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विश्वव्यापी मन्दी पूँजीवाद की लाइलाज बीमारी का एक लक्षण है!
पूँजीवाद के ख़ात्मे के साथ ही इसका अन्त होगा!
पूरी दुनिया में पूँजीवादी अर्थव्यवस्था को हिलाकर रख देने वाली इस मन्दी की तुलना 1930 के दशक की महामन्दी से ही की जा सकती है। अब अनेक बुर्जुआ अर्थशास्त्री भी कह रहे हैं कि यह पिछली महामन्दी से भी ज़्यादा विकराल साबित होगी। वैसे तो 1970 के दशक से ही विश्व पूँजीवाद मन्दी से पूरी तरह कभी उबर नहीं सका है। 1970 के दशक में शुरू हुई मन्दी लगातार बनी ही रही है। बीच-बीच में मन्दी के भीतर मन्दी का संकट भयंकर रूप में फूट पड़ता रहा है। लेकिन पिछले वर्ष के उत्तरार्द्ध में जो ज़बर्दस्त वित्तीय संकट फट पड़ा उसका असर तमाम बेलआउट पैकेजों के बावजूद फैलता ही जा रहा है। 1973 के तेल संकट और ब्रेट्टन वुड्स समझौते के टूटने के बाद पैदा हुई मन्दी, 1981-82 की मन्दी, 1987 में शेयर बाज़ारों के महाध्वंस, 1990 में ‘एशियाई शेरों’ की अर्थव्यवस्था के बर्बादी के कगार पर पहुँच जाने जैसे बीच के किसी भी भीषण आर्थिक संकट से इस स्थिति की तुलना नहीं की जा सकती। यह 1930 के दशक के बाद की सबसे बड़ी और गहरी महामन्दी है, लेकिन यह पिछली महामन्दी से अलग भी है। यह भूमण्डलीकरण के दौर की मन्दी है जिसका फैलाव वाकई वैश्विक पैमाने पर है। विश्व अर्थव्यवस्था का कोई हिस्सा इसकी मार से बचा नहीं रह सकता। हर पूँजीवादी संकट की तरह इसकी मार भी सबसे अधिक मेहनतकश अवाम के ऊपर पड़ रही है।
‘बिगुल’ के पाठकों के लिए अगले कुछ अंकों में हम इस मन्दी और पूँजीवाद के आम ढाँचागत संकट को समझने में मददगार सामग्री प्रस्तुत करेंगे। इसकी शुरुआत हम इस अंक में स्थिति के एक आम सर्वेक्षण से कर रहे हैं ताकि संकट की व्यापकता का अनुमान लगाया जा सके।
वर्तमान विश्वव्यापी मन्दी और आर्थिक तबाही के बारे में, एकदम सरल और सीधे-सादे ढंग से यदि पूरी बात को समझने की कोशिश की जाये, तो यह कहा जा सकता है कि अन्तहीन मुनाफ़े की अन्धी हवस में बेतहाशा भागती बेलगाम वित्तीय पूँजी अन्ततः बन्द गली की आखि़री दीवार से जा टकरायी है। एकबारगी सब कुछ बिखर गया है। पूँजीवादी वित्त और उत्पादन की दुनिया में अराजकता फैल गयी है। कोई इस विश्वव्यापी मन्दी को “वित्तीय सुनामी” कह रहा है तो कोई “वित्तीय पर्ल हार्बर”, और कोई इसकी तुलना वर्ल्ड ट्रेड टॉवर के ध्वंस से कर रहा है। दरअसल वित्तीय पूँजी का आन्तरिक तर्क काम ही इस प्रकार करता है कि निरुपाय संकट के मुक़ाम पर पहुँचकर वह आत्मघाती आतंकवादी के समान व्यवहार करते हुए विश्व पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की पूरी अट्टालिका में काफ़ी हद तक या पूरी तरह से ध्वंस करने वाला विस्फोट कर देती है।
अक्टूबर 2008 के पहले सप्ताह में अमेरिकी वित्तीय बाज़ार में आयी सुनामी ने जब पूरी दुनिया के वित्तीय तन्त्र को झकझोरकर रख दिया तो दुनियाभर के साम्राज्यवादियों और पूँजीपतियों ने, उसके सिद्धान्तकारों, सलाहकारों और राजनीतिक प्रतिनिधियों ने युद्ध स्तर पर भागदौड़ शुरू कर दी। तबाही का जो ‘चेन रिएक्शन’ शुरू हुआ उसने पूरी दुनिया के शेयर बाज़ारों, निवेश एवं वाणिज्य बैंकों को अपनी चपेट में ले लिया।
वॉल स्ट्रीट में मची खलबली ने पूरी दुनिया की वित्तीय व्यवस्था को झकझोर दिया। पूरी दुनिया के वित्तीय बाज़ार से 60 खरब डॉलर की रकम उड़नछू हो गयी। सितम्बर में ही अमेरिका के पाँच बड़े बैंक धराशायी हो चुके थे। उसके भी पहले, मध्य जुलाई में इण्डी मैक नामक मार्टगेज बैंक धराशायी हो चुका था। तबसे आठ शीर्षस्थ बैंक दिवालिया हो चुके हैं। सिर्फ़ सितम्बर के तीन सप्ताहों में लीमैन ब्रदर्स, मैरिल लिंच और वाशिंगटन म्यूचुअल ग़ायब हो गये तथा फेनी माय और फ्रेडी मैक का नियन्त्रण सरकार ने अपने हाथों में ले लिया। दुनिया की सबसे बड़ी बीमा कम्पनी ए.आई.जी. को बचाने के लिए सरकार को 85 अरब डॉलर का बेलआउट देना पड़ा। महज दस दिनों में 10 खरब डॉलर की परिसम्पत्ति के साथ दुनिया की सबसे बड़ी बीमा कम्पनी, 15 खरब डॉलर की परिसम्पत्ति के साथ दुनिया के दो बड़े निवेश बैंक और 18 खरब डॉलर की सम्पत्ति के साथ अमेरिकी मॉर्टगेज बाज़ार की दो भीमकाय फ़र्में धराशायी हो गयीं।
अमेरिका और यूरोपीय देशों की सरकारें बड़े पूँजीपतियों को बचाने के लिए सैकड़ों अरब डालर की जनता की कमाई बेल आउट पैकेजों के रूप में लुटा चुकी हैं लेकिन अभी कोई असर होता नहीं दिख रहा है। मन्दी की आग दिन-ब-दिन फैलती जा रही है।
[stextbox id=”black” caption=”1929 की महामन्दी और वर्तमान मन्दी में समानताएं”]
1929 की महामन्दी
स्टॉक मार्केट ध्वंस
1932: 1929 के अपने चरम मूल्य के मुकाबले शेयरों में 89 प्रतिशत की भारी गिरावट। 1929 के मूल्य फिर 1954 तक वापस नहीं
बैंक धराशायी
सरकारी सहायता न मिलने पर 1932 में सभी अमेरिकी बैंक धराशायी हो गये
सकल घरेलू उत्पाद
1932 में 50 प्रतिशत की गिरावट
बेरोजगारी
1 करोड़ 30 लाख लोग बेरोजगार हो गये। एक तिहाई आबादी बेहद ग़रीबी में डूब गयी।
फ़र्ज़ी निवेश (सट्टेबाज़ी) फ़ंडों के कारण भारी घाटा
वर्तमान मन्दी
स्टॉक मार्केट ध्वंस
1980 के दशक से एक के बाद एक शेयर बाज़ारों के ध्वंस का सिलसिला
बैंक धराशायी
विश्व भर में बैंकों का धराशायी होना पिछले दशक से ही शुरू हो गया था लेकिन अरबों डालर की सरकारी सहायता देकर उन्हें बचाया गया। इस बार अमेरिका के अनेक सबसे बड़े बैंक और वित्तीय कम्पनियाँ धराशायी हो चुके हैं।
सकल घरेलू उत्पाद
दुनिया की प्रमुख अर्थव्यस्थाएं तेजी से सिकुड़ रही हैं। 1930 के बाद से पहली बार विश्व अर्थव्यवस्था -0.5 प्रतिशत सिकुड़ जाने का अनुमान।
बेरोजगारी
विश्व भर में इस वर्ष 5 करोड़ 10 लाख बेरोज़गार हो जायेंगे। 1 अरब 40 करोड़ आबादी बेहद ग़रीबी में डूब गयी।
फ़र्ज़ी निवेश (सट्टेबाज़ी) फ़ंड
हेज फ़ंडः इन फ़ंडों की कुल परिसंपत्ति 2000 में 491 अरब डालर से बढ़कर 2007 में 1750 अरब डालर हो चुकी थी। जल्दी मुनाफ़े के चक्र में ये फ़ंड ख़तरनाक ढंग से सट़टे का खेल खेलते हैं।
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1930 के दशक की मन्दी 1929 में वॉल स्ट्रीट शेयर बाज़ार के ध्वंस का परिणाम लगती थी, लेकिन उससे तो महज़ शुरुआत हुई थ्री। यह पूँजीवाद की अति-उत्पादन की लाइलाज बीमारी का एक लक्षण भर था। वर्तमान मन्दी की शुरुआत वित्तीय संकट से हुई है लेकिन यह भी पूँजीवाद की उसी लाइलाज बीमारी – अतिउत्पादन के संकट का परिणाम है।
पूँजीवाद हर चीज़ को ख़रीद-फ़रोख़्त की चीज़ बना देता है। वह मज़दूर की श्रमशक्ति को भी माल में बदल देता है। पूँजीपति मज़दूर को उसकी श्रमशक्ति के मूल्य के बराबर मज़दूरी देता है और उस मूल्य से ज़्यादा मज़दूर का श्रम जो कुछ भी पैदा करता है, उसे हड़प लेता है। मज़दूर से निचोड़े गये इस अतिरिक्त मूल्य को ही वह पूँजी में बदलकर उसका निवेश करता है और फिर मज़दूर को और अधिक निचोड़ता है। जितना अधिक निचोड़ा जाता है उतना ही पूँजी संचय होता है और जितना अधिक पूँजी संचय होता है, उतना ही अधिक निचोड़ा जाता है। पूँजी संचय का यह निरपेक्ष और सामान्य नियम है कि समाज के एक छोर पर सम्पत्ति का संचय होता है और दूसरे छोर पर ग़रीबी का संचय। राष्ट्रीय आय में मज़दूरी का हिस्सा घटते जाने और पूँजीपतियों द्वारा लूटे गये अतिरिक्त मूल्य का हिस्सा बढ़ते जाने के साथ ही सर्वहारा वर्ग की सापेक्षिक ग़रीबी बढ़ती जाती है और साथ ही श्रम दशाओं और जीवनदशाओं में लगातार गिरावट उसे निरपेक्ष दरिद्रता की स्थिति में धकेलती जाती है। ज़्यादा मुनाफ़ा निचोड़ने के लिए पूँजीपति एक ओर तो काम के घण्टों को बढ़ाकर मज़दूर को उजरती ग़ुलाम बना देते हैं, दूसरी ओर उन्नत मशीनें लगाकर मज़दूरों की बड़ी आबादी की छँटनी करके कम मज़दूरों से उतनी ही या उससे भी कम पगार देकर ज़्यादा उत्पादन करते हैं, क्योंकि श्रम बाज़ार में मज़दूरों की बहुलता के चलते श्रमशक्ति का मोल घट गया रहता है। समस्या यह पैदा हो जाती है कि मुनाफ़ा कूटने की अन्धी हवस में पूँजीपति अराजक ढंग से ज़्यादा से ज़्यादा माल पैदा करते हुए सर्वहारा सहित सभी आम उत्पादकों को कंगाल करके उनकी क्रयशक्ति कम करते चले जाते हैं। क्रयशक्ति के सापेक्ष सामाजिक उत्पादन की अधिकता हो जाती है। गोदामों-दुकानों में माल अँटे पड़े रह जाते हैं और लोग उन्हें ख़रीद नहीं पाते। अतिरिक्त मूल्य पूँजीपति के पास नहीं आ पाता है। मन्दी छा जाती है। उत्पादन रुकने लगता है। पूँजी नष्ट होने लगती है।
पूँजीवाद के अन्तर्गत अलग-अलग कारख़ानों में तो उत्पादन संगठित रहता है, लेकिन सामाजिक उत्पादन में अराजकता व्याप्त रहती है। जिस क्षेत्र में मुनाफ़ा अधिक होता है, पूँजीपति आपस में होड़ करते हुए उधर भाग निकलते हैं और उतना पैदा कर देते हैं, जितने के ख़रीदार नहीं होते। व्यापारिक गतिविधियाँ भी बनावटी माँग पैदा करके समाज की वास्तविक क्रयशक्ति को छुपाती हैं। जब तक बाज़ार में दाम चढ़ते रहते हैं, व्यापारी उद्योगपतियों को माल का ऑर्डर देते रहते हैं और बैंकर उन दोनों को ऋण मुहैया कराते रहते हैं। इस प्रकार बाज़ार में एक कृत्रिम समृद्धि बनी रहती है जो सापेक्षिक अतिउत्पादन पर पर्दा डालने का काम करती है। जब यह पर्दा हटता है तो मन्दी और आर्थिक संकट का दौर सामने होता है। कई उपादान होते हैं जो कृत्रिम समृद्धि के इस पर्दे को ज़्यादा से ज़्यादा लम्बे समय तक बनाये रखते हैं और यह समय जितना ही लम्बा होता है, पर्दा उतरने के बाद की असलियत भी उतनी ही अधिक भयावह होती है। जैसे, सूद से मुनाफ़ा कमाने वाली बैंकिंग पूँजी विशेषकर मध्यवर्गीय उपभोक्ताओं को कारख़ानों में उत्पादित माल ख़रीदने के लिए तरह-तरह के आकर्षक ऋण-पैकेज देती हैं। तमाम बैंक ज़्यादा से ज़्यादा उपभोक्ताओं को लुभाने के लिए ज़्यादा से ज़्यादा लुभावनी शर्तों पर ऋण देने के लिए लुभाते हैं। फिर उनकी यही तिकड़म तब आत्मघाती सिद्ध होती है जब क्षमता से अधिक ले चुके लोग क़र्ज़ लौटा नहीं पाते, फलतः बैंक डूबने लगते हैं, वित्त बाज़ार में मन्दी आ जाती है, जो वास्तविक उत्पादन के क्षेत्र में गिरावट और मन्दी को और अधिक गम्भीर बना देती है। यही चीज़ अधिक वित्तीय जटिलताओं के साथ हाल के उस अमेरिकी सबप्राइम संकट के रूप में घटित हुई, जिससे वर्तमान विश्वव्यापी मन्दी की शुरुआत हुई।
उन्नीसवीं शताब्दी से ही पूँजीवाद एक कुण्डलाकार रास्ते से होकर, संकट-मन्दी के दौर, उबरने के दौर, और फिर तेजी के दौर के चक्रों से गुज़रता रहता था। फ्रेडरिक एंगेल्स ने इसका वर्णन इस प्रकार किया था: “रफ़्तार तेज़ हो जाती है; धीमे क़दम तेज़ क़दमों में बदल जाते हैं। औद्योगिक तेज क़दम दौड़ते तेज क़दमों में बदल जाते हैं। दौड़ते क़दम उद्योग, वाणिज्य, क्रेडिट और सट्टाबाज़ारी गतिविधियों की लंगड़ी दौड़ में फर्राटा बन जाते हैं। अन्त में, कई अन्तिम, बदहवास छलांगों के बाद यह ध्वंस के रसातल में गिर पड़ते हैं।” पूँजीवाद संकट और मन्दी, उससे उबरने, और फिर तेज़ी के चक्रों से लगातार गुज़रता रहा है। लेकिन हर अगली बार संकट पहले से अधिक गम्भीर होकर आता रहा है। संकट के दो चक्रों के बीच का अन्तराल प्रायः कम होता जाता रहा है और यदि कभी ऐसा नहीं होता रहा है तो अगली बार संकट अधिक भीषण रूप में सामने आता रहा है। इस प्रक्रिया में एक नया मुक़ाम था 1930 के दशक की महामन्दी और आर्थिक महाध्वंस, और वृद्धावस्था के असाध्य, अन्तकारी रोग जैसी नयी परिघटना सामने आयी 1970 के दशक से लगातार जारी दीर्घकालिक आर्थिक संकट के रूप में। 1973-74 के बाद से ही स्थिति यह है कि रोगी की तबीयत बीच-बीच में कुछ सँभलती है, कुछ राहत एवं उम्मीदों के आसार नज़र आते हैं और फिर रोगी नीमबेहोशी में चला जाता है। यानी आवर्ती चक्रीय क्रम में आने वाले संकट के दौरों के बाद ढाँचागत संकट का एक ऐसा दीर्घकालिक दौर शुरू हुआ है, जिसके बीच-बीच में राहत और सापेक्षिक तेज़ी की कुछ अल्पकालिक तरंगें उठती रही हैं और अब सितम्बर-अक्टूबर, 2008 में, लगभग दो वर्षों तक सबप्राइम संकट की मौजूदगी के बाद अमेरिका में वित्तीय ध्वंस के साथ ही विश्व वित्तीय तन्त्र के धराशायी होने और वास्तविक अर्थव्यवस्था में ठहराव और विघटन-संकुचन का जो सिलसिला एक नयी विश्वव्यापी मन्दी के रूप में सामने आया है, उसने पूरी पूँजीवादी दुनिया में हड़कम्प मचा दिया है।
पूँजीवाद के पास इस संकट का कोई समाधान नहीं है। मौजूदा विश्वव्यापी वित्तीय संकट ने सर्वहारा क्रान्ति के विज्ञान को एक बार फिर सही साबित किया है। एक बार फिर यह सिद्ध हो गया है कि साम्राज्यवाद के आगे पूँजीवाद की कोई और अवस्था नहीं है और ऐतिहासिक कारणों से साम्राज्यवाद की आयु भले ही कुछ लम्बी हो गयी हो, लेकिन अब एक सामाजिक-आर्थिक संरचना और विश्व-व्यवस्था के रूप में पूँजीवाद के दीर्घजीवी होने की सम्भावना निश्शेष हो चुकी है।
‘बिगुल’ के आगामी अंकों में हम सिलसिलेवार वर्तमान मन्दी के कारणों और इसके नतीजों का लेखा-जोखा पेश करेंगे।
बिगुल, फरवरी 2009
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