एलाइड निप्पोन की घटना
एक बार फिर फैक्टरी कारख़ानों में मज़दूरों का घुटता आक्रोश सतह पर आया
प्रबन्धन की गुण्डागर्दी की अनदेखी कर मज़दूरों पर एकतरफ़ा पुलिसिया कार्रवाई

बिगुल संवाददाता

साहिबाबाद। विगत 13 नवम्बर को साहिबाबाद औद्योगिक क्षेत्र साइट-4 के भूखण्ड संख्या ए-12 पर स्थित एलाइड निप्पोन लिमिटेड के फैक्टरी परिसर में मैनेजमेण्ट के गुण्डों ने या यूँ कहें कि मैनेजमेण्ट रूपी गुण्डों ने मज़दूरों पर फायरिंग की। बार-बार की तरह मज़दूरों को डराने-धमकाने की इस क्रिया ने इस बार फिर ग्रेज़ियानो की घटना को दोहराने का काम किया। इस आपसी झड़प ने अन्तत: ख़ूनी संघर्ष का रूप अख्तियार कर लिया जिसमें 6 मज़दूर भी घायल हुए, जिनमें से2 की हालत बेहद गम्भीर थी। वहीं कम्पनी का मैनेजर भी चोट का शिकार हुआ और बाद में उसकी मौत हो गयी। पुलिसिया विभाग ने एकतरफा कार्रवाई करते हुए 8 गिरफ्तार मज़दूरों समेत 377 के ख़िलाफ एफ.आई.आर. दर्ज कर लिया।

Bigul-2010-12_Page_16_Image_0001साहिबाबाद फैक्टरी की यह घटना कोई मामूली घटना नहीं है। यह आज के दौर में मज़दूरों के हालात को बताने वाली एक और प्रातिनिधिक घटना है। पिछले एक दशक में देखें तो मज़दूरों का शोषण, दमन-उत्पीड़न लगातार बढ़ता जा रहा है। वो चाहे गुड़गाँव, लुधियाना, या ग्रेज़ियानो की घटना हो या फिर एलाइड निप्पोन की घटना। इस घटना ने भी देश के कारख़ानों में मरते-खपते मज़दूरों की असुरक्षा और घुटन को सामने लाने का काम किया है। यह घटना व्यापक मज़दूर आबादी में सुलगते आक्रोश को तो सामने लायी ही है, पूरे प्रशासनिक तन्त्र, पुलिस मशीनरी और दलाल ट्रेड यूनियनों के असली चेहरे को भी एक बार फिर उघाड़कर नंगा करने का काम भी किया है। यही नहीं एक बार यह फिर साबित हुआ कि तमाम बुर्जुआ मशीनरी एवं उसके नियम-कायदे असल में पूँजीपतियों और उनके लग्गू-भग्गू तबके की सेवा के लिए हैं। इस घटना ने पूँजीवादी मीडिया के छल-छद्म को भी उजागर करने का काम किया है। उसके घनघोर मज़दूर-विरोधी चरित्र की बानगी एक बार फिर लोगों को देखने को मिली। और यह तथ्य भी एक बार फिर सामने आ गया कि निष्पक्षता और स्वतन्त्रता के भारी-भरकम दावे के बावजूद ये असल में शासक वर्गों के भोंपू ही हैं।

13 नवम्बर की घटना और इसकी पृष्ठभूमि

एलाइड निप्पोन लि. कम्पनी की स्थापना 1983 में हुई थी। कम्पनी के मालिक का नाम रवि तलवार है। इसमें उत्पादन कार्य 1984 से शुरू हुआ। यहाँ मुख्यत: अलग-अलग किस्म के वाहनों के ब्रेक शू बनाये जाते हैं। साहिबाबाद की यूनिट का निर्यात कानून के तहत रजिस्ट्रेशन है। यह भारतीय रेलवे को भी माल सप्लाई करती है। कम्पनी का काम मानेसर, गुड़गाँव व हिमाचल प्रदेश के संयन्त्रों में भी होता है। लेकिन मुख्य उत्पादन कार्य साहिबाबाद स्थित फैक्टरी में किया जाता है। कम्पनी में मौजूदा समय में करीब 1,200 मज़दूर काम करते हैं। जिसमें लगभग 400 मज़दूर स्थायी र्है जबकि 800 मज़दूर कैज़ुअल/ठेका पर काम करने वाले हैं। इन 800 मज़दूरों में से बहुत सारे 7-8 साल से काम कर रहे हैं जिन्हें अभी तक स्थायी नहीं किया गया है। 12-12 घण्टे काम करने के बावजूद बुनियादी हक भी पूरे नहीं मिलते। सच्चाई तो यह है कि इस फैक्टरी में शुरू से ही श्रम-कानूनों की धज्जियाँ उड़ायी जाती रही हैं। कानूनन अगर कोई मज़दूर किसी प्रतिष्ठान में240 दिन काम कर चुका है तो वह पक्की नौकरी का हकदार होता है। जबकि यहाँ पर तो कैज़ुअल/ठेके में 4 से लेकर 8साल तक से काम कर रहे मज़दूर हैं। ऐसे तमाम मज़दूर भी हैं जो उत्पादन की स्थायी प्रकृति के कामों में कई साल से लगे हैं। उनको कैज़ुअल वर्कर के तौर पर न रखा जाना भी श्रम कानूनों का उल्लंघन है।

ऐसे हालात में यहाँ के मज़दूरों ने अपने-आप को नवम्बर 2006 में यूनियन के तहत गोलबन्द किया। इसके पहले वे अपनी समस्याएँ कम्पनी द्वारा बनायी गयी बॉक्स कमेटी (जिसमें वर्कर, स्टाफ व प्रबन्धन के लोग हुआ करते थे) के पास ले जाते थे। इस कमेटी का कोई व्यावहारिक मतलब नहीं था। इसमें कम्पनी प्रबन्धन की बात ही चलती थी। यूनियन बनने के बाद कुछ हद तक श्रम कानून लागू होने की प्रक्रिया शुरू हुई। यूनियन की मुख्य माँग थी कि मज़दूरों को नियमानुसार स्थायी किया जाये और पूरे हक-अधिकार दिये जायें। इन सवालों को लेकर वे एक-दो बार संघर्ष में भी उतरे जिसमें अन्तत: मालिकान ने मज़दूरों को उनके हक देने का वायदा भी किया। यूनियन व प्रबन्धन के बीच दो समझौते भी हुए। जिसके मुताबिक 30-35 वर्करों को हर साल नियमित किया जायेगा। लेकिन इस समझौते को एक बार लागू करने के बाद कभी भी ठीक से लागू नहीं किया गया। जबकि मन्दी का बहाना बनाकर 70-80 मज़दूरों को बाहर का रास्ता ज़रूर दिखा दिया गया। ये वे मज़दूर थे जिन्हें स्थायी किया जाना चाहिए था। जबकि असलियत यह है कि इसी मन्दी के दौर में कम्पनी में ख़ूब ओवर-टाइम करवाया गया जिसके लिए उन्होंने स्थायी श्रमिकों के बजाय ठेका श्रमिकों का जमकर इस्तेमाल किया। एक प्रकार से फैक्टरी में काम कर रहे मज़दूरों के ख़िलाफ़ ऐसा माहौल बनाया जाने लगा कि वे चुपचाप बिना चूं-चां किये काम करते रहें तो ठीक, नहीं तो ख़ैर नहीं। किसी की भी नौकरी छिन सकती है। भले ही उसने कितने साल से फैक्टरी में अपनी हड्डी गलायी हो। इन सारी चीज़ों में मालिकान को जो बात ज्यादा खटकती थी, वह थी फैक्टरी में मौजूद यूनियन। मज़दूरों की माँग को उठाने वाली एकजुट ताकत। मज़दूरों की एकजुटता मालिकान की ऑंखों की किरकिरी बनी हुई थी, जिसको हर हाल में तोड़ने की कोशिश में वह लगा हुआ था। लगभग तीन महीने पहले कम्पनी ने पुराने प्रबन्धन को हटाकर एक नया फर्जी प्रबन्धन ला खड़ा किया जिसका एक सूत्रीय मकसद था यूनियन को तोड़ने के तरीके ईजाद करना। इस टीम के कई अधिकारियों की पृष्ठभूमि आपराधिक रही है। फैक्टरी परिसर में ये जब घूमते थे तो अपने साथ असलहाधारी गुर्गे भी रखते थे। नये प्रबन्धन की कार्यशैली हर तरीके से मज़दूरों को निगाह में रखने की थी। यहाँ तक कि यह प्रबन्धन सुपरवाइज़र का भी काम करने लगा। अगर किसी मज़दूर को छुट्टी चाहिए तो उसे इनके पास जाना पड़ता था। एक घटना में, दीवाली के दो दिन पहले रात के वक्त ब्रेक टाइम में आराम कर रहे मज़दूरों का फोटो खींचकर यह साबित करने की कोशिश करने लगे कि देखो ये कामचोरी कर रहें हैं, काम के वक्त सोते हैं। और सुपरवाइज़र पर दवाब डाला कि इनके ख़िलाफ रिपोर्ट बनाओ जबकि उसने ऐसा करने से इन्कार कर दिया। इस प्रकार के तमाम हथकण्डों से मज़दूरों को परेशान किया जाने लगा। दिनोदिन मज़दूरों की हालत और भी ख़राब होती गयी। बात-बात पर बहाना बना कर मज़दूरों को डराने-धमकाने का सिलसिला बढ़ने लगा।

पिछले तीन महीने से प्रबन्धन और एलाइड लिमिटेड एण्ड इओयू इम्प्लाइज़ यूनियन के बीच हुए करार को लागू करने को लेकर तकरार चल ही रही थी। लेकिन कम्पनी प्रबन्धन की बदज़ुबानी का आलम यह था कि वह मज़दूर यूनियन से हुए समझौते जैसे कैज़ुअल/ठेका मज़दूरों का स्थायीकरण, बोनस और वेतन बढ़ोत्तरी आदि चीज़ों को लागू करता इसके बजाय उसने मज़दूरों पर ही दबाव बनाना शुरू कर दिया। सितम्बर 2010 में प्रबन्धन ने आठ मज़दूरों को फिर निकाल दिया जो विगत 7-8 साल से काम कर रहे थे। यूनियन ने इस मनमानी का विरोध किया और श्रम-विभाग में शिकायत दर्ज करवायी। इसके परिणामस्वरूप श्रम-विभाग में यूनियन और प्रबन्धन के बीच वार्ता हुई और प्रबन्धन ने निकाले गये मज़दूरों को वापस लेने की हामी भी भरी। लेकिन उसे लागू नहीं किया। बार-बार टालते रहे। नतीजतन यूनियन ने 16, 17, 18 नवम्बर 2010 को तीन दिवसीय हड़ताल पर जाने का निर्णय लिया। लेकिन उपश्रमायुक्त डी.पी. सिंह ने 12 नवम्बर को अण्डर रूल4 लगाते हुए हड़ताल पर रोक लगा दी। कम्पनी प्रबन्धन और यूनियन दोनों को यथास्थिति बनाये रखने को कहा। दोनों को 15 नवम्बर 2010 को वार्ता के लिए बुलाया। यूनियन ने बात को मानते हुए घोषित हड़ताल स्थगित कर दिया। और वार्ता के लिए तैयार हो गयी। लेकिन मालिकान एक बार फिर अपनी करतूत दिखाने लगे। श्रमिकों के मुताबिक13 नवम्बर 2010 को जब श्रमिक काम पर आये तो उन्होंने देखा कि सूचना पट्ट पर आज फिर एक नोटिस चिपकी है। पता चला कि कुछ श्रमिकों को बहुत मनमाने ढंग से बेवजह दूसरे उत्पादन विभाग में शिफ्ट कर दिया गया है। जब श्रमिकों ने इसका कारण पूछा तो सुपरवाइज़र ने साफ कहा कि यह निर्णय उफपर से (फर्जी प्रबन्धन से) आया है। उसने तत्काल मज़दूरों द्वारा कारण जानने की इच्छा की ख़बर प्रबन्धन को दी। वे मानो इसी पल का इन्तज़ार कर रहे थे। बात सुनते ही हर बार की तरह अपने लाव-लश्कर के साथ दनदनाते हुए मज़दूरों के पास पहुँचे। पहले की तरह बदतमीजी करते हुए कहने लगे कि हम जो चाहेंगे वो करेंगे। देखा! हमने हड़ताल रुकवा दी। और तुम लोगों को वही करना पड़ेगा जो हम चाहेंगे। अपनी ताकत का प्रदर्शन करते हुए मज़दूरों को डराने-धमकाने का काम जारी रखा। इस पर मज़दूरों ने सख्त ऐतराज़ किया। इस पर फर्जी प्रबन्धन गुण्डई दिखाते हुए तमंचे से फायरिंग करने लगा। जिसमें 6 मज़दूर घायल हुए,जिनमें अमित और ब्रजेश नाम के दो मज़दूर गम्भीर रूप से घायल हुए थे। उस यूनिट में करीब 150 श्रमिक काम कर रहे थे। मज़दूरों की भीड़ बढ़ते देखकर वे फायरिंग करते हुए बाहर आने लगे। इतने में गोली की आवाज़ सुनकर दूसरी यूनिट के मज़दूर वहाँ पहुँचने लगे। मज़दूरों और प्रबन्धन के बीच इस झड़प में मज़दूरों के साथ प्रबन्धन के कुछ लोगों को भी चोटें आयीं। जिसके चलते बाद में कम्पनी के एचआर विभाग के एजीएम योगेन्द्र चौधरी की मृत्यु हो गयी।

पुलिस-प्रशासन की तत्परता!

इस घटना के तुरन्त बाद पुलिस हरकत में आ गयी। उसने अपनी पक्षधरता एक बार फिर साबित करते हुए मज़दूरों के ख़िलाफ झट से एफ.आई.आर. दर्ज कर ली। पूरे साहिबाबाद साइट-4 के इलाके में तथा मज़दूरों के घरों पर दबिश देनी शुरू कर दी गयी। औरतों और बच्चों को भी परेशान किया गया। इस प्रक्रिया में मज़दूरों व यूनियन नेताओं समेत 27 लोगों को नामजद किया गया और 350 अज्ञात लोगों के ख़िलाफ रिपोर्ट दर्ज की गयी। मालिकों की तरफ से दर्ज की गयी रिपोर्ट में लिखा था कि लगभग 377 लोग कम्पनी दफ्तर में घुस आये, सभी अपने हाथों में तलवार, सरिया, लोहे की रॉड, डण्डे आदि लिये थे। उन्होंने आते ही तोड़-फोड़ शुरू कर दी। तथा सभी अधिकारियों को जान से मारने की नीयत से मारना-पीटना शुरू कर दिया। पुलिस ने एफ.आई.आर. की स्पेशल रिपोर्ट मु.अ.स. 405/10 धारा147/148/149/302/307/427/120 बी आई.पी.सी. व 7 कि. ला. अमेण्डमेण्ट एक्ट के तहत दर्ज की। पुलिस की न्यायिक सक्रियता का अन्दाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि जहाँ एक तरफ उन्होंने मालिकों की तरफ से मज़दूरों के ख़िलाफ रिपोर्ट तो दर्ज कर ली। लेकिन यह जानने की कोशिश नहीं कि आख़िर प्रबन्धन के गुर्गे हथियार लेकर फैक्टरी परिसर में कैसे घुसे। जबकि पुलिस की ख़ुफिया रिपोर्ट भी बताती है कि परिसर में गोली चली थी जिसका शिकार मज़दूर हुए हैं। ऐसे में पुलिस विभाग ने बिना इस बात की जाँच किये कि असल दोषी कौन है मज़दूरों को दोषी मानकर एकतरफा कार्रवाई शुरू कर दी। इस घटना के बाबत जब ‘मज़दूर बिगुल’ अख़बार के संवाददाता और पीयूडीआर की टीम एस.एस.पी. से मिलने गयी और पूछा कि आपने एफ.आई.आर. में कहीं भी हथियारों का ज़िक्र नहीं किया है। आख़िर क्यों? और एकतरफा कार्रवाई मज़दूरों के ख़िलाफ ही क्यों की? इसका उनके पास कोई स्पष्ट जवाब नहीं था। इससे साफ ज़ाहिर होता है कि पुलिस विभाग किस तरह मालिक

वर्ग की सेवा में मुस्तैद रहता है। पुलिस की ऐसी ही भूमिका ग्रेज़ियानो के मज़दूरों के साथ देखने को मिली थी। जिसमें 66मज़दूरों को जेल में ठूँस दिया गया था। वैसे कभी सुनने में नहीं आता है कि पुलिस वहाँ ‘सक्रिय’ होकर दोषियों को सज़ा दिलाने का प्रयास करती हो। भोपाल गैस काण्ड, मेट्रो रेल दुर्घटना या कोरबा में चिमनी गिरने से हुई मज़दूरों की मौत के ज़िम्मेदार लोगों को आज तक क्या सज़ा दी गयी?

पुलिस आलाकमान यह ज़रूर कहते पाये गये कि अगर श्रम-विभाग समय रहते मज़दूरों की सुनवाई कर लेता तो ऐसी घटना से बचा जा सकता था। इस दौरान श्रम विभाग ने जो कुछ किया वह नया नहीं है। ‘मज़दूर बिगुल’ व पीयूडीआर के कार्यकर्ताओं से मिलने पर अपर श्रमायुक्त ने बड़ी बेशर्मी से यह माना कि वे लोग फैक्ट्रियों में दौरा करना तो पिछले 8सालों से लगभग छोड़ ही चुके हैं। और इस पर क्या कहा जाये पाठक स्वयं ही स्थिति का अन्दाज़ा लगा सकते हैं।

मज़दूरों को थकाने और कानूनी दाँवपेंच में उलझाने में लगी सीटू

यहाँ की यूनियन सीटू से जुड़ी हुई है। शुरू से ही मज़दूरों को वे यह समझाने में लगे थे कि धैर्य रखो सब ठीक हो जायेगा। मालूम हो कि साहिबाबाद में सीटू की अच्छी-ख़ासी पैठ रही है। जब मज़दूरों को अपराधी बताकर उनकी धर-पकड़ की जा रही थी, पुलिस घरों पर छापे मार रही थी, ऐसे में होना तो यह चाहिए था कि इस पुलिसिया कार्रवाई के ख़िलाफ इलाके की मज़दूर जमात को सड़क पर उतरने का आह्नान किया जाना और यही एक सही रास्ता बनता था। मज़दूरों पर जो बेवजह केस डाले जा रहे हैं, वे यह बताने के लिए हैं कि मज़दूर अपराधी हैं। जबकि सच्चाई तो यह है कि मालिक-प्रबन्धन के लगातार उत्पीड़न और शोषण के चलते यह घटना घटी। अक्सर होता यही है कि इस प्रकार की घटनाओं में मज़दूरों को दोषी करार दिया जाता है और उन पर तमाम मुकदमे ठोंक दिये जाते हैं। हमारे सामने ग्रेज़ियानो के मज़दूरों का उदाहरण मौजूद है जिसमें मज़दूर आज भी दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं। प्रतिरोधस्वरूप सीटू व अन्य फेडरेशन इस दृश्यपटल पर सामने आते हैं तो महज़ ज्ञापन देने और काग़ज़ी खानापूर्ति करने तक सीमित रहते हैं। घटना के कई दिन बाद 25 नवम्बर को ज़िला क्लेक्ट्रेट पर हुए प्रदर्शन के दौरान उन्होंने एक बार फिर यही किया। जबकि इस प्रदर्शन में तमाम फैक्टरियों और संगठनों के मज़दूर एकत्रित हुए थे, इस उम्मीद के साथ कि बेवजह जो मज़दूरों को फाँसा जा रहा है,इसके ख़िलाफ संघर्ष की कोई रणनीति बनेगी। लेकिन सीटू ने जो कुछ किया और कर रही है, वह एक तरीके से मज़दूरों को लगातार थकाने का काम है। जबकि मज़दूरों का मानना है कि जब तक हमारे साथी रिहा नहीं कर दिये जाते और हम पर लगाये गये फर्जी केस वापस नहीं ले लिये जाते तब तक हम काम पर नहीं जायेंगे। रिपोर्ट लिखे जाने तक सीटू इस कड़ी में आगे बढ़ाते हुए आन्दोलन की धार को तेज़ करने के बजाय कुन्द करने में लगी हुई है। अभी 6 दिसम्बर को श्रम विभाग को सौंपे गये ज्ञापन में और अधिक मज़दूरों को शामिल करने के बजाय महज़ स्थायी मज़दूरों तक सीमित कर दिया। सोचने लायक बात है कि तमाम ताकत होने के बावजूद सीटू मज़दूरों को सड़क पर उतारने से डर क्यों रही है? उल्टे सीटू मज़दूरों की ताकत को तोड़ने का प्रयास कर रही है। वृन्दा करात ने ग़ाज़ियाबाद प्रशासन को दिये गये अपने ज्ञापन में सिर्फ उन दो मज़दूरों को छुड़ाने की माँग की है, जो पहले से सीटू से जुड़े हुए हैं, बाकी छह मज़दूरों की सीटू को कोई परवाह नहीं है। मालिकों और प्रबन्धन की अंधेरगर्दी पर भी पूरी ताकत होने के बावजूद सीटू मज़दूरों को लेकर सड़क पर उतरने और प्रशासन को न्यायपूर्ण कार्रवाई करने पर मजबूर क्यों नहीं कर रही है? जब पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स के कार्यकर्ताओं ने सीटू से इस मामले की जानकारी और ज्ञापनों की प्रतिलिपि माँगी तो उन्होंने मना कर दिया। जब बिगुल मज़दूर दस्ता के साथी मज़दूरों से मिल रहे थे और उन्हें आगे के संघर्ष के बारे में बता रहे थे, तो सीटू ने ज़बरन उन मज़दूरों को वहाँ से हटा दिया। जब बिगुल मज़दूर दस्ता के कार्यकर्ताओं को मज़दूरों ने सीटू कार्यालय पर होने वाली बैठक में आमन्त्रित किया और अपनी बात रखने का आग्रह किया तो सीटू के नौकरशाहों ने इन कार्यकर्ताओं को सीटू के कार्यालय में प्रवेश नहीं करने दिया। इससे साफ ज़ाहिर होता है कि सीटू अन्दर ही अन्दर मालिकान और प्रबन्धन को बचाने में लगा हुआ है। उसका मकसद मज़दूरों को न्याय दिलाना नहीं बल्कि कोई ऐसा समझौता कराना है जिसमें मज़दूरों की हार ही होगी। और फिलहाल ऐसा होता ही नज़र आ रहा है। हर बार की तरह सीटू आन्दोलन को लम्बा खींचकर मज़दूरों के हौसले और हिम्मत को तोड़ देना चाहती है। आन्दोलन को व्यापक दायरे में फैलाने के बजाय महज़ रस्मी कवायदों तक सीमित करने का प्रयास कर रही है। मज़दूरों के सामने भी कोई ठोस विकल्प न होने के चलते वे इन झाँसेबाज़ों की गिरफ्त में फँसे हैं।

वास्तविकता यह है कि साहिबाबाद की इस फैक्टरी में हुई यह घटना कभी भी और कहीं भी हो सकती है। उदारीकरण-निजीकरण के इस दौर में जब लगातार मज़दूरों के अधिकार सीमित किये जा रहे हैं तथा फैक्टरियों में श्रम कानूनों का कोई मतलब नहीं रह गया है; ऐसे में मज़दूर साथियों को यह सोचना होगा कि इन अर्थवादी दलाल टे्रड यूनियनों के झाँसे से निकलकर ही वे अपने संघर्ष को मुकाम तक पहुँचा सकते हैं।

आज के दौर में किसी एक फैक्टरी के मज़दूर अकेले-अकेले बहुत दूर तक अपनी लड़ाई नहीं लड़ सकते। हमें अपने इलाके के मज़दूरों को गोलबन्द करने की दिशा में आगे बढ़ना होगा। मज़दूरों को सीटू, एटक और इण्टक जैसे मज़दूर वर्ग के ग़द्दारों से छुटकारा पाना होगा और अपनी क्रान्तिकारी ट्रेड यूनियन खड़ी करनी होगी। जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक मज़दूरों को इस कानूनी विभ्रम को अपने दिमाग़ से निकाल देना होगा कि पंजीकृत फेडरेशन के बिना कोई मज़दूर संघर्ष हो ही नहीं सकता। हाल के कुछ अनुभव (दिल्ली के बादाम मज़दूरों का संघर्ष, लुधियाना के टेक्सटाइल मज़दूरों का संघर्ष और गोरखपुर के बरगदवाँ के कारख़ानों के मज़दूरों का संघर्ष) साफतौर पर दिखलाते हैं कि मज़दूरों ने ऐसे किसी फेडरेशन के बिना अपनी एकजुटता और फौलादी संगठन के बूते अपनी माँगें मनवायी हैं। साहिबाबाद के मज़दूर साथियों को भी अपने संघर्ष को दलालों के हाथों से निकालकर अपने हाथ में लेना होगा।

 

मज़दूर बिगुल, दिसम्‍बर 2010


 

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