दलितवादी राजनीति की त्रासदी: खोखला प्रतीकवाद और रस्मवाद
दलित मुक्ति का रास्ता मज़दूर इंक़लाब से होकर जाता है, पहचान की खोखली राजनीति से नहीं!

शिशिर

बीते 11 मई को संसद में तूफ़ान आ गया था। अचानक पूरी की पूरी पूँजीवादी संसद एकजुट हो गयी थी! समझ में यह नहीं आ रहा था कि ये सारे अपराधी, भ्रष्टाचारी और मुनाफ़ाख़ोर किस दानवी ताक़त के ख़िलाफ़ एकाएक एकजुट हो गये हैं! यह तूफ़ान इस मुद्दे पर नहीं था कि देश में रोज़ हज़ारों ग़रीब मेहनतकशों के बच्चे भूख और कुपोषण से मर जाते हैं; यह ज़लज़ला इसलिए भी नहीं आया था कि हमारे देश में आरक्षण के लगभग साढ़े छह दशक बाद भी पूरी दलित आबादी का 95 फ़ीसदी से भी ज्‍़यादा खेतों या कारख़ानों में 12-14 घण्टे हाड़तोड़ मेहनत करने और साथ ही सवर्णों के हाथों रोज़-ब-रोज़ अपमान और ज़िल्लत झेलने को मजबूर है; न ही यह उथल-पुथल इसलिए मची थी कि देश के 54 करोड़ खेतिहर और औद्योगिक सर्वहारा (जिनका अच्छा-ख़ासा हिस्सा दलित और पिछड़ी जातियों से आता है) जीवन की बुनियादी ज़रूरतों से भी महरूम हैं! जी नहीं! यह तूफ़ान इन मुद्दों पर नहीं था! यह तूफ़ान आया था बारहवीं कक्षा के छात्रों की राजनीतिशास्त्र की पाठ्यपुस्तक में छपे एक कार्टून पर जिसमें संविधान बनाने की धीमी रफ्तार पर व्यंग्य किया गया था। इस कार्टून में अम्बेडकर को संविधान-रूपी घोंघे पर बैठा दिखाया गया है, और उसके पीछे जवाहरलाल नेहरू हाथ में चाबुक लिये खड़े हैं! यह किताब 2006 से ही पाठयक्रम में थी और इसे मौजूदा सरकार के पहले कार्यकाल में सरकारी समिति द्वारा पास किया गया था। पिछले पाँच वर्षों में इस किताब पर कोई भी सवाल नहीं उठा। लेकिन 2012 में मायावती ने संसद में इस कार्टून पर सवाल उठाया और कहा कि इसमें अम्बेडकर का अपमान किया गया है। तुरन्त ही दलितों के हितों की नुमाइन्दगी का दावा करने वाले सारे चुनावी और ग़ैर-चुनावी मदारी मैदान में कूद पड़े। महाराष्ट्र के रामदास आठवले (जो कि फिलहाल शिवसेना और भाजपा की गोद में बैठे हुए हैं!), थोर तिरुमावलावन (जो कि तमिलनाडु के दलित पैंथर्स के नेता हैं, और चुनावी फ़ायदे के अनुसार कभी इस तो कभी उस चुनावी पार्टी की गोद में बैठने की क़वायद में व्यस्त रहते हैं), और रामविलास पासवान तक, सभी इस कार्टून पर हल्ला मचाने के कोरस में शामिल हो गये। सरकार तुरन्त बचाव की मुद्रा में आ गयी और उसने इस पूरे मुद्दे पर तत्काल कार्रवाई करने का वायदा किया। अचानक सारे के सारे सांसद इस पर साथ हो गये और तीन दिनों बाद ही इस पाठ्यपुस्तक को हटाने, इसे तैयार करने वाले लोगों पर कार्रवाई करने या उनका इस्तीफा लेने का प्रस्ताव पास हो गया। बाद में एक समिति भी बना दी गयी जो सभी पाठयपुस्तकों का मूल्यांकन करने वाली थी। 3 जुलाई को इस समिति ने अपनी सिफ़ारिश दे दी कि सभी पाठ्यपुस्तकों से देश के राजनेताओं और पार्टियों पर टिप्पणी करने वाले सारे कार्टून हटा दिये जायें, क्योंकि भारत एक विविधतापूर्ण देश है और ऐसे किसी भी कार्टून से किसी न किसी समुदाय की ”भावनाओं को ठेस” पहुँच सकती है!

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अम्बेडकर के कार्टून पर शुरू हुए विवाद पर सभी राजनीतिक पार्टियों ने एकस्वर में विरोध किया और इसे दलित अस्मिता का अपमान बताया। अम्बेडकर की कोई भी आलोचना नहीं की जा सकती। यदि कोई क्रान्तिकारी परिप्रेक्ष्य से अम्बेडकर की राजनीतिक परियोजना की सीमाओं और अन्तरविरोधों की तरफ ध्यान आकर्षित करता है, तो दलितवादी बुद्धिजीवी और संगठन और साथ ही दलित आबादी को तुष्टिकरण और विचारधारात्मक आत्मसमर्पण के ज़रिये जीतने का सपना पालने वाले ”क्रान्तिकारी” कम्युनिस्ट भी उस पर टूट पड़ते हैं और आनन-फानन में उसे दलित-विरोधी, सवर्णवादी आदि घोषित कर दिया जाता है! संसद में बैठने वाले चुनावी भाँड़ों ने भी बिल्कुल वैसा ही बर्ताव किया है, हालाँकि यहाँ पर जिस कार्टून में अम्बेडकर पर टिप्पणी की गयी थी, वह कोई क्रान्तिकारी, व्यवस्था-विरोधी या आमूलवादी कार्टून नहीं था। लेकिन यही मौक़ा था जब हर कोई अपने आपको सबसे बड़ा दलित-हितैषी दिखाने की होड़ में कूद पड़ा। वैसे भी मायावती और बसपा के सामने उत्तर प्रदेश चुनावों की हार ने एक संकट पैदा कर दिया था। 2014 में होने वाले आम चुनावों में बसपा का सितारा फिर से बुलन्द हो सके इसके लिए मायावती कुछ भी करने को तैयार दिख रही हैं। बसपा की अभी जो हालत है, उसमें डूबते को तिनके का सहारा वाला तर्क भी काम कर रहा है।

अम्बेडकर कार्टून विवाद ने मायावती को और साथ ही अस्तित्व का संकट झेल रहे अन्य दलितवादी अस्मितावादी संगठनों को एक मुद्दा दे दिया। अम्बेडकर की राजनीति और विचारधारा की मज़दूर वर्ग के नज़रिये से एक पूरी आलोचना रखी जा सकती है, और जिसके लिए अलग विस्तृत चर्चा और स्पेस की ज़रूरत होगी। लेकिन इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि अपने तमाम संवैधानिकतावाद, रैडिकल सुधारवाद, बुर्जुआ मानवतावादी सुधारवाद के बावजूद अम्बेडकर नये-नये बुतों के निर्माण के समर्थक नहीं थे। अम्बेडकर कोई क्रान्तिकारी राजनीतिज्ञ और दार्शनिक नहीं थे। उनका मक़सद बुर्जुआ व्यवस्था के भीतर ही संवैधानिक तौर-तरीक़ों से दलितों के लिए बेहतर से बेहतर अधिकार हासिल करना था। अम्बेडकर ने यह ज़रूर कहा था कि जब तक सामाजिक और आर्थिक तौर पर दलितों को जनवादी अधिकार नहीं मिलेंगे, बराबरी नहीं मिलेगी तब तक राजनीतिक जनवाद का उनके लिए कोई विशेष अर्थ नहीं होगा। लेकिन यह भी सच है कि अम्बेडकर के पास दलितों की सामाजिक और आर्थिक मुक्ति की कोई परियोजना नहीं थी। लेकिन अपनी इन सभी सीमाओं के बावजूद अम्बेडकर में अमेरिकी बुर्जुआ उदारवाद का इतना तत्व ज़रूर था कि वह कम से कम वैचारिक तौर पर किसी भी व्यक्ति, संगठन या विचारधारा को इतना ”पवित्र” नहीं मानते थे कि वह आलोचना से परे हो। लेकिन आज अम्बेडकर के साथ ठीक यही हुआ है – अम्बेडकर और उनसे जुड़ी किसी भी चीज़ को इतना पुण्य-पवित्र बना दिया गया है, जितना कि धार्मिक प्रतीकों को हिन्दूवादियों ने बनाया है। और अगर कोई उन पर सवाल खड़ा करता है या आलोचना करता है, तो उसे उसी तरह के हमलों का निशाना बनाया जाता है जिस तरह के हमले फासीवादी हिन्दुत्वादी अपने दुश्मनों पर करते हैं। इसी का उदाहरण रिपब्लिकन पैंथर्स के सदस्यों ने इस कार्टून विवाद के बाद पेश किया जब उन्होंने इस पाठ्यपुस्तक को तैयार करने के लिए ज़िम्मेदार एक बुद्धिजीवी और शिक्षाविद् सुहास पल्शीकर पर हमला किया। स्पष्ट है कि हिन्दुत्ववादी फासीवादी कट्टरपन्थ के जवाब में एक अम्बेडकरवादी ग़ैर-जनवादी कट्टरपन्थ का जन्म हुआ है। कोई भी विवेकवान राजनीतिक व्यक्ति एक क़िस्म के सर्वसत्तावाद और प्रतिक्रियावाद के जवाब में दूसरे क़िस्म के सर्वसत्तावाद और प्रतिक्रियावाद को नहीं चुनेगा। यह विवेक की ज़ुबान पर ताला लगाने के समान है, हालाँकि इससे विचार कभी ख़त्म नहीं होते। मज़दूर वर्ग का नज़रिया निश्चित तौर पर अम्बेडकर या किसी भी व्यक्ति या संगठन को बुत बनाने और फिर उसकी बुतपरस्ती करने का नहीं हो सकता और वह ऐसे किसी भी क़दम का विरोध करता है।

जिस दौर में अम्बेडकर कार्टून विवाद मीडिया में छाया हुआ था और सारे अस्मितावादी दलित राजनीति करने वाले मदारी उछल-कूद मचा रहे थे, उसी समय पटना हाई कोर्ट की एक बेंच ने बथानी टोला नरसंहार के सभी आरोपियों को दोषमुक्त कर दिया। ज्ञात हो कि इस जघन्य नरसंहार में बिहार के उच्च जातियों के ग़ैर-क़ानूनी सशस्त्र गिरोह रणवीर सेना ने 21 निर्दोष दलितों की हत्या कर दी थी। हाई कोर्ट ने उन सभी 23 लोगों को बरी कर दिया जिन्होंने इस हत्याकाण्ड को अंजाम दिया था। कोर्ट ने सभी चश्मदीद गवाहों की गवाही को यह कह कर नकार दिया कि वे उस समय मौक़े पर हो ही नहीं सकते थे, क्योंकि अगर वे होते तो वे भी मार दिये गये होते! ऐसे हास्यास्पद तर्क को देते हुए पटना हाई कोर्ट ने सभी हत्यारों को छोड़ दिया। लेकिन ग़रीब दलित मज़दूरों के हत्यारों को छोड़े जाने पर किसी भी दलितवादी नेता, पार्टी, या संगठन ने कोई शोर नहीं मचाया। नीतीश कुमार सरकार ने यह कहकर अपनी रस्म निभा दी कि सरकार इस निर्णय को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती देगी। कुछ पार्टियों के नेताओं ने इस पर हल्के शब्दों में ”निराशा” ज़ाहिर करके पल्ला झाड़ लिया। लेकिन मुख्य तौर पर पूरे बुर्जुआ राजनीतिक दायरों में इस निर्णय को लेकर सन्नाटा बना रहा। कारण साफ़ था – कोई भी पार्टी बिहार में सवर्ण और अगड़ों के बीच मौजूद अपने वोट बैंक को नहीं छेड़ना चाहती थी। चुनावी गणित के अनुसार इस निर्णय पर या तो चुप्पी साधना बेहतर था, या फिर हल्के शब्दों में कुछ रस्मी वाक्य ख़र्च कर देना। और यही हुआ। दलित हितैषी होने का दावा करने वाले तमाम संसदीय और ग़ैर-संसदीय अम्बेडकरवादी संगठनों ने भी इस पर कोई तीख़ी प्रतिक्रिया, अभियान, विरोध-प्रदर्शन या आन्दोलन का रास्ता अख्तियार करना तो दूर, रस्म अदायगी भी ठीक से नहीं की। यही हाल अन्य सभी दलित विरोधी अपराधों पर होता है। चाहे आन्ध्र प्रदेश के करमचेदु केस की बात करें, या फिर खैरलांजी और लक्ष्मणपुर बाथे काण्ड की। हर जगह या तो न्याय नहीं मिला या फिर अधूरा न्याय मिला। लेकिन ये तमाम मसले अम्बेडकरवादी राजनीति और दलित अस्मिता की राजनीति करने वाले संगठनों (संसदीय और ग़ैर-संसदीय) के लिए उतने अहम नहीं थे। लेकिन अम्बेडकर के एक कार्टून पर सभी शोरग़ुल मचाने में एक-दूसरे को पीछे छोड़ने पर अमादा थे। ठीक उसी तरह से सारा हंगामा किया गया जैसे कि हाल ही में मुहम्मद और ईसा के कार्टूनों पर और रामानुजन के निबन्ध पर अलग-अलग धार्मिक कट्टरपन्थियों ने हल्ला मचाया था। या फिर एक फिल्म में प्रेमिका से प्रेम करते समय सरदार नायक के पगड़ी पहने रहने पर सिख धार्मिक कट्टरपन्थियों ने हुल्लड़ किया था। ऐसे में समझ में नहीं आता कि उन्मादी, कट्टरपन्थी ”दलितवादी”, अम्बेडकरवादी संगठनों और धार्मिक फासीवादी कट्टरपन्थी संगठनों में कैसे फ़र्क़ किया जाये?

इस पूरी स्थिति से क्या नतीजे निकलते हैं? पहला नतीजा यह है कि पहचान की राजनीति करने वाले तमाम दलितवादी संगठनों और अम्बेडकरवादी संगठनों के पास वास्तविक दलित मुद्दों पर संघर्ष करने के लिए वक़्त नहीं है और न ही उनका ऐसा कोई इरादा है। उनका पूरा वक़्त, ध्यान और ऊर्जा अम्बेडकर की मूर्ति, चित्र, कार्टून आदि के मसलों पर ख़र्च हो जाता है, और जो बचता है वह आरक्षण के नाम पर फेंके जा रहे छोटे-से टुकड़े के लिए शोर मचाने में ख़र्च हो जाता है। जबकि आरक्षण के पिछले छह दशकों के अनुभव ने दिखला दिया है कि इससे दलितों को कुछ ख़ास हासिल नहीं होने वाला है। अगर आरक्षण की माँग कोई मध्यवर्ती जनवादी माँग भी बन पाती जो कि क्रान्तिकारी परियोजना को आगे बढ़ाने में कहीं मददगार होती, या इसका आंशिक तौर पर सुधार करने वाला भी कोई चरित्र होता तो इसका समर्थन किया जा सकता था। लेकिन अगर इतने वर्ष बीतने के बाद पूरी दलित आबादी में से महज़ तीन से चार फ़ीसदी आबादी को नौकरियाँ मिली हैं, तो सोचने की बात है कि आरक्षण को और कितने वर्षों तक जारी रखना होगा ताकि सभी दलितों को बेहतर जीवन और आजीविका मिल सके? दूसरी बात, अब आरक्षण का लाभ ऊपर की उसी तीन-चार प्रतिशत दलित आबादी को मिलता है। जो पहले से नौकरियाँ पा चुके हैं उन्हीं के बेटे-बेटियों को आरक्षण का लाभ मिलता रहता है और वही सबसे ज़ोर से इसके बारे में चिल्लाते हैं। अगर दलितों की ग़रीब और निम्न मध्यमवर्गीय आबादी की बात करें तो उसे इस आरक्षण से कुछ भी हासिल नहीं होता। निश्चित तौर पर, जो लोग सवर्ण पूर्वाग्रह से आरक्षण का विरोध करते हैं और योग्यता का तर्क देते हैं, उनके ख़िलाफ़ भी उतने ही तर्क प्रस्तुत किये जा सकते हैं। लेकिन दोनों प्रकार के तर्कों से एक ही बात सिद्ध होती है – आरक्षण का मुद्दा एक ग़ैर-मुद्दा है, जिसे शासक वर्ग ने जानबूझकर एक मुद्दा बना रखा है। और इसमें वह काफ़ी कामयाब है क्योंकि न सिर्फ़ दलित पहचान की राजनीति करने वाले संगठन इस मुद्दे पर ख़र्च हो जाते हैं बल्कि अधिकांश क्रान्तिकारी वामपन्थी संगठन भी दलित आबादी को तुष्टिकरण के ज़रिये अपनी ओर खींचने के प्रलोभन में इस ग़ैर-मुद्दे पर होने वाले ध्रुवीकरण के शिकार हो जाते हैं। कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि दलित अस्मिता की राजनीति करने वाले तमाम क़िस्म के संगठनों की सारी ताक़त और समय अम्बेडकर के प्रतीकों और बुतों की पूजा, रक्षण और संरक्षण और आरक्षण के ग़ैर-मुद्दे पर क़वायद करने में ही ख़र्च हो जाता है।

लेकिन इस पूरी खोखली प्रतीकवादी राजनीति का चरित्र दलित मज़दूर वर्ग के सामने आज के समय में बिल्कुल साफ़ हो जाना चाहिए क्योंकि दलित मज़दूरों के नरसंहार, उत्पीड़न, उनकी आजीविका से जुड़े ठोस बुनियादी मसले उनके लिए या तो मुद्दे ही नहीं हैं, या फिर महज़ रस्म-अदायगी के मुद्दे हैं। वास्तव में, इसका कारण आज दलित अस्मिता की राजनीति करने वाले अम्बेडकरवादी संगठनों के वर्ग चरित्र में निहित है। ये संगठन अधिकांशत: शहरी मध्यवर्गीय दलितों के संगठन हैं। ये उन्हीं की नुमाइन्दगी करते हैं। आरक्षण के ज़रिये रोज़गार और शिक्षा के आकाशकुसुम की अभिलाषा में शहरी निम्न मधयवर्गीय और ग़रीब दलितों का एक हिस्सा भी इनके पीछे चलता रहता है। लेकिन वास्तव में ये उनके हितों की नुमाइन्दगी नहीं करते। ये तमाम प्रतीकवादी मसलों पर और आरक्षण के मुद्दे पर लड़ते हैं। इन दोनों का ही लाभ वास्तव में ऊपर के 4-5 प्रतिशत शहरी खाते-पीते दलितों को ही मिलना है जिनके वर्ग हित आज बहुसंख्यक दलित मेहनतकश आबादी से न सिर्फ़ पूरी तरह अलग हो चुके हैं, बल्कि उसके विरोध में खड़े हैं। वे सभी दलितों के हितों की बात ज़रूर करते हैं, लेकिन उनका लक्ष्य अपने वर्ग की सेवा करना है। इसलिए दलित मेहनतकश आबादी को समझना होगा कि दलित पहचान की राजनीति करने वाले संगठनों की राजनीति की असलियत क्या है, चाहे वे बसपा, लोक जनशक्ति पार्टी जैसी चुनावी पार्टियाँ हों, या फिर रिपब्लिकन पैंथर्स जैसे ग़ैर-संसदीय संगठन। यहाँ ईमानदारी और बेईमानी की बात करना बेकार है। असली चीज़ वर्ग चरित्र है और उसी के आधार पर दलित पहचान की राजनीति करने वाले सभी संगठनों की जाँच की जानी चाहिए। और अगर हम इन संगठनों के काडर, नीतियों और नेतृत्व के चरित्र का वर्ग विश्लेषण करते हैं तो तुरन्त ही इनकी असलियत साफ हो जाती है।

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आज देश की मज़दूर आबादी का क़रीब 40 प्रतिशत हिस्सा दलित जातियों से आता है। ये हिस्सा मज़दूर वर्ग का भी सबसे ग़रीब, दमित और उत्पीड़ित हिस्सा है। यही कारण है कि मौजूदा सत्ता-व्यवस्था के ख़िलाफ इसमें सबसे भयंकर ग़ुस्सा है। इस आबादी को संगठित करने की आज क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट आन्दोलन को ज़रूरत है, लेकिन जाति के जुमले पर नहीं बल्कि वर्ग के मुद्दे पर। यह आबादी ही दलित उत्पीड़न के सबसे नग्न, घृणित और जुगुप्सित रूपों का शिकार है। नरसंहारों में शहरी दलित उच्च मधयवर्ग नहीं मरता है, ग़रीब मेहनतकश दलित मरते हैं। इस दलित उत्पीड़न का एक वर्ग चरित्र भी है। इसे समझे बग़ैर इस दलित उत्पीड़न का कारगर विरोध नहीं हो सकता है। ग़रीब दलित आबादी पूँजीवादी राजसत्ता के दोनों क़िस्म के शोषण और उत्पीड़न का शिकार है – आर्थिक और साथ ही जातिगत। यही वह हिस्सा है जो संगठित होकर रैडिकल तरीक़े से दलित मुक्ति के साथ लड़ सकता है। यही वह हिस्सा है जिसे सर्वहारा क्रान्ति की परियोजना पर जोड़ने और गोलबन्द-संगठित करने की ज़रूरत है। यही वह हिस्सा है जो अपने जीवन के अनुभव से वर्ग के यथार्थ को समझता है और जानता है कि उसके दर्द और शहरी उच्च मध्यवर्गीय दलित के दर्द में ज़मीन-आसमान का फ़र्क़ है और वास्तव में सामाजिक पदानुक्रम में ऊपर बैठे इस वर्ग का उसके साथ कुछ भी साझा नहीं है, सिवाय खोखले जुमलों और प्रतीकवाद के। और दलित मज़दूर के बीच इन खोखले जुमलों और प्रतीकवाद के ख़िलाफ, अस्मितावादी राजनीति के ख़िलाफ सतत्, सघन और व्यापक प्रचार चलाया जाना चाहिए। वर्ग परिप्रेक्ष्य पर खड़े होकर ही दलित प्रश्न का समाधान सम्भव है। वर्ग-निरपेक्ष नज़रिये से दलित प्रश्न को देखना अन्तत: प्रतीकवाद की तरफ ले जाता है और वास्तव में दलितों से उनकी मुक्ति का उपकरण और अभिकरण छीन लेता है। दलित प्रश्न के स्वायत्त चरित्र को समझते हुए भी यदि कोई इस समस्या के समाधान की बात करता है, तो अन्तत: उसे इस पूरे प्रश्न को भी वर्ग दृष्टिकोण से देखना होगा। दलित मुक्ति की पूरी ऐतिहासिक परियोजना वास्तव में मज़दूर वर्ग की मुक्ति और फिर पूरी मानवता की मुक्ति की कम्युनिस्ट परियोजना के साथ ही मुकाम तक पहुँच सकती है। जिस समाज में आर्थिक समानता मौजूद नहीं होगी, उसमें सामाजिक और राजनीतिक समानता की सारी बातें अन्त में व्यर्थ ही सिद्ध होंगी। एक आर्थिक और राजनीतिक रूप से न्यायसंगत व्यवस्था ही सामाजिक न्याय के प्रश्न को हल कर सकती है। हमें अगड़ों-पिछड़ों की, दलित-सवर्ण की और ऊँचे-नीचे की समानता या समान अवसर की बात नहीं करनी होगी; हमें इन बँटवारों को ही हमेशा के लिए ख़त्म करने के लक्ष्य पर काम करना होगा। यह लक्ष्य सिर्फ़ एक रास्ते से ही हासिल किया जा सकता है  मज़दूर इंकलाब के ज़रिये समाजवादी व्यवस्था और मज़दूर सत्ता की स्थापना के रास्ते। जिस दलित आबादी का 97 फ़ीसदी आज भी खेतिहर, शहरी औद्योगिक मज़दूर है वह मज़दूर क्रान्ति से ही मुक्त हो सकता है। इसे सरल और सहज तर्क से समझा जा सकता है, किसी गूढ़, जटिल दार्शनिक या राजनीतिक शब्दजाल की ज़रूरत नहीं है। आज पूरी दलित अस्मितावादी राजनीति पूँजीवादी व्यवस्था की ही सेवा करती है। ग़ैर-मुद्दों, प्रतीकवाद और रस्मवाद पर केन्द्रित अम्बेडकरवादी राजनीति आज कोई वास्तविक हक़ दिला ही नहीं सकती है क्योंकि यह वास्तविक ठोस मुद्दे उठाती ही नहीं है। उल्टे यह मज़दूर आबादी की एकता स्थापित करने की प्रक्रिया को कमज़ोर करती है और इस रूप में श्रम की ताक़त को कमज़ोर बनाती है और पूँजी की ताक़त को मज़बूत। इस राजनीति को हर क़दम पर बेनकाब करने की ज़रूरत है और दलित मुक्ति की एक ठोस, वैज्ञानिक, वास्तविक और वैज्ञानिक परियोजना पेश करने की ज़रूरत है।

 

मज़दूर बिगुल, जुलाई 2012
 


 

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