सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना – पाश
श्रम की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
ग़द्दारी-लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती
बैठे-सोए पकड़े जाना – बुरा तो है
सहमी-सी चुप में जकड़े जाना बुरा तो है
पर सबसे ख़तरनाक नहीं होता
कपट के शोर में
सही होते हुए भी दब जाना बुरा तो है
किसी जुगनू की लौ में पढ़ने लग जाना – बुरा तो है
भींचकर जबड़े बस वक्त काट लेना – बुरा तो है
सबसे ख़तरनाक नहीं होता
सबसे ख़तरनाक होता है
मुर्दा शान्ति से भर जाना
न होना तड़प का, सब सहन कर जाना,
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर आना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना
सबसे ख़तरनाक वह घड़ी होती है
तुम्हारी कलाई पर चलती हुई भी जो
तुम्हारी नज़र के लिए रुकी होती है
सबसे ख़तरनाक वह आँख होती है
जो सबकुछ देखती हुई भी ठण्डी बर्फ होती है
जिसकी नज़र दुनिया को
मुहब्बत से चूमना भूल जाती है
जो चीज़ों से उठती अन्धेपन की
भाप पर मोहित हो जाती है
जो रोज़मर्रा की साधारणतया को पीती हुई
एक लक्ष्यहीन दोहराव के दुष्चक्र में ही गुम जाती है
सबसे ख़तरनाक वह चाँद होता है
जो हर कत्ल-काण्ड के बाद
वीरान हुए आँगनों में चढ़ता है
लेकिन तुम्हारी आँखों में मिर्चों की तरह नहीं लड़ता है
सबसे ख़तरनाक वह गीत होता है
तुम्हारे कान तक पहुंचने के लिए
जो विलाप को लाँघता है
डरे हुए लोगों के दरवाज़े पर जो
गुण्डे की तरह हुँकारता है
सबसे ख़तरनाक वह रात होती है
जो उतरती है जीवित रूह के आकाशों पर
जिसमें सिर्फ उल्लू बोलते गीदड़ हुआते
चिपक जाता सदैवी अँधेरा बन्द दरवाज़ों की चैगाठों पर
सबसे ख़तरनाक वह दिशा होती है
जिसमें आत्मा का सूरज डूब जाये
और उसकी मुर्दा धूप की कोई फांस
तुम्हारे जिस्म के पूरब में चुभ जाये
श्रम की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
ग़द्दारी लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती
(पाश की पंजाबी में प्रकाशित अन्तिम कविता, जनवरी, 1988)
परिकल्पना प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तक अक्षर अक्षर से
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मज़दूरों के महान नेता लेनिन
वाह पाश! सचाई को किस कदर प्रकट किया है।
सबसे ख़तरनाक होता है
मुर्दा शान्ति से भर जाना
न होना तड़प का, सब सहन कर जाना
बिलकुल सही और चिन्तन मनन योग्य अभिव्यक्ति है आभार्
इसे दोबारा पढ़कर बहुत बहुत बहुत अच्छा लगा
अभी इसे एक कापी पर लिख कर रखूंगा और रोज़ पढ़ा करूंगा। क्योंकि यह रचना मुझे बहुत ही, बहुत ही ज़्यादा पसंद आई है। बहुत बहुत धन्यवाद।
किसलिये आईने से है नाराज़गी.
दे बदल शक्ल वह किस तरह आपकी.
झील खामोशियों की पिघल जायेगी
एक तीली सुलगने दो आवाज़ की.
ऐनकों के हरे काँच टूटेंगे जब,
तब हक़ीक़त खुलेगी हरि घास की.
देवेंन्द्र पाठक महरूम’,कटनी,म.प्र.