पूँजीवादी लोकतंत्र का फटा सुथन्ना और चुनावी सुधारों का पैबन्द
मीनाक्षी
पिछले दिनों उच्चतम न्यायालय द्वारा चुनाव प्रणाली के सुधार से जुड़े दो फैसले काफी चर्चा में रहे हैं:
पहला, दो साल या उससे अधिक की सजा पाये हुए सांसदों-विधायकों की सदस्यता समाप्त करने से सम्बन्धित था। दूसरा, चुनाव में सभी प्रत्याशियों की नापसन्दगी की स्थिति में उन्हें नकारने के मतदाता के अधिकार के बारे में था।
ऊपरी तौर पर यह राजनीति के भ्रष्टीकरण को दुरुस्त करने की मंशा से उठाया गया कदम दिखता है लेकिन इसके असरकारी होने की कितनी सम्भावना हो सकती है या जनता के इस अधिकार से कितना बदलाव मुमकिन हो सकता है यह जानने के लिए पूँजीवादी राजनीति को समझना होगा जो पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की ही एक घनीभूत अभिव्यक्ति होती है।
पूँजीवादी जनतंत्र में सभी चुनावबाज़ पार्टियाँ किसी ऐसे ही शख़्स को उम्मीदवार बनाकर चुनावी वैतरणी पार कर सकती हैं जो येन-केन-प्रकारेण जीतने की गारण्टी देता हो। और चुनाव भी वही जीतता है जो आर्थिक रूप से ताक़तवर हो और पैसे या डण्डे के ज़ोर पर वोट ख़रीदने का दम रखता हो। या फिर धर्म और जाति के नाम पर लोगों को भड़काकर वोट आधारित उनके ध्रुवीकरण की साज़िश रचने में सिद्धहस्त हो। ज़ाहिर है ऐसी चुनावी राजनीति की बुनियाद अपराध पर ही टिकी रह सकती है। सभी बड़ी से लेकर छोटी पार्टियों के मंत्रियों और विधायकों पर या तो आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं या वे आपराधिक पृष्ठभूमि से आते हैं।
यह समझना मुश्किल नहीं है कि विधायिका के दोषी सदस्यों की सदस्यता समाप्ति के अदालती फैसले के ख़िलाफ़ क्यों सत्तारूढ़ कांग्रेस को आनन-फ़ानन में विधेयक लाने की ज़रूरत पड़ गयी। मेडिकल कालेज भर्ती प्रकरण में फँसे राज्यसभा सांसद रशीद मसूद के ज़रिये पश्चिमी उत्तरप्रदेश में मुस्लिम वोटों पर कब्ज़ा करने और आड़े समय में हमेशा काम आने वाले राजद प्रमुख लालू यादव से तालमेल के ज़रिये बिहार में अपना वोट बैंक बढ़ाने की बदहवासी में कांग्रेस को किसी भी कीमत पर उनकी सदस्यता की दरकार थी जबकि फैसले की वजह से उन दोनों की सदस्यता जा सकती थी। महँगाई और बेरोज़गारी की मार से जनता का बढ़ता असन्तोष कहीं फूट न पड़े और आगामी चुनाव उसके लिए सत्ता से बेदखली का परवाना न बन जाये इस भय से वह इतनी त्रस्त थी कि विधेयक के पारित होने का इन्तज़ार भी उससे न हो सका और तत्काल ही उसने इसी आशय का अध्यादेश भी पेश कर दिया। हालाँकि यह सभी पार्टियों के लिए फ़ायदे का सौदा था लेकिन इससे कांग्रेस के लाभ उठाने की सम्भावना को देखते हुए सभी पार्टियों, ख़ासकर भाजपा ने विरोध की मुद्रा अख्त़ियार कर ली। विरोध भी हो गया और लोकप्रियता हासिल करने का मौका भी मिल गया। राष्ट्रपति द्वारा भी जब अध्यादेश के औचित्य पर सवाल उठाने से पासा पलट गया तो कांग्रेस भी अपने दुलारे उपाध्यक्ष राहुल गांधी के ‘हीरो’ बनकर उभरने और इसका श्रेय लेने की नौटंकी में जुट गयी। भाजपा तो इंसानियत के अपराधी नरेन्द्र मोदी को पहले से ही महानायक के तौर पर पेश कर उनकी ताजपोशी के लिए हर तरह का तिकड़म लगा रही है। अपने ही प्रान्त की मुसलमान जनता का बर्बर कत्लेआम कराने वाले मोदी को इसके बाद भी फाँसी के तख़्ते की जगह यदि तख्तो-ताज की पेशकश की जा रही हो तो समझा जा सकता है कि किसी अदालती फैसले या सुधारों का कोई अर्थ नहीं, ये सिर्फ हाथी के दिखाने वाले दाँत हैं। लोहे की खदानों से अवैध खनन के ज़रिये देश को अरबों रुपये का चूना लगाने वाले कर्नाटक के रेड्डी बन्धुओ और भ्रष्ट येदियुरप्पा को पार्टी में वापस लेने के लिए भाजपा आज भी तैयार बैठी है क्योंकि ये जिताऊ उम्मीदवार बनने की हैसियत रखते हैं। समाजवादी पार्टी में भी क्षत्रिय वोट पाने की जुगत में राजा भइया को फिर से मंत्रिमंडल में शामिल करने की उतावली है जिस पर अनेक गम्भीर अपराधों के साथ-साथ हाल में ही पुलिस अधिकारी ज़ियाउल हक की हत्या का आरोप है। चुनावी पैंतरेबाजों के घटिया करतबों का ऐसा निर्लज्ज प्रदर्शन पूँजीवादी चुनावी सरकस की ख़ासियत है जिसमें किसी किस्म का सुधार कोई बुनियादी बदलाव नहीं ला सकता।
सभी चुनावी पार्टियों का चरम लक्ष्य चूँकि सत्ता की मलाई चाटना ही होता है अतः वे इसके लिए हर हथकण्डा अपनाती हैं। यदि किसी सांसद या विधायक को दोषी और सज़ायाफ़्ता व्यक्ति के तौर पर संसद की सदस्यता छोड़नी ही पड़ती है तो उनके परिजनों को उम्मीदवारी दे दी जाती है। प्रत्यक्ष न सही राजकाज का सूत्र तो उसी व्यक्ति के हाथ में बना रहता है। बाबूसिंह कुशवाहा का उदाहरण सामने ही है। दोष सिद्ध होने पर वह सत्ता से बाहर हुए तो समाजवादी पार्टी ने बरास्ता श्रीमती कुशवाहा उनके हिस्से का वोट बटोरने का उपाय खोज लिया है। अगर वह जीत जाती हैं तो कहने की ज़रूरत नहीं कि सत्तासूत्र की कमान श्रीमान कुशवाहा के हाथों में रहेगी। यह सिर्फ अकेला मामला नहीं है। राजस्थान में भँवरी देवी मामले में यौन अपराध के दोषी पूर्व कांग्रेसी मंत्री महीपाल मदेरणा, पूर्व विधायक मलखान सिंह और हाल ही में खादी राज्य मंत्री रहे बाबूलाल नागर के परिजनों को कांग्रेस पार्टी भी उम्मीदवार बनाने की जोड़तोड़ में लगी हुई है।
इससे साफ है कि पूँजीवाद स्वयं ही राजनीति का अपराधीकरण करता है, उन्हें पालता-पोसता है। अतः किन्हीं भी चुनाव सुधारों का असली मकसद धोखे की टट्ट्टी खड़ा करना ही हो सकता है। फिर चाहे वह दोषसिद्ध सांसदों और विधायकों की सदस्यता समाप्त करने के बारे में हो या फिर वह उम्मीदवारों को रिजेक्ट या अस्वीकार कर देने के मतदाता के अधिकार की बात करता हो। ‘राइट टू रिजेक्ट’ के ज़रिये सभी प्रत्याशियों के प्रति नापसन्दगी जताने और उन्हें नकार देने का एक विकल्प मतदाता को मिल जाता है, यदि यह बात मान भी ली जाये तो सबसे अहम सवाल यह उठता है कि सभी प्रत्याशियों को नकार कर ‘इनमें से कोई नहीं’ पर ठप्पा लगाने के बाद क्या अपराधी या जनविरोधी तत्वों के संसद-विधानसभाओं तक पहुँचने की राह बन्द हो जायेगी। उस स्थिति में भी नकारे गये प्रत्याशियों के बीच से ही कोई चुना जाकर प्रतिनिधित्व करने का हक हासिल कर लेगा और जनता के हाथ आयेगा झूठे अभिमान का झुनझुना।
चुनाव प्रणाली में सुधार की कवायद इससे पहले भी की जा चुकी है। तब प्रत्याशियों के लिए सम्पत्ति का विवरण देना अनिवार्य बनाया गया था। चुनाव खर्च की सीमा भी तय की गयी थी। लेकिन असलियत क्या है सभी जानते है। अभी बहुत दिन नहीं हुए जब भाजपा नेता और महाराष्ट्र के पूर्व उप-मुख्यमंत्री गोपीनाथ मुंडे ने सार्वजनिक मंच से बताया था कि पिछले चुनाव में उन्होंने 8 करोड़ रुपये खर्च किये। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री अमित भादुड़ी ने भी कहा है कि बड़ी चुनावी पार्टियों के प्रत्याशी एक-एक लोकसभा क्षेत्र में 20-25 करोड़ रुपये खर्च करते हैं। चुनाव प्रचार की वीडियोग्राफी से लेकर लाखों पर्यवेक्षकों की तैनाती के बावजूद सबकुछ बदस्तूर चलता रहता है।
इन चुनावी सुधारों के जरिये संसद-विधानसभा की कार्रवाइयों पर मेहनतकश जनता की गाढ़ी कमाई से होनेवाले अनापशनाप खर्च को रत्तीभर भी कम नहीं किया जा सकता है। संसद की प्रत्येक घण्टे की कार्रवाई पर दो लाख रुपये खर्च होते हैं। संसद और विधानसभाएँ बहसबाज़ी के अड्डे हैं। एक हालिया रिपोर्ट के मुताबिक मौजूदा संसद में अब तक 750 से अधिक घण्टे हंगामे के भेंट चढ़ चुके हैं। ज़ाहिर हैं अपना पेट काटकर टैक्स भरनेवाली जनता के करोड़ों रुपये इन हंगामों और निरर्थक कार्रवाइयों में फूंक दिय जाते हैं।
यहाँ यह बात भी ग़ौरतलब है कि मौजूदा चुनाव प्रणाली चुनने का अधिकार तो देती है लेकिन इसमें सभी व्यक्तियों को चुने जाने का हक़ वास्तव में हासिल नहीं है। चुनाव के बेहिसाब खर्च के मद्देनज़र केवल सम्पत्तिशाली व्यक्ति को ही चुने जाने का अधिकार प्राप्त है। सच तो यह है कि उद्योगपतियों, व्यापारियों और सटोरियों की श्रेणी से आनेवाले सम्पन्न लोग ही चुनकर संसद-विधानसभाओं तक पहुँच सकते हैं। मौजूदा लोकसभा के कुल 543 सांसदों में से 315 करोड़पतियों का होना इसी तथ्य की पुष्टि करता है। इस पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर प्रत्याशी के चुनाव की चाहे कोई भी प्रक्रिया अपनायी जाये, कारख़ाने में खटनेवाला मजदूर या आम मेहनतकश विधायिका तक कभी नहीं पहुँच पायेगा। यदि पूँजीवादी पार्टियाँ बिना पूँजीपति घरानों से चन्दा लिये चुनाव लड़ ही नहीं सकतीं तो ज़ाहिर है कि संसद में पहुँचकर वे जनता की नहीं पूँजीपति वर्ग की नुमाइन्दगी ही करेंगी और पूँजीवाद की हिफ़ाज़त में काम करती रहेंगी। ऐसे में ये चुनाव सुधार महज़ सजावटी और मरणासन्न पूँजीवाद की आयु बढ़ाने के काम ही आते रहेंगे।
दरअसल न्यायपालिका पूँजीवादी व्यवस्था के दूरगामी हित में सोचती है। वह इस बात को लेकर सजग है कि पूँजी की लूट-खसोट इतनी न बढ़ जाये कि परेशानहाल जनता इस पूरी व्यवस्था से ही निजात पाने के बारे में सोचने लगे। इसलिए चुनाव प्रणाली में सुधारों के ज़रिये पूँजीवाद को ही अन्तिम विकल्प के रूप में पेश करने की ऐसी कोशिशें लगातार जारी रहती हैं।
मेहनतकश साथियों को यह भी यह समझना होगा कि बुनियादी आर्थिक ढाँचे में किसी बदलाव के बिना कोई भी चुनाव सुधार बेमानी ही होगा और उससे किसी वास्ततिक बदलाव की उम्मीद करना खुद को भुलावे में रखना होगा।
मज़दूर बिगुल, अक्टूबर 2013
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