नमाज़ को लेकर संघियों का उत्पात : फ़ासीवादी ताक़तों द्वारा जनता को बाँटने की नयी साज़िश!
– केशव आनन्द
बीते दिनों नोएडा के सेक्टर-65 के एक पार्क में कुछ लोगों के नमाज़ पढ़ने पर त्रिभुवन प्रताप नामक एक व्यक्ति ने आपत्ति जताते हुए इसकी फ़ोटो यूपी पुलिस और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को टैग कर ट्वीट कर दिया। इसके बाद पुलिस ने वहाँ पहुँचकर नमाज़ को बन्द करा दिया। ग़ौरतलब है कि यहाँ नमाज़ के लिए आने वाले लोग आस-पास के कारख़ानों में काम करने वाले मज़दूर हैं। ज़ाहिर है, इन मज़दूरों के पास न तो इतने संसाधन है कि वे कहीं दूर मस्जिद में जाकर नमाज़ पढ़ें, न ही कारख़ानों में उन्हें इतना वक़्त दिया जाता है कि वे इबादत के लिए मस्जिद तक जा सकें। इसलिए काम के दौरान कारख़ाने से थोड़ी देर छुट्टी लेकर ये लोग पास के पार्क में नमाज़ पढ़ लेते हैं। लेकिन इन मज़दूरों से शान्तिपूर्ण तरीक़े से इबादत करने का अधिकार भी छीना जा रहा है। मज़दूर वर्ग का नज़रिया यह है कि धर्म पूर्णत: एक व्यक्तिगत मसला होता है और हर व्यक्ति को कोई भी धर्म मानने या कोई भी धर्म न मानने और अपनी धार्मिक आस्थाओं के अनुसार पूजा-अर्चना करने का अधिकार होना चाहिए। नोएडा की यह घटना दिखला रही है कि पूँजीपतियों की चाकर मोदी सरकार अपने साम्प्रदायिक फ़ासीवादी एजेण्डा को किस प्रकार अमल में ला रही है और आम मेहनतकश जनता के समक्ष विभिन्न धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायों को दुश्मन बनाकर पेश कर रही है, जबकि असली दुश्मन पूँजीपतियों का पूरा वर्ग है। पार्कों में व अन्य सार्वजनिक स्थलों पर चौकियाँ सजाकर और डीजे के स्पीकर लगाकर दिनभर भजन-कीर्तन करने या रातभर जगराते करने की पूरी आज़ादी है, लेकिन एक विशिष्ट धर्म के लोगों को नमाज़ पढ़ने की भी इजाज़त नहीं है! क्या यह ग़ैर-बराबरी सही है? क्या मज़दूर वर्ग ऐसे अन्याय का समर्थन कर सकता है? कभी नहीं!
इसके पहले हरियाणा के गुड़गाँव में इन फ़ासीवादी ताक़तों ने पार्क में पढ़ी जा रही नमाज़ को बन्द कराने की कोशिश की थी, जो कि अब भी जारी है। बीते दिनों प्रशासन ने हिन्दुत्ववादी संगठनों के दबाव में गुड़गाँव में नमाज़ की 37 जगहों में से 8 जगहों पर नमाज़ पढ़ने पर पाबन्दी लगा दी। गुड़गाँव के सेक्टर 47 में पिछले कुछ महीनों से विश्व हिन्दू परिषद और अन्य धार्मिक प्रतिक्रियावादी संगठन, शान्तिपूर्ण तरीक़े से नमाज़ पढ़ने वाले लोगों के ख़िलाफ़ प्रतिरोध कर रहे थे। और वे लगातार पुलिस-प्रशासन पर इस नमाज़ को बन्द कराने के लिए दबाव बना रहे थे। साथ ही वे प्रदर्शन के हिंसक होने की धमकी भी दे रहे थे, जिसके बाद हरियाणा प्रशासन ने नमाज़ बन्द कराने का आदेश दे दिया। आज गुड़गाँव में बची 29 जगहों पर भी लोगों को नमाज़ पढ़ने से रोका जा रहा है। इन फ़ासीवादी ताक़तों द्वारा नमाज़ रोकने के लिए कभी इन जगहों पर गोबर रख दिया जा रहा है, या फिर कभी यहाँ हवन का आयोजन किया जा रहा है।
क्या है पूरा मामला?
पिछले कई सालों से एक बड़ी मुस्लिम आबादी गुड़गाँव की अलग-अलग जगहों पर खुले में नमाज़ अदा करती रही है। 2018 में भी हिन्दुत्ववादी उन्मादियों ने नमाज़ बन्द कराने की कोशिश की थी, जिसके कारण गुड़गाँव की 106 अलग-अलग जगहों पर होने वाली नमाज़ प्रशासन की मंज़ूरी के साथ केवल 37 जगहों पर सिमट कर रह गयी थी। उसके बाद पिछले दो महीनों से ये हिन्दुत्ववादी उन्मादी एक बार फिर इसे मुद्दा बनाकर नमाज़ बन्द कराने की कोशिश में लगे हैं। बाहरी लोगों द्वारा इन जगहों पर नमाज़ पढ़ने का हवाला देकर वे इसे भी बन्द कराने की कोशिश में लगे हैं। ग़ौरतलब है कि गुड़गाँव में 70 प्रतिशत से भी अधिक आबादी प्रवासी है जो रोज़ी-रोटी के लिए शहर काम करने आती है। ये लोग सालों से यहीं रह रहे हैं। आबादी के हिसाब से उनकी नमाज़ के लिए पर्याप्त मस्जिदें मौजूद नहीं हैं, जिसके कारण ये लोग सालों से खुले में नमाज़ पढ़ते हैं। लेकिन विश्व हिन्दू परिषद जैसे उन्मादी संगठनों द्वारा उनके इस जनवादी अधिकार को भी छीना जा रहा है। मज़दूर वर्ग को एक वर्ग समाज और विशेष तौर पर पूँजीवादी समाज में धर्म के अस्तित्व और उसकी भूमिका के बारे में शिक्षित-प्रशिक्षित करना, उसे वैज्ञानिक दृष्टिकोण देना, उसे द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी नज़रिया देना एक दीर्घकालिक कार्यभार है और मज़दूर वर्ग का क्रान्तिकारी हिरावल निरन्तर करता है। लेकिन वह किसी भी सूरत में धार्मिक आधार पर किसी भी समुदाय के उत्पीड़न के ख़िलाफ़ होता है।
इस पूरे प्रकरण में पुलिस-प्रशासन ने भी पक्षपाती तरीक़े से इन उन्मादियों का साथ दिया है। एक फ़ेसबुक पोस्ट पर देशद्रोह का मुक़दमा लगा देने वाली पुलिस के सामने लगातार साम्प्रदायिक और हिंसक नारे लगाये जा रहे थे, लेकिन इसके बावजूद इन उन्मादियों पर कोई सख़्त कार्रवाई नहीं की गयी। केवल दिखावटी तौर पर कुछ लोगों को गिरफ़्तार किया गया। साथ ही, 2018 में प्रशासन द्वारा तय की गयी जगहों पर शान्तिपूर्ण तरीक़े से नमाज़ पढ़ने के बावजूद नमाज़ को रुकवा देने का फ़ैसला पुलिस प्रशासन के चरित्र को दिखाता है। इस रूप में आज पुलिस से लेकर राज्यसत्ता के हर अंगों का भगवाकरण नंगे तौर पर नज़र आ रहा है।
फ़ासीवाद की यह आम चारित्रिक अभिलाक्षणिकता होती है कि यह बड़ी पूँजी की सेवा के लिए टटपुँजिया वर्गों का एक प्रतिक्रियावादी आन्दोलन खड़ा करता है और जनता के समक्ष एक नक़ली शत्रु पेश करता है और जनता की तमाम समस्याओं के लिए उसे ही ज़िम्मेदार ठहराता है। यह नक़ली शत्रु अक्सर अल्पसंख्यक समुदायों के लोग होते हैं और साथ ही इनमें फ़ासीवादी ताक़तें अपने राजनीतिक विरोधियों को भी शामिल कर देती हैं। इस प्रकार ऐसे अल्पसंख्यक समुदायों और साथ ही राजनीतिक विरोधियों के जनवादी अधिकारों का भी हनन किया जाता है, और साथ ही इसे एक बड़ी आबादी के बीच सही ठहराने का काम भी किया जाता है। आज संघी फ़ासिस्ट यही कर रहे हैं। जगह-जगह धार्मिक उन्माद फैलाकर ये फ़ासीवादी ताक़तें अपने मंसूबों को पूरा करने में लगी हैं। लगातार बढ़ती लूट, महँगाई, बेरोज़गारी के कारण जनता में बढ़ते असन्तोष को ये ताक़तें धार्मिक रंग देने की कोशिश कर रही हैं। हमारे सामने इन समस्याओं के बरक्स एक नक़ली शत्रु खड़ा करने का काम किया जा रहा है, ताकि हम अपनी असल समस्याओं को भूलकर धर्म के नाम पर एक दूसरे का गला काटें और ये सत्ताधारी नफ़रत को फैलाकर अपनी चुनावी रोटियाँ सेकें। लव-जिहाद से लेकर गौ-रक्षा को मुद्दा बनाकर ये ताक़तें आज धार्मिक अल्पसंख्यकों को निशाना बना रही हैं। नमाज़ के ख़िलाफ़ जनता में नफ़रत फैलाना इसी कड़ी में बढ़ाया हुआ अगला क़दम है। ज़ाहिरा तौर पर हर प्रकार की (धार्मिक, जातीय या क्षेत्रीय) कट्टरता ग़लत है। लेकिन शान्तिपूर्ण तरीक़े से इबादत करना लोगों का जनवादी अधिकार है, जिसे ये फ़ासीवादी ताक़तें धार्मिक अल्पसंख्यकों से छीनने का काम कर रही हैं। और इन अल्पसंख्यकों में भी सबसे बड़ा निशाना ग़रीब मुस्लिम आबादी ही बनती है। इस रूप में ये फ़ासीवादी ताक़तें मज़दूरों को बाँटकर बड़ी पूँजी के प्रति अपनी वफ़ादारी भी साबित करती हैं।
आज आरएसएस और विश्व हिन्दू परिषद सरीखी फ़ासीवादी ताक़तों के ख़िलाफ़ हमें अपनी वर्ग आधारित एकजुटता बनानी होगी। साथ ही हमें हर प्रकार के जनवादी अधिकारों पर होने वाले हमलों के ख़िलाफ़ खड़ा होना होगा। हमें रोज़गार, स्वास्थ्य, शिक्षा, सामाजिक सुरक्षा आदि बुनियादी सवालों पर एकजुट होना होगा और नफ़रत के ज़रिए जनता को बाँटने वाली साम्प्रदायिक फ़ासीवादी राजनीति का पर्दाफ़ाश करना होगा। हमें राम प्रसाद बिस्मिल-अशफ़ाक़ उल्ला ख़ान की दोस्ती और क़ुर्बानी की विरासत को याद करना होगा। नफ़रती राजनीति फैलाने वाले इन उन्मादियों के ख़िलाफ़ हमें आज से ही जंग छेड़ देनी होगी। इतिहास में फ़ासिस्टों को मेहनतकश जनता ने ही धूल चटायी थी और आज इन हिन्दुत्ववादी फ़ासीवादियों को भी आम मेहनतकश जनता ही सबक़ सिखायेगी।
मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2021
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