गोरखपुर में मज़दूर आन्दोलन की शानदार जीत
मज़दूरों की जुझारू एकता और भारी जनदबाव के आगे प्रशासन झुकने के लिए बाध्य
सरकारी आतंक का मुँहतोड़ जवाब! गिरफ्तार साथियों की बिना शर्त रिहाई!
श्रम कानून लागू कराने की लम्बी लड़ाई में एक कड़ी! पूर्वी उत्तर प्रदेश के मज़दूरों में संघर्ष की चेतना जगायी!
गोरखपुर में करीब तीन महीने से चल रहे आन्दोलन में पिछले दिनों मज़दूरों ने एक बड़ी जीत हासिल की जब मज़दूरों और नागरिकों के भारी दबाव के आगे अन्तत: प्रशासन को झुकना पड़ा और 22 अक्टूबर की रात सभी माँगों को मानने के लिए लिखित समझौता करना पड़ा। इससे पहले 21 अक्टूबर की रात को प्रशासन ने चारों गिरफ्तार मज़दूर नेताओं को बिना शर्त रिहा कर दिया था।
चार मज़दूर नेताओं की अवैध गिरफ्तारी और बर्बर पिटाई के विरोध में 20 अक्टूबर को बरगदवां औद्योगिक क्षेत्र के पाँच कारख़ानों में हड़ताल हो गयी थी और 1500 से अधिक मज़दूरों ने ज़िलाधिकारी कार्यालय पर धरना और क्रमिक भूख हड़ताल शुरू कर दी थी। गोरखपुर मज़दूर आन्दोलन समर्थक नागरिक मोर्चा की ओर से गोरखपुर में नागरिक सत्याग्रह आन्दोलन शुरू करने की घोषणा से ज़िला प्रशासन पर और भी दबाव बढ़ गया था। कलक्ट्रेट परिसर में बैठे मज़दूरों को भारी संख्या में पुलिस, पीएसी व रैपिड ऐक्शन फोर्स ने घेर रखा था, लेकिन मज़दूर बड़ी संख्या में डटे रहे। 21 अक्टूबर को ज़बर्दस्त प्रदर्शन, शहर के नागरिकों और विभिन्न संगठनों के दबाव और दिन भर चली वार्ता के बाद रात को प्रशासन ने चारों मज़दूर नेताओं को रिहा कर दिया। लेकिन सभी फर्ज़ी मुकदमे हटाने, पिटाई के दोषी अफसरों के ख़िलाफ कार्रवाई और मज़दूरों की माँगें पूरी कराने के लिखित आश्वासन की माँग पर भूख हड़ताल और धरना जारी रहा। 22 अक्टूबर को दो अन्य कारखानों के मज़दूर भी काम बन्द करके जिलाधिकारी कार्यालय पर धरने में शामिल हो गए। आन्दोलन के समर्थन में नागरिक अधिकार कर्मियों, मज़दूर नेताओं और छात्र-छात्राओं का एक जत्था दिल्ली से गोरखपुर पहुँचकर लोक-आह्नान अभियान शुरू कर चुका था और कई और जत्थे पहुँचने वाले थे। देशभर से विभिन्न संगठनों और अग्रणी जनाधिकार कर्मियों के विरोधपत्रों के पहुँचने का सिलसिला जारी था। दमन और फूट डालने की तमाम कोशिशों के बावजूद मज़दूरों के तेवर और तीखे हो गये थे। गोरखपुर के अनेक संगठन, बुद्धिजीवी और नागरिक मज़दूरों के पक्ष में प्रशासन पर दबाव डाल रहे थे। आखिरकार कई दौर की बातचीत के बाद, देर शाम को प्रशासन ने फर्ज़ी मुकदमे हटाने, मार-पीट के दोषी अधिकारियों के विरुद्ध जाँच की सिफारिश प्रदेश सरकार को भेजने और 10 दिनों के भीतर मज़दूरों की सभी माँगें पूरी कराने का लिखित आश्वासन दिया और वरिष्ठ अधिकारियों ने मज़दूरों के सामने आकर इसकी घोषणा की। इसके बाद आन्दोलन को स्थगित करने का फैसला लिया गया। उसी दिन सात कारखानों के सैकड़ों मज़दूरों ने शहर की सड़कों से होते हुए बरगदवां तक ज़बर्दस्त विजय जुलूस निकाला। कचहरी से बरगदवां तक पहुँचने में जुलूस को तीन घण्टे से भी ज्यादा समय लग गया। आसमान गुँजाते नारों से मज़दूरों ने पूँजीपतियों, प्रशासन और उनके पक्ष में खड़े जनप्रतिनिधियों को यह जता दिया कि गोरखपुर का मज़दूर अब जाग गया है और हर दमन-उत्पीड़न के विरुद्ध लड़ने के लिए कमर कसकर तैयार है।
आज के दौर में जब कदम-कदम पर मज़दूरों को मालिकों और शासन-प्रशासन के गँठजोड़ के सामने हार का सामना करना पड़ रहा है, गोरखपुर के मज़दूरों की यह जीत बहुत महत्वपूर्ण है। इसने दिखा दिया है कि अगर मज़दूर एकजुट रहें, एक जगह लड़ रहे मज़दूरों के समर्थन में मज़दूरों की व्यापक आबादी एकजुटता का सक्रिय प्रदर्शन करे, विश्वासघातियों और दलालों की दाल न गलने दी जाये और एक कुशल नेतृत्व की अगुवाई में साहस तथा सूझबूझ से पूँजीपतियों और प्रशासन की सभी चालों का मुकाबला किया जाये तो इस कठिन समय में भी मज़दूर छोटी-छोटी जीतें हासिल करते हुए बड़ी लड़ाई में उतरने की तैयारी कर सकते हैं। इस आन्दोलन ने देशभर में, विशेषकर मज़दूर संगठनों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं का ध्यान अपनी ओर खींचा है और इससे गोरखपुर ही नहीं, पूरे पूर्वी प्रदेश में मज़दूर आन्दोलन का नया एजेण्डा सेट करने की शुरुआत हो गयी है। इस आन्दोलन के सबकों और इसके दौरान सामने आये कुछ ज़रूरी सवालों पर आगे भी चर्चा जारी रहेगी।
बिगुल के पाठक अगस्त के पहले हफ्ते से गोरखपुर में चल रहे इस आन्दोलन की रिपोर्टें पढ़ते रहे हैं। पिछले अंक में हमने बताया था कि 24 सितम्बर को मज़दूरों ने प्रशासन को समझौता कराने के लिए बाध्यल कर दिया था। ज़िलाधिकारी की मौजूदगी में उपश्रमायुक्त ने 15 दिनों के भीतर मज़दूरों की माँगें पूरी कराने का आश्वासन लिखकर दिया था। 15 दिनों के भीतर समझौता लागू न होने पर ज़िला प्रशासन को समीक्षा बैठक करनी थी। दो सप्ताह से अधिक का समय बीत जाने पर भी कारखाना मालिकों ने आधे से अधिक मज़दूरों को काम पर नहीं लिया था। न्यूनतम मज़दूरी सहित ज्यादातर माँगों पर कोई कार्रवाई नहीं गयी थी। बार-बार प्रशासन और श्रम विभाग से समीक्षा की माँग करने पर भी जब कोई सुनवाई नहीं हुई तो थकहारकर 14 अक्टूबर से मज़दूरों ने 30-30 के जत्थों में डीएम कार्यालय पर क्रमिक भूख हड़ताल शुरू कर दी। उनके समर्थन में सैकड़ों मज़दूर भी धरने पर बैठ गये। अब तक हाथ पर हाथ धरे बैठा प्रशासन अब फौरन हरकत में आ गया और पूरी ताकत से मज़दूरों पर टूट पड़ा। मज़दूर आन्दोलन को कुचलने के लिए प्रशासन ने फैक्ट्री मालिकों के इशारे पर एकदम नंगा आतंकराज कायम कर दिया।
15 अक्टूबर की रात संयुक्त मज़दूर अधिकार संघर्ष मोर्चा के तीन नेतृत्वकारी कार्यकर्ताओं – तपीश मैंदोला, प्रशान्त और प्रमोद कुमार और एक अग्रणी मज़दूर मुकेश को गिरफ्तार कर लिया गया। 16 अक्टूबर को सिटी मजिस्ट्रेट ने उन्हें तकनीकी आधार पर ज़मानत देने से इंकार करके 22 अक्टूबर तक जेल भेज दिया। 15 अक्टूबर की शाम को ज़िला प्रशासन ने तीनों नेताओं को बातचीत के बहाने एडीएम सिटी के कार्यालय में बुलाया जहाँ ख़ुद एडीएम सिटी अखिलेश तिवारी, सिटी मजिस्ट्रेट अरुण और कैंट थाने के इंस्पेक्टर विजय सिंह ने अन्य पुलिसवालों के साथ मिलकर उन्हें लात-घूँसों से बुरी तरह मारा। बर्बरता की सारी हदें पार करते हुए ज़िले के इन वरिष्ठ अफसरों ने युवा कार्यकर्ता प्रशान्त को भी बुरी तरह मारा जबकि वह और अन्य साथी बार-बार कह रहे थे कि वे हृदयरोगी हैं और पिटाई उनके लिए घातक हो सकती है। वार्ता के बहाने एडीएम सिटी कार्यालय में बुलाए जाते ही इन चारों साथियों के मोबाइल फोन छीनकर स्विच ऑफ कर दिये गये और सारे कानूनों और उच्चतम न्यायालय के निर्देशों को ताक पर धरकर देर रात जेल भेजे जाने तक उन्हें किसी से बात करने की इजाज़त नहीं दी गयी। जेल जाने के तीसरे दिन 17 अक्टूबर की शाम को जब कुछ साथी जेल में उनसे मिल सके, तब उन्होंने इन घटनाओं की जानकारी दी। बार-बार कहने के बावजूद प्रशासन ने उनका मेडिकल नहीं कराया। प्रशान्त दिल की गम्भीर बीमारी से ग्रस्त हैं यह बताने पर भी उन्हें चिकित्सा सुविधा नहीं दी गयी और दवाएँ तक नहीं मँगाने दी गयीं। उन्हें बार-बार आन्दोलन से अलग हो जाने के लिए धमकियाँ दी गयीं। इसके बाद उन्हें जेल भेज दिया गया तथा शान्ति भंग करने की धाराओं के अतिरिक्त डकैती और ”एक्सटॉर्शन” (जबरन वसूली) के आरोप में फर्ज़ी मुकदमे दर्ज कर लिये गये। अगले दिन मालिकों की ओर से इन तीन नेताओं के अलावा 9 मज़दूरों पर जबरन मिल बन्द कराने, धमकियाँ देने जैसे आरोपों में झूठे मुकदमे दर्ज कराये गये। उसी रात ज़िलाधिकारी कार्यालय में अनशन और धरने पर बैठे मज़दूरों पर हमला बोलकर उन्हें वहाँ से हटा दिया गया। महिला मज़दूरों को घसीट-घसीटकर वहाँ से हटाया गया। प्रशान्त, प्रमोद, तपीश एवं मुकेश को ले जाने का विरोध कर रही महिलाओं के साथ मारपीट की गयी।
प्रशासन ने चारों मज़दूर नेताओं पर गैंग्स्टर एक्ट लगाने की भी पूरी तैयारी कर रखी थी। प्रशासन की मंशा कुछ मार्क्स्वादी साहित्य, बिगुल मज़दूर अखबार और पेन ड्राइव आदि की बरामदगी दिखाकर उन्हें ”माओवादी” बताते हुए संगीन धाराएँ लगाने की थी और कुछ अधिकारियों ने मीडिया में इस आशय के बयान भी दिये। लेकिन फिर कुछ पत्रकारों द्वारा ऐसे कदम के उल्टा पड़ जाने के ख़तरे के बारे में चेतावनी देने तथा व्यापक मज़दूर आक्रोश को देखते हुए उन्हें हाथ रोकना पड़ा। कुछ वरिष्ठ पत्रकारों ने बाद में बताया कि अगर मज़दूरों और नागरिकों की व्यापक गोलबन्दी तत्काल न हुई होती तो पुलिस की योजना थी कि प्रमुख नेताओं का एन्काउण्टर कर दिया जाये। अदालत मंम पेश करने के लिए लाये जाते समय भागने की कोशिश कर रहे ”नक्सली” मुठभेड़ में मारे गये, इस आशय की कहानी तैयार कर ली गयी थी। यहाँ यह बताना ज़रूरी है कि स्थानीय ”चैम्बर ऑफ इण्डस्ट्रीज़, अलग-अलग फैक्टरी मालिक और पुलिस एवं नागरिक प्रशासन के अधिकारी पिछले ढाई महीने से मीडिया में इस आशय के बयान देते रहे हैं कि इस मज़दूर आन्दोलन में ”बाहरी तत्व”, ”नक्सली” और ”माओवादी”सक्रिय हैं। स्थानीय भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ ने भी कई ऐसे बयान जारी किये। मामले को साम्प्रदायिक रंग देते हुए उन्होंने यह भी दावा किया कि इस आन्दोलन में माओवादियों के अतिरिक्त चर्च भी सक्रिय है। इस तरह मालिक-प्रशासन-नेताशाही के गँठजोड़ ने मीडिया के ज़रिये दुष्प्रचार करके मज़दूर आन्दोलन को कुचल देने के लिए महीनों पहले से माहौल बनाना शुरू कर दिया था।
22 अक्टूबर को हुए समझौते के बाद भी मज़दूर समझ रहे थे कि मालिकान इतनी आसानी से माँगों को लागू नहीं करने वाले हैं। अंकुर उद्योग और वीएन डायर्स की दोनों मिलों के आन्दोलन के समय से ही वे देख रहे थे कि अपने वायदों से बार-बार मुकर जाना मालिकान और प्रशासन की फितरत है। संयुक्त मज़दूर अधिकार संघर्ष मोर्चा ने उसी दिन ऐलान कर दिया था कि आन्दोलन समाप्त नहीं हुआ है बल्कि इसे केवल स्थगित किया गया है। यदि दस दिन के अन्दर समझौता पूरी तरह लागू नहीं कराया गया तो ग्यारहवें दिन से मज़दूर फिर से सड़क पर उतरकर आरपार की लड़ाई लड़ेंगे। लेकिन अगले ही दिन से मज़दूरों को फिर से जूझना पड़ गया। समझौते के बावजूद फैक्ट्री मालिक मज़दूरों को काम पर लेने में आनाकानी कर रहे थे। इसके विरोध में मज़दूरों ने फैक्ट्री गेट जाम कर दिया। तीन दिन बीत जाने के बाद भी मॉडर्न लेमिनेटर्स लि. और मॉडर्न पैकेजिंग प्रा. लि. ने मज़दूरों को काम पर नहीं लिया था। प्रशासन अब भी मालिकों के साथ मिलकर मज़दूरों से लुकाछिपी का खेल खेलता रहा और धोखाधड़ी करता रहा। दरअसल मालिकों को फैक्ट्री तो चलानी थी लेकिन वे मज़दूरों को पूरी तरह झुकाकर और तोड़कर अपनी शर्तों पर वापस लेना चाहते थे और आन्दोलन के अगुआ मज़दूरों को बाहर कर देना चाहते थे। लेकिन मज़दूरों ने उन्हें ऐसा करारा जवाब दिया जिसकी उन्हें सपने में भी उम्मीद नहीं होगी।
25 अक्टूबर को मज़दूरों ने आपात बैठक करके निर्णय लिया कि वे अब पवन बथवाल के कारखाने में काम ही नहीं करेंगे। मज़दूरों ने तय किया कि जिन मज़दूरों को श्रम कानून लागू हुए बिना ही पवन बथवाल के यहाँ काम करना हो वे इसके लिए स्वतंत्र हैं लेकिन मज़दूरों की बहुसंख्या ऐसे मज़दूर विरोधी मालिक के लिए काम नहीं करना चाहती। अगले दिन सैकड़ों मज़दूरों ने डीएलसी कार्यालय में सामूहिक इस्तीफा लिखकर दे दिया। हालाँकि कारखाने की करीब दो दर्जन स्त्री मज़दूरों ने तो पहले ही दिन कह दिया कि वे बथवाल के कारखाने में काम नहीं करेंगी और उसी दिन मुआवज़े सहित अपना हिसाब ले लिया था। मज़दूरों ने यह भी घोषणा की कि अन्य जगहों पर काम तलाशने और काम करने के साथ ही वे अब पूरे पूर्वी उत्तर प्रदेश में श्रम कानूनों के घोर उल्लंघन के सवाल पर मज़दूरों के बीच प्रचार करेंगे और गोरखपुर प्रशासन तथा उत्तर प्रदेश सरकार के मज़दूर विरोधी-ग़रीब विरोधी चेहरे को नंगा करेंगे। श्रम विभाग से लेकर पुलिस-प्रशासन तक यहाँ मालिकों के चाकर की भूमिका निभाते हैं और मज़दूरों के लिए किसी कानून का कोई मतलब नहीं रह गया है। जिला स्तर से लेकर प्रदेश स्तर तक के अफसरों को मिलमालिक कठपुतली की तरह अपने इशारों पर नचाते हैं। मज़दूर अब टोलियाँ बनाकर पूर्वी प्रदेश के औद्योगिक क्षेत्रों में इसका भण्डाफोड़ करेंगे और पूरे पूर्वी उत्तर प्रदेश में श्रम कानूनों के अमल के सवाल पर व्यापक मज़दूर आन्दोलन खड़ा करने की तैयारी करेंगे।
संयुक्त मज़दूर अधिकार मोर्चा ने कहा कि पूरे पूर्वी उत्तर प्रदेश के नब्बे प्रतिशत से अधिक कारखानों में श्रम कानूनों के न्यूनतम प्रावधन भी लागू नहीं हैं। मोर्चा इस मुद्दे पर मज़दूरों की व्यापक गोलबन्दी करके श्रम कानूनों को लागू कराने के लिए मुहिम छेड़ेगा। इसके साथ ही, वर्तमान श्रम कानूनों का दायरा अभी अति-सीमित है जो मज़दूरों को उनके श्रम का उचित मोल तथा सामाजिक सुरक्षा दिलाने में अक्षम है। इसलिए मोर्चा श्रम कानूनों की ख़ामियों को उजागर करने का भी काम करेगा और उनमें व्यापक बदलाव के लिए दबाव बनायेगा। गोरखपुर के आन्दोलन से साबित हो गया कि श्रम कानूनों को लागू कराने वाली सरकारी एजेंसियाँ अत्यन्त लचर और भ्रष्टाचार में डूबी हुई हैं। अधिकांश स्थानों पर ये एजेंसियाँ मालिकों के एजेण्ट की भूमिका निभाते हुए श्रम कानूनों के उल्लंघन में मददगार होती हैं। इसलिए श्रम विभाग से लेकर लेबर कोर्ट तक इन एजेंसियों को जवाबदेह, जनवादी तथा प्रभावी बनाना भी मोर्चा की मुहिम का हिस्सा होगा।
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इस आन्दोलन ने मज़दूरों की व्यापक आबादी और आम नागरिकों के सामने इस व्यवस्था का असली चेहरा नंगा कर दिया। लोगों ने देखा कि किस तरह सरकार, प्रशासन, पुलिस, अदालत, जन-प्रतिनिधि, चुनावी नेता सब मिलकर एक बेहद जायज़ और न्यायपूर्ण आन्दोलन को कुचलने पर आमादा हो गये। मज़दूरों ने ढाई महीनों के दौरान गोरखपुर से लेकर लखनऊ तक,हर स्तर पर बार-बार अपनी बात पहुँचायी लेकिन ”सर्वजन हिताय” की बात करने वाली सरकार कान में तेल डालकर सोती रही।
मॉडर्न लेमिनेटर्स लि. और मॉडर्न पैकेजिंग लि. के इन मज़दूरों की माँगें बेहद मामूली थीं। वे न्यूनतम मज़दूरी, जॉब कार्ड,ईएसआई कार्ड देने जैसे बेहद बुनियादी हक माँग रहे थे, श्रम कानूनों के महज़ कुछ हिस्सों को लागू करने की माँग कर रहे थे। बिना किसी सुविधा के 12-12 घण्टे, बेहद कम मज़दूरी पर, अत्यन्त असुरक्षित और असहनीय परिस्थितियों में ये मज़दूर आधुनिक गुलामों की तरह से काम करते रहे हैं। गोरखपुर के सभी कारख़ानों में ऐसे ही हालात हैं। किसी कारख़ाने में यूनियन नहीं है, संगठित होने की किसी भी कोशिश को फौरन कुचल दिया जाता है। पहली बार करीब पाँच महीने पहले तीन कारख़ानों के मज़दूरों ने संयुक्त मज़दूर अधिकार संघर्ष मोर्चा बनाकर न्यूनतम मज़दूरी देने और काम के घण्टे कम करने की लड़ाई लड़ी और आंशिक कामयाबी पायी। इससे बरसों से नारकीय हालात में खट रहे हज़ारों अन्य मज़दूरों को भी हौसला मिला। इसीलिए यह मज़दूर आन्दोलन इन दो कारखानों के ही नहीं बल्कि पूर्वी उत्तर प्रदेश के तमाम उद्योगपतियों को बुरी तरह खटक रहा था और वे हर कीमत पर इसे कुचलकर मज़दूरों को ”सबक सिखा देना” चाहते थे। मज़दूरों और नेतृत्व के लोगों को डराने-धमकाने, फोड़ने की हर कोशिश नाकाम हो जाने के बाद यह सुनियोजित मुहिम छेड़ी गयी कि इस आन्दोलन को ”माओवादी आतंकवादी” और ”बाहरी तत्व” चला रहे हैं। प्रशासन और श्रम विभाग के अफसर तो उनके पक्ष में थे ही,शहर के भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ भी खुलकर उद्योगपतियों के पक्ष में उतर आये और मज़दूर आन्दोलन के ख़िलाफ बाकायदा मोर्चा खोल दिया। लेकिन मज़दूर पूरी तरह एकजुट थे। ऐसे दुष्प्रचारों और धमकियों तथा हमलों से डरने के बजाय उनका लड़ने का हौसला और बढ़ गया। इस बात का अच्छा प्रभाव यह हुआ कि वे समझ गये कि उनकी लड़ाई किसी एक-दो फैक्टरी मालिक से नहीं, इस पूरी लुटेरी व्यवस्था से है, और उनका संघर्ष लम्बी लड़ाई की एक कड़ी है।
इस आन्दोलन की सबसे बड़ी ताकत थी मज़दूरों की व्यापक एकजुटता। यह एकजुटता अनेक रूपों में देखने को आयी। आम तौर पर ठेका तथा दिहाड़ी मज़दूर आन्दोलन से अलग-थलग पड़ जाते हैं और उनकी माँगों पर ध्यामन नहीं दिया जाता। लेकिन पिछले छह महीनों से जारी गोरखपुर के आन्दोलन में – चाहे अंकुर उद्योग व वीएन डायर्स की मिलों की लड़ाई हो,या मॉडर्न की दोनों बोरा मिलों की – ठेका और दिहाड़ी मज़दूर बाकी मज़दूरों के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर लड़े और बाकी मज़दूरों ने भी उनकी विशिष्ट माँगों पर पूरा साथ दिया। इसीलिए, उनके बीच फूट डालने की मालिकों की तमाम कोशिशें कामयाब नहीं हो सकीं। पूरे बरगदवां क्षेत्र के मज़दूरों ने इस लड़ाई में शानदार एकजुटता का परिचय दिया। मज़दूर नेताओं की गिरफ्तारी के विरोध में 20 अक्टूबर को पाँच कारखानों – मॉडर्न लेमिनेटर्स, मॉडर्न पैकेजिंग, अंकुर उद्योग, वीएन डायर्स कपड़ा मिल व वीएन डायर्स धागा मिल में पूरी तरह हड़ताल हो गयी और लगभग सारे मज़दूर जुलूस में शामिल हुए। अगले दिन दो और कारखानों – लक्ष्मी साइकिल रिम तथा बर्तन फैक्ट्री – के मज़दूर भी काम बन्द करके कलक्ट्रेट पर पहुँच गये। बरगदवां इलाके के कई और कारख़ानों के मज़दूर भी लगातार आन्दोलन को विभिन्न तरीकों से सहयोग देते रहे। फैक्ट्री गेट पर देर रात होने वाली मीटिंगों में कई कारख़ानों के मज़दूर सैकड़ों की संख्या में जुटते थे। मॉडर्न के मज़दूरों के आन्दोलन के दौरान गेट पर चलने वाले सामूहिक भोजनालय के लिए अंकुर और वीएन डायर्स के मज़दूरों ने ही नहीं, पास के घोसीपुरवा गाँव के लोगों ने भी अनाज, तेल, गोइठा, पैसे आदि इकट्ठा करके पहुँचाये।
इस आन्दोलन की ख़बरें उत्तर प्रदेश के मज़दूरों के बीच दूर-दूर तक फैल गयीं और कई जगह तो मज़दूरों ने केवल इस आन्दोलन से प्रेरित होकर स्वत:स्फूर्त ढंग से अपने हक पाने के लिए लड़ाई छेड़ दी। ‘बिगुल’ के अक्टूबर अंक में हमने रामपुर, चन्दौली के पाँच बोरा कारख़ानों में चले आन्दोलन की रिपोर्ट छापी थी। बनारस के लहरतारा औद्योगिक क्षेत्र,हरिद्वार के सिडकुल औद्योगिक क्षेत्र और इटावा तक इस आन्दोलन का असर गया। जगह-जगह से मज़दूरों ने फोन करके अपनी एकजुटता और समर्थन का भरोसा जताया और मज़दूर नेताओं को अपने यहाँ भी संघर्ष की अगुवाई करने का न्योता दिया।
गोरखपुर के मज़दूर आन्दोलन का एक चरण समाप्त हो गया लेकिन मज़दूरों की व्यापक आबादी अब यह अच्छी तरह समझ चुकी है कि अगर अपने अधिकार पाने हैं तो उन्हें पूरी व्यवस्था के ख़िलाफ एक लम्बी लड़ाई लड़नी होगी। उनके बीच से अब पुलिस-प्रशासन-मालिकान के गुण्डों आदि का ख़ौफ निकल चुका है। यह इस आन्दोलन की बहुत बड़ी उपलब्धि है।
बिगुल, नवम्बर 2009
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