इस्लामिक स्टेट (आईएस): अमेरिकी साम्राज्यवाद का नया भस्मासुर
आनन्द सिंह
यदि बुर्जुआ मीडिया की मानें तो इन दिनों इस्लामिक स्टेट ऑफ़ इराक एंड सीरिया (आईएसआईएस जिसे अब आईएस कहा जाता है) नामक एक दैत्य इराक़ में यकायक पैदा हो गया है। यह इस्लामिक कट्टरपन्थी संगठन इराक़ में मध्ययुगीन बर्बर करतूतों को अंजाम दे रहा है। आईएस के जिहादी लड़ाके तेज़ी से एक के बाद एक इराक़ के कई मुख्य शहरों पर क़ब्ज़ा कर रहे हैं और अगस्त के महीने में वे इराक़ की राजधानी बग़दाद के प्रवेशद्वार तक आ पहुँचे थे। यही नहीं, इस संगठन के सरगना अबू बक्र अल-बग़दादी ने अपने आपको समूचे इस्लामिक जगत का ख़लीफ़ा तक घोषित कर दिया है। लेकिन बुर्जुआ मीडिया हमें यह नहीं बता रहा है कि अभी कुछ महीनों पहले तक आईएसआईएस के जेहादी लड़ाके अमेरिकी, ब्रिटिश, फ्रांसीसी साम्राज्यवादियों एवं अरब जगत में उनके टट्टुओं जैसे सउदी अरब, कतर और कुवैत की शह पर सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल-असद का तख़्तापलट करने के लिए वहाँ जारी गृहयुद्ध में भाग ले रहे थे। उस समय साम्राज्यवादियों की नज़र में वे “अच्छे” जिहादी थे क्योंकि वे उनके हितों के अनुकूल काम कर रहे थे। लेकिन अब जब वे उनके हाथों से निकलते दिख रहे हैं तो वे बुरे जिहादी हो गये हैं और उन पर नकेल कसने की क़वायदें शुरू हो गयी हैं। दरअसल इस्लामिक स्टेट अल-क़ायदा और तालिबान की तर्ज़ पर अमेरिकी साम्राज्यवाद द्वारा पैदा किया गया और पाला-पोसा गया नया भस्मासुर है जो अब अपने आका को ही शिकार बनाने लगा है।
इस्लामिक स्टेट (आईएस), जिसको आईएसआईएस के नाम से भी जाना जाता है, अल-क़ायदा का ही एक घटक है जिसने हाल ही में दज़ला और फ़रात नदियों के किनारे स्थित उत्तरी सीरिया एवं उत्तरी और मध्य इराक़ के अनेक महत्वपूर्ण शहरों, तेलशोधक कारख़ानों और बाँधों पर अपना क़ब्ज़ा जमा लिया है। इस लेख के लिखे जाने तक इराक़ के लगभग एक तिहाई क्षेत्र पर इसका क़ब्ज़ा हो चुका है। इस आतंकवादी संगठन ने इराक़ में 2003 के अमेरिकी हमले के बाद इराक़ में अपनी जड़ें जमानी शुरू कीं। ग़ौरतलब है कि इस हमले के पहले तक इराक़ में अल-क़ायदा का नामोनिशान तक नहीं था। अमेरिकी हमले में सद्दाम हुसैन के सत्ताच्युत होने के बाद इराक़ में घोर अराजकता, पन्थीय और नृजातीय संकीर्णता और इस्लामिक कट्टरपन्थियों के पनपने की ज़मीन तैयार हुई। साथ ही इराक़ में अमेरिकी क़ब्ज़े और सेना की उपस्थिति के खि़लाफ़ व्यापक जनउभार भी देखने में आया। इस जनउभार को काबू में करने के लिए अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने योजनाबद्ध तरीके से इराक़ी समाज में शिया-सुन्नी की पन्थीय संकीर्णता एवं उत्तरी इराक़ में रहने वाली कुर्द नृजातीय आबादी में अलगाववादी भावनाओं को हवा देना शुरू किया। ‘बाँटो और राज करो’ की इस साम्राज्यवादी नीति का नतीजा यह हुआ कि इराक़ में गृहयुद्ध जैसी स्थिति उत्पन्न हो गयी। शियाओं एवं सुन्नियों की अलग-अलग मिलीशिया और फ़िदायीन दस्ते बनने लगे जो एक दूसरे के ख़ून के प्यासे हो गये।
अमेरिकी हमले के बाद इराक़ में जो राजनीतिक संरचना अस्तित्व में आयी उसमें संवैधानिक रूप से यह प्रावधान किया गया कि वहाँ के सबसे रसूख़दार ओहदे यानी प्रधानमन्त्री के पद पर शिया ही बैठ सकता है एवं राष्ट्रपति व संसद के स्पीकर जैसे कम महत्वपूर्ण पद क्रमशः सुन्नियों तथा कुर्दों के लिए सुरक्षित रखे गये। लेबनान के मॉडल पर किये गये इस विचित्र संवैधानिक-राजनीतिक प्रबन्ध का नतीजा यह हुआ कि समय बीतने के साथ ही वहाँ की राजनीति एवं अर्थव्यवस्था में शियाओं का दबदबा बढ़ता गया और सुन्नी एवं कुर्द हाशिये पर जाते गये। इसकी वजह से सुन्नियों एवं कुर्दों में अलगाववादी भावना पनपने लगी। अमेरिकी हमले के बाद इराक़ की अर्थव्यवस्था तहस-नहस हो गयी, बेरोज़गारी और महँगाई आसमान छूने लगी। हालाँकि इस घोर अराजकता के नतीजे इराक़ की जनता के हर हिस्से ने झेले, लेकिन सुन्नी जो सद्दाम हुसैन के शासनकाल में बेहतर स्थिति में थे, उनकी तो मानो पूरी दुनिया ही उजड़ गयी।
ये वो हालात थे जिनमें सुन्नी इस्लामिक कट्टरपन्थी अल-कायदा ने इराक़ में पैर जमाना शुरू किया। इसका शुरुआती नाम ‘अल-कायदा इन मेसोपोटामिया’ था जिसकी स्थापना इराक़ के ताल अफ़ार नामक शहर में हुई थी। यही संगठन 2006 में इस्लामिक स्टेट आफ इराक़ (आईएसआई) के नाम से जाना जाने लगा जो बाद में आईएसआईएस या सिर्फ़ आईएस के नाम से प्रचलित हुआ। इस संगठन ने मुक़्तदा अल-सद्र की महदी शिया सेना और बद्र एवं सलाम ब्रिगेड जैसी शिया मिलीशिया से भी लोहा लिया था। लेकिन यह अभी भी एक छोटा सा जिहादी समूह भर था जिसके पास इतनी ताक़त हरगिज़ नहीं थी कि वह इराक़ के किसी शहर पर क़ब्ज़ा करने की सोच भी सके। आईएसआईएस की ताक़त बढ़नी तब शुरू हुई जब 2011 के बाद से सीरिया में जारी गृहयुद्ध में इसने विद्रोहियों की तरफ़ से शिरकत करनी शुरू की।
2011 में ट्यूनिशिया और मिस्र में जनविद्रोहों की बदौलत वहाँ के तानाशाहों की सत्ता के पतन के बाद अरब के तमाम देशों की तरह सीरिया में भी निरंकुश शासन एवं आर्थिक संकट के विरोध में व्यापक जनउभार देखने को आया। अमेरिकी एवं पश्चिमी यूरोपीय साम्राज्यवादियों को इस जनउभार में सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल-असद (जिसकी क़रीबी रूस और इरान से है) का तख़्तापलट करने की सम्भावना दिखी। असद सरकार के खि़लाफ़ जिहाद का एलान करने वाले लड़ाकों को मुद्रा, हथियार एवं सैन्य प्रशिक्षण देने के काम में उनकी मदद सउदी अरब, कतर एवं कुवैत के शेखों और शाहों के साथ ही साथ तुर्की की सरकार ने की। आईएस के अतिरिक्त सीरिया में जिहाद का एलान करने वाले लड़ाकों में एक अन्य इस्लामिक कट्टरपन्थी संगठन जबत अल-नूसरा भी है जिसको अल-कायदा की सीरिया शाखा कहा जाता है।
लेकिन बशर अल-असद की सरकार लीबिया की क़द्दाफ़ी की सरकार जितनी कमज़ोर न थी, उसकी सैन्य क्षमता एवं सामाजिक आधार कहीं ज़्यादा व्यापक थे। नतीजतन साम्राज्यवादियों को सीरिया में बशर अल-असद का तख़्तापलट करने में अभी तक कोई क़ामयाबी नहीं हासिल हुई है। लेकिन इस प्रक्रिया में आईएस जैसे खूँखार जेहादी लड़ाकों को अकूत धनसामग्री एवं अत्याधुनिक हथियार (ख़ासकर टोयोटा ट्रक और हॉविटज़र बन्दूकें) ज़रूर मिल गये जिससे उनकी ताक़त में जबर्दस्त इज़ाफ़ा हुआ।
पिछले साल के अन्त में आईएसआईएस ने सीरिया-इराक़ की सीमा को पार कर इराक़ में एक बार फिर से नयी ताकत के साथ प्रवेश किया। इस साल जनवरी में उसने इराक़ के अनबार प्रदेश के रमादी एवं फलूजा शहरों पर क़ब्ज़ा कर लिया। जून में उसने समारा, मोसुल, निनेवेह एवं सद्दाम हुसैन के गृह नगर तिकरित पर क़ब्ज़ा कर लिया। जून के अन्त तक इराक़ की सीरिया एवं जार्डन की सीमा पर आईएस का क़ब्ज़ा हो चुका था और उसके जिहादी लड़ाके बग़दाद के प्रवेशद्वार तक पहुँच चुके थे।
सीरिया के गृहयुद्ध के दौरान प्राप्त मुद्रा, हथियारों एवं सैन्य प्रशिक्षण के अतिरिक्त आईएस की बढ़ती ताकत का एक अन्य प्रमुख कारण सद्दाम हुसैन की बाथ पार्टी से जुड़े सेना के सुन्नी जनरलों एवं सुन्नी नौकरशाहों के साथ उनका गठबंधन रहा। ग़ौरतलब है कि 2003 के अमेरिकी हमले के बाद से अमेरिका के निर्देश पर सुनियोजित रूप से वहाँ बाथ पार्टी का असर ख़त्म करने की मुहिम चलायी गयी जिसकी वजह से बाथ पार्टी से जुड़े सेना के अधिकारी और नौकरशाह बेरोज़गार होकर वस्तुतः सड़क पर आ गये। इन सुन्नी सैन्य अधिकारियों ने ‘मिलिटरी काउंसिल’ नाम से संगठन बनाया जो इस वक़्त आईएस के लड़ाकों का रणनीतिक मार्गदर्शन कर रहा है। आईएस के दूसरे सहयोगी नक्शबन्दी आन्दोलन से जुड़े लड़ाके हैं जिनका नेतृत्व सद्दाम हुसैन की सरकार में उपराष्ट्रपति एवं पूर्व बाथ पार्टी का सदस्य इज्ज़त अल-दौरी कर रहा है। हालाँकि नक्शबन्दी आन्दोलन इस्लाम की सूफ़ी परम्परा से प्रेरित है, लेकिन उसने आईएस जैसे कट्टरपन्थी संगठन से अवसरवादी गठजोड़ बना लिया है जिससे आईएस की ताकत में जबर्दस्त इज़ाफ़ा हुआ है।
आईएस की गुरिल्ला फौज में इराक़ और अरब जगत के इस्लामिक कट्टरपन्थियों के अतिरिक्त चेचेन्या, पाकिस्तान एवं यूरोपीय देशों एवं अमेरिका के इस्लामिक कट्टरपन्थी लड़ाके हैं। भारत से भी कुछ मुस्लिम युवाओं के आईएस में शामिल होने की ख़बरें आयी हैं। इराक़ में आईएस का प्रभुत्व इतनी तेज़ी से बढ़ने के पीछे एक अन्य कारण अमेरिकी हमले के बाद से इराकी सेना के मनोबल में भारी गिरावट भी रहा जिसकी वजह से वे आईएस से लड़ने में फिसड्डी साबित हुए। आईएस ने जिन शहरों पर क़ब्ज़ा किया वहाँ भारी मात्रा में इराकी सेना के हथियारों और लूटपाट से अर्जित अकूत धनदौलत से भी आईएस की ताकत में इज़ाफ़ा हुआ। इसके अतिरिक्त मोसुल और किरकुक जैसे स्थानों में स्थित तेलों के कुओं पर कब्ज़े से भी उनकी आर्थिक ताकत बढ़ी। लेकिन जितनी तेज़ी से इसकी ताकत बढ़ी उतनी ही तेज़ी से अरब जगत की आम जनता के बीच इसके प्रतिक्रियावादी चरित्र का खुलासा भी हुआ। जब यह इराक़ में एक के बाद एक शहरों पर क़ब्ज़ा करने में व्यस्त था था उसी दौरान ज़ायनवादी इज़रायल गाज़ा की जनता पर अकथनीय क़हर बरपा रहा था। लेकिन पूरी दुनिया में इस्लामिक राज्य स्थापित करने का दावा करने वाले इस आतंकवादी संगठन के पास फलस्तीन की जनता के बहादुराना संघर्ष में भाग लेना तो दूर उनके समर्थन में ये एक शब्द तक नहीं बोले।
अगस्त के महीने में आईएस के लड़ाके उत्तरी इराक़ के कुर्दिस्तान क्षेत्र की ओर तेज़ी से बढ़ने लगे। कुर्दिस्तान इराक़ के तेल संसाधन सम्पन्न क्षेत्रों में से एक है जहाँ एक्सान मोबिल और शेवरान जैसी अमेरिकी तेल कम्पनियाँ तेल के कुओं से तेल निकालकर अकूत मुनाफ़ा कमाती हैं। कुर्दिस्तान की राजधानी इरबिल में इन तमाम तेल कंपनियों के क्षेत्रीय कार्यालय हैं। अमेरिका का दूतावास भी इरबिल में स्थित है और इसके अलावा अमेरिका के सैन्य और खुफ़िया अधिकारियों का गढ़ भी है। इरबिल में आईएस के क़ब्जे़ की सम्भावना से अमेरिका सकते में आ गया। आनन-फानन में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने, जो अब तक आईएस को एक छोटा-मोटा संगठन बताते थे, कुर्दिस्तान में आईएस के क़ब्जे़ वाले क्षेत्रों में अमेरिकी वायुसेना को हवाई हमले का आदेश दे दिया। दुनिया भर के पूँजीवादी मीडिया में यह प्रचारित किया गया कि अमेरिका ने आईएस के डर से सिंजर पहाड़ियों में छिपे यज़ीदी समुदाय के लोगों को बचाने के लिए यह हमला किया था। लेकिन सच्चाई यह थी कि यह हमला आईएस को इरबिल से दूर हटाने के लिए किया गया था। इस हमले की दूसरा मक़सद मोसुल बाँध पर से आईएस के कब्ज़े से छुड़ाना था जिससे इराक़ के बड़े हिस्से में बिजली और पानी भेजा जाता है। यज़ीदी समुदाय के लोगों को बचाने का काम दरअसल सीरिया स्थित कुर्दिश लड़ाके वाईपीजी (कुर्दिश प्रोटेक्शन आर्मी) और तुर्की की पीकेके (कुर्दिश वर्कर्स पार्टी) के ज़मीनी लड़ाकों ने किया था। यज़ीदियों को बचाने में पीकेके की भूमिका बुर्जुआ मीडिया में ज़्यादा नहीं आयी क्योंकि अमेरिका ने पीकेके को आतंकवादी संगठन घोषित किया है। कुर्दिस्तान के पेशमेर्गा लड़ाके आईएस का अकेले सामना कर पाने में विफल रहे। अब अमेरिका और यूरोपीय देश पेशमेर्गा को और आधुनिक हथियारों की सप्लाई की बात कर रहे हैं।
अगस्त के अन्त में आईएस ने बगदाद, किरकुक और इरबिल जैसे इराक़ के प्रमुख शहरों पर एक साथ बमबारी शुरू कर दी जिसमें सैकड़ों लोग मारे गये। इसके अलावा दो अमेरिकी पत्रकारों जैकब फोली और स्टीवेन सॉटलॉफ को आईएस ने गला काटकार हत्या कर दी और इस बर्बर कृत्य का वीडियो सोशल मीडिया पर अपलोड कर दिया जिसके बाद से अमेरिका की घरेलू राजनीति में इराक़ में पुनः सेना भेजने और सैन्य कार्रवाई की माँग और तेज़ हो गयी है। इसके पहले ओबामा सरकार ने इराक़ के प्रधानमन्त्री नूरी अल-मलिकी को बलि का बकरा बनाते हुए उसकी जगह हैदर अल-अबादी को प्रधानमन्त्री बनाया। अमेरिका को यह उम्मीद है कि पश्चिम में शिक्षित होने की वजह से अल-अबादी अमेरिका के हाथों की कठपुतली का काम अल-मलिकी से बेहतर ढंग से कर पायेगा। ग़ौरतलब है कि अल-अबादी को ईरान का भी समर्थन प्राप्त है। चूँकि ईरान की सीमा के काफ़ी निकट तक आईएस का क़ब्ज़ा हो चुका है इसलिए ईरान भी आईएस को एक बड़े ख़तरे के रूप में देख रहा है। इसी तरह सीरिया ने भी आईएस के प्रभाव को कम करने के लिए अपने क्षेत्र को अमेरिकी हवाई बमबारी के लिए अनुमति देने के संकेत दे दिये हैं। 11 सितंबर के आतंकवादी हमले की 13 वीं बरसी पर ओबामा ने सीरिया में आईएस के ठिकानों पर हवाई बमबारी एवं इराक़ में 500 अतिरिक्त सैन्य सलाहकारों को भेजने की घोषणा की। साथ ही सीरियाई विद्रोहियों के नरमपन्थी हिस्सों को हथियारों की सप्लाई एवं सैन्य प्रशिक्षण की योजना का भी खुलासा किया गया।
पिछले चन्द महीनों में मध्य-पूर्व की राजनीति में तेज़ी से हुए इन बदलावों से यह स्पष्ट हो गया है कि अमेरिकी साम्राज्यवादी अपने ही बनाये तिलिस्म में ज़्यादा से ज़्यादा फ़ँसते जा रहे हैं। अमेरिका में विपक्षी रिपब्लिकन पार्टी ओबामा पर इराक़ में एक बार फिर से सेना भेजने के लिए दबाव बना रही है। सीरिया में असद सरकार का तख़्ता-पलट करने की योजना टालकर अब आईएस के ख़तरे को निपटाना अमेरिकी विदेशी नीति की प्राथमिकता बन गयी है। सीरिया और ईरान के साथ ही साथ तुर्की की सरकार एवं अरब के शेख और शाहों की सत्तायें भी आईएस की बढ़ती ताक़त से सकते में आ गये हैं और पारस्परिक सहयोग की बातें सुनने में आ रही हैं। हालाँकि इनमें आपस में जबर्दस्त अन्तर्विरोध हैं। तुर्की, सीरिया और ईरान को डर है कि अमेरिका द्वारा इराक़ में कुर्दिस्तान की स्वतन्त्रता देने से इन देशों में रहने वाले कुर्द भी स्वतन्त्रता की माँग उठाने लगेंगे। ग़ौरतलब है कि इराक़ में लगभग 50 लाख कुर्द रहते हैं जबकि तुर्की में लगभग 2 करोड़ कुर्द रहते हैं। इसी तरह सीरिया और ईरान में भी अच्छी-ख़ासी संख्या में कुर्द रहते हैं। अमेरिका ने भले ही इराक़ में प्रधानमन्त्री बदल दिया है, लेकिन नये प्रधानमन्त्री अल-अबादी की नज़दीकी ईरान से भी है और साथ ही साथ इराक़ के बद्र और सलाम ब्रिगेड जैसे शिया मिलीशियाओं पर भी ईरान का ही नियन्त्रण है। सउदी अरब और तुर्की हालाँकि अल-बगदादी के ख़लीफ़ा बनने की घोषणा करने के बाद से आईएस पर नकेल कसने के पक्षधर हैं लेकिन उन्हें यह भी डर है कि इस प्रक्रिया में ईरान, इराक़ और सीरिया में शियाओं की ताक़त और ज़्यादा बढ़ जायेगी। इस जटिल परिस्थिति में इतना तो तय है कि निकट भविष्य में यह पूरा क्षेत्र भयंकर पन्थीय हिंसा और गृहयुद्धों की चपेट में रहेगा। लेकिन इसी प्रक्रिया में साम्राज्यवादी और उनके पिट्ठू निरंकुश अरब शासक भी वहाँ की जनता की निगाहों में ज़्यादा से ज़्यादा नंगे होते जायेंगे। गाज़ा में इज़रायली हमले के दौरान उनके रुख से पहले ही समूचे अरब क्षेत्र की जनता में वहाँ के शासकों के प्रति भारी असन्तोष दिखा। यह जनअसन्तोष निश्चय ही भविष्य में व्यापक जनविद्रोहों की शक़्ल अख़्तियार करेगा।
मज़दूर बिगुल, सितम्बर 2014
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