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पेट्रोल मूल्य वृद्धि लोगों की जेब पर सरकारी डाकेज़नी
अजय स्वामी
22 मई को यूपीए-2 के तीन वर्ष पूरे होने पर एक जश्न मनाया गया । इसमें यूपीए-2 की उपलब्धियों के कसीदे पढ़े गये। इस मौके पर यूपीए अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने कांग्रेसजनों को भाषण पिलाते हुए कहा कि हमें विपक्ष पर आक्रामक तेवर अपनाते हुए अपनी उपलब्धियों की चर्चा करनी चाहिए। लेकिन कांग्रेसियों के आक्रामक तेवर अपनाने से पहले ही उनको बचाव की मुद्रा में आना पड़ा क्योंकि तेल कम्पनियों ने पेट्रोल के दाम में रिकार्डतोड़ 7.50 रुपये की वृद्धि कर महँगाई से बदहाल जनता पर और बोझ बढ़ा दिया। यूपीए-2 के राज में पेट्रोल की कीमत 40 रुपये से 73 रुपये तक पहुँच गयी है यानी दोगुने से कुछ ही कम। वैसे सरकार इस मूल्य वृद्धि से पल्ला झाड़ते हुए तर्क दे रही है कि 26 जून 2011 (पेट्रोल के नियंत्रण मुक्त होने के बाद) से तेल कम्पनियाँ ख़ुद ही पेट्रोल के दाम में बढ़ोत्तरी तय करती हैं। तकनीकी तौर से ये तर्क चल सकता है। लेकिन आज से पाँच महीने पहले अन्तरराष्ट्रीय बाजार में तेल के दाम ऊँचे हो गये थे और कम्पनियों ने तेल के दाम नहीं बढ़ाये थे। कारण साफ था — तब पाँच राज्यों में विधानसभा चुनाव थे और अब मूल्य वृद्धि की घोषणा भी तब की गयी जब संसद सत्र ख़त्म हो गया था और यूपीए तीन वर्ष पूरे होने का जश्न मना चुकी थी। तेल की यह राजनीति साफ तौर पर दिखाती है कि सरकार अपने राजनीतिक फायदे- नुकसान के हिसाब से तेल कम्पनियों को हरी झण्डी दिखाती है। चलिये सरकार की झूठी दलीलों के बाद तेल कम्पनियों के घाटे की असलियत का पर्दापफाश करते हैं।
सरकार और तेल कम्पनियों के घाटे की असलियत
सरकार और तेल कम्पनियाँ पेट्रोल के दाम बढाने के लिए हमेशा झूठ के पहाड़ खड़े करती हैं। इस बार भी पेट्रोल के दामों में रिकॉर्ड बढ़ोतरी के बाद तेल कम्पनियाँ मुख्यत: दो तर्क दे रही हैं। पहला तर्क है कि तेल कम्पनियों को डीज़ल, गैस और किरासन पर सरकारी नियंत्रण होने की वजह से घाटा हो रहा है जो करीब 1.86 लाख करोड़ का है; और दूसरा तर्क है डॉलर के मुकाबले रुपये के मूल्य में आयी गिरावट से तेल का आयात महँगा हो गया है। लेकिन इन दोनों ही तर्कों का गणित बड़ा पेचीदा और अटपटा है।
पहले तर्क को देखें तो सरकार और तेल कम्पनियाँ जिस घाटे का रोना रो रही है वह घाटा तेल कम्पनियों की बैलेंस शीट में कहीं नहीं दिखता! तेल कम्पनियों के शुद्ध मुनाफे की बात की जाये तो 2011 की वार्षिक रिपोर्ट के मुताबिक इण्डियन आयल को 7445 करोड़, हिन्दुस्तान पेट्रोलियम को 1539 करोड़ और भारत पेट्रोलियम को 1547 करोड़ रुपये का मुनाफा हुआ। प्रतिष्ठित ‘फार्च्यून’ पत्रिका के अनुसार दुनिया की आला 500 कम्पनियों की सूची में भारत की तीनों सरकारी तेल कम्पनियाँ इण्डियन ऑयल (98वें स्थान पर), भारत पेट्रोलियम (271 पर) तथा हिन्दुस्तान पेट्रोलियम (335 पर) शामिल हैं। इसके बाद भी अगर तेल कम्पनियाँ घाटे की दुहाई देती हैं तो वे हवई जहाज़ों में इस्तेमाल होने वाले टरबाइन फ्यूल यानी एटीएफ की कीमतों में वृद्धि क्यों नहीं करती हैं जबकि कई राज्यों में तो एटीएफ पेट्रोल से भी सस्ता है! बताने की ज़रूरत नहीं है कि विमान ईंधन के कम दामों का लाभ देश के खाते-पीते 10 फीसदी उच्च वर्ग को मिलता है।
तेल कम्पनियों के दूसरे तर्क पर ग़ौर करें तो यह भी आँकड़ों की बाज़ीगरी से ज्यादा कुछ नहीं हैं। तेल कम्पनियों का कहना है कि भारत में 80 फीसदी तेल विदेशों से आयात करना पड़ता है जिसका भुगतान डॉलर में किया जाता है, इसलिए आज जब 1 डॉलर की कीमत 46 रुपये से बढ़कर 56 रुपये पहुँच गयी है तो उनको कच्चे तेल के लिए ज्यादा कीमत देनी पड़ रही है। ये तेल कम्पनियाँ डॉलर के मुकाबले रुपये में आयी गिरावट पर तो हल्ला मचा रही हैं लेकिन अन्तरराष्ट्रीय तेल की प्रति बैरल कीमतें सस्ती होने की बात छिपा रही हैं। क्योंकि सच यह है कि पिछले साल जब अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल के दाम 114 डॉलर प्रति बैरल थे तब भी तेल कम्पनियाँ घाटा बता रही थीं; आज जब कच्चा तेल 91.47 डॉलर प्रति बैरल हो गया है तो भी कम्पनियाँ घाटा बता रही हैं और पेट्रोल के दाम बढ़ाने के पीछे रुपये में आयी गिरावट को ज़िम्मेदार बता रही हैं। लेकिन अगर डॉलर 10 रुपये महँगा हुआ है तो कच्चा तेल भी तो 22 डॉलर सस्ता हुआ है। यानी आज तेल कम्पनियाँ रुपये की गिरावट के बावजूद पहले से सस्ता कच्चा तेल ख़रीद रही हैं।
दूसरी तरफ सरकार आज 1 लीटर पेट्रोल की कीमत 73.14 रुपये में से 32 रुपये टैक्स के रूप में वसूलती है। मतलब साफ है, इस मूल्य वृद्धि से सबसे अधिक लाभ सरकार को होता है, जो बजट घाटे का रोना रोती रहती है। यह बजट घाटा इसलिए नहीं पैदा हुआ कि सरकार भारत के मेहनतकशों और मज़दूरों पर ज्यादा ख़र्च कर रही है। यह बजट घाटा इसलिए पैदा हुआ है क्योंकि सरकार बैंकों को अरबों रुपये के बेलआउट पैकेज देती है, कारपोरेट घरानों के हज़ारों करोड़ के कर्जों को माफ करती है और उन्हें टैक्सों में भारी छूट देती है, धनी किसानों को ऋण माफी देती है और देश के धनिक वर्ग पर करों के बोझ को घटाती है। इसके अलावा, ख़ुद सरकार और उसके मंत्रियों-आला अफसरों के भारी तामझाम पर हज़ारों करोड़ रुपये की फिज़ूलखर्ची होती है। ज़ाहिर है, अमीरों को सरकारी ख़ज़ाने से ये सारे तोहफे देने के बाद जब ख़ज़ाना ख़ाली होने लगता है, तो उसकी भरपाई ग़रीब मेहनतकश जनता को लूटकर की जाती है। पेट्रोल के दामों में वृद्धि और उस पर वसूल किये जाने वाले भारी टैक्स के पीछे भी यही कारण है।
पेट्रोलियम पदार्थ (पेट्रोल, डीज़ल व अन्य) ऐसी चीजें है जिनके मूल्यों में वृद्धि से अन्य वस्तुओं के दाम भी बढ़ जाते हैं। सरकार कहती है कि पेट्रोल पदार्थों पर छूट देने से कम्पनियों को 1.86 लाख करोड़ रुपये का घाटा होता है लेकिन वह भूल जाती है कि पेट्रोलियम पर सबसे अधिक टैक्स तो वही लेती है। सरकार कहती है कि अगर वह पेट्रोल, डीज़ल व रसोई गैस पर छूट देती है तो उसका बजट घाटे में चला जाता है। असल में सरकार इस वित्तीय घाटे को कम करने की आड़ में गैस, किरासन और डीज़ल से भी सब्सिडी और सरकारी नियंत्रण को ख़त्म करके इसे भी सीधे बाज़ार के हवाले करना चाहती है।
इस ”सरकारी घाटे” के हम तो ज़िम्मेदार नहीं
आज वित्तमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक सरकारी घाटे को कम करने के लिए कड़े फैसले लेने की बात करते हैं। मगर सरकार के सारे कड़े फैसलों का निशाना जनता को मिल रही थोड़ी-बहुत रियायतें ही होती हैं। इसी कारण सरकार जनता को दी जा रही सब्सिडी और छूट के नाम पर घाटे का रोना शुरू कर देती है। लेकिन जब पूँजीपतियों को छूट और टैक्स माफी की बात आती है तो सरकार दिल खोलकर सरकारी ख़ज़ाना लुटाती है। इस वित्त वर्ष में कारपोरेट टैक्सों में लगभग 80,000 करोड़ रुपये की छूट दी गयी है। प्रतिदिन 240 करोड़ रुपये कारपोरेट घरानों को छूट दी जा रही है। वर्ष 2010-11 के बजट में पूँजीपति वर्ग को 5.11 लाख करोड़ रुपये की सहायता एवं छूट दी गयी। अर्थात बजट का लगभग 50 प्रतिशत हिस्सा सरकार सीधे तौर पर पूँजीपतियों को छूट के रूप में दे देती है। अमीरज़ादों को प्रत्यक्ष कर में 4500 करोड़ रुपये की छूट दी गयी है। अक्टूबर 2010 तक देश में 578 विशेष आर्थिक क्षेत्र (एस.ई.ज़ेड) औपचारिक रूप से मंज़ूर किये जा चुके हैं जिनमें सरकार द्वारा मुफ्त बिजली, पानी, ज़मीन तथा टैक्स छूट दी जाती है। तब सरकार को कोई घाटा नहीं होता है! इस वित्त वर्ष में कारपोरेट आय कर में सरकार ने 50000 करोड़ रुपये माफ कर दिया तब वित्तीय घाटा नहीं हुआ। आज जब महँगाई से आम जनता तबाह है तो ऐसे में पेट्रोल, डीज़ल व रसोई गैस की कीमतों में वृद्धि महँगाई को और बढ़ायेगी। सरकारें जनता की जेब से एक-एक पाई तक छीन लेना चाहती हैं।
तमाम चुनावी पार्टियां भी इस मूल्य वृद्धि का विरोध कर रही हैं। बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी कह रही हैं कि पेट्रोल की मूल्य वृद्धि को बर्दाश्त नहीं करेंगी। दूसरी तरफ भाजपा पेट्रोल की वृद्धि पर अपने नकली विरोध-प्रदर्शनों के बेअसर होने से बौखलायी नज़र आ रही है और अपने को जनता का हितैषी बताने की पूरी कोशिश कर रही है। मज़दूरों की नामलेवा संसदीय वामपंथी पार्टियाँ भाकपा-माकपा भी हो-हल्ला कर रही हैं। पर यह महज़ वोट की राजनीति में अपना उल्लू सीधा करने के लिए है। मामला साफ है ये घड़ियाली आँसू केवल लोगों को बरगलाने के लिए हैं। वैसे भी आज उदारीकरण और निजीकरण की नीतियों पर सभी चुनावी मदारी सहमत हैं।
[stextbox id=”black” caption=”पेट्रोल — अमीरों की विलासिता की कीमत चुकाते हैं ग़रीब”]तेल की बढ़ती क़ीमतों का सबसे अधिक असर ग़रीबों पर पड़ता है क्योंकि इससे हर चीज़ की क़ीमतों में बढ़ोत्तरी होने लगती है। लेकिन इसके लिए वे ज़िम्मेदार नहीं हैं। वे तो पेट्रोलियम पदार्थों का बहुत ही कम इस्तेमाल करते हैं। भारत में पेट्रोल के कुल खर्च का सबसे बड़ा हिस्सा कारों पर होता है। एक तरफ सरकार लोगों को तेल की बचत करने के लिए विज्ञापनों पर करोड़ों रुपये फॅूँकती है, दूसरी तरफ देश में कारों की बिक्री को ज़बर्दस्त बढ़ावा दिया जा रहा है। देश के अमीरों और खाते-पीते मध्य वर्ग के लिए हर महीने कारों के नये-नये मॉडल बाज़ार में उतारे जा रहे हैं। कार कम्पनियाँ एक ऐसी जीवनशैली को बढ़ावा दे रही हैं जिसमें एक-एक परिवार के पास कई-कई गाड़ियाँ हैं और लोग यूँ ही मटरगश्ती के लिए कई लीटर पेट्रोल फूँक डालते हैं। अमीरों का नया शौक है बड़ी-बड़ी गाड़ियों में घूमना जो आम कारों के मुकाबले दोगुने से भी ज्यादा तेल पी जाती हैं। किसी भी महानगर की सड़कों पर दौड़ने वाली कारों के भीतर देखिये, तो आधी से ज्यादा कारों में अकेला व्यक्ति या दो लोग बैठे नज़र आयेंगे। दूसरी तरफ सार्वजनिक परिवहन की हालत ऐसी है कि बसों में लोग बोरियों की तरह लदे हुए चलते हैं। मंत्रियों ही नहीं, तमाम पार्टी नेताओं के काफिले में दर्जनों कारें बिना किसी काम के दौड़ती रहती हैं। पेट्रोल के दाम बढ़ने से अब अमीरों ने डीज़ल कारों पर नज़र गड़ा दी है। पिछले कुछ वर्षों में स्कॉर्पियो, इन्नोवा जैसी बड़ी-बड़ी एसयूवी कारों के डीज़ल मॉडलों की बिक्री में भारी इज़ाफा हुआ है। इसकी वजह से अब सरकार को डीज़ल के दाम बढ़ाने के लिए भी तर्क मिल गया है। आने वाले समय में डीज़ल के दामों में भी भारी बढ़ोत्तरी करने की तैयारी अन्दरखाने चल रही है।[/stextbox]
मज़दूर बिगुल, जून 2012
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