मज़दूर वर्ग के महान शिक्षक और नेता कार्ल मार्क्स के जन्मदिवस (5 मई) के अवसर पर
अपने-अपने मार्क्स

– कविता कृष्णपल्लवी

हर साल की तरह इस साल भी कार्ल मार्क्स के 203वें जन्मदिवस के अवसर पर बहुत सारे बुर्जुआ लिबरल्स, सोशल डेमोक्रेट्स और संसदीय जड़वामन वामपन्थियों ने भी उन्हें बहुत याद किया और भावभीनी श्रद्धांजलियाँ दीं। इन सबके अपने-अपने मार्क्स हैं जो वास्तविक मार्क्स से एकदम अलग हैं। इनमें से कोई मार्क्स को मानवता के इतिहास के महानतम दार्शनिकों में शुमार करता है, कोई महान मानवतावादी के रूप में उनकी प्रशंसा करता है, कोई पूँजीवादी उत्पादन-प्रणाली का सर्वश्रेष्ठ विश्लेषण करने वाला महान अर्थशास्त्री बताता है और कोई वैज्ञानिक समाजवाद के विचारों को प्रस्तुत करने वाला महान चिन्तक बताता है। ये सभी लोग जिस बात की अनदेखी करते हैं, या जिसपर ज़ोर नहीं देते; वह वो बात है जो कार्ल मार्क्स की समाधि पर दिये गये अपने भाषण में उनके अनन्य मित्र, सह-चिन्तक और सह-योद्धा फ़्रेडरिक एंगेल्स ने कही थी, “मार्क्स सर्वोपरि तौर पर एक क्रान्तिकारी थे। जीवन में उनका असली उद्देश्य किसी न किसी तरह पूँजीवादी समाज और उससे पैदा होने वाली राजकीय संस्थाओं के ध्वंस में योगदान करना था, आधुनिक सर्वहारा वर्ग को मुक्त करने में योग देना था, जिसे सबसे पहले उन्होंने ही अपनी स्थिति और आवश्यकताओं के प्रति सचेत किया और बताया कि किन परिस्थितियों में उसकी मुक्ति हो सकती है। संघर्ष करना उनका सहज गुण था। और उन्होंने ऐसे जोश, ऐसी लगन और सफलता के साथ संघर्ष किया जिसका कोई मुक़ाबला नहीं है।”
ज़ाहिर है कि मार्क्स दुनिया के ज्ञात इतिहास को प्रभावित करने वाले सबसे बड़े दार्शनिक थे, पर वे ऐसा इसलिए थे क्योंकि उनके लिए दर्शन की एकमात्र सार्थकता दुनिया को बदलने और उसे न्यायपूर्ण बनाने में थी। अपने विचार और कर्म की यात्रा की शुरुआत में ही उन्होंने कहा था, “दार्शनिकों ने दुनिया की तरह-तरह से व्याख्या की है, लेकिन सवाल उसको बदलने का है।” इसीलिए एंगेल्स ने कहा था, और माओ ने भी इस बात को दुहराया था कि ‘मार्क्सवाद कर्मों का मार्गदर्शक सिद्धान्त है, कोई कठमुल्ला-सूत्र नहीं।’
मार्क्स बेशक एक महान मानवतावादी थे, क्योंकि वे रिनेसाँ के महान विचारकों के वारिस थे! वे वास्तविक अर्थों में, प्रबोधनकालीन दार्शनिकों द्वारा निरूपित अर्थों में, एक जनवादी थे। पर वे मात्र इतना ही नहीं थे। वे काल्पनिक समाजवादियों से आगे बढ़कर समाजवाद का वैज्ञानिक सिद्धान्त प्रस्तुत करने वाले व्यक्ति थे। इन अर्थो में वे न केवल मानवतावाद और जनवाद के शिखर थे, बल्कि उसे आगे समाजवाद तक विस्तारित करने वाले व्यक्ति थे। मार्क्स केवल समाजवाद का सिद्धान्त ही प्रस्तुत करने वाले व्यक्ति नहीं थे, उन्होंने यह भी बताया कि समाजवाद की राज्यसत्ता का स्वरूप केवल और केवल सर्वहारा अधिनायकत्व का ही हो सकता है और पेरिस कम्यून का समाहार करते हुए उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि सर्वहारा वर्ग राज्य की बनी-बनायी मशीनरी पर क़ब्ज़ा करके समाजवाद का अपना लक्ष्य हासिल नहीं कर सकता, बल्कि बुर्जुआ राज्य-मशीनरी का बलात ध्वंस करके अपनी नयी राज्य-मशीनरी का निर्माण उसके लिए अपरिहार्य होगा। उनके इसी चिंतन के सूत्र को लेनिन ने, विशेषकर अपनी ‘राज्य और क्रान्ति’ पुस्तक में आगे विस्तार दिया, पर कुछ अटकलपच्चू “ज्ञानी” और शरारती बुर्जुआ अकादमीशियन और कूपमण्डूक समाजवादी अक्सर यह कहते पाये जाते हैं कि क्रान्ति की लेनिनवादी अवधारणा मार्क्स के चिंतन का विरूपण या विकृतीकरण है। इसी तरह ऐसे मूर्ख या शरारती लोग यह भी कहते हैं कि पार्टी की लेनिनवादी अवधारणा मार्क्स की सोच के विपरीत है, जबकि राज्यसत्ता के बलात ध्वंस के लिए सर्वहारा वर्ग के अगुवा दस्तों के जुझारू संगठन पर मार्क्स और एंगेल्स ने हमेशा बल दिया था और जीवनपर्यन्त सर्वहारा वर्ग को इसी लाइन पर संगठित करने की कोशिश की थी। लेनिन ने सर्वहारा की हरावल पार्टी की संरचना और कार्यप्रणाली का निरूपण करते हुए मार्क्स और एंगेल्स की सोच को ही आगे विकसित किया था।
मार्क्स बेशक आधुनिक युग के महानतम अर्थशास्त्री थे, पर पूँजीवादी उत्पादन-सम्बन्धों के हर पहलू को रेशा-रेशा खोलकर समझने की उनकी कोशिश का एकमात्र उद्देश्य यह था कि उन उत्पादन-सम्बन्धों का ध्वंस करके नये, समाजवादी उत्पादन-सम्बन्धों का निर्माण किया जाये और यह काम उन्हें सांगोपांग समझे बिना नहीं किया जा सकता था।
‘शान्तिपूर्ण संक्रमण’ और संसदीय मार्ग के सिद्धान्त का काउत्स्कीपन्थी-ख्रुश्चेवपन्थी फटा लाल गमछा लपेटकर चुनावी गटरगंगा में डुबकी मारकर बुर्जुआ संसद के “पवित्र मन्दिर” में घुसकर सत्ता की देवी की कापालिक साधना करने वाले संसदीय वामपन्थी जड़वामन क्रान्ति के बारे में मार्क्स की स्थापनाओं की चर्चा नहीं करते। बुर्जुआ मानवतावादी मार्क्स की एक विकृत-भोंडी मूर्ति बनाकर उन्हें अपने आराध्यों में शुमार कर लेना चाहते हैं। सोशल डेमोक्रेट्स और बुर्जुआ लिबरल्स मार्क्स को एक सोशल डेमोक्रेट या बुर्जुआ लिबरल बना देना चाहते हैं तथा अकादमीशियन मार्क्स को एक महान चिन्तक बुद्धिजीवी के रूप में चित्रित करने की कोशिश करते हैं। बात ठीक भी है। अगर कौव्वा किसी ईश्वर की कल्पना करता होगा तो कौव्वा के रूप में ही करता होगा और सूअर के ज़ेहन में अपने ईश्वर की छवि एक सूअर की ही बनती होगी।
लेनिन ने एक बार कहा था कि अधिकांश क्रान्तिकारियों की मृत्यु के बाद शासक वर्ग और उसके बौद्धिक चाकर उनके सिद्धान्तों को तोड़-मरोड़कर दन्त-नखहीन बना देते हैं और फिर उन क्रान्तिकारियों को अपना मसीहा घोषित कर देते हैं।

कुछ बेहद प्रासंगिक उद्धरण

तमाम क़ि‍स्म के अवसरवादी, लोककल्याणवादी और सुधारवादी, जिनकी राजनीति मार्क्सवाद के ठीक विपरीत है, जिस उत्साह के साथ मार्क्स के जन्मदिवस पर उनका गुणगान कर रहे हैं, उसे देखकर लेनिन के शब्द याद आते हैं जिनसे उन्होंने ‘राज्य और क्रान्ति’ की शुरुआत की थी :
“उत्पीड़क वर्गों ने महान क्रान्तिकारियों को उनके पूरे जीवन-काल में लगातार यातनाएँ दीं, उनकी शिक्षा का अधिक से अधिक बर्बर द्वेष, अधिक से अधिक क्रोधोन्मत्त घृणा तथा झूठ बोलने और बदनाम करने की अधिक से अधिक अन्धाधुन्ध मुहिम द्वारा स्वागत किया। लेकिन उनकी मौत के बाद उनकी क्रान्तिकारी शिक्षा को सारहीन करके, उसकी क्रान्तिकारी धार को कुन्द करके, उसे भ्रष्ट करके उत्पीड़ित वर्गों को “बहलाने” तथा धोखा देने के लिए उन्हें अहानिकर देव-प्रतिमाओं का रूप देने, यों कहें, उन्हें देवत्व प्रदान करने और उनके नामों को निश्चित गौरव प्रदान करने के प्रयत्न किये जाते हैं। मार्क्सवाद को इस तरह “संसाधित करने” में बुर्जुआ वर्ग और मज़दूर आन्दोलन के अवसरवादियों के बीच आज सहमति है। उस शिक्षा के क्रान्तिकारी पहलू को, उसकी क्रान्तिकारी आत्मा को भुला दिया जाता है, मिटा दिया जाता है, विकृत कर दिया जाता है। उस चीज़ को सामने लाया जाता है, गौरवान्वित किया जाता है, जो बुर्जुआ वर्ग को मान्य है या मान्य प्रतीत होती है। सभी सामाजिक-अन्धराष्ट्रवादी अब “मार्क्सवादी” बन गये हैं (हँसिए नहीं)।”

– प्रस्तुति : बिपिन बालाराम

अपने साहस, दृढ़निश्चय और आत्म-बलिदान के दम पर मज़दूर ही जीत हासिल करने के लिए मुख्य तौर पर ज़िम्मेदार होंगे। निम्न-पूँजीपति वर्ग (मध्य वर्ग – अनु.) जब तक सम्भव हो तब तक हिचकिचाएगा और भयभीत, ढुलमुल और निष्क्रिय बना रहेगा; लेकिन जब जीत सुनिश्चित हो जायेगी तो यह उस पर अपना दावा करेगा और मज़दूरों से क़ायदे से पेश आने के लिए कहेगा, और सर्वहारा वर्ग को वह जीत के फलों से वंचित कर देगा। …बुर्जुआ जनवादियों के शासन में, शुरू से ही, इसके विनाश के बीज छिपे होंगे, और अन्ततोगत्वा सर्वहारा द्वारा इसे प्रतिस्थापित कर दिया जाना आसान बना दिया जायेगा।

– कार्ल मार्क्स, ‘फ्रांस में वर्ग संघर्ष’ से

इस कम्युनिस्ट चेतना के बड़े पैमाने पर उत्पादन, और …बड़े पैमाने पर मनुष्यों के रूपान्तरण दोनों के लिए, …क्रान्ति आवश्यक है; और इसी वज‍ह के लिए, यह क्रान्ति महज़ इसलिए आवश्यक नहीं है क्योंकि शासक वर्ग को किसी अन्य तरीक़े से उखाड़ फेंकना सम्भव नहीं, बल्कि इसलिए भी क्योंकि उसे उखाड़ फेंकने वाला वर्ग केवल क्रान्ति में ही अपने आप को सदियों की तमाम गन्दगी से मुक्त कर सकता है और नये समाज की नींव रखने के लिए तैयार हो सकता है।

– कार्ल मार्क्स, ‘जर्मन विचारधारा’ (1845)

मज़दूर बिगुल, मई 2021


 

‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्‍यता लें!

 

वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये

पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये

आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये

   
ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीऑर्डर के लिए पताः मज़दूर बिगुल, द्वारा जनचेतना, डी-68, निरालानगर, लखनऊ-226020 बैंक खाते का विवरणः Mazdoor Bigul खाता संख्याः 0762002109003787, IFSC: PUNB0185400 पंजाब नेशनल बैंक, निशातगंज शाखा, लखनऊ

आर्थिक सहयोग भी करें!

 
प्रिय पाठको, आपको बताने की ज़रूरत नहीं है कि ‘मज़दूर बिगुल’ लगातार आर्थिक समस्या के बीच ही निकालना होता है और इसे जारी रखने के लिए हमें आपके सहयोग की ज़रूरत है। अगर आपको इस अख़बार का प्रकाशन ज़रूरी लगता है तो हम आपसे अपील करेंगे कि आप नीचे दिये गए बटन पर क्लिक करके सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग भी करें।
   
 

Lenin 1बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।

मज़दूरों के महान नेता लेनिन

Related Images:

Comments

comments