस बार एक साथ इतने सारे मज़दूरों को काम से निकाला गया तो हीरो के मज़दूरों की समझ में भी यह बात आ गयी कि बिना आन्दोलन लड़े बहाली असम्भव है। इसलिए अपने आन्दोलन को चलाने के लिए हीरो से निकाले गये इन ठेकाकर्मियों ने ‘हीरो मोटोकॉर्प ठेका मज़दूर संघर्ष समिति’ नाम से एक समिति का गठन किया। समिति का गठन चूँकि काम से निकाले जाने के बाद ही हुआ था, इसलिए समिति का नेतृत्व न तो परिपक्व था और न ही अनुभवी। और इसलिए शुरू से ही इसके नेतृत्व में पूँछ पकड़कर चलने की प्रवृति मौजूद थी। यहाँ एक बात का ज़िक्र महत्वपूर्ण है। हीरो मोटोकॉर्प, गुडगाँव के प्लाण्ट में एक यूनियन पहले से ही मौजूद है, जिसका नाम ‘हीरो मोटोकॉर्प एम्प्लाइज यूनियन’ है और जो समाजवादी केन्द्रीय ट्रेड यूनियन संघ हिन्द मज़दूर सभा (एचएमएस) से सम्बद्ध है। इस यूनियन ने शुरू से ही जुबानी जमाख़र्च के सिवा और कोई सहयोग नहीं दिया। ऐसा रवैया, आमतौर पर, इस सेक्टर की ज़्यादातर यूनियनों का रहता है जो किसी न किसी केन्द्रीय ट्रेड यूनियन संघ से जुड़ी होती हैं। चूँकि ये सारी यूनियनें स्थायी मज़दूरों का प्रतिनिधित्व करती हैं और इनकी सदस्यता के दायरे में सिर्फ़ स्थायी मज़दूर आते हैं (ट्रेड यूनियन क़ानून, 1948 के अनुसार एक कम्पनी या प्रतिष्ठान में केवल स्थायी कामगार ही यूनियन के सदस्य बन सकते हैं), ठेका मज़दूरों की माँगों और उनके संघर्ष के साथ आमतौर पर इनकी कोई एकरूपता नहीं बनती है और इन यूनियनों की तरफ़ से ऐसी कोई कोशिश की भी नहीं जाती है। साथ ही, आम स्थायी मज़दूरों तक भी सीधी पहुँच न होकर इन यूनियनों के ज़रिये ही पहुँच बन पाती है जिसके कारण आम स्थायी मज़दूर चाहकर भी ठेका मज़दूरों के संघर्षों से नहीं जुड़ पाते हैं। हीरो आन्दोलन में भी यही हुआ। एचएमएस से जुड़ी इस यूनियन ने ठेका मज़दूरों के इस संघर्ष से दूरी बनायी रखी और यूनियन के पदाधिकारियों (जिन्हें अक्सर ‘प्रधानजी’ कहा जाता है) द्वारा एक-दो सभाओं में दर्शन-मात्र देने से ज़्यादा कुछ नहीं किया गया।
जहाँ तक आन्दोलन को शुरू करने का प्रश्न है, तो यह सच है कि हीरो के इन मज़दूरों ने इसकी शुरुआत ख़ुद से ही की। किसी भी केन्द्रीय ट्रेड यूनियन संघ ने किसी कि़स्म की कोई मदद नहीं की। वैसे भी ठेका मज़दूरों के लिए कुछ भी करना इन केन्द्रीय ट्रेड यूनियन संघों की शान के िख़लाफ़ है। ठेका मज़दूरों के मुद्दों पर ये संघ मुँह पर ताला लगाकर बैठे रहते हैं। वास्तव में, ठेका मज़दूरों के मुद्दों पर तो ये केन्द्रीय ट्रेड यूनियन संघ ठेका मज़दूरों के संघर्ष के िख़लाफ़ काम करता है। हीरो के मामले में भी ऐसा ही हुआ। तमाम केन्द्रीय ट्रेड यूनियन संघों और उनके नेताओं ने जुबानी समर्थन तो दिया लेकिन वास्तविक समर्थन और मदद किसी ने नहीं की। पहले तो इन ट्रेड यूनियन संघों ने इस आन्दोलन की कोई सुध नहीं ली और जब ली तो फिर पूरे आन्दोलन को ही गड्ढे में धकेल दिया। हीरो से निकाले गये एक पुराने परमानेण्ट वर्कर के ज़रिये भारतीय मज़दूर संघ इस आन्दोलन में घुसता है। यह टर्मिनेटेड वर्कर बीएमएस का सदस्य है। इससे सम्पर्क हीरो के ठेका मज़दूरों की समिति ही करती है।
हालाँकि इस बीच ‘मज़दूर सहयोग केन्द्र’ नाम से काम कर रहे अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी संगठन की भी आन्दोलन में घुसपैठ होती है। यह वही संगठन है जिसने मारुति आन्दोलन से लेकर अस्ति के मज़दूरों के आन्दोलन तक और फिर होण्डा मज़दूरों के आन्दोलन जैसे कई सम्भावना-सम्पन्न संघर्षों में अपने निहायती अवसरवादी चरित्र को दिखलाया है और इन्हें असफलता के दलदल में डुबाने का श्रेय काफ़ी कुछ इन राजनीतिक नौदौलतियों को भी जाता है। हम बिगुल के पन्नों पर इसके बारे में पहले भी लिख चुके हैं। हीरो के आन्दोलन की असफलता के पीछे कुछ कारण तो वे हैं जोकि आज पूरे ऑटोमोबाइल पट्टी के मज़दूर आन्दोलन के ठहराव का कारण बने हुए हैं। लेकिन इस संघर्ष की असफलता के पीछे श्रम विभाग द्वारा अनसुनी और थकाये जाने की रणनीति, बीएमएस की ग़द्दारी और हीरो प्रबन्धन के अड़ियल रवैये के अलावा, हीरो मज़दूर आन्दोलन के भीतर सक्रिय इन ‘इन्क़लाबी-क्रान्तिकारी कामरेडों’ के संकीर्ण सांगठनिक हित और अव्वल दर्जे की अवसरवादिता भी थी। ये ‘स्वतः स्फूर्ततावाद और मज़दूरवाद के पुजारी’ वास्तव में हर कि़स्म के यूनियन जनवाद और आम मज़दूरों की पहलक़दमी के विरोधी हैं। ये किसी भी आन्दोलन में नेतृत्व के लोगों के सलाहकार बने घूमते हैं और अपने राजनीतिक नौबढ़पन का परिचय देते रहते हैं। आम मज़दूरों में इनकी कोई पकड़ नहीं होती, किसी भी जनदिशा की कारवाई से इन्हें परहेज़ है और नेतृत्व के लोगों से कानाफूसी करके और अलग-थलग ले जाकर उनके कानों में लगातार कुछ मन्त्रोच्चारण करके ये अपने एनजीओ-नुमा सहयोग केन्द्र चला रहे हैं। एक अन्य संगठन जो ‘इन्क़लाबी मज़दूर केन्द्र’ नाम से काम करता है, तमाम मसलों पर इनसे निम्न स्तरीय एकता बनाता है, और हीरो के आन्दोलन में भी इसने यही किया। कुछ समय पहले तक ये दोनों ही संगठन ऑटोमोबाइल सेक्टर के मज़दूरों की सेक्टरगत और इलाक़ाई पैमाने की एकता की बात का मखौल उड़ाते हुए घूमा करते थे। लेकिन हाल ही में इन्होंने अपने सुर बदल लिये हैं और आजकल ये भी इलाक़ाई आधार की एकता की बात करने लगे हैं। हालाँकि इसमें चौंकाने वाली कोई बात नहीं है। क्योंकि अपने चौर्य लेखन और लाइन चोरी के लिए ये पहले ही काफ़ी कुख्यात हैं!
बीएमएस के आन्दोलन में घुसने के बाद वह हर जगह अपना नाम चमकाने का काम शुरू कर देती है। अपने झण्डे-बैनर के ज़रिये वह यह छवि बनाने की कोशिश करती है कि आन्दोलन उसके नेतृत्व में चल रहा है। आम सभाओं में बीएमएस अपने वकील और नेताओं के माध्यम से मज़दूरों के बीच बार-बार इस बात को रेखांकित कर रही थी कि आन्दोलन और संघर्ष का रास्ता छोड़कर क़ानूनी रास्ता पकड़ लो। साथ ही एचएमएस से सम्बद्ध परमानेण्ट वर्कर्स की यूनियन भी कह रही थी कि वह एक अच्छा समझौता करवा देगी। इनके एक नेता का कहना था कि वो मज़दूरों को अच्छा रेट दिलवा देगी।! इन यूनियनों का वर्ग चरित्र काफ़ी कुछ तो इनकी ख़ुद की बातों से ही स्पष्ट हो जाता है। यहाँ ये भी बताते चलें कि इस बीच ऑटोमोबाइल इण्डस्ट्री कॉन्ट्रैक्ट वर्कर्स यूनियन और बिगुल मज़दूर दस्ता के साथी लगातार आम मज़दूरों और उनकी समिति से कह रहे थे कि गुडगाँव मानेसर, धारूहेड़ा और बावल तक फैले इस ऑटोमोबाइल बेल्ट में लगे लाखों मज़दूरों तक अपने आन्दोलन की बात ले जायी जाये और अन्य ठेका मज़दूरों तक पहुँचने के लिए एक परचा निकाला जाये। और फिर ऑटोमोबाइल इण्डस्ट्री कॉन्ट्रैक्ट वर्कर्स यूनियन की पहल पर एक परचा निकालकर मज़दूरों की टोलियाँ बनाकर पूरे इलाक़े में बाँटा भी गया। ग़ौरतलब है कि ऐसी सभी जनकार्रवाईयों से हमारे ‘क्रान्तिकारी-इन्क़लाबी कामरेड’ दूर रहते थे।
हीरो के मज़दूरों ने छँटनी के बाद श्रम विभाग में अपनी शिकायत दर्ज करवा दी थी। इसके बाद ही मज़दूरों को थकाने और कोर्ट-कचहरी के गोल-गोल चक्कर में घुमाने का सिलसिला शुरू हो जाता है। तारीख़ पर तारीख़ देने की नौटंकी कई दिनों तक चलायी जाती है, जिसमें लेबर विभाग तय स्क्रिप्ट के हिसाब से अपना रोल खेलता है और दलाल बीएमएस अपना! यह नौटंकी इसलिए की जाती है ताकि ठेकेदारों के पास पूरा मौक़ा रहे कि वे मज़दूरों को फ़ोन करके या घर-घर जाकर पूरा हिसाब-किताब कर लें। बिना किसी निष्कर्ष के बात चलती रहती है। हीरो आन्दोलन में भी कई बार बुलाने पर भी प्रबन्धन का पक्ष श्रम कार्यालय में हाज़िर नहीं हुआ और उसने सारी ज़िम्मेदारी ठेकेदारों के ऊपर डाल दी।
इसके बाद एक रैली की योजना समिति द्वारा बनायी जाती है जो गुडगाँव में राजीव चौक से शुरू होकर हीरो के गेट पर ख़त्म होनी थी। रैली की पूरी बागडोर गै़र-जनवादी तरीक़े से बीएमएस ने अपने हाथ में ले ली। और हीरो मज़दूरों की समिति ने सहर्ष यह ज़िम्मेदारी उसको दे भी दी। क्योंकि बीएमएस यह कह रही थी कि उसके रहने पर पुलिस-प्रशासन मज़दूरों पर हाथ नहीं डालेगी और इसलिए रैली और एक तरीक़े से आन्दोलन का नेतृत्व उसे दे दिया जाये। इस तरीक़े का मोल-भाव केन्द्रीय ट्रेड यूनियन संघों की पुरानी आदत है और इसमें भी बीएमएस ऐसी हरक़त बेहद बेशर्मी और नंगेपन के साथ अंजाम देती है। ख़ैर, मज़दूरों के नेतृत्व ने बिना कोई विरोध जताये उसकी यह बात मान भी ली। इसके बाद बीएमएस ने रैली कम्पनी गेट पर ख़त्म न करवाकर बीच में ही रोककर ख़त्म करवा दी और आनन-फ़ानन में ज्ञापन सौंपकर बिना किसी आश्वासन या बात के ही मज़दूरों को वापस चलने को बोल दिया। इस घटना के बाद मज़दूरों में असन्तोष काफ़ी बढ़ गया। ऑटोमोबाइल इण्डस्ट्री कॉन्ट्रैक्ट वर्कर्स यूनियन और बिगुल मज़दूर दस्ता के साथी आम मज़दूरों को बीएमएस के असली मज़दूर-विरोधी चरित्र के बारे में शुरू से ही आगाह कर रहे थे। साथ ही, समिति के सदस्यों से भी बार-बार इस विषय में बात कर रहे थे। इसके उल्टे, हमारे ‘क्रान्तिकारी-इन्क़लाबी कामरेड’ बीएमएस की भूमिका के बारे में सोची-समझी चुप्पी अख्तियार किये हुए थे। यही नहीं, इनके लोग नेतृत्व को बार-बार ये कह रहे थे कि अगर बीएमएस चली गयी तो आन्दोलन को आर्थिक मदद कौन देगा! हालाँकि इस बात में भी कोई सच्चाई नहीं थी कि बीएमएस आन्दोलन को कोई आर्थिक मदद दे रहा था। लेकिन यह कथन अपने आपमें हमारे ‘क्रान्तिकारी-इन्क़लाबी कामरेडों’ के बारे में काफ़ी-कुछ ज़ाहिर कर देता है।
रैली के ही दिन लेबर विभाग में भी तारीख़ थी। और बीएमएस की इस शर्मनाक हरक़त के बाद रैली से लौटते वक़्त आधे से ज़्यादा मज़दूर छँट गये। श्रम विभाग पहुँचने पर मज़दूरों ने अपना गुस्सा ज़ाहिर भी किया लेकिन बीएमएस ने फिर अपने तेवर दिखाये और आन्दोलन के नेतृत्व ने एक बार फिर उसके सामने घुटने टेक दिये। बीएमएस को जब लगा कि आज मामला उसके हाथ से निकल सकता है तो तुरन्त उसने 5000 रुपये चन्दा देने और मुख्यमन्त्री खट्टर से मिलवाने का लुकमा फेंका। एक तरफ़ जहाँ आम मज़दूर बीएमएस की भूमिका को लेकर सशंकित थे, वहीं दूसरी तरफ़ उनकी समिति अभी भी उसे साथ लेकर चलने की पक्षधर थी। बीएमएस के प्रति समिति का ऐसा रुख़ होने का काफ़ी हद तक श्रेय ‘क्रान्तिकारी-इन्क़लाबी कामरेडों’ को ही जाता है।
इसके बाद श्रम विभाग से कई और मीटिंगें होती हैं, लेकिन सब बेनतीजा। अब तक आन्दोलन बिखराव का शिकार हो चुका था। कई मज़दूर अपना हिसाब करके घर चले गये थे। हताशा में, समिति द्वारा अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल की घोषणा कर दी जाती है। लेकिन पुलिस-प्रशासन अब श्रम कार्यालय के बाहर मज़दूरों को बैठने नहीं देता। इसके बाद बचे हुए मज़दूर एक सुनसान पार्क में जाकर बैठ जाते हैं। श्रम विभाग से बातचीत की आख़िरी तारीख़ 30 जनवरी को होती है और यही आन्दोलन का भी आख़िरी दिन साबित होता है। बीएमएस और समिति के सदस्य मज़दूरों को आन्दोलन की राह छोड़कर हिसाब लेने के लिए कहते हैं। बीएमएस अलग से जाट आन्दोलन और धारा 144 का डर दिखलाता है। इसके एक रात पहले समिति द्वारा मज़दूरों का व्हाटसप्प ग्रुप डिलीट कर दिया जाता है ताकि आगे मज़दूरों के बीच कोई बात हो ही न सके। स्पष्ट था कि समिति अब बीएमएस के इशारों पर चल रही। इस आख़िरी मीटिंग में जब कुछ मज़दूरों और ऑटोमोबाइल इण्डस्ट्री कॉन्ट्रैक्ट वर्कर्स यूनियन के साथियों ने इस फ़ैसले के विरोध में बात रखनी चाही तो समिति के सदस्यों ने बीएमएस की शाह पर उन्हें बोलने से रोक दिया और आन्दोलन में बीएमएस द्वारा की गयी मदद का हवाला देने लगे। इस पूरे घटनाक्रम पर भी हमारे ‘क्रान्तिकारी-इन्क़लाबी कामरेड’ मुँह में दही जमाये हुए तमाशबीन बने खड़े देखते रहे। इसके साथ ही आन्दोलन समाप्त हो गया। यहाँ एक और बात का ज़िक्र आवश्यक है। जब आन्दोलन अपने उफान पर था तो ऑटोमोबाइल इण्डस्ट्री कॉन्ट्रैक्ट वर्कर्स यूनियन और बिगुल मज़दूर दस्ता के साथी मज़दूरों की आम सभा में और समिति के सदस्यों को भी बार-बार ये कह रहे थे कि एक बार अपने आन्दोलन की आवाज़ को दिल्ली तक ले जाने की ज़रूरत है क्योंकि गुडगाँव में कोई भी मीडिया हीरो मज़दूरों के संघर्ष को कवरेज नहीं दे रही थी और दिल्ली आकर, चाहे सिर्फ़ एक दिन के लिए ही सही, मज़दूर अपने पक्ष को सबके सामने रख सकेंगे और उनके संघर्ष को कुछ हद तक तो कवरेज मिलेगी ही। इस बात पर मज़दूर और उनकी समिति, दोनों ही राजी थे लेकिन न सिर्फ़ बीएमएस ने बल्कि ‘क्रान्तिकारी-इन्क़लाबी कामरेडों’ ने भी इस सुझाव का पुरज़ोर विरोध किया। हमेशा की तरह कानाफूसी और कुत्साप्रचार की राजनीति के ज़रिये इस प्रभावी क़दम को उठाने से हीरो मज़दूर आन्दोलन को रोक दिया। अन्दर-खाने समिति के सदस्यों से गुप-चुप बात करके ये अपनी ही अहमकाना रणनीति को थोपने का काम करने लगे जो कि वास्तव में, बीएमएस की पूँछ पकड़कर चलने की ही रणनीति थी। ये मज़दूरों के बीच में गै़र-जनवादी प्रधानी की राजनीतिक संस्कृति को स्थापित करने का प्रयास करते रहते हैं ताकि कोई इनकी अहमकाना हरक़तों पर सवाल खड़ा कर ही न सके। कहने के लिए ‘क्रान्तिकारी-इन्क़लाबी कामरेड’ मज़दूरों की पहलक़दमी की जुबानी बात करते हैं, लेकिन असल व्यवहार में इनकी राजनीति ट्रेड यूनियन अवसरवाद की ही है।
इन्ही कमियों और दिक़्क़तों के चलते हीरो मज़दूरों का सम्भावना-सम्पन्न संघर्ष एक निराशापूर्ण हार और शर्मनाक समझौते में समाप्त हो गया। आन्दोलन का नेतृत्व इस हार के लिए उतना ज़िम्मेदार नहीं है, जितना कि ये दलाल और मौक़ापरस्त ताक़तें हैं। हीरो संघर्ष का नेतृत्व करने वाली समिति में स्वतन्त्र विवेक से निर्णय लेने और मज़दूरों की सामूहिक ताक़त में यक़ीन करने का बेहद अभाव तो था ही। साथ ही, ‘बड़े भैय्या’ (ये ‘बड़े भैय्या’ कोई भी ट्रेड यूनियन संघ हो सकता था) की पूँछ पकड़कर चलने की प्रवृत्ति और मानसिकता भी मौजूद थी। लेकिन इन तमाम प्रवृत्तियों को प्रश्रय देने का काम ऐसी ही अवसरवादी ताक़तें करती हैं, जैसी कि इस आन्दोलन में मौजूद थीं। ज़ाहिरा तौर पर हीरो आन्दोलन कोई आख़िरी आन्दोलन नहीं है और आये दिन ऑटोमोबाइल बेल्ट के किसी न किसी हिस्से से हड़ताल या संघर्ष की आहटें सुनाई देती हैं। लेकिन ये भी स्पष्ट है कि हम अगर अपने दुश्मनों और भितरघातियों की पहचान नहीं करते तो आने वाले दिनों के संघर्षों का भी यही अंजाम होगा। चुनावी पार्टियों से जुड़े ट्रेड यूनियन संघों और ‘क्रान्तिकारी-इन्क़लाबी कामरेडों’ जैसे अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादियों और राजनीतिक नौबढ़-नौदौलतियों से हमें सावधान रहना होगा। ये पहले भी कई संघर्षों को हार के दलदल में डुबा चुके हैं।
मज़दूर बिगुल, मार्च 2017
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