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फ़ासीवादी वहशीपन की दिल दहलाने वाली दास्तान
अनुवाद: कृष्णकुमार मिश्र
विश्व पूँजीवाद आज फिर घोर संकटों में घिरा हुआ है और एक बार फिर दुनिया में फ़ासीवादी ताक़तों को बढ़ावा दिया जा रहा है। फ़ासीवाद पूँजीवाद के भीषण संकट से उपजा आन्दोलन था जो अपने रूप और अन्तर्वस्तु में घोर मानवद्रोही था। मनुष्यजाति के एक हिस्से के प्रति इस कदर अन्धी नफरत उभारी गई कि उन्हें इन्सान ही नहीं समझा जाने लगा। लाखों लोगों को सिर्फ मारा ही नहीं गया बल्कि तरह-तरह से यातनाएँ देकर मारा गया। लेकिन नफरत की इस आँधी ने इन्सानों का शिकार करने वालों को भी बख्शा नहीं था। उनके भीतर का इन्सान भी मर गया था। लाखों लोगों को मौत के घाट उतारने वाले आशवित्स शिविर का संचालक फ्रांज़ लैंग वहां गैस चेम्बरों में मरने वाले यहूदियों को महज ‘‘इकाइयाँ” मानता था जिन्हें ‘‘निपटाया” जाना था। अनेक सनकी डाक्टर इस बात पर ‘‘अनुसन्धान” करते थे कि अलग-अलग ढंग से यातनाएँ दिये जाने पर मरने से पहले कितना दर्द होता है। यहाँ हम दूसरे विश्वयुद्ध के ख़त्म होने के बाद जर्मनी के न्यूरेम्बर्ग में हिटलर के नाज़ी सहयोगियों पर चलाये गये अन्तरराष्ट्रीय मुकदमे की शुरुआत का ब्योरा दे रहे हैं। इसे ‘असली इन्सान’ जैसे प्रसिद्ध उपन्यास के लेखक और सोवियत पत्रकार बोरीस पोलेवोइ की किताब ‘नाज़ियों से आख़िरी हिसाब’ से लिया गया है। इसे पढ़कर अनुमान लगाया जा सकता है कि फ़ासीवाद जैसे मानवद्रोही विचारों को अगर बेरोकटोक छोड़ दिया जाये तो ये वहशीपन की किस हद तक जा सकते हैं। दंगों में स्त्रिायों के गर्भ से शिशुओं को निकालकर टुकड़े कर डालना और जीते-जागते इंसानों की खाल से जूते बनाने जैसी हरकतों के पीछे एक ही मानवद्रोही सोच काम करती है। — सम्पादक
हमारी नींद और भूख हराम हो गयी
अमरीकी मुख्य अभिवक्ता, जस्टिस जैक्सन ने मुक़दमा शुरू करते हुए जो भाषण दिया था, उसका उद्धरण मैं पहले ही दे चुका हूँ, ‘’हम मानवता के ख़िलाफ़ हुए अपराधों का सबूत पेश करने जा रहे हैं। महोदय मैं सावधान कर रहा हूँ कि यह सबूत ऐसा है कि आपकी नींद हराम हो जायेगी।’’
मैं स्वीकार करता हूँ, हम सोवियत पत्रकारों ने इन शब्दों पर अविश्वास-भरी निगाहें लड़ायी थीं। हम जो बाबीयार, चेव्लिका, मायदानेक और ओस्वीसिम अपनी आँखों से देख चुके थे क्या अब और ज़्यादा भयानक दृश्य भी देख सकते थे। पर जस्टिस जैक्सन ही सही साबित हुए। नाजी रायख में नरसंहार एक बड़ा, व्यापक रूप से विकसित, सुनियोजित तथा संगठित उद्योग था। हम लोग ख़ौफ़नाक सबूतों के आदी हो गये थे – इतने बेदर्द-से हो गये थे कि न हमारी नींद खोयी, न भूख।
पर हमारी भूख और नींद दोनों हराम हो गयी – अलंकारिक नहीं वास्तविकता की भाषा में – जब मुख्य सोवियत अधिवक्ता के सहकारी, लेव स्मर्नोव ने भाषण शुरू किया। वह एक बहुत सुशिक्षित वकील थे और सुन्दर भाषण करते थे, जो न्यायाधीशों की भावना नहीं जगाता था, बल्कि तर्क को जागृत करता था। उन्होंने तथ्य पेश किये और फिर उनके प्रमाण में ऐसे सबूत पेश किये कि कटघरे में मौजूद युद्धापराधियों के बीच भी हंगामा मच गया। वे आपस में बहस करने लगे और शाख्ट को तो ऐसा सन्निपात या उन्माद सा हो गया कि उसे दवा देकर शान्त करना पड़ा।
नहीं, यह दृश्य भूलना नहीं चाहिए और मैं इसका विस्तार से वर्णन करूँगा क्योंकि भविष्य में समय बीतने के साथ यह विश्वास करना कठिन हो जायेगा कि ऐसी बातें इस पृथ्वी पर ही हुईं, उस पृथ्वी पर जिस पर तर्क और विवेक वाला मानव रहता है।
हम लोग पिछले दिन ही जान चुके थे कि अगले दिन सोवियत अधिवक्ता बोलेंगे और प्रेस कक्ष जो वसन्त के इन दिनों में कुछ ख़ाली रहने लगा था, अब खचाखच भरा था। जब हम अदालत के कमरे में पहुँचे तो एक आश्चर्यजनक बात देखी, वहाँ प्रदर्शन करने के लिए कुछ धानियाँ या मचान से बने थे और कमरे के बीच में एक बड़ी मेज़ पर चादरों से ढँकी कुछ बड़ी-बड़ी चीज़ें रखी हुई थीं। कपड़े से ढँका कुछ अधिवक्ता की मेज पर भी रखा हुआ था और चमड़े से मढ़ी एक मोटी किताब जो मध्य-युगीन प्रकाशित ग्रन्थों-सी लग रही थी, सहकारी के मेज पर थी।
अपने भाषण के दौरान लेव स्मर्नोव ने इस पुस्तक का ज़िक्र किया। नहीं, यह राइन नदी के किनारे किसी किले के मालिकों के परिवार का चित्रों का एलबम नहीं था, न यह घुड़दौड़ में विजयी घोड़ों के चित्रों का संग्रह ही था। विभिन्न जातियों के लोगों की यह अन्तहीन सूची थी जिन्हें एक नाजी शिविर में गोली मार दी गयी थी या जो गैस द्वारा मार डाले गये थे। अधिवक्ता ने कुछ कठिनाई के साथ वह किताब उठायी और न्यायाधीशों को सम्बोधित करते हुए बोले – ‘’मेजर-जनरल स्त्रूप ने अपने हाक़िमों के लिए उन लोगों के बारे में जो सूची तैयार की थी जिन्हें वारसा के यहूदी शिविर में सफलतापूर्वक मौत के घाट उतार दिये गये थे, यह उसका सरकारी रिकॉर्ड है। इसमें सिर्फ़ उन लोगों के नाम हैं, जो मार डाले गये। मेरा अनुरोध है कि इसे भौतिक प्रमाण के रूप में शामिल कर लिया जाये।’’
इस क्षण सभी की आँखें एकाएक जाकर हैन्स फ्रैंक पर टिक गयीं जो पोलैण्ड का भूतपूर्व गवर्नर-जनरल था, जिसने पोलैण्ड में नाजी व्यवस्था स्थापित की थी, जो यहाँ कठघरे में गहरा रंगीन चश्मा पहने स्थिर बैठा था। इस पिशाच को इतिहास में अपना नाम अंकित कराने की फ़िक्र थी, क्योंकि इसने अपने अपराधों और विचारों की एक डायरी रख छोड़ी थी। मुझे सोवियत मुख्य अधिवक्ता के एक अन्य सहायक लेव शाइनिन ने पहले ही इन हृदयहीन ख़ौफ़नाक डायरियों के बारे में बता रखा था। शाइनिन सोवियत संघ में न केवल एक वकील बल्कि एक लेखक और पत्रकार के रूप में भी जाना जाता था और उसने ‘नोट्स ऑफ़ एन इंवेस्टीगेटर’ नामक प्रसिद्ध पुस्तक भी लिखी थी।
अब अभियोग पक्ष के पास दर्जनों कापियाँ थीं जिनसे इस नाजी का काला दिल खुलकर जनता के सामने आ गया था।
स्मर्नोव ने फ्रैंक के एक विचार को डायरी से उद्धृत किया – ‘’हमने 12 लाख यहूदियों को भूख से मर जाने की सज़ा दी, यह बात उतनी महत्व की नहीं है।’’ इस उद्धरण पर फ्रैंक एक कटु मुस्कान फेंकता बैठा रहा।
किन्तु, जब मृत व्यक्तियों के नामों वाला ग्रन्थ न्यायाधीशों की मेज पर खिसका दिया गया और वारसा के घेटों के नरसंहार का त्रासदायक वर्णन ज़ोर से पढ़ा गया ताकि सभी उसे सुन लें, फ्रैंक अपनी कुरसी पर पीछे की ओर धँस गया, अपनी पेंसिल तोड़ डाली और इतनी ज़ोर से इधर-उधर खिसकने लगा कि उसकी बगल में बैठे रोजेनबर्ग ने घृणा से उसकी ओर देखा और उसने कोहनी मार दी।
इस ख़ौफ़नाक किताब के हर पृष्ठ, हर पंक्ति से दुनिया को पता लगता था कि राष्ट्रीय समाजवाद व्यवहार में कैसा था।
अमरीकी इस्तगासे की ओर से पहले ही कई दस्तावेज़ पेश किये जा चुके थे, जिनमें काफ़ी विस्तार से बताया गया था कि जर्मनी व उसके अधिकृत क्षेत्रों में किस तरह यहूदियों का बड़े पैमाने पर ख़ात्मा हुआ था। उस ओर से लाखों लोगों की सम्पत्ति छीनी जाने और उन्हें घरों से निकाले जाने व दसियों लाख लोगों को गैस द्वारा मार डाले जाने का ब्यौरा भी दिया गया था। किन्तु, अब तक हमने मेजर जनरल स्त्रूप की रिपोर्ट जैसा कुछ भी देखा-सुना नहीं था। 23 अप्रैल, 1943 को रायख फ्यूहरेर ने क्राकाओ के एस.एस. फ्यूहरेर द्वारा आदेश भेजा कि – वारसा की यहूदी बस्ती को बेरहमी और निष्ठुरता के साथ नेस्तनाबूद कर दिया जाये। इस आदेश के पालन के सम्बन्ध में रिपोर्ट देते हुए स्त्रूप ने लिखा था, ‘’इसलिए मैंने निश्चय किया कि सारी यहूदी बस्ती को नष्ट कर दिया जाये, हर मकान-समूह में आग लगाकर और वहाँ से किसी को भी निकल भागने न देकर।’’ उसने बड़े भावनाशून्य ढंग से बताया था कि किस प्रकार ए.एस., फ़ौजी पुलिस व सफ़रमैना को इन मकान-समूहों को घेरकर, उनसे निकलने वाले रास्तों को रोककर और पहली मंज़िल की खिड़कियों से बाहर फेंक रहे थे और फिर बच्चों और बूढ़ों को उन पर फेंक रहे थे, इस उम्मीद में कि वे बच जायेंगे। फिर ये लोग खु़द भी कूद पड़ते थे। उनके हाथ पैर टूट जाते या वे मर जाते। जो लोग इन जलते हुए खण्डहरों से किसी चमत्कारवश बच जाते और बाहर निकलने की कोशिश करते, उन्हें ढूँढ़कर निकाला जाता, जैसा कि रिपोर्ट में कहा गया था – ‘’जवानों ने मुस्तैदी से अपनी ड्यूटी अदा की और ऐसे लोगों की यातना ख़त्म करने के लिए उन्हें गोली मार दी ताकि अनावश्यक कष्ट समाप्त हो जाये।’’
हिटलरी पद्धति के फ़ौजी नौकरशाह स्त्रूप ने अपने हाक़िमों के लिए रिपोर्ट में पूरा ब्यौरा भेजा था। इस तरह वह शायद किसी इनाम की उम्मीद में था। उसने बड़े दम्भपूर्ण ढंग से घोषित किया था कि दसियों हज़ार व्यक्तियों का भाग्य बड़े सुनियोजित ढंग से तत्परतापूर्वक निपटा दिया गया था। रिपोर्ट के अन्त के निकट में उसे लगा कि उसके अफ़सर कहीं यह शक न करने लगें कि उसने उदारता या लापरवाही से काम लिया है। इसलिए उसने ख़ास तौर पर ज़ोर देकर लिखा था कि जो लोग खण्डहरों में छिप गये थे, उन्हें कुत्तों की मदद से ढॅू़ढ़ निकाला गया। उसने स्वीकार किया कि कुछ भगोड़े गन्दे पानी की नालियों में घुस गये थे जहाँ से उनकी चीख़ें व कराहें सुनायी पड़ रही थीं। तब गैस पलटन बुलाकर वहाँ तैनात की गयी, ताकि फिर ‘उनकी अनावश्यक तक़लीफ़ों को ख़त्म किया जा सके।’ गन्दी नालियों के मेन होलों से धुएँ के बम भी फेंके गये। जब लोग सुरक्षा के लिए नालियों से बाहर निकलने लगे तो उन्हें अपने बिलों से निकलते खरगोशों की तरह गोलियों से भून दिया गया। स्त्रूप ने लिखा कि एक दिन में 183 मैन-होलों को खोलकर उनमें धुँआ पैदा करने वाले बम फेंके गये। यह समझ कर कि ये बम ज़हरीली गैस के हैं, यहूदी नालियों से बाहर सुरक्षा के लिए आने लगे। बहुत सारे लोग तब मर गये, जब गन्दे सीवरों को बम से उड़ा दिया गया – दुर्भाग्यवश उनकी संख्या ठीक से नहीं जानी जा सकी। इस काम में सफ़रमैना ने बड़ी विशेषता दिखायी।
इस बर्बर काण्ड के सम्बन्ध में अपने मातहत आदमियों के काम के ढंग का वर्णन करते हुए स्त्रूप ने रिपोर्ट में एक कवित्वपूर्ण क्षेपक जड़ा और कहा कि राष्ट्रीय समाजवादी जर्मन : ‘जितना ही प्रतिरोध हुआ उतनी ही निर्दयता और बेरहमी से एस.एस., पुलिस और फ़ौज ने काम लिया… उन्होंने अपना कर्तव्य बड़े गहरे सहयोग की भावना से पूरा किया और इसमें उन्होंने महान फ़ौजी भावना भी प्रदर्शित की। उन्होंने सबेरे से लेकर रात तक अथक परिश्रम किया। उन्होंने यहूदियों को खोज निकाला और मौत के घाट उतार दिया… अफ़सर, जवान व पुलिस ने विशेषकर उन्होंने जो मोर्चों पर तैनात रह चुके थे – सच्ची जर्मन भावना का सच्चे साहसपूर्ण ढंग से प्रदर्शन किया।’
ये लोग नाजी राज्य के सच्चे आदर्श नागरिक थे। यही वह उदाहरण था जिसकाकठघरे में बैठे लोगों ने अनुकरण किया था, जिन्होंने ‘सच्चे ट्यूटनों’ को शिक्षित करने का प्रयास किया था। यही ढंग था जो उन्होंने अपने राष्ट्रीय कर्तव्य को पूरा करने के लिए अपनाया था, और यही उनकी समझ थी – सम्मान, साहस व सैनिक शौर्य के मानव मूल्यों की। यही था जिसका उन्हें दम्भ था और जिसके लिए उन्हें पुरस्कृत किया गया था।
मध्यान्तर में व्यग्रतावश उँगलियाँ चटखाते हुए यूरी यानोव्स्की ने कहा, ‘’तुम जानते हो, अभी मेरे मन में क्या विचार आया। अगर उन सब लोगों का ख़ून, जिन्हें इन्होंने मारा, ज़हर दिया था, जिन पर अत्याचार किये, ज़मीन पर गिरता तो ये लोग ख़ून की झील में ही डूब जाते।
यह सच बहुत वीभत्स और ख़ौफ़नाक ज़रूर था, लेकिन जैसा कि बाद में मालूम पड़ा, सबसे ज़्यादा ख़ौफ़नाक बात तो अभी आनी थी। हॉल के मध्य में जो मचान से बने हुए थे और भारी-भरकम चीज़ों से भरी मेजें थीं वे अभी ढँकी हुई थीं। मध्यान्तर के बाद इस्तगासे के अधिवक्ता ने मेज पर रखी एक वस्तु पर से परदा हटा दिया। विमूढ़ दर्शक स्तब्ध रह गये और फिर दहलकर आपस में कानाफूसी करने लगें। सुन्दर संगमरमर की पीठिका पर इन्सान का सिर जड़ा हुआ था और उन सब पर शीशे का घण्टेनुमा एक ढक्कन था। जी हाँ, एक आदमी का सिर जिसपर बाल पीछे की ओर काढ़े गये थे, यह किसी अनबूझ ढंग से छोटा कर दिया गया था और एक बड़ी मुट्ठी के बराबर रह गया था। स्पष्ट था कि यह एक सज़ावट की चीज़ बनायी गयी थी और यातनागृह में किसी राक्षसी ‘कारीगर’ ने इसे सज़ावटी सौगातों के रूप में गढ़ा था। यातना शिविर का मुख्य अफ़सर वहाँ आने वाले विशिष्ट लोगों को ये सौगातें यादगार के तौर पर दिया करता था। अतिथि जिस क़ैदी का सिर पसन्द करते या करतीं – उसे मार डाला जाता, उसका सिर कुचलकर किसी तरह गरदन से निकाल लिया जाता, किसी तरकीब से सिर को छोटा कर दिया जाता और वह सिकुड़ जाता, फिर उसमें कुछ ठूँस कर उसे पीठिका पर मूर्ति या आभूषण की तरह जड़ दिया जाता।
जब घण्टेनुमा शीशे के नीचे हम उस सिर को देख रहे थे तो हमारे रोंगटे खड़े हो रहे थे और हमें मतली आ रही थी। दर्शक दीर्घा में कोई औरत हमारे सिर के क़रीब ही उन्माद में चीख़ने लगी। लोग उसे बाहर ले जाने के लिए दौड़े।
लेव स्मर्नोव ने अपना भाषण जारी रखा। कोनिग्सबर्ग शोध संस्थान के एक ‘वैज्ञानिक’ साइमण्ड मजूर का सबूत उन्होंने पेश किया। इस ‘वैज्ञानिक’ ने शान्त वैज्ञानिक शब्दावली में वर्णन किया था कि संस्थान की प्रयोगशालाएँ किस प्रकार उस मानव मांस, चर्बी और खाल का ‘तर्कसंगत औद्योगिक उपयोग’ खोज रही थीं, जो बड़े विशाल मृत्यु शिविरों से फालतू कचरे की तरह निकलती थी।
मचानों और मेजों से अधिवक्ता के निर्देश पर सभी चादरें हटा दी गयीं। हमने इन्सान की खाल पर होने वाले प्रयोग और प्रकियाएँ देखीं, प्रक्रियाओं की विभिन्न मंज़िलें, तुरन्त खींची गयीं खाल, जिससे मांस छील दिया गया था, पकायी गयी खाल और उस चमड़ी से बनायी गयी वस्तुएँ – महिलाओं के लिए सुन्दर जूते, हैण्डबैग, काग़ज़ात रखने के थैले, कोट, ब्लाटिंग पैड। विभिन्न प्रकार के साबुनों के बक्से भी वहाँ मेजों पर पड़े हुए थे – साधारण साबुन, घरेलू साबुन, बच्चों का साबुन, औद्योगिक साबुन, खुशबूदार नहाने का साबुन, आकर्षक काग़ज़ों में लिपटे हुए साबुन।
घोर सन्नाटे में अधिवक्ता ने अपना भाषण जारी रखा। अपराधी तनावभरी मुद्रा में बैठे थे। रिबेनट्रोप चेहरे पर दर्द की आकृति बनाये, होंठ काटता हुआ आँखें नचा रहा था। गोरिंग कटु मुद्रा में नोट लिख-लिखकर अपने वकील को देता जा रहा था। स्ट्राइकर खाँस रहा था और उन्मादी ढंग से खो-खो कर रहा था। दुबला शाख्ट फिर बेहोश-सा हो रहा था और उसका आवेशहीन, नृशंस बुलडोग जैसा चेहरा मोमिया और स्थिर था।
क्रुशिन्स्की और मैं पहले संवाददाता थे जो ओस्वाइसिम शिविर में गये थे – तब उसे जर्मन औश्विट्ज़ से ही पुकारा जाता था। हम अपनी सेना के ठीक पीछे हवाई जहाज़ से वहाँ पहुँचे थे जबकि यह मृत्यु शिविर बदस्तूर अपने व्यवस्थित ढंग से चल रहा था। हमने गोदामों में इन्सानों के बाल सहेज कर बण्डलों में बँधे रखे देखे थे, बिल्कुल रवाना कर दिये जाने के लिए तैयार बण्डल और ढेरियाँ। हमने वे बच्चे देखे थे जिन पर डॉक्टरों ने घृणित प्रयोग किये थे। हमने दो रूसी युद्धबन्दियों से भेंट भी की थी जिन पर बर्बर डॉक्टरों ने प्रयोग किया था कि कड़ी ठण्डक में मानव शरीर कैसे काम करता है – उन्हें धीरे-धीरे ठण्डा कर दिया जाता था और वे बेहोश हो जाते थे। उसके बाद उन्हें धीरे-धीरे होश में ले आया जाता था। यह सब हमारी स्मृति में अब भी ताज़ा था, पर इन ‘कारख़ानों’ के माल को देखकर हम बिल्कुल टूट गये, वह माल जो इन्सान के हाड़-मांस से बना था। मेरे गले में मतली होने लगी और मैं चाहता था कि कूद कर अदालत से बाहर चला जाऊँ।
सच बात तो यह है कि यह सब हमारे लिए नया नहीं था। अमरीकी अभियोग पक्ष ने पहले ही रायख बैंक के अध्यक्ष और युद्ध अर्थव्यवस्था के मुख्य आयुक्त वाल्टर फंक के ख़िलाफ़ सबूत पेश किया था – वे निर्देश जिनमें उसने कहा था कि बन्दी शिविरों में उसकी भेजी टोलियाँ सभी बन्दियों के दाँतों से सोना और प्लैटिनम निकाल लें और उसका जाब्ते से हिसाब करके तिजोरियों में रख दिया जाये। हमें मालूम था कि रायख बैंक की इन क़ीमती धातुओं से कितनी ज़्यादा ‘राजस्व आय’ होती थी। वह सबूत भी ख़ौफ़नाक था, पर उसे तो सुना भी जा सकता था। लेकिन संयत, व्यावसायिक ढंग से साइमण्ड मजूर ने लिखा था, ‘’इन्सान की खाल पर बाल नहीं होते – और उसे कमाने-पकाने में बहुत आसानी रहती है, जानवरों की खाल की तुलना में इन्सान की खाल पकाने में कई प्रक्रियाओं की बचत हो जाती है… ‘या’ ठण्डा करने के बाद माद्दा साँचों में डाल दिया जाता है और साबुन तैयार हो जाता है।’’
मैंने पहली बार देखा कि तीनों कुकरीनिक्सी स्तब्ध बैठे हैं। उनके ड्राइंग के फ़ोल्डर सामने रखे हैं और उनकी पेन्सिलें थमी हुई हैं।
यूरी कोरोल्कोव ने फुसफुसाकर किसी से कहा – ‘’दाँते का ‘नरक’ (इन्फ़र्नो) इसके सामने तो संगीत नाटिका ही लगता।’’ वह फुसफुसाया था, पर अदालत इतनी नि:शब्द थी कि तीन पंक्ति दूर बैठे हमने उसे सुन लिया।
अदालत से हम लोग मौन उठ पड़े।
गाड़ी में बैठते हुए मिखाइल गस ने कहा – ‘’तुम जानते हो, अब मैं कभी गोश्त नहीं खा पाऊँगा।’’
सेम्योन नरिन्यानी ने दुख भरा व्यंग्य किया – ‘’इस तर्क से तो साबुन से नहा भी नहीं सकेंगे।’’
हमारी दुभाषिया माया की हालत सचमुच खराब थी। हिलती-डोलती गाड़ी में बैठी व रोती-बिसूरती जाती, होंठ काटती, घबरायी हुई उन्मादग्रस्त-सी लग रही थी, उसकी बग़ल में बैठी टाइपिस्ट उसकी नाक के नीचे कोई तेज़ गन्ध वाला सूँघने का मसाला रखे हुए थी।
कम-से-कम, उस दिन हम लोगों की नींद और भूख सचमुच हराम हो गयी।
मज़दूर बिगुल, जनवरी 2016
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