कोरोना वायरस और भारत की बीमार सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाएँ
– डॉ. नवमीत
आज नोवल कोरोना वायरस (SARS CoV 2) ने पूरे विश्व में कहर बरपा रखा है। चीन के वुहान शहर में पहली बार सामने आया यह वायरस “कोरोना वायरस बीमारी 19” (COVID 19) नाम की बीमारी करता है। चीन से दक्षिण कोरिया, इटली समेत पूरे यूरोप और अमेरिका होता हुआ यह वायरस अब भारत में भी आ धमका है। पिछले साल 17 नवम्बर को इसका पहला केस सामने आया था। उसके बाद से अब तक पूरी दुनिया में 1 लाख 45 हज़ार से ज़्यादा केस सामने आ चुके हैं, जिनमें से 5000 से ज़्यादा लोगों की मृत्यु हो चुकी है। मरने वालों में ज़्यादातर लोग चीन के हैं और ज़्यादातर वे हैं जो या तो 60 साल से ज़्यादा आयु के थे या फिर जिनको कोई गम्भीर बीमारी जैसे डायबिटीज़, टीबी, हृदय रोग या श्वास रोग पहले से थे।
जब चीन में यह शुरू हुआ तो चीन की सरकार हरकत में आयी और अब 4 महीने के बाद चीन ने इस पर काफ़ी हद्द तक क़ाबू पा लिया है। लेकिन वायरस यहाँ नहीं रुका। इसके बाद इसने एशिया के दूसरे देशों और यूरोप व अमेरिका में कहर ढाना शुरू कर दिया। वहाँ भी स्वास्थ्य विभाग और सरकारें इसे रोकने के लिए ज़ोर लगा रही हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी पूरी दुनिया में हाई अलर्ट घोषित कर दिया है। पूरी दुनिया के वैज्ञानिक और डॉक्टर इसके इलाज के लिए दवाई और बचाव के लिए टीका बनाने पर जुटे हुए हैं जिसमें अभी तक सफलता नहीं मिली है। उम्मीद है कि टीका व दवा बना ली जायेगी। लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि तब तक यह दुनिया की काफ़ी बड़ी जनसंख्या को संक्रमित कर देगा और काफ़ी मौतें होंगी। हालांकि ज़्यादातर लोग, कुछ विशेषज्ञों के अनुसार कुल संक्रमितों का 99 फ़ीसदी, मौत से बच जायेंगे। लेकिन जितनी बड़ी आबादी के इसकी चपेट में आने का ख़तरा है, उसके अगर 1 प्रतिशत हिस्से की भी मौत होती है तो भी यह बहुत बड़ी संख्या होगी। चीन में इसकी मृत्यु दर 3-4 फ़ीसदी थी और हो सकता है कि अन्तिम आँकड़े आने पर दुनिया के दूसरे हिस्सों में भी यही मृत्यु दर मिले या फिर हो सकता है कि यह दर एक फ़ीसदी से भी कम हो। अभी पक्के तौर पर कुछ कहा नहीं जा सकता।
अब सवाल ये भी उठता है कि यह वायरस आख़िर आया कहाँ से? कुछ विशेषज्ञों का मत है कि यह वायरस प्रकृति के अन्धाधुन्ध दोहन का नतीजा है। इनके अनुसार पहले सिर्फ़ जंगली जानवरों में होने वाला यह वायरस मनुष्यों में इसलिए आया है क्योंकि मुनाफ़े के लिए इन जानवरों के प्राकृतिक आवासों को नष्ट करके वहाँ अतिक्रमण किया गया जिसकी वजह से यह वायरस वहाँ से मनुष्यों की आबादी में प्रविष्ट हुआ है। कुछ अन्य लोगों का कहना है कि इसे जैव हथियार के तौर पर किसी साम्राज्यवादी देश ने बनाया है। हालांकि इसकी सम्भावना कम होते हुए भी सम्भावना तो है ही। बहरहाल कारण जो भी हो, एक बात तय है कि इस वायरस का मानव में संक्रमण मुनाफे़ की हवस का नतीजा है।
अब संक्रमण हुआ तो हुआ, लेकिन इसने सिर्फ़ एक या दो व्यक्तियों को संक्रमित करके नहीं छोड़ा, बल्कि यह बहुत तेजी से मानव आबादी में फैलने लग गया। यह भी शुरुआत मात्र है, अभी यह और फैलेगा। और जब वह स्थिति आयेगी तब हमारे पास इससे निपटने के साधन नहीं होंगे। चीन ने तो इसे रोक भी लिया है, जैसा कि रिपोर्टें आ रही हैं, लेकिन भारत यूरोप, अमेरिका या चीन नहीं है। यहाँ इसका रुकना और भी मुश्किल नज़र आ रहा है। हालांकि सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं का हाल चीन या अमेरिका में भी बहुत अच्छा नहीं है। परन्तु भारत में तो यह हाल बद से बदतर है। भारत में डॉक्टरों की भारी कमी है। नर्सों की भारी कमी है। अस्पतालों की भारी कमी है। इलाज के लिए ज़रूरी उपकरणों की कमी है। दवाओं की कमी नहीं है लेकिन दवाएँ महँगी इतनी हैं कि आम आबादी की पहुँच से बाहर हैं। नब्बे के दशक में शुरू हुए नवउदारीकरण ने तो हर सेक्टर की तरह हेल्थ सेक्टर की भी कमर तोड़ दी है। अब सरकार पब्लिक प्राइवेट पार्टरनशिप के नाम पर बचे खुचे स्वास्थ्य सेवा तंत्र का भी निजीकरण करने पर उतारू है। देश में दुनिया भर के कॉर्पोरेट और प्राइवेट अस्पताल हैं, लेकिन इनमें इलाज इतना महँगा है कि ग़रीब तो क्या आम मध्यवर्गीय आदमी भी इलाज से पहले सौ बार सोचता है। सरकारी में कुछ मिलता नहीं है। उदाहरण के तौर पर कुछ साल पहले हरियाणा सरकार ने मुख्यमंत्री मुफ़्त इलाज योजना शुरू की थी जिसके तहत हर सरकारी अस्पताल में मुफ़्त इलाज, जाँच व दवाएँ हर मरीज़ को मिलनी थी। कुछ समय के बाद इस योजना को ठण्डे बस्ते में डाल दिया गया क्योंकि सरकार के पास फण्ड नहीं थे। पूँजीपतियों को बेल आउट पैकेज देने के लिए सरकार के पास फण्ड पता नहीं कहाँ से आ जाते हैं। इस तरह की बीमारियों से बचने और लड़ने के लिए स्वास्थ्य सेवाओं का सही हालत में होना बहुत ज़रूरी है। लेकिन भारत में सबसे ख़राब स्वास्थ्य सेवाएँ ही हैं। स्वास्थ्य पर जीडीपी का कम से कम 5 प्रतिशत लगाया जाना चाहिए, लेकिन भारत सरकार डेढ़ प्रतिशत के आसपास ही लगाती है। एल्मा ऐटा कॉन्फ्रेंस (1978) में दुनिया के तमाम देशों की तरह भारत ने भी सन 2000 तक सब नागरिकों को स्वास्थ्य सेवाएँ देने का संकल्प लिया था। अब सन 2000 को गये हुए भी 20 साल हो गये हैं लेकिन सब नागरिकों को स्वास्थ्य सेवाएँ नहीं मिली, बल्कि जो थोड़ी बहुत थी उनका भी निजीकरण हो रहा है। आज हाल यह है कि कहाँ तो सभी नागरिकों को स्वास्थ्य सेवाएँ मिलनी थी और कहाँ नागरिकता पर ही संकट आया हुआ है।
यह वायरस अमीर, ग़रीब, हिन्दू, मुस्लिम, सवर्ण, अवर्ण का भेद नहीं करता। लेकिन हमारे देश की चिकित्सा व स्वास्थ्य सेवाएँ यह भेद करती हैं। ऐसे में अगर यह वायरस महामारी का रूप धारण करता है (जिसकी सम्भावना भी है) तो इसकी मार सबसे ज़्यादा मेहनतकश वर्ग पर पड़ेगी। क्योंकि यही वह वर्ग है जिसका स्वास्थ्य सरकार की प्राथमिकता पर कभी नहीं रहता। बात सिर्फ़ कोरोना वायरस की नहीं है, स्वाइन फ्लू, डेंगू, जापानी बुखार, आप कोई भी संक्रामक रोग ले लीजिए, यही वर्ग सबसे ज़्यादा भुगतता है। अब अगर यह स्थिति आती है तो जो भी इससे हताहत होंगे वे सब इस व्यवस्था का ही शिकार होंगे। भारत सरकार ने इस बीमारी को इमरजेंसी घोषित कर दिया है लेकिन असली इमरजेंसी, जो इस इमरजेंसी का कारण है वो है व्यवस्था जो लोगों को बचाव व निदान की सुविधाएं नहीं प्रदान कर सकती। उस तरफ़ ध्यान देना ज़रूरी है।
फ़िलहाल के लिए बीमारी से बचाव में ही भलाई है। बार-बार साबुन पानी से हाथ धोना, खाँसते-छींकते वक़्त मुँह नाक को ढँकना, मुँह-आँख-नाक को छूने से बचना, लोगों से दूरी बनाकर रखना, हाथ मिलाने से परहेज़ करना व बीमार होने की स्थिति में डॉक्टर से सम्पर्क करना ज़रूरी उपाय हैं जो हमें करने चाहिए। हालांकि अधिकतर लोगों को यह बहुत हल्के लक्षण देगा लेकिन हल्के लक्षण वाले लोगों से भी इसके फैलने का ख़तरा उतना ही है जितना गम्भीर बीमारों से है। बल्कि उससे भी ज़्यादा है क्योंकि गम्भीर बीमार तो घर पर या अस्पताल में भर्ती रहेंगे। जबकि हल्के लक्षण वाले लोगों को बाहर जाकर हर तरह के काम भी करने पड़ेंगे। इससे खु़द का बचाव करना सिर्फ़ खु़द के लिए नहीं है, बल्कि दूसरों के लिए भी है। बहुत सम्भव है कि आपको यह वायरस हल्के लक्षण देकर चला जाये, लेकिन यह भी बहुत सम्भव है कि आपसे यह किसी ऐसे व्यक्ति को लग जाये जिसमें यह गम्भीर बीमारी कर दे। बीमारी का चरित्र सामाजिक है। इससे बचाव भी सामाजिक ही हो सकता है। इसके साथ ही यह भी सोचना चाहिए कि क्यों वायरस को कंटेन करने में दिक़्क़त हो रही है? क्यों मेहनतकश वर्ग को इससे ज़्यादा ख़तरा है? क्यों इस वर्ग का स्वास्थ्य सरकार की प्रायोरिटी पर नहीं है? कैसे यह व्यवस्था इस तरह की महामारियों के लिए ज़िम्मेदार होती है? कैसे इस तरह की महामारियों को रोका जा सकता है? सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली एक बड़ा कारण होगा, अगर यह वायरस महामारी बनता है तो। अन्ततः हमारी माँग सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की दुरुस्ती और सार्वभौमिक स्वास्थ्य सेवा के लिए ही होनी चाहिए, जिसके तहत देश के हर नागरिक को विश्व स्तर की बेहतरीन स्वास्थ्य सेवाएँ बिना किसी भेदभाव के मिलें।
‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्यता लें!
वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये
पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये
आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये
आर्थिक सहयोग भी करें!
बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।
मज़दूरों के महान नेता लेनिन