रसोई गैस के बढ़ते दाम : आम जनता बेहाल-परेशान!

प्रियम्वदा

8 साल पहले जब मोदी सरकार सत्ता में आयी थी तब उनके प्रमुख नारों में से एक नारा था “बहुत हुई महँगाई की मार, अबकी बार मोदी सरकार”, लेकिन इस सरकार के कार्यकाल में उपरोक्त नारे की असलियत सबके सामने नंगी हो चुकी है।
पिछले कुछ सालों में जीवन जीने के लिए ज़रूरी रोज़मर्रा की बुनियादी वस्तुओं में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हुई है। पेट्रोल, डीज़ल से लेकर सरसों तेल और रसोई गैस तक के दामों में आये उछाल ने आम जनजीवन को बेहद प्रभावित किया है। बढ़ती महँगाई की वजह से मेहनतकश जनता जीवन जीने के लिए ज़रूरी वस्तुओं को जुटा पाने तक में अक्षम होती जा रही है।
बेतहाशा बढ़ती महँगाई में सिर्फ़ रसोई गैस के दामों में जो बढ़ोत्तरी हुई है, उससे आम मेहनतकश जनता का बजट बुरी तरह प्रभावित हुआ है। पौष्टिक खाने में कटौती से लेकर फल-सब्ज़ियों में कटौती कर लोग जीने के लिए मजबूर हैं।
कुछ आँकड़ों के ज़रिए देखें तो तस्वीर और साफ़ होती है।
घरेलू इस्तेमाल वाले सिलेण्डर के दाम बीते आठ साल में क़रीब 157 फ़ीसदी बढ़े हैं। मार्च 2014 में घरेलू रसोई गैस सिलेण्डर की क़ीमत 410 रुपये थी।
सिर्फ़ मई 2021 से मई 2022 के बीच घरेलू रसोई गैस की क़ीमतों में 76 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी की गयी है, और अब इसकी क़ीमत क़रीब 1053 रुपये प्रति सिलेण्डर है जबकि लखनऊ, पटना, इन्दौर व अन्य कई ऐसे शहरों में रसोई गैस सिलेण्डर की क़ीमत इससे कुछ ज़्यादा ही है।
2014 से लेकर 2022 तक रसोई गैस की क़ीमत में हुई ढ़ाई गुणा की बढ़ोत्तरी से सबसे अधिक प्रभावित इस देश का मेहनतकश तबक़ा हुआ है।
जहाँ एक ओर महँगाई सारे रिकॉर्ड तोड़ रही है, वहीं दूसरी ओर आम मेहनतकश आबादी की औसत आमदनी विशेष तौर पर कोविड महामारी के बाद से या तो ठहरावग्रस्त है या फिर घटी है।
मेहनत-मज़दूरी करने वाली इस देश की लगभग तीन-चौथाई आबादी प्रति दिन सिर्फ़ 30 से 40 रुपये पर गुज़ारा करती है,जिसकी पहुँच से रसोई गैस काफ़ी दूर है। क़रीब 58 करोड़ असंगठित मज़दूरों की ऐसी आबादी है जो 10,000 रुपये या उससे कम पर गुज़ारा करती है जिनके लिए महँगाई के कारण दाल-सब्ज़ी, दवा-इलाज, शिक्षा में काफ़ी कटौती करनी पड़ रही है। मज़दूर बस्तियों में जाकर देखने पर पता चलता है कि मज़दूरों का एक बड़ा तबक़ा ऐसा है जो रसोई गैस सिलेण्डर न ख़रीद पाने की स्थिति में किलो पर रसोई गैस भरवाने को मजबूर होता है जिसकी वजह से उनके लिए यह और अधिक महँगा सौदा साबित होता है।
कोरोना काल के बाद से मेहनतकशों का एक बड़ा हिस्सा क़र्ज़ लेकर महीने का गुज़ारा चला पा रहा है और क़र्ज़ के कुएँ में धँसता ही जा रहा है।
मोदी राज में और विकराल हुई महँगाई, ग़रीबी और भूखमरी ने मज़दूर वर्ग के एक बड़े हिस्से के सामने जीवन का संकट ला खड़ा किया है।
हमें भूलना नहीं चाहिए कि यह वही सरकार है जिसने महँगाई की मार को ख़त्म करने के लिए किये गये अपने चुनावी प्रचार पर हर बार हज़ारों करोड़ रुपये ख़र्च किये हैं। आम जनता की आँखों मे धूल झोंकने के लिए किये गये इन दावों की हक़ीक़त आज हमारे सामने है। भाजपा के दोमुँहेपन के कहने ही क्या!!
कांग्रेस के कार्यकाल में इनके नेता-मंत्री सिलेण्डर के दाम बढ़ने पर सड़को पर उतर के छाती पीट-पीटकर चिल्लाते थे और अब इनकी ज़ुबान से महँगाई के ख़िलाफ़ एक शब्द भी नहीं निकलता। स्मृति ईरानी जो रसोई गैस के दाम बढ़ने पर हर बार महँगाई के ख़िलाफ़ प्रदर्शन का ढोंग करने सड़क पर पहुँच जाया करती थी आज आँखों पर पट्टी बाँधे बैठी है।
आम जनता को ये देशहित के नाम पर महँगे सिलेण्डर,महँगे पेट्रोल-डीज़ल इत्यादि ख़रीदने और भूखे तक मरने की नसीहत देते हैं। साम्प्रदायिकता के बीज डालकर जनता को आपस में बाँटने और उनके असल मुद्दों पर पर्दा डालने का इनका तरीक़ा पुराना है।
लोग महँगाई के कारणों पर सोच न सकें इसके लिए भाजपा सरकार और इनके धार्मिक कट्टरपन्थी संगठन आम जनता के बीच नक़ली मुद्दों जैसे मन्दिर-मस्जिद, हिन्दू-मुस्लिम का व्यापक जाल बुनते हैं। हमें आज इनकी असलियत को समझना होगा।
बढ़ती महँगाई का कारण मुनाफ़े की हवस पर टिकी यह पूँजीवादी व्यवस्था है और तमाम सरकारों की पूँजीपरस्त नीतियाँ हैं।

मज़दूर बिगुल, अगस्त 2022


 

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